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Theories of learning - अधिगम या सीखने के सिद्धांत
Aug 31, 2022   Ritu Suhag

Theories of learning(अधिगम या सीखने के सिद्धांत)

सीखने की प्रक्रिया कैसे सम्पन्न होती है ? हम कैसे सीखते हैं ?एक बालक गणित के प्रश्नों को हल करना कैसे सीखता है ?एक लड़की खाना बनाना और कपड़े सीना कैसे सीख जाती है ?इस प्रकार के अनेक प्रश्न हैं जिनके उत्तर के लिए सीखने की प्रक्रिया का गम्भीर अध्ययन आवश्यक है । मनोवैज्ञानिकों ने इस दिशा में बहुत प्रयत्न किए हैं और परिणामस्वरूप सीखने सम्बन्धी कुछ सिद्धान्तों को जन्म दिया है । इनमें से प्रत्येक सिद्धान्त अपने ढंग से सीखने की प्रकृति और प्रक्रिया पर प्रकाश डालता है । इस प्रकार से सीखने के सिद्धान्त कैसे सीखा जाता है,इस बात को स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं ।इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर सीखने सम्बन्धी विभिन्न नियम और तकनीकों का निर्माण होता है और इस तरह इन सिद्धान्तों पर चलने से सीखने का कार्य आसान हो जाता है।इसी कारणवश सीखने के सिद्धान्तों में प्रायः सीखने की विधियों की झलक देखने को मिलती है।

सीखने के सिद्धान्तों का वर्गीकरण (Classification of Learning Theories) -सीखने के आधुनिक सिद्धान्तों को निम्नलिखित दो मुख्य श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है :

(A) व्यवहारवादी साहचर्य सिद्धान्त (Behavioural Associationist Theories)

(B) ज्ञानात्मक एवं क्षेत्र संगठनात्मक सिद्धान्त (Cognitive Organisational Theories) 

विभिन्न उद्दीपनों के प्रति सीखने वाले की विशेष अनुक्रिया होती है । इन अनुक्रियाओं के साहचर्य से उसके व्यवहार में जो परिवर्तन आते हैं उनकी व्याख्या करना ही पहले प्रकार के सिद्धान्तों का उद्देश्य है । इस प्रकार के सिद्धान्तों के प्रमुख प्रवर्तकों में थोर्नडाइक, वाटसन और पावलोव तथा स्किनर का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। जहां थोर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित विचार प्रणाली को संयोजनवाद (Connectionism) के नाम से जाना जाता है वहां वाटसन और पावलोव तथा स्किनर की प्रणाली को अनुबन्धन या प्रतिबद्धता (Conditioning) का नाम दिया गया है।

दूसरे प्रकार के सिद्धान्त सीखने को, उस क्षेत्र में जिससे सीखने वाला और उसका परिवेश शामिल होता है, आए हुए परिवर्तनों तथा सीखने वाले के इस क्षेत्र के प्रत्यक्षीकरण किए जाने के रूप में देखते हैं । ये सिद्धान्त सीखने की प्रक्रिया में उद्देश्य (Purpose), अन्तर्दृष्टि (Insight) और सूझबूझ (Understanding) के महत्त्व को प्रदर्शित करते हैं । इस प्रकार सिद्धान्तों के मुख्य प्रवर्तकों में वर्देमीअर (Wertheimer), कोहलर (Kohler), कोफका (Kofka) और और लैविन (Lewin) के नाम उल्लेखनीय हैं ।

इन दो प्रकारों के सिद्धान्तों के अतिरिक्त आज सूचना प्रक्रियाकरण सिद्धान्तों (Information Processing Theories) तथा मानवतावादी सिद्धान्तों पर भी काफी बल दिया जाने लगा है। इन के बारे में भी कुछ जानकारी हम यहाँ इस अध्याय में लेना चाहेंगे।विभिन्न प्रकार के ये सभी सिद्धान्त सीखने की प्रकृति और प्रक्रियाएं अपने-अपने दृष्टिकोण से समझाने का प्रयास करते हैं ।इनमें से कोई भी सिद्धान्त सीखने की प्रक्रिया को पूरी तरह से स्पष्ट नहीं कर पाता, प्रत्येक आंशिक रूप से ही इसके बारे में कुछ कहता है। जहां एक सिद्धान्त द्वारा किसी एक परिस्थिति में सीखने की प्रक्रिया समझ आ जाती है वहां वही सिद्धान्त अन्य परिस्थितियों में सम्पन्न होने वाली सीखने की प्रक्रिया को समझाने में सफल नहीं हो पाता । अतःविभिन्न सिद्धान्तों के सम्मिलित ज्ञान द्वारा ही सीखने के बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए हम कुछ मुख्य सिद्धांतो की चर्चा करेंगें।

शास्त्रीय अनुबन्धन का सिद्धान्त (Theory of Classical Conditioning)

कुत्ते, चूहे, बिल्ली आदि प्राणियों पर किए गए अपने विभिन्न प्रयोगों द्वारा वाटसन और पैवलीव जैसे मनोवैज्ञानिकों ने अधिगम प्रक्रिया को समझने के लिए अनुबन्धित या प्रतिबद्ध अनुक्रिया नामक सिद्धान्त (Conditioned Response Theory) को जन्म दिया । इस सिद्धान्त को साधारण रूप में अनुबन्धन द्वारा सीखना(Learning by Conditioning) कहा जाता है। अनुबन्धन का प्राचीनतम रूप होने के कारण इसे शास्त्रीय विशेषण भी प्रदान किया जाता है और फलस्वरूप इस प्रकार के अधिगम को शास्त्रीय अनुबन्धन का नाम भी दिया जाता है। अनुबन्धन क्या है और यह सिद्धान्त क्या कहता है,यह समझने के लिए इन मनोवैज्ञानिकों द्वारा किए जाने वाले कुछ प्रयोगों को समझना अधिक उचित होगा।

पैवलोव द्वारा किया गया एक प्रयोग (Experiment by Pavlov)- पैवलोव द्वारा किए गए एक प्रयोग में एक कुत्ते को भूखा रख कर उसे प्रयोग करने वाली मेज़ के साथ बांध दिया गया । इस कुत्ते की लार ग्रन्थियों का आपरेशन कर दिया गया ताकि उसकी लार की बूंदों को परख नली में एकत्रित करके लार की मात्रा भी मापी जा सके।स्वतः चालित यांत्रिक उपकरणों की सहायता से कुत्ते को भोजन देने की व्यवस्था थी।प्रयोग का प्रारम्भ इस प्रकार किया गया कि घंटी बजने के साथ ही कुत्ते के सामने भोजन प्रस्तुत किया गया । भोजन को देख कर कुत्ते के मुंह में लार आना स्वाभाविक ही था।इस लार को कांच की नली द्वारा परख नलिका में एकत्रित किया गया।इस प्रयोग को कई बार दोहराया गया और एकत्रित लार की मात्रा की माप ली जाती रही।प्रयोग के आखिरी चरण में भोजन न देकर केवल घंटी बजाने की व्यवस्था की गई इस अवस्था में भी कुत्ते के मुंह में लार टपकी जिसकी मात्रा की माप की गई। इस प्रयोग के द्वारा यह देखने को मिला कि भोजन सामग्री जैसे प्राकृतिक उद्दीपन (Natural Stimulus) के अभाव में भी घंटी बजने जैसे कृत्रिम उद्दीपन (Artificial stimulus) के प्रभाव स्वरूप कुत्ते ने लार टपकाने जैसी स्वाभाविक अनुक्रिया (Natural Response) व्यक्त की।इस प्रयोग में कुत्ते ने यह सीखा कि जब घंटी बजती है तब खाना मिलता है। सीखने के इसी प्रभाव के कारण घंटी बजने पर उसके मुंह से लार निकलनी प्रारम्भ हो जाती है। पैवलोव ने इस प्रकार के सीखने को अनुबन्धन द्वारा सीखना (Learning by conditioning) कहा । इस प्रकार के सीखने में किसी प्राकृतिक उद्दीपन (Natural Stimulus) जैसे भोजन, पानी, लैंगिक संसर्ग (Sexual contact) आदि के साथ एक कृत्रिम उद्दीपन (Artificial Stimulus) जैसे घंटी की ध्वनि, कोई रंगीन प्रकाश, आदि प्रस्तुत किया जाता है। कुछ समय बाद जब प्राकृतिक उद्दीपन को हटा लिया जाता है तो यह देखा जाता है कि कृत्रिम उद्दीपन से भी वही अनुक्रिया होती है जो प्राकृतिक उद्दीपन से होती है। इस प्रकार अनुक्रिया (Response) कृत्रिम उद्दीपन के साथ अनुबन्धित (Conditioned) हो जाती है ।

वाटसन द्वारा किया गया प्रयोग (Experiment Performed by Watson)- वाटसन नामक मनोवैज्ञानिक ने स्वयं अपने 11 माह के पुत्र अलबर्ट के साथ एक प्रयोग किया। उसे खेलने के लिए एक खरगोश दिया। बच्चे ने इसे बहुत पसन्द किया । विशेषकर उसके नरम-नरम बालों पर हाथ फेरना उसे बहुत अच्छा लगा । इसी प्रयोग के दौरान कुछ समय पश्चात् बच्चे ने जैसे ही खरगोश को छुआ, एक तरह की डरावनी ध्वनि पैदा की गई और इस क्रिया को जब-जब वह खरगोश को छूता था बार-बार दोहराया गया । इसका परिणाम यह हुआ कि डरावनी आवाज़ के न किए जाने पर भी बच्चे को खरगोश को देखने से ही डर लगने लगा । इस तरह भय की अनुक्रिया खरगोश (कृत्रिम उद्दीपन) के साथ अनुबन्धित हो गई और इस अनुबन्धन के फलस्वरूप उसने खरगोश से डरना सीख लिया । प्रयोग को आगे बढ़ाने पर देखा गया कि बच्चा खरगोश से ही नहीं बिल्क ऐसी सभी चीजों जैसे (रुई के गोले, समूर का कोट आदि) से डरने लगा जिनमें खरगोश के बाल जैसी नरमी और कोमलता हो ।

ऐसे प्रयोगों के आधार पर वाटसन और पैवलोव आदि मनोवैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि सभी प्रकार की सीखने की क्रियाओं को अनुबन्धन प्रक्रिया (Process of conditioning) के माध्यम से अच्छी तरह समझा जा सकता है।

अनुबन्धन सिद्धान्त की शैक्षिक उपयोगिता (Educational Implication of the Theory of conditioning)

अनुबन्धन सिद्धान्त अपने आप को मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला की दुनिया तक ही सीमित नहीं रखता।सीखने-सिखाने के व्यावहारिक क्षेत्र में भी इस सिद्धान्त की उपयोगिता असंदिग्ध है जिसका अनुमान नीचे दिए हुए तथ्यों के आधार पर भली भांति हो सकता है।

1.अनुबन्धन के फलस्वरूप भय, प्रेम और घृणा आदि के भाव आसानी से जागृत किए जा सकते हैं।उदाहरण के तौर पर अगर एक सामान्य बच्चे के साथ गणित का एक अध्यापक अपनी कक्षा में ठीक व्यवहार नहीं करता,प्रायः वह बात-बात में उसकी खिल्ली उड़ाता है अथवा उसे मारता पीटता है। ऐसी अवस्था में धीरे-धीरे बच्चा उस अध्यापक, यहां तक कि उसके द्वारा पढ़ाए जा रहे विषय के प्रति भी घृणा एवं भय के भाव तथा अभिवृत्तियां विकसित कर लेता है ।

• दूसरी ओर,अध्यापक द्वारा बच्चों के साथ किया गया सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार और उसके पढ़ाने के रोचक एवं प्रभावपूर्ण तरीके के अनुबन्धन के फलस्वरूप बच्चों पर बहुत ही अच्छा प्रभाव पड़ता है वे विषय में रुचि प्रदर्शित करने लगते हैं तथा अध्यापक को भी स्नेह और आदर की दृष्टि से देखने लगते हैं।

2.अध्ययन-अध्यापन प्रक्रिया में दृश्य-श्रव्य सामग्री के प्रयोग द्वारा तरह-तरह की बातें सिखाने में अनुबन्ध सिद्धान्त को अच्छी तरह उपयोग में लाया जा सकता है। उदाहरण के लिए अगर बच्चे को कोई शब्द जैसे 'बिल्ली' कहना सिखलाना हो तो अध्यापक लिखे हुए शब्द, 'बिल्ली' के साथ उसका चित्र भी दिखाता है। अब जब लिखे हुए शब्द के साथ बिल्ली का चित्र दिखाया जाता है तो अध्यापक उसकी ओर इशारा करके 'बिल्ली' कहता है और बच्चे को भी बिल्ली कहने के लिए कहा जाता है ।कुछ समय पश्चात् बिल्ली का चित्र नहीं दिखाया जाता, केवल लिखा हुआ शब्द 'बिल्ली' दिखाया जाता है । चित्र न होने पर भी इस लिखे हुए शब्द को बच्चा बिल्ली कह कर सम्बोधित करता है और इस तरह बिल्ली कहने की अनुक्रिया कृत्रिम उद्दीपन, लिखे हुए शब्द के साथ अनुबन्धित हो जाती है और बच्चा अनुबन्धन क्रिया के परिणामस्वरूप बिल्ली कहना सीख जाता है ।

3. उचित आदतों, रुचियों, अभिरुचियों, अभिवृत्तियों, सौन्दर्यात्मक भावनाओं आदि के समुचित विकास में अनुबन्धन की प्रक्रिया अध्यापकों के लिए बहुत लाभदायक सिद्ध हो सकती है । इसकी सहायता से बच्चों को न केवल ठीक प्रकार से व्यवहार करना सिखाया जा सकता है बल्कि व्यवहार सम्बन्धी बहुत सी ग़लत आदतों, अभिवृत्तियों, अन्धविश्वासों, भय और मानसिक तनावों से पीछा छुड़ाने में भी यह सिद्धान्त बहुत मदद कर सकता है । एक बच्चा जो किसी वस्तु विशेष से डरता है उसी वस्तु से आनन्द प्राप्त करने के योग्य बनाया जा सकता है। दूसरे बच्चे की, जो बिल्ली द्वारा रास्ता काटने या अचानक किसी के छींक देने को अपशकुन मानता है ऐसे अन्धविश्वासों से छुटकारा दिलाने के कार्य में सहायता की जा सकती है। इस प्रकार से अनुबन्धन सिद्धान्त सीखने की विभिन्न प्रतिक्रियाओं में बच्चे की हर स्तर पर पूरी सहायता करता है और अध्यापक और माता-पिता को भी अपना कर्त्तव्य निभाने में पूरी-पूरी मदद कर सकता है।

Reference -uma Mangal and s.k.mangal


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