Pragmatism(प्रयोजनवाद)
भूमिका(Introduction)
प्रयोजनवाद दर्शनशास्त्र की वह शाखा है जो किसी चिरस्थायी सत्य को स्वीकार नहीं करती अपितु यह परिवर्तित परिस्थितियों के अनुसार ही सत्य को परिभाषित करने का समर्थन करती है।बेकन को प्रयोजनवाद का सर्वप्रथम प्रर्वतक माना जाता है एवं उसने विज्ञान को समाज का मार्गदर्शक बताया।लेकिन प्रयोजनवादी विचारधारा का विकास 19वीं शताब्दी में अमेरिका में हुआ।अमेरिका का चार्ल्स पियर्स(Charles Pierce) पहला व्यक्ति था जिसने दर्शन में प्रयोजनवाद की अवधारणा को शामिल किया।पियर्स के अनुसार वही विचार सत्य हैं जो प्रयोग की कसौटी पर खरे उतरें पियर्स के पश्चात् विलियम जेम्स,जॉन डीवी,किलपैट्रिक तथा शिलर आदि ने प्रयोजनवाद को बढ़ावा दिया एवं इसको सर्वप्रिय किया।
प्रयोजनवादी विचारधारा(Pragmatic Ideology)
इस विचारधारा का मूल आशय यह है कि यदि हम किसी भी विचार,मूल्य,कार्य अथवा सिद्धांत आदि को स्वीकार करना चाहते हैं तो वह तभी स्वीकार करने योग्य है जब कि उसकी कोई व्यावहारिक उपयोगिता हो।अगर उसकी कोई व्यावहारिक उपयोगिता नहीं है तो वह स्वीकार करने योग्य नहीं है।प्रयोजनवादी विचारधारा की यह प्रमुख मान्यता है कि किसी भी कार्य विशेष का मूल्य उसके द्वारा प्राप्त परिणामों के आधार पर ही आँका जा सकता है;अतः यह कहा जा सकता है कि यह वह दर्शन है जिसके अनुसार सिद्धांतों से संबंधित सत्यता का निर्णय तथ्यों तथा वस्तुओं के व्यावहारिक उपयोग एवं परिणामों के आधार पर होता है।प्रयोजनवादी दर्शन को कुछ अन्य नामों से भी जाना जाता है; जैसे व्यवहारवाद,कारणवाद अर्थ क्रियावाद,उपयोगितावाद,उपकरणवाद, प्रयोगवाद,फलकवाद,अनुभववाद,क्रियावाद,आदि।
प्रयोजनवाद शब्द की उत्पत्ति (origin of word pragmatism)
प्रयोजनवाद शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के 'Paramatikos' शब्द से मानी जाती है।Paramatikos शब्द Pragma एवं Pragmatos से निकला है जिसका अर्थ होता है-कार्य (Action),व्यावहारिक क्रिया(Practical) अथवा किया गया कार्य(work or thing done)। कुछ विचारक प्रयोजनवाद की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द pragmaticus से भी मानते हैं; जिसका अर्थ होता है-व्यावहारिकता
प्रयोजनवाद के समर्थक(Supporter of Pragmatism)
डीवी (John Deway),
डब्ल्यू.एच.किलपैट्रिक(W.H.Kilpatrick)मार्गरेट एच.मीड(Margaret H.Mead)
विलियम जेम्स(William James),
चार्ल्स पियर्स(Charles Pierce)
प्रयोजनवाद के प्रकार/रूप(Types/Forms of Pragmatism)
प्रयोजनवाद के प्रमुख प्रकार/रूप निम्नलिखित हैं
1.मानवतावादी प्रयोजनवाद(Humanistic Pragmatism): प्रयोजनवादी विचारधारा में सबसे ज्यादा लोकप्रिय मानवतावादी प्रयोजनवाद है।मानवतावादी प्रयोजनवाद के अनुसार संसार में वे ही वस्तुएँ एवं क्रियाएँ सत्य हैं जो मानव के लिए विशेष रुप से उपयोगी हैं।सत्य सदैव परिवर्तनशील है और यह मानव द्वारा निश्चित होता रहता है।मानवतावादी प्रयोजनवाद के समर्थकों का विचार है कि जो बात मेरे उद्देश्य को पूरा करती है,मेरी इच्छाओं की पूर्ति करती है अथवा संतुष्टि प्रदान करती है और जो मेरे जीवन का विकास करती है वही सत्य है।मानवतावादी प्रयोजनवादियों की इस श्रेणी में जेम्स को रखा जाता है।
2.प्रयोगवादी प्रयोजनवाद(Experimental Pragmatism): प्रयोगवादी प्रयोजनवाद का आधार 'विज्ञान की प्रयोगशाला' से संबंधित है।इस वाद की अवधारणा के अनुसार- वही बात सत्य है जिसे प्रयोग के द्वारा सत्य सिद्ध किया जा सकता है अर्थात् प्रयोगवादी प्रयोजनवाद उस वस्तु को सत्य मानता है जिसको प्रयोग द्वारा सिद्ध किया जा सकता है।सत्य की यह अवधारणा विभिन्न विज्ञानों द्वारा प्रयोग में लाई जाती है।
3.नामरूपवादी प्रयोजनवाद(Nominalistic Pragmatism):इस वाद के समर्थक इस बात (सत्य) पर बल देते हैं कि जब हम प्रयोग करते हैं तो भावी परिणाम हमारे मस्तिष्क में आने अथवा घूमने लगते हैं और ये विचार मुख्य रुप से किसी दृश्य परिणाम के प्रतीक होते हैं।नामरूपवादी प्रयोजनवादियों के अनुसार प्रयोगकर्त्ता का दृष्टिकोण आशावादी एवं खोजपूर्ण होता है तथा सभी परिणाम सदैव वास्तविक होते हैं।
4.जीव-विज्ञानवादी/जीव-शास्त्रीय प्रयोजनवाद(Biological Pragmatism):प्रयोजनवाद का यह रूप मनुष्य को एक मनोशारीरिक प्राणी मानता है।मनुष्य के पास बुद्धि एवं मस्तिष्क है जिसके कारण ही वह न केवल अपने आपको पर्यावरण के अनुकूल बनाता है अपितु पर्यावरण को भी अपने अनुकूल बनाने में समर्थ होता है।इस विचारधारा के समर्थकों का मत है कि सत्य वही है जिसे हम विचार करने के बाद स्वीकार करते हैं।अतःयह वाद व्यक्ति (मनुष्य) के विचार को उसके पर्यावरण के साथ उचित एवं संतुलित अनुकूलन करने का साधन मानता है।
प्रयोजनवाद के मूल सिद्धांत/तत्त्व(Main Prinicples/Components of Pragmatism)
1.यह संसार अनेक तत्त्वों से निर्मित है।
2.यह संसार सदैव निर्माण की अवस्था में रहता है।
3.वास्तविकता अभी निर्माण की अवस्था में है।
4.भौतिक संसार ही सत्य है और इसके अतिरिक्त कोई अन्य संसार नहीं;क्योंकि यह व्यक्ति के उद्देश्यों को पूरा करता है।
5.प्रयोगों में विश्वास अर्थात् सत्य का मूल्य प्रयोगों के द्वारा निर्धारित किया जाता है।
6.संसार में किसी की भी सार्वभौमिक सत्ता नहीं है।
7.मानवीय अनुभव को वास्तविकता का केन्द्र मानता है।
8.आत्मा एक क्रियाशील तत्त्व है।
9.जीवन के मूल्य एवं सत्य निरंतर बदलते रहते हैं।
10.सामाजिक कल्याण एवं मानवीय समस्याओं को हल करना अर्थात् मानववाद में आस्था ।
11.विचार की अपेक्षा क्रिया को महत्त्व अर्थात् क्रिया प्रधान एवं विचार गौण हैं। 12.मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है।
13.मनुष्य का प्रमुख उद्देश्य सुखपूर्वक जीना है इसलिए उसे सामाजिक कुशलता से संबंधित गुण प्राप्त करने चाहिए।
14.राज्य एक सामाजिक संस्था है और व्यक्ति का विकास सामाजिक संस्था के अभाव में असंभव है।
15.सामाजिक आदर्शों एवं प्रजातान्त्रिक मूल्यों में विश्वास।
16.लचीलेपन में विश्वास अर्थात् परिवर्तन प्रकृति का नियम है।संसार में कोई वस्तु स्थिर और अंतिम नहीं है।
17.वर्तमान एवं तात्कालिक भविष्य में विश्वास।
18.व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए समाज अनिवार्य है।
19.कोई भी वस्तु हमेशा के लिए सत्य या अच्छी नहीं होती।
20.कार्यशीलता,संतुष्टि परिणाम एवं निष्कर्ष प्रयोजनवाद की सत्य की अवधारणा के मूल आधार हैं।
प्रयोजनवाद की प्रमुख विशेषताएँ(Main Characteristic of Pragmatism)
1.परम्पराओं,मान्यताओं एवं रुढ़ियों का विरोधी ।
2.व्यक्ति के सामाजिक जीवन पर उचित बल।
3.क्रिया को सर्वोच्च स्थान प्रदान करना अर्थात् विचारों को क्रिया के अधीन मानना।
4.शाश्वत मूल्यों का बहिष्कार अर्थात् किसी निश्चित अथवा शाश्वत सत्य,मूल्य अथवा सिद्धांत की सत्ता को स्वीकार न करना ।
5.मूल्यों का निर्माण व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप करता है।
6.ईश्वरीय सत्ता को स्वीकार न करना अर्थात् किसी सार्वभौमिक सत्ता आस्था अथवा विश्वास का न होना।
7.उपयोगिता सिद्धांत पर बल
8.सत्य काल एवं परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है।
9.प्रयोजनवाद के अनुसार मनुष्य एक मनोशारीरिक प्राणी है एवं (मनुष्य को) विचार एवं क्रिया करने की शक्तियाँ प्राप्त हैं।
प्रयोजनवाद एवं शिक्षा के कार्य
(Pragmatism and Functions of Education)
1.मानव का कल्याण करना।
2.बालक को सामाजिक दृष्टि से परिपक्व एवं विकसित बनाना ।
3.बालक में परिवर्तित परिवेश(वातावरण) को समझने की क्षमता उत्पन्न करना।
4.बालक की रुचियों,मूलप्रवृत्तियों एवं योग्यताओं का विकास करना
5.व्यक्ति को सामाजिक रुप से कुशल बनाना।
6.शिक्षा के माध्यम से छात्र को अधिक से अधिक क्रियाशील बनाए
7.बालक के अन्दर बुनियादी शिल्पों का विकास करना
8.छात्रों के अन्दर सामाजिक कुशलता एवं लोकतान्त्रिक गुणों का विकास करना।
9.छात्रों में स्वयं के अनुभवों के आधार मूल्य एवं आदर्शों को निश्चित करने से संबंधित क्षमता का विकास करना।
प्रयोजनवाद एवं शिक्षा के उद्देश्य(Pragmatism and Aims of Education)
प्रयोजनवादी शिक्षा के कोई उद्देश्य निर्धारित नहीं करते।उनका मत है कि शिक्षा के कोई निश्चित मूल्य एवं आदर्श नहीं होते।इसी संदर्भ में जॉन डीवी का मत है कि "शिक्षा के कोई उद्देश्य नहीं होते, उद्देश्य तो केवल व्यक्तियों के होते हैं और व्यक्तियों के उद्देश्य भी भिन्न-भिन्न होते हैं। जैसे-जैसे बालक/व्यक्ति का विकास होता होता जाता है,वैसे-वैसे उद्देश्य भी बदल जाते हैं।प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य उसकी प्रक्रिया में निहित होते हैं न कि भविष्य में प्राप्त किए जाने वाले किसी लक्ष्य में।इसी संदर्भ में प्रयोजनवाद से संबंधित कुछ उद्देश्यों का वर्णन निम्नलिखित हैं
1.बालक/व्यक्ति में सामाजिक कुशलता का विकास करना।
2.बालक के अन्दर एक गतिशील एवं लचीले मस्तिष्क का विकास करना।
3.लोकतान्त्रिक मूल्यों एवं आदर्शों का विकास करना
4.बालक के सामाजिक समायोजन में सुधार करना।
5.स्वयं के लिए नवीन मूल्यों का निर्माण करना।
6.बालकों को अनुभव प्राप्त करने से संबंधित शैक्षिक वातावरण की स्थापना करना।
7.शिक्षा के द्वारा बालक/व्यक्ति को अधिकतम विकास करने के योग्य बनाना।
8.छात्रों को जीवन से संबंधित उचित प्रशिक्षण प्रदान करना।
9.वर्तमान जीवन की मूल्यवान एवं समृद्ध बनाना
10.शिक्षा के माध्यम से छात्रों में वातावरण के साथ समायोजन करने की योग्यता का विकास करना।
11.बालक को व्यावसायिक योग्यता प्रदान करके सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम बनाना।
प्रयोजनवाद एवं पाठ्यक्रम(Pragmatism and Curriculum)
प्रयोजनवादी विचारधारा पाठ्यक्रम को ज्ञान केन्द्रित न मानकर अनुभव केन्द्रित मानती है।प्रयोजनवादी इस बात में विश्वास रखते हैं कि अनुभव के द्वारा सभी प्रकार का ज्ञान अर्जित किया जा सकता है।पाठ्यक्रम के संदर्भ में जॉन डीवी का विचार है कि पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जिससे कि बालक का सम्पूर्ण विकास हो सके।प्रयोजनवादी पाठ्यक्रम में निम्न विषयों का समावेशन करते हैं(1)भाषा. (2)इतिहास,(3)भूगोल,(4)स्वास्थ्य शिक्षा,(5)विज्ञान,(6)गणित,(7)स्वास्थ्य विज्ञान,(8)शारीरिक प्रशिक्षण,(9)कृषि विज्ञान,(10)वस्त्र निर्माण,(11)बालिकाओं के लिए गृह विज्ञान आदि।
उपरोक्त विषयों के अतिरिक्त प्रयोजनवादी इस बात पर बल देते हैं कि किसी भी पाठ्यक्रम के निर्माण में निम्नलिखित सिद्धांतों का समावेशन होना (करना)चाहिए।जिससे की बालक का समग्र विकास हो सके। इन सिद्धांतों में शामिल हैं
1.उपयोगिता का सिद्धांत(Principle of Utility)
2.एकीकरण का सिद्धांत(Principle of Integration)
3.अनुभव का सिद्धांत(Principle of Experience)
4.बालक की रुचि का सिद्धांत(Principle of Child's Interest)
5.क्रिया का सिद्धांत(Principle of Activity)
प्रयोजनवाद एवं शिक्षण विधियाँ(Pragmatism and Methods of Teaching)
प्रयोजनवादी शिक्षण विधियों के संदर्भ में नवीन विचार रखते हैं।वे परम्प एवं घिसी-पिटी विधियों के स्थान पर नवीन विधियों के प्रयोग पर बल देते हैं।उनके अनुसार शिक्षण विधियाँ बालकों के वास्तविक जीवन से संबंधित एवं परिस्थितियों के अनुरूप होनी चाहिए।विधि के चयन एवं प्रयोग में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए कि विधि छात्र एवं अध्यापक दोनों में ही सक्रियता उत्पन्न करे। इस संदर्भ में प्रयोजनवादी योजना विधि(Project Method) एव प्रायोगिक विधि(Experimental Method) को विशेष महत्त्व प्रदान करते हैं।
योजना विधि के अन्तर्गत योजना का चयन करना,योजना से संबंधित लक्ष्यों का निर्धारण करना,योजना से संबंधित कार्यक्रम तैयार करना,योजना का क्रियान्वयन करना एवं योजना का मूल्यांकन आदि सम्मिलित होते हैं। प्रयोजनवाद इस बात पर विश्वास नहीं रखता कि बालक दूसरे के द्वारा दिए गए ज्ञान को प्राप्त करें बल्कि वह बालक के स्वयं के ज्ञान पर बल देता है।शिक्षण विधियों के संदर्भ में प्रयोजनवादी अपने कुछ विचार निम्न प्रकार प्रस्तुत करते हैं
1.समन्वय एवं एकीकरण के माध्यम से सीखना।
2.करके अथवा अनुभव के द्वारा सीखना।
3.वास्तविक जीवन से संबंधित शिक्षण विधियों में अनुरूप सीखना।
4.उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया के अनुरूप सीखना।
5.प्रत्यक्ष ज्ञान एवं व्यावहारिक रुप में सीखना
प्रयोजनवाद एवं शिक्षक(Pragmatism and Teacher)
प्रयोजनवादी शिक्षक के संदर्भ में निम्न अवधारणा को प्रस्तुत करते हैं
1.अध्यापक छात्रों में रुचियों का विकास करने वाला होना चाहिए।
2.अध्यापक का कार्य एक पथ-प्रदर्शक का होना चाहिए।
3.अध्यापक छात्रों को क्रियाओं के प्रति प्रेरित करने वाला होना चाहिए।
4.अध्यापक एक सहयोगी एवं मित्र के रुप में होना चाहिए।
5.अध्यापक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने एवं मदद करने वाला होना चाहिए।
6.अध्यापक छात्रों में नवीन दृष्टिकोण विकसित करने वाला होना चाहिए।
7.अध्यापक छात्रों से उचित सहानुभूति एवं व्यक्तिगत सम्पर्क रखने वाला होना चाहिए।
8.अध्यापक सदैव क्रियाशील एवं अन्तर्दृष्टि एवं दूरदृष्टि वाला होना चाहिए।
9.अध्यापक में बच्चों के शिक्षण के लिए विभिन्न प्रकार की परिस्थितियाँ उत्पन्न करने की क्षमता होनी चाहिए।
10.अध्यापक का स्थान 'पर्दे के पीछे की अवधारणा' के अनुरूप होना चाहिए। 11.अध्यापक बालकों को स्वावलम्बी एवं सही निर्णय लेने में समर्थ बनाने वाला होना चाहिए।
12.अध्यापक बुद्धिमान,कुशल एवं ज्ञानी होना चाहिए।
प्रयोजनवाद एवं छात्र(Pragmatism and Student)
1.बालक एक अनुयायी न होकर सृजनकर्ता होता है।
2.बालक अपने मूल्यों का निर्माता स्वय है।
3.प्रत्येक बालक के अपने विचार एवं रुचियाँ हैं।
4.प्रत्येक बालक को शैक्षिक स्वतन्त्रता प्रदान की जानी चाहिए।
5.शिक्षा द्वारा छात्र को जीवन से संबंधित प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिए।शिक्षा बच्चे के मनोविज्ञान पर आधारित होनी चाहिए एवं उससे उसके व्यक्तित्व का उचित विकास होना चाहिए।
प्रयोजनवाद एवं अनुशासन(Pragmatism and Discipline)
प्रयोजनवादी अनुशासन के संदर्भ में शारीरिक दंड का विरोध करते हैं।इस विचारधारा के अनुसार अनुशासन एक मानसिक अभिवृत्ति है और यह काफी हद तक आंतरिक रूप से संबंधित होता है।शक्ति एवं आधिपत्य के आधार पर स्थापित किया गया अनुशासन क्षणिक होता है और इस प्रकार के अनुशासन के माध्यम से छात्रों के चरित्र का उचित विकास नहीं किया जा सकता है।अनुशासन के संदर्भ में प्रयोजनवादी विचारधारा को संक्षेप रुप में इस तरह व्यक्त किया जा सकता है
1.अनुशासन एक मानसिक अभिवृत्ति है।
2.अनुशासन आन्तरिक होना चाहिए।
3.शक्ति एवं आधिपत्य द्वारा स्थापित अनुशासन क्षणिक होता है।
4.अनुशासन आत्म-नियंत्रण से संबंधित अर्थात् आत्म-नियंत्रित होता है।
5.अनुशासन का अर्थ शारीरिक दंड कदापि नहीं होना चाहिए।
6.विभिन्न प्रकार की सहयोगी एवं सामाजिक क्रियाएँ अनुशासन को जन्म देती हैं।
7.अनुशासन का संबंध नैतिक एवं चारित्रिक क्रियाओं के प्रशिक्षण से है।
8.अनुशासन जिम्मेदारी की भावना पर आधारित होता है।
9.अनुशासन का उद्देश्य बालक में सामाजिक चेतना का विकास करना है।
प्रयोजनवाद एवं विद्यालय(Pragmatism and School)
प्रयोजनवादी विचारक शिक्षा को एक सामाजिक प्रक्रिया के रुप में देखते हैं और इस संदर्भ में वे विद्यालय की स्थापना पर विशेष बल देते हुए विद्यालय को समाज का एक लघु रूप मानते हैं।विद्यालय के संदर्भ में प्रयोजनवादी विचारधारा का स्पष्टीकरण निम्नलिखित है
1.शिक्षा के लिए विद्यालय अनिवार्य है।
2.विद्यालय समाज का एक लघु रूप है।
3.विद्यालय विभिन्न प्रकार के क्रिया-कलापों का एक स्थान है।
4.विद्यालय को समाज का उचित प्रतिनिधित्व करना चाहिए।
5.विद्यालय समाज का प्रतिबिम्ब होता है।
6.विद्यालय एक सामाजिक संस्था है।
7.विद्यालय सामुदायिक जीवन का एक केन्द्र है।
8.विद्यालय क्षमताओं के विकास का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है।
9.विद्यालय एक प्रयोगात्मक एवं नैतिक शिक्षा की संस्था है।
प्रयोजनवाद के गुण/लाभ(Merits/Advantages of Pragmatism)
1.बालक की स्वतन्त्रता पर बल
2.बाल केन्द्रित शिक्षा पर बल ।
3.ज्ञान के व्यावहारिक अनुप्रयोग पर बल।
4.शिक्षा में नवीन शिक्षण विधियों का प्रयोग
5.आत्म-अनुशासन को विशेष महत्त्व प्रदान करना।
6.विद्यालय को समाज में लघु रूप में स्वीकार करना।
7.शिक्षा प्रक्रिया में अध्यापक का विशेष स्थान ।
8.शिक्षा के माध्यम से नवीन मूल्यों एवं आदशों की प्राप्ति
9.लोकतांत्रिक मूल्यों के विकास पर उचित बल।
10.अनुभव केन्द्रित शिक्षा पर विशेष बल । 11.शिक्षा में सामाजिक एवं लोकतान्त्रिक दृष्टिकोण के विकास पर बल
12.शिक्षा के प्रत्येक क्षेत्र में निरन्तर प्रयोग में विश्वास।
13.प्रयोगात्मक एवं प्रयोगशाला विद्यालय की स्थापना पर बला
प्रयोजनवाद के अवगुण/दोष/हानियाँ(Demerits/Disadvantages of Pragmatism)
1.प्रयोजनवाद द्वारा आध्यात्मिक मूल्यों का विरोध करना।
2.सांस्कृतिक एवं सामाजिक आदर्शो की उपेक्षा करना।
3.शिक्षा को केवल अनुभव पर आधारित रखना।
4.अंतिम वास्तविकता को केवल वस्तुओं के दृश्यमान पक्ष तक ही सीमित रखना।
5.शिक्षा में मानवीय एवं सास्कृतिक क्रियाओं तथा विषयों का अभाव।
6.अतीत के अनुभवों की बजाय वर्तमान एवं भविष्य पर ही बल देना।
7.प्रयोजनवादी पाठ्यक्रम में आधारभूत कौशलों का अभाव होना।
8.शिक्षण व्यवस्था/प्रक्रिया का नियमबद्ध एवं क्रमबद्ध न होना।
9.अनादि (Eternal) सत्यों में विश्वास न करना।
10.पूर्व निर्धारित एवं निश्चित मूल्यों एवं आदर्शों का विरोध करना।
11.उपयोगिता के सिद्धांत पर अनावश्यक अर्थात् जरुरत से ज्यादा बल देना।
12.प्रयोगवादी शिक्षण विधियों का सभी विषयों के अध्ययन के संदर्भ में उपयोगी न होना।
अतः उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रयोजनवाद का शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान है।इसने शिक्षा के क्षेत्र में प्रगतिशील विचारधारा को जन्म दिया तथा शिक्षा को एक गतिशील,सामाजिक एवं विकासवादी प्रक्रिया के रुप में प्रस्तुत किया।प्रयोजनवाद ने शिक्षण विधियों में नवीनता का समावेश किया तथा विद्यालयों को मानव के विकास से संबंधित व्यावहारिक प्रयोगशाला के रूप में मान्यता प्रदान की।लेकिन प्रयोजनवाद सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक पक्ष के स्थान पर भौतिकवाद का समर्थक होने की वजह से वह मानव को सुखी बनाने से संबंधित अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सका।परंतु अंत में यह कहना भी सार्थक होगा कि आधुनिक युग की विचारधारा को यदि किसी दर्शन ने सबसे अधिक प्रभावित किया है तो वह प्रयोजनवाद ही है। प्रयोजनवादी विचारधारा ने शिक्षा के लगभग समस्त अंगों में क्रान्तिकारी परिवर्तनों को अंजाम दिया।उपयोगिता और प्रयोजन पूर्ति की अवधारणा पर विशेष बल देने के कारण इस वाद को प्रयोजनवाद की संज्ञा दी गई।
Reference - Dr Naresh Kumar Yadav