Creativity(सृजनात्मकता)
सृजनात्मकता,व्यक्ति की वह योग्यता है जिसके द्वारा वह किसी नए विचार या नई वस्तु का निर्माण करता है या किसी नयी वस्तु की खोज करता है।इसके अन्तर्गत व्यक्ति की यह योग्यता भी सम्मिलित है जिसके द्वारा वह पूर्व प्राप्त ज्ञान का पुनर्गठन करता है।
सृजनात्मकता की प्रकृति तथा विशेषताएं(Nature and Characteristics of Creativity) उपर्युक्त परिभाषाओं तथा सृजनात्मकता के क्षेत्र में किए गए विभिन्न अध्ययनों के आधार पर सृजनात्मकता की प्रकृति तथा उसकी विशेषताओं का निम्नलिखित रूप से उल्लेख किया जा सकता है:-
1.सृजनात्मकता सार्वभौमिक होती है।हम में से प्रत्येक व्यक्ति में कुछ न कुछ मात्रा में सृजनात्मकता अवश्य होती है।
2.यद्यपि सृजनात्मक योग्यताएं प्रकृति प्रदत्त होती हैं,फिर भी प्रशिक्षण या शिक्षा द्वारा उनको विकसित किया जा सकता है 3.सृजनात्मक अभिव्यक्ति द्वारा किसी नई वस्तु को उत्पन्न किया जाता है परन्तु यह आवश्यक नहीं कि वह वस्तु पूर्ण रूप से नई हो।पृथक रूप से दिए गए तत्त्वों से नए एवं ताजा सम्मिश्रण का निर्माण करना,पहले से ज्ञात तथ्यों या सिद्धान्तों का पुनर्गठन करना,किसी पूर्व-ज्ञात शैली में सुधार करना आदि उतने ही सृजनात्मक कार्य हैं जितना रसायन विज्ञान का कोई नया तत्त्व ढूंढना या गणित का कोई नया सूत्र खोजना।'सृजनात्मकता' में केवल इस बात के प्रति सावधान रहने की आवश्यकता है कि किसी ऐसी वस्तु की पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए जिसका व्यक्ति को पहले से ज्ञान हो।
4.कोई भी सृजनात्मक अभिव्यक्ति सृजक के लिए आनन्द तथा सन्तुष्टि का स्रोत होती है।सृजक जो देखता या अनुभव करता है,उसे अपने तरीके से प्रकट करता है।सृजक अपनी रचना द्वारा ही अपने आप की अभिव्यक्ति करता है।सृजक अपने ही तरीके से वस्तुओं,व्यक्तियों तथा घटनाओं को देखता है अतः यह आवश्यक नहीं कि 'रचना' प्रत्येक व्यक्ति को वही 'अनुभव' एवं वही 'सन्तोष' प्रदान करे जो रचनाकार को प्राप्त हुआ हो।
5.'सृजक' वह व्यक्ति है जो अपने 'अहं' को इस प्रकार प्रकट कर सकता हो,"यह मेरी रचना है","यह मेरा विचार है", मैने इस समस्या को हल किया है।अतः निर्माणात्मक क्रिया में 'अहं' अवश्य निहित रहता है।
6.सृजनात्मक चिन्तन 'बंधा हुआ चिन्तन' नहीं होता।इसमें अनगिनत विकल्पों तथा इच्छित कार्य प्रणाली को चुनने की पूर्ण स्वतन्त्रता रहती है।पिटे-पिटाए मार्ग पर चलने से पुनरावृत्ति तो हो सकती है,नया निर्माण नहीं।
7.सृजनात्मक अभिव्यक्ति का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक होता है।वैज्ञानिक आविष्कार,कविता निर्माण,कहानी,नाटक आदि लिखना,नृत्य संगीत,चित्रकला, शिल्पकला,राजनीतिक एवं सामाजिक सम्बन्ध बनाना आदि में से कोई भी क्षेत्र इस प्रकार की अभिव्यक्ति की आधार भूमि बन सकता है।हमारी दैनिक क्रियाओं में भी सृजनात्मकता की आवश्यकता होती है।अतः जीवन अपने समूचे रूप में रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए असंख्य अवसर प्रदान करता है।
8.सृजनात्मकता में कौन से विविध ज्ञानात्मक तत्त्व शामिल होते हैं?इस प्रकार के उत्तर के लिए अत्यधिक प्रयोगात्मक तथा अनुसन्धान की आवश्यकता है।जे.पी.गिलफोर्ड(J. P. Guilford),दोरेन्स(Torrance),ड्रैवडाहल(Drevdahl) आदि कई विद्वानों ने सृजनात्मकता के विविध तत्वों को खोजने का प्रयास किया है।परिणामस्वरूप प्रवाहात्मक विचारधारा,मौलिकता, लचीलापन,विविधतापूर्ण-चिन्तन, आत्म-विश्वास,संवेदनशीलता,सम्बन्धों को देखने तथा बनाने की योग्यता आदि निर्माणात्मक क्रिया में सहायक माने गए हैं।
9.बुद्धि तथा सृजनात्मकता को एक ही प्रक्रिया नहीं मानना चाहिए।इनमें निम्नलिखित अन्तर हैं -यह एक स्थापित तथ्य है कि एक-विध चिन्तन(Convergent thinking) बुद्धि का आधार है।जबकि बहुविध चिन्तन(Divergent thinking) सृजनात्मकता का आधार है।एक विध चिंतन में व्यक्ति की प्रवृत्ति एक ही विचार या अनुक्रिया ढूंढने में होती है,परन्तु बहु-विध चिन्तन में यथासम्भव कई अनुक्रियाओं तथा विचारों का समावेश होता है।
प्राय: देखा गया है कि उच्च सृजनकर्ताओं में उच्च स्तरीय बुद्धि होती है परन्तु यह आवश्यक नहीं कि एक बुद्धिमान व्यक्ति सृजनकर्त्ता भी हो।सृजनात्मक योग्यताएं न होते हुए भी व्यक्ति में उच्च बुद्धि हो सकती है।बुद्धि परीक्षा में ज्ञानात्मक व्यवहार की गति तथा शुद्धता पर बल दिया जाता है जबकि सृजनात्मक परीक्षाओं में नवीनता,लचीलापन तथा मौलिकता पर अधिक बल दिया जाता है।
सृजनात्मक प्रक्रिया(The Creative Process)
सृजनात्मक प्रक्रिया में कुछ विशिष्ट एवं निश्चित सोपान निहित होते हैं मन्न(Munn) द्वारा अपनी पुस्तक'Introduction to Psychology' में दिए सोपान पर्याप्त रूप से उचित प्रतीत होते हैं।सोपान इस प्रकार हैं-
(i)तैयारी (Preparation)
(ii)इनक्यूबेशन (Incubation)
(iii)प्रेरणा या सहजबोध अथवा प्रकाशित होना(Inspiration or Illumination)
(iv) जांच पड़ताल या पुनरावृत्ति(Verification or Revision)
1.)पहले सोपान में अर्थात् 'तैयारी' की अवस्था में 'समस्या' पर गम्भीरता से कार्य आरम्भ किया जाता है और यह तब तक जारी रहता है जब तक सम्भव हो समस्या का प्रारम्भिक विश्लेषण किया जाता है और उसके समाधान के लिए मंच तैयार किया जाता है।आवश्यक तथ्यों तथा सामग्री को एकत्रित किया जाता है,उनका विश्लेषण किया जाता है।बीच-बीच में यदि आवश्यक हो तो योजना में सुधार भी किया जा सकता है यदि प्रस्तुत प्रदत्त सामग्री(Data) अथवा अपनाई गई विधि सहायक सिद्ध न हो रही हो तो किसी विधि को भी अपनाया जा सकता है अन्य सम्बन्धित प्रदत्त सामग्री भी एकत्रित की. जा सकती है।इस प्रकार लगातार प्रयत्न किए जाते हैं।कभी ऐसे अनुभव होने लगता है कि हम समस्या का समाधान नहीं कर सकते।निराशा के कारण हम अपनी समस्या को कुछ देर के लिए एक ओर रख देते हैं।
(ii)समस्या को एक ओर रख देना-दूसरे सोपान का आरम्भ है अर्थात् यहां से इन्क्यूबेशन(Incubation) आरम्भ होता है।इस अवस्था में बाह्य क्रिया बन्द हो जाती है।कई बार तो समस्या पर 'चिन्तन' भी बन्द हो जाता है।इस अवस्था में हम विश्राम कर सकते हैं,सो सकते हैं या किसी अन्य मनोरंजक कार्य में अपने आपको लगा सकते हैं।ऐसा करने से वे विचार मद्धम होने लगते हैं जो समस्या के समाधान में बाधक बन रहे थे।इस प्रकार की बाधाओं के शान्त हो जाने के कारण हमारा अवचेतन मन समस्या समाधान की दिशा में काम करने लगता है और इसी अवस्था में समस्या के समाधान की दिशा मिल जाती है।(आर्किमीडीज को अपनी समस्या का समाधान तब मिला या जब वह नहा रहा था।)
(iii)दूसरी अवस्था प्रेरणा या 'सहज बोध'(Illumination) की ओर अग्रसर करती है यह तीसरा सोपान है।इस अवस्था में चिन्तक अचानक समस्या के समाधान अनुभव करता है।उसे अन्तर्दृष्टि द्वारा समाधान की झलक मिलती है।इस प्रकार का बोध कभी भी हो सकता है।कभी कभी तो चिन्तक स्वप्न में ही समाधान का रास्ता देख लेता है ।
(iv)इसके पश्चात् अन्तिम सोपान जांच-पड़ताल या पुनरावृत्ति आता है।इस अवस्था में 'प्रेरणा' या सहजबोध द्वारा प्राप्त समाधान की जांच-पड़ताल की जाती है।हम इस बात का निश्चय करना चाहते हैं कि अन्तर्दृष्टि से प्राप्त समाधान या विचार ठीक है या नहीं और यदि वह ठीक प्रमाणित न हो तो हम समस्या के समाधान के लिए नए प्रयास करते हैं।कई बार समाधान में हल्का सा परिवर्तन करना होता है और जांच-पड़ताल या परीक्षण के परिणामों की दृष्टि में पुनरावृत्ति की जाती है और समाधान या विचार को पूर्ण रूप से क्रियात्मक बनाया जाता है परन्तु किसी भी अवस्था में सृजनशील चिन्तक उसे पूर्ण नहीं मानता।उसे किसी भी समय आवश्यकतानुसार परिवर्तित किया जा सकता है।उपर्युक्त अवस्थाएं सुनिश्चित एवं परिवर्तनशील नहीं है।यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक सृजनशील चिन्तक इन्हीं अवस्थाओं का अनुसरण करे।किसी चिन्तक को इनक्यूबेशन की अवस्था से पहले भी समस्या का समाधान प्राप्त हो सकता है।यह भी हो सकता है कि चिन्तक को इन अवस्थाओं का अनुसरण करने पर भी समस्या का समाधान प्राप्त न हो और उसे इन्हीं अवस्थाओं की कई बार पुनरावृत्ति करनी पड़े।फिर भी ये सोपान महान् सृजनशील चिन्तकों द्वारा अभिव्यक्त उच्चतम सृजनात्मक प्रक्रिया के वैज्ञानिक स्वरूप का विधिवत प्रतिनिधित्व करते हैं।
सृजनात्मकता की पहचान(Identification of Creativity) सृजनात्मकता जैसा कि पहले कहा जा चुका है सार्वभौमिक(Universal) होती है,कुछ विशिष्ट व्यक्तियों,वंशजों या कुशाग्र बुद्धि वालों की बपौती नहीं।हम में से प्रत्येक अपनी बाल्यावस्था में कुछ न कुछ मात्रा में सृजनात्मकता के लक्षणों का प्रदर्शन करता है परन्तु आगे चलकर बड़े होने पर इनको भलीभांति पोषित और पल्लवित नहीं कर पाता।इस कमी को एक अच्छी शिक्षा व्यवस्था और पालन पोषण के उचित तरीकों द्वारा दूर करने का प्रयास किया जा सकता है।दूसरी ओर यह भी सत्य है कि सब बालकों में सृजनात्मकता रूपी चिंगारी और उसे ज्वाला बनाने वाले सहायक तत्त्व समान रूप से नहीं पाये जाते अतः एक अध्यापक को सृजनकर्ता बालकों की पहचान से सम्बन्धित सभी बातों का पर्याप्त ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक होता है ताकि वह समय से ही सृजनशील बालकों की सही पहचान कर,उनकी सृजनात्मकता के पोषण और विकास में भरपूर सहयोग प्रदान कर सके।
सृजनात्मकता को कुशाग्रता या प्रतिभाशीलता(giftedness) का पर्याय नहीं माना जा सकता।इसलिये हर प्रतिभाशील बालक को सृजनात्मक मानने की भूल कदापि नहीं करनी चाहिए व्यवहार से ही व्यक्ति की पहचान होती है।अतः कौन बालक कितना सृजनशील है इसकी पहचान उसके द्वारा प्रदर्शित व्यवहार के आधार पर ही की जानी चाहिए।दूसरे शब्दों में किसी बालक के व्यवहार द्वारा सृजनशीलता से सम्बन्धित गुणों एवं विशेषताओं का जितना परिचय हमें मिलता है हम उस बालक को उसी सीमा तक सृजनशील बालक की संज्ञा देते हैं।इस सीमांकन के लिए प्रायः हमारे द्वारा दो प्रकार की युक्तियां(devices) काम में लाई जाती हैं
1.सृजनात्मक परीक्षणों का प्रयोग ।
2.व्यवहार जांचने वाली अन्य तकनीकों का प्रयोग
सृजनात्मक परीक्षण(Creativity Tests)- बुद्धि के मापन के लिए हम बुद्धि परीक्षणों(Intelligence tests) का प्रयोग करते हैं।वैसे ही सृजनात्मकता की परख के लिए सृजनात्मक परीक्षणों का प्रयोग किया जा सकता है।सृजनात्मकता के परीक्षण से सम्बन्धित अनेकों परीक्षण भारत में और विदेशों में उपलब्ध हैं।उनमें से कुछ निम्न हैं:
विदेशी मानकीकृत परीक्षण(The Tests Standardized Abroad
1.मिनीसोटा सृजनात्मक चिंतन परीक्षण(Minnesota Test of Creative Thinking)
2.गिलफोर्ड का विकेन्द्रित चिंतन उपकरण(Guilford's Divergent Thinking Instrument)
3.रिमोट एसोसिएट परीक्षण(Remote Associate Test)
4.वलक एवं कॉरगन सृजनात्मक उपकरण(Wallach and Korgan Creativity Instruments)
5.सृजनात्मक योग्यता का ए. सी. परीक्षण(A.C. Tests of Creative Ability)
6.टोरेन्स का सृजनात्मक चिन्तन परीक्षण (Torrance Tests of Creative Thinking)
भारतीय मानकीकृत परीक्षण(The Tests Standardized in India)
1.बकर मेहदी सृजनात्मक चिन्तन परीक्षण(Bequer Mehdi's Test of Creative Thinking - Hindi and English)
2.पासी का सृजनात्मकता परीक्षण(Passi's Test of Creativity)
3.शर्मा का विकेन्द्रीकृत उत्पादक योग्यता परीक्षण(Sharma's Divergent Production Abilities Test)
4.सक्सेना का सृजनात्मकता परीक्षण( Saxena's Test of Creativity)
जैसा कि पहले बताया जा चुका है,सृजनात्मकता में अनेकों योग्यताओं और क्षमताओं का मिश्रण होता है।इसलिए सभी सृजनात्मकता परीक्षण अपने शाब्दिक एवं अशाब्दिक परीक्षण प्रश्नों की सहायता से हमेशा ही इन्हीं योग्यताओं और क्षमताओं के मापन का प्रयास करते हैं। इन परीक्षणों के प्रश्नों द्वारा जिन कारकों तथा आयामों का सामन्यतः मापन किया जाता है, वे हैं-प्रवाहिकता(fluency),लचीलापन(flexibility),मौलिकता(originality),विकेन्द्रित चिंतन(divergent thinking) और विस्तारीकरण(elaboration) आदि।
अब हम यहां पर एक विदेशी मानकीकृत परीक्षण तथा एक भारतीय मानकीकृत परीक्षण की सहायता से सृजनात्मकता के इन अवयवों के मापन को प्रस्तुत कर रहे हैं।
टोरेन्स का सृजनात्मक चिंतन परीक्षण(Torrance Tests of Creative Thinking):इस परीक्षण में एक शाब्दिक तथा दूसरा अशाब्दिक दो परीक्षण शामिल हैं।यह सुप्रसिद्ध अमेरिकन मनोवैज्ञानिक ई. पॉल टोरेन्स ने विकसित किया था।किंडरगार्टन से लेकर स्नातक स्तर तक के बच्चों की सृजनात्मकता का परीक्षण करने के लिए इसका प्रयोग किया जा सकता है।शाब्दिक एवं अशाब्दिक प्रदर्शन के द्वारा सृजनात्मकता का परीक्षण करने के लिए टौरेन्स ने आकृतिजन्य परीक्षण पत्र ए(A) और बी(B) तथा शाब्दिक परीक्षण पत्र ए एवं बी का निर्माण किया।(इनमें से बी प्रपत्र, ए प्रपत्र के समरूप विकल्प हैं)।
आकृति जन्य प्रारूप अशाब्दिक परीक्षण तकनीक(The figural form Non verbal Testing Device):इस प्रकार के परीक्षण में जिन क्रियाओं का प्रयोग किया जाता है उनकी प्रकृति अशाब्दिक होती है। इसमें व्यक्ति को कुछ अशाब्दिक क्रियाओं को सम्पन्न करना होता है।जैसे चित्र बनाना या परीक्षण प्रश्न के प्रत्युत्तर में कोई चीज बनाना।इस परीक्षण में तीन उप-परीक्षण होते हैं,जिनका वर्णन आगे किया जा रहा है।
(i)आकृति या चित्र पूर्ति परीक्षण(Figure or Picture Completion Test):इस उप-परीक्षण में कोई अधूरी आकृति दी जाती है और प्रयोज्य (Subject) को अपनी इच्छानुसार उस आकृति को पूरा करने के लिए कहा जाता है।
(ii)चित्र या आकृति निर्माण परीक्षण(Picture or figural construction Test):इस उप परीक्षण में प्रयोज्य को एक रंगीन कागज का ऐसा टुकड़ा दिया जाता है(जो घुमावदार(curved) आकार में कटा हुआ होता है)और उससे एक ऐसी आकृति या चित्र के बारे में सोचने के लिए कहा जाता है जिसका यह टुकड़ा एक भाग या हिस्सा ई. पॉल टोरेन्स ने विकसित किया था। किंडरगार्टन से लेकर स्नातक स्तर तक के बच्चों की सृजनात्मकता का परीक्षण करने के लिए इसका प्रयोग किया जा सकता है।
शाब्दिक एवं अशाब्दिक प्रदर्शन के द्वारा सृजनात्मकता का परीक्षण करने के लिए टौरेन्स ने आकृतिजन्य परीक्षण पत्र ए (A) और बी (B) तथा शाब्दिक परीक्षण पत्र ए एवं बी का निर्माण किया। (इनमें से बी प्रपत्र, ए प्रपत्र के समरूप विकल्प हैं)।
आकृति जन्य प्रारूप अशाब्दिक परीक्षण तकनीक(The figural form Non verbal Testing Device):इस प्रकार के परीक्षण में जिन क्रियाओं का प्रयोग किया जाता है उनकी प्रकृति अशाब्दिक होती है। इसमें व्यक्ति को कुछ अशाब्दिक क्रियाओं को सम्पन्न करना होता है। जैसे चित्र बनाना या परीक्षण प्रश्न के प्रत्युत्तर में कोई चीज बनाना। इस परीक्षण में तीन उप-परीक्षण होते हैं,जिनका वर्णन आगे किया जा रहा है।
(i)आकृति या चित्र पूर्ति परीक्षण(Figure or Picture Completion Test): इस उप-परीक्षण में कोई अधूरी आकृति दी जाती है और प्रयोज्य (Subject) को अपनी इच्छानुसार उस आकृति को पूरा करने के लिए कहा जाता है।
(ii)चित्र या आकृति निर्माण परीक्षण(Picture or figural construction Test):इस उप परीक्षण में प्रयोज्य को एक रंगीन कागज का ऐसा टुकड़ा दिया जाता है (जो घुमावदार (curved) आकार में कटा हुआ होता है) और उससे एक ऐसी आकृति या चित्र के बारे में सोचने के लिए कहा जाता है जिसका यह टुकड़ा एक भाग या हिस्सा हो सकता हैं।
(iii)समानान्तर रेखा परीक्षण (Parallel Lines Test):इस उप-परीक्षण में सीधी रेखाओं के अनेक जोड़े(Pairs) दिए जाते हैं और प्रयोज्य से, रेखाओं के इन जोड़ों का प्रयोग करते हुए अधिक से
अधिक चित्र,वस्तु या आकृति बनाने के लिए कहा जाता है।
शाब्दिक प्रारूप (The verbal form) इस परीक्षण में प्रयुक्त विभिन्न शाब्दिक व्यवहार प्रक्रियायें निम्न प्रकार की होती हैं:
1.पूछना और अनुमान लगाना (Ask and Guess Type)-इसमें बच्चों से इस प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं जिनसे परिणामों(Consequences) को ध्यान में रखते हुये विभिन्न परिकल्पनाओं(Hypotheses) का निर्माण करने सम्बन्धी सृजनात्मक योग्यता का परिचय मिल सके।
2.वस्तु विशेष की समुन्नति(Product Improvement Type)-यहां बालकों से किसी वस्तु विशेष जैसे खिलौने या मशीन को उन्नत बनाने से सम्बन्धित विभिन्न सुझाव आमन्त्रित किये जाते हैं।
3.अप्रचलित उपयोग बताना(Un-usual Uses Type)-इसमें बालकों से यह पूछा जाता है कि वह किसी वस्तु विशेष को उसके प्रचलित उपयोगों के अतिरिक्त और कितने ढंगों से काम में ला सकते हैं।यहां जिस प्रकार के असाधारण और अप्रचलित उपयोग बच्चे के द्वारा बताए जाते हैं उसी मात्रा में उसे उतना ही सृजनशील कहा जाता है।
4.असाधारण प्रश्न करना (Un-usual Questions Type)-यहां किसी वस्तु विशेष या विचार के सन्दर्भ में बच्चों के द्वारा जितने विचित्र और असाधारण प्रश्न पूछे जाते हैं उसके आधार पर उनकी सृजनात्मकता आंकी जाती है।
5.कल्पना क्षमता निर्धारण(Just Suppose Type)-यहां बच्चों के सामने असाधारण और विचित्र किस्म की परिस्थितियां रखी जाती हैं और उनसे संभावित आगे की घटना या परिणामों के बारे में पूछा जाता है।
बकर मेहदी सृजनात्मक परीक्षण(Bequer Mehdi's Test of Creativity):इस परीक्षण को डा. बकर मेहदी ने विकसित किया है तथा नेशनल साइकोलॉजिकल कार्पोरेशन आगरा ने प्रकाशित किया है। इस परीक्षण में चार शाब्दिक और तीन अशाब्दिक उप-परीक्षण शामिल हैं।
A.शाब्दिक प्रारूप (Verbal Form):शाब्दिक प्रारूप में निम्न प्रकार के चार उप-परीक्षण शामिल हैं
1.परिणाम परीक्षण(Consequence Test) :अवधि 12 मि.
इस उप-परीक्षण में विभिन्न प्रकार के प्रश्न पूछकर ऐसी परिस्थितियां प्रदान की जाती हैं जिनमें प्रयोज्य को उन परिस्थितियों में घटित अधिक से अधिक संभावित परिणामों के बारे में सोचने का अवसर मिल सके,जैसे
(i)अगर हम पक्षियों की तरह उड़ने लगे तो क्या होगा ?
(ii)अगर तुम्हारे विद्यालय में पहिए लग जाएं तो क्या होगा ?
(iii)अगर तुमको भोजन की आवश्यकता महसूस न हो तो क्या होगा?
2.अप्रचलित उपयोग परीक्षण(Unusual Uses Test) :अवधि 15 मि.
इस उप-परीक्षण में निम्न प्रकार के कथनों का समावेश होता है:
(i)आपको एक पत्थर का टुकड़ा दिया गया है।बताइए उसे आप कितने नए, रोचक और अप्रचलित तरीके से(जितना भी आप सोच सकते हैं)प्रयोग में ला सकते हैं?
(ii)आपके पास एक लकड़ी की छड़ी है। बताइए आप उसे कितने विविध,नए,रोचक और:अप्रचलित तरीकों में इस्तेमाल कर सकते हो।
3.नवीन सम्बन्ध परीक्षण(New Relationship Test): अवधि 15 मि.
इसमें निम्न प्रकार के प्रश्न होते हैं :नीचे दिए हुए शब्द युग्मों के बीच अधिक से अधिक जितने भी सम्बन्धों की कल्पना की जा सकती है,उनका उल्लेख कीजिए
(i)पेड़-घर,(ii)कुर्सी-सीढ़ी,(iii)हवा-पानी।
4.उत्पाद उन्नयन परीक्षण(Product Improvement Test):अवधि 6 मि.
इस उप-परीक्षण में निम्न प्रकार के प्रश्न होते हैं:" आपके पास एक खिलौना घोड़ा है।इसे अधिक उपयोगी और रोचक बनाने के लिए ज्यादा से ज्यादा किन वस्तुओं के द्वारा अधिक से अधिक सुधार किए जा सकते हैं।"
B.अशाब्दिक प्रारूप (Non verbal form):इसमें निम्न प्रकार के तीन उप-परीक्षण शामिल है:
(i)चित्र निर्माण परीक्षण(Picture Construction Test):अवधि 20 मि. इस उप-परीक्षण में निम्न प्रकार के प्रश्न शामिल होते हैं:
"नीचे दिए गए चित्र 18.1 में दो ज्यामिति आकृतियाँ हैं। इनमें से एक अर्द्ध वृत्त है और दूसरा Rhombus हैं। इन आकृतियों का प्रयोग करते हुए विभिन्न प्रकार के चित्रों का निर्माण कीजिए।
(ii)रेखा आकृति आपूर्ति परीक्षण(Line Figure Completion Test);अवधि 15 मि.
"नीचे चित्र 18.2 में 10 अधूरे रेखा आरेख दिए गए हैं।इनमें से प्रत्येक का उपयोग करते हुए सार्थक एवं रोचक चित्रों का निर्माण कीजिए और सभी के लिए अलग-अलग उचित शीर्षक भी प्रदान कीजिए।"
(iii)चित्र निर्माण परीक्षण(Picture Construction Test):अवधि 10 मि. इस उप-परीक्षण में निम्न प्रकार के प्रश्न होते हैं :
"आपको यहां सात विभिन्न प्रकार के त्रिभुज और सात विभिन्न प्रकार की अंडाकार आकृतियाँ दी जा रही हैं। इन सभी आकृतियों को उनके विभिन्न संयोजनों में काम में लाते हुए जितने भी विविध प्रकार के सार्थक और रोचक चित्र बनाए जा सकते हैं, बनाइए।"
उपरोक्त वर्णित इन दोनों सृजनात्मक परीक्षणों(और ऐसे ही ऊपर सृजनात्मक परीक्षणों में जो हमारे देश या बाहर के देशों में विकसित किये गये हैं।)में शामिल दोनों प्रकार के शाब्दिक और अशाब्दिक कार्यों को सृजनात्मक की परिचायक कुछ विशेष योग्यताओं जैसे प्रवाहिकता(Fluency),मौलिकता (Originality),लचीलापन(Flexibility) तथा विस्तारीकरण(Elaboration) के संदर्भ में परख इनके लिये विभिन्न अंक प्रदान किये जाते हैं।इन प्रदत्त अंकों का कुल योग सृजनात्मक परीक्षण में प्राप्त सृजनात्मकता का बोध कराता है।जितने अधिक अंक कोई बालक अर्जित करता है,उसे उतना ही सृजनशील माना जाता है। परन्तु इस घोषणा को अधिक विश्वसनीय बनाने हेतु यहां जरूरी हो जाता है कि बालक की सृजनात्मकता को किसी और तरीके से भी परखा या जांचा जाये।
परीक्षण रहित तकनीकों का प्रयोग(Uses of Non-Testing Devices): सृजनात्मक परीक्षणों द्वारा सृजनशीलता के मापन के पश्चात् अधिक पुष्टि के लिये व्यवहार जांच करने वाली अन्य तकनीकों का प्रयोग भी किया जाना चाहिए इन तकनीकों का सूक्ष्म परिचय नीचे दिया जा रहा है।बालकों के सृजनात्मक व्यवहार की जांच करने के लिए व्यवहार मापन में प्रयुक्त सामान्य तकनीकों का प्रयोग भी किया जा सकता है।प्राकृतिक निरीक्षण विधि(Naturalistic Observation Method),परिस्थितिगत परीक्षण(Situational Test),रेटिंग स्केल ( Rating Scale),साक्षात्कार (Interview),व्यक्तित्व परिसूची(Personality Inventory),रुचि प्रश्नावली(Interest Inventory),अभिवृत्ति परीक्षण(Attitude Scale),अभिरुचि परीक्षण(Aptitude Test),मूल्य अनुसूची(Value Schedule),प्रक्षेपी तकनीक(Projective Techniques) आदि इसी प्रकार की तकनीकें हैं जिनका प्रयोग सृजनात्मक व्यवहार से सम्बन्धित विशेष गुणों एवं सृजनात्मक व्यक्तित्व सम्बन्धी विशेषताओं के निदान एवं मापन के लिये किया जाता है।इन व्यवहार एवं गुणों का संक्षिप्त परिचय हम नीचे दे रहे हैं-
सृजनात्मक बालक के व्यक्तित्व एवं व्यवहार सम्बन्धी विशेषतायें(Personality and Behavioural Characteristics of a Creative Child)
सृजनात्मक बालक के व्यवहार में प्रायः निम्न गुणों एवं विशेषताओं की झलक मिलती है:
1.वह विचार और कार्य में मौलिकता का प्रदर्शन करता है
2.वह समायोजन में सक्षम होता है एवं उसकी साहस भरे कार्यों में प्रवृत्ति होती है 3.वह एकरसता और उबाऊपन की अपेक्षा कठिन और टेढ़े-मेढ़े जीवन पथ से आगे बढ़ना पसंद करता है।
4.उसकी स्मरण शक्ति अच्छी होती है और उसके ज्ञान का दायरा भी विस्तृत होता है
5.उसमें चुस्ती, सजगता, ध्यान एवं एकाग्रता की प्रचुरता होती है
6.उसकी प्रकृति जिज्ञासामय पाई जाती है
7.वह भविष्य के प्रति आशावान और दूर दृष्टि वाला होता है ।
8.उसमें स्वयं निर्णय लेने की पर्याप्त योग्यता होती है
9.वह अस्पष्ट, गूढ़ एवं अव्यक्त विचारों में रुचि रखता है
10.वह प्राय: अपने विचित्र एवं मूर्खता भरे विचारों के लिये प्रसिद्धि अर्जित करता है ।
11.जटिलता, अपूर्णता,असमरूपता के प्रति उसका लगाव होता है और वह खुले दिमाग से सोचने में विश्वास रखता है।
12.समस्याओं के प्रति उसमें उच्च स्तर की संवेदना पाई जाती है।
13.उसकी विचार अभिव्यक्ति में अत्यधिक प्रवाहात्मकता(Fluency) पाई जाती है । 14.अपने व्यवहार में वह आवश्यक लचीलेपन का परिचय देता है।
15.उसमें अपने सीखने या प्रशिक्षण को एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में स्थानान्तरण करने की योग्यता पाई जाती है।
16.उच्च स्तर की विशेष कल्पनाशक्ति, जिसे सृजनात्मक कल्पना का नाम दिया जाता है,पाई जाती हैं।
17.उसके सोचने विचारने के ढंग में केन्द्रीयकरण(Convergence) एवं रूढ़िवादिता के स्थान पर विविधता(Divergence) एवं प्रगतिशीलता पाई जाती है।
18.उसमें विस्तारीकरण(Elaboration) की प्रवृत्ति पाई जाती है अर्थात् वह अपने विचारों, कार्यों एवं योजनाओं के अत्यन्त सूक्ष्म पहलुओं पर ध्यान देता हुआ हर बात को अधिक विस्तार से कहना और करना चाहता है।
19.रहस्यपूर्ण,अज्ञात और अनजान से वह भयभीत नहीं होता।
20.समस्या के किसी नवीन हल एवं समाधान तथा योजना के किसी नवीन प्रारूप का उसकी ओर से सदैव स्वागत ही किया जाता है और इस दिशा में वह स्वयं भी अथक प्रयास करता रहता है।
21.वह अपने 'आत्म' को महान सृजक परमात्मा की भांति सृजनकर्ता मानता है और उसे अपनी सृजन की हुई वस्तुओं एवं विचारों में गौरव एवं संतुष्टि का बोध होता है।
22.वह अपने समय एवं शक्ति को व्यर्थ में ही अपने 'आत्म' से लड़ने अथवा उसकी रक्षा करने में नहीं गंवाता अतः उसके पास अपनी रचना एवं सृजनकार्यों से आनंदित होने के लिये पर्याप्त समय एवं शक्ति रहती है।
23.उसमें उच्च स्तर की सौन्दर्यात्मक अनुभूति,ग्राह्यता एवं परख क्षमता पाई जाती है।
24.अन्य सामान्य बालकों की अपेक्षा उसमें आत्म-सम्मान के भाव और अहं के तुष्टिकरण की आवश्यकता कुछ अधिक ही पाई जाती है।वह आत्म-अनुशासित होता है तथा अन्याय और बुराइयों के साथ उसकी कभी पटरी नहीं बैठती।अपने इन गुणों के कारण ही उसे बहुधा गलत समझा जाता है तथा अनुशासनहीन,झगड़ालू एवं विद्रोही तक की संज्ञा दे डाली जाती है।
25.वह अपने व्यवहार और सृजनात्मक उत्पादन में विनोदप्रियता,आनन्द,उल्लास, स्वच्छन्द एवं स्वतन्त्र अभिव्यक्ति तथा बौद्धिक स्थिरता का प्रदर्शन करता है।
26.अपने उत्तरदायित्व के प्रति वह काफ़ी सजग होता है।
27.स्थिरता और पूर्णता के स्थान पर अस्थिर,संभावित एवं अपूर्ण वर्तमान को स्वीकार कर आगे बढ़ने की योग्यता उसमें पाई जाती है।विपरीत एवं विरोधी व्यक्तियों तथा परिस्थितियों को सहन करने तथा उनसे सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता भी उसमें पाई जाती है।
28.उसकी कल्पना एवं दिवा स्वप्नों का संसार भी काफ़ी अद्भुत एवं महान होता है।सामान्य बालक की तुलना में वह अपना काफी समय इस सुनहरे संसार में विचरण हेतु व्यतीत करने का आदी पाया जाता है।
29.सृजन के समय मस्तिष्क की सोचने विचारने सम्बन्धी प्रक्रिया का कोई ग्राफ अगर प्राप्त किया जाये तो सृजनशील बालक की मस्तिष्क प्रक्रिया अन्य बालक की तुलना में काफ़ी अलग दिखाई पड़ सकती है।
30.वह दूसरों के विचारों का आदर करता है तथा अपने सुझावों के विरोध का बुरा नहीं मानता।
31.उसकी अभिव्यक्ति में सदैव स्वाभाविकता एवं सहजता पाई जाती है ।
सृजनात्मकता के विकास की तकनीकें(Techniques of Fostering Creativity)
सृजनात्मकता को पल्लवित एवं पोषित करने के लिए उचित वातावरण एवं देख रेख की आवश्यकता होती है।यदि इसे उचित प्रशिक्षण,शिक्षा तथा अभिव्यक्ति के पर्याप्त अवसर प्रदान न किए जाएं तो यह व्यर्थ चली जाती है।इसके अतिरिक्त जैसा कि हम पहले कह चुके हैं,सृजनात्मकता सार्वभौमिक होती है,इस पर कुछ एक प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों का एकाधिकार नहीं होता हम में से प्रत्येक व्यक्ति कुछ कुछ मात्रा में सृजनात्मकता योग्यताएं रखता है।
अतःअध्यापकों तथा माता-पिताओं के लिए यह आवश्यक है कि वे बच्चों की सृजनात्मक योग्यता के विकास के लिए उचित वातावरण तथा स्थितियों की व्यवस्था करें।यह समस्या कठिन अवश्य है,परन्तु इसका समाधान भी है।उचित अभिप्रेरणा तथा परिस्थितियों द्वारा सृजनात्मक योग्यताओं को विकसित किया जा सकता है।मौलिकता,लचीलापन,प्रवाहात्मक विचारधारा,विविध-चिन्तन,आत्मविश्वास,सतत परिश्रम,संवेदनशीलता,सम्बन्धों को देखने तथा बनाने की योग्यता आदि कुछ ऐसी योग्यताएं हैं जिनका विकास सृजनात्मकता के विकास में सहायक सिद्ध हो सकता है।इन योग्यताओं को विकसित करने के लिए निम्नलिखित सुझाव सहायक सिद्ध हो सकते हैं :--
1.उत्तर देने की स्वतन्त्रता(Freedom to Respond)-अकसर देखा जाता है कि अध्यापक और माता-पिता अपने बच्चों से पुराने पिटे पिटाए उत्तर की आशा रखते हैं।इससे बच्चों में सृजनात्मकता विकसित नहीं होती।अतः हमें बच्चों को उत्तर देने के लिए पर्याप्त स्वतन्त्रता प्रदान करनी चाहिए।उन्हें समस्या के समाधान के लिए अधिक से अधिक विचारों का चिन्तन करने के लिए उत्साहित करना चाहिए।
2.अहं-अभिव्यक्ति के लिए अवसर(Opportunity for ego involvement)- "यह मेरी रचना है","मैने इसे हल किया है"-यह भावना बच्चों को अत्यधिक सन्तुष्टि प्रदान करती है।वस्तुतः
वे तभी सृजनात्मक कार्यों में निश्चित रूप से जुटते हैं तब उनमें उनका 'अहं' निहित हो अर्थात् जब वे अनुभव करें कि उन्हीं के प्रयासों से ही अमुक सृजनात्मक कार्य सम्भव हो सका है।अतः हमें बच्चों को ऐसे अवसर प्रदान करने चाहिएं जिनसे उन्हें 'अनुभव' हो कि यह सृजन उनके द्वारा ही सम्पन्न हुआ है।
3.मौलिकता तथा लचीलेपन को प्रोत्साहित करना(Encouraging originality and flexibility)-बच्चों में किसी भी रूप में विद्यमान मौलिकता को प्रोत्साहित करना चाहिए।'तथ्यों' का अन्धाधुन्ध अनुसरण करना,जैसी की तैसी नकल कर देना,निष्क्रिय भाव से ज्ञान प्राप्त करना,रटना आदि सृजनात्मक अभिव्यक्ति में बाधक होते हैं।अतः इन पर यथासम्भव नियन्त्रण रखना चाहिए।किसी समस्या का समाधान करते समय या किसी काम को सीखते समय यदि वे अपनी विधियों को परिवर्तित करना चाहते हैं तो उनको प्रोत्साहन मिलना चाहिए।
4.झिझक और डर को दूर करना(Removal of the hesitation and fear)-कई बार (विशेषकर हमारे जैसे देशों में जहां हीनभावना अत्यधिक मिलती है)डर तथा हीनभावना से मिश्रित झिझक सृजनात्मक अभिव्यक्ति में बाधा डालती है।कई बार हमने लोगों को यह कहते सुना है"मैं जानता हूं कि मेरा मतलब क्या है लेकिन मैं दूसरों के सामने लिख या बोल नहीं सकता। इस प्रकार के डर या झिझक के कारणों को यथासम्भव दूर करने का प्रयास करना चाहिए।अध्यापक एवं माता-पिताओं को चाहिए कि वे इस प्रकार के बच्चों को कुछ कहने या लिखने की प्रेरणा दें
5.सृजनात्मक अभिव्यक्ति के लिए उचित अवसर एवं वातावरण प्रदान करना(Providing appropriate opportunities and atmosphere for creative expression)-बच्चों में सृजनात्मकर्ता को बढ़ावा देने के लिए स्वस्थ एवं उचित वातावरण की व्यवस्था करना अत्यन्त आवश्यक है सीखने और प्रयोग करने,ज्ञान की निष्क्रिय प्राप्ति या निजी प्रयत्नों द्वारा ज्ञान प्राप्ति एवं निश्चित स्थिरता तथा जोखिम में पर्याप्त सन्तुलन स्थापित किया जाना चाहिए।बच्चे की जिज्ञासा तथा सहनशीलता को किसी भी सूरत में दबाना नहीं चाहिए सृजनशील अभिव्यक्ति के अवसर प्रदान करने के लिये हम पाठ्य सहगामी क्रियाओं,सामाजिक उत्सवों,धार्मिक मेलों,प्रदर्शनों आदि का प्रयोग कर सकते हैं नियमित कक्षा-कार्य को भी इस प्रकार व्यवस्थित किया जा सकता है जिससे बच्चों में सृजनात्मक चिन्तन विकास हो।
6.बच्चों में स्वस्थ आदतों का विकास करना(Developing healthy habits among children)-श्रमशीलता, आत्म-निर्भरता,आत्म-विश्वास आदि कुछ ऐसे गुण हैं जो सृजनात्मकता में सहायक होते हैं।बच्चों में इन गुणों का निर्माण करना चाहिए।इसके अतिरिक्त उन्हें अपनी सृजनात्मक अभिव्यक्ति पर हो रही आलोचना के विरुद्ध खड़े रहने का भी प्रशिक्षण देना चाहिए।उन्हें यह बात अनुभव करनी चाहिए कि जो कुछ उन्होंने रचा है वह अनुपम है और उनके द्वारा वह चीज अभिव्यक्त हो रही है जिसे वे अभिव्यक्त करना चाहते हैं।
7.समुदाय के सृजनात्मक साधनों का प्रयोग करना(Using the creative resources of the community)- बच्चों को सृजनात्मक कला केन्द्रों तथा वैज्ञानिक एवं औद्योगिक निर्माण-केन्द्रों की यात्रा करनी चाहिए।इसमें उन्हें सृजनात्मक कार्य करने की प्रेरणा मिलेगी।कभी-कभी कलाकारों, वैज्ञानिकों तथा अन्य सृजनशील व्यक्तियों को भी स्कूल में आमन्त्रित करना चाहिए।इस प्रकार बच्चों के ज्ञान- विस्तार में सहायता मिल सकती है और उनमें सृजनशीलता को बढ़ावा दिया जा सकता है।
8.अपना उदाहरण एवं आदर्श प्रस्तुत करना(Proving the self-example and ideals) यह कथन सत्य है कि "अपना उदाहरण सिद्धांत से अच्छा होता है।"बच्चे हमेशा अनुसरण करते हैं।जो अध्यापक और माता पिता हमेशा पिटे-पिटाए रास्ते पर चलते हैं,जीवन में ख़तरे मोल ले कर मौलिकता नहीं दिखाते,कोई नया अनुभव नहीं करते या कोई नया काम नहीं करते वे अपने बच्चों में सृजनात्मकता का विकास नहीं कर सकते।अतः उन्हें परिवर्तन,नवीनता तथा मौलिकता में विश्वास करना चाहिए।उनके शिक्षण तथा व्यवहार में सृजन-प्रियता की झलक मिलनी चाहिए,तभी वे बच्चों में सृजनात्मकता का विकास कर सकते हैं।
9.सृजनात्मक चिन्तन के अवरोधों से बचना(Avoidance of Blocks to creative thinking)-परम्परावादिता (Conservatism),शिक्षण की त्रुटिपूर्ण विधियों,असहानुभूति पूर्ण व्यवहार,बालकों में व्याप्त अनावश्यक चिन्ता एवं भग्नाशा,न बदली जाने वाली स्थिर और परम्परागत कार्य आदतें,पुराने विचारों,आदर्शों और वस्तुओं के प्रति दुराग्रह और नवीन के प्रति भय और विरक्ति की भावना छोटे छोटे प्रत्येक कार्य में उपलब्धि की उच्च स्तर की मांग,परीक्षा में अधिक अंक अर्जित करने के कार्य को सर्वोच्चता,शिक्षकों और अभिभावकों का बालकों के प्रति निरंकुश और तानाशाही दृष्टिकोण,बालकों को लीक से हटकर सोचने या कार्य करने को निरुत्साहित करना आदि ऐसे अनेक कारण और परिस्थितियां हैं जिनसे बालकों में सृजनात्मकता के विकास और पोषण में बाधा पहुंचती है।अतःअध्यापक और अभिभावकों का यह कर्तव्य है कि वे सृजनात्मकता के शत्रु इन सभी कारणों और परिस्थितियों से बालकों की सृजनात्मकता को नष्ट होने से बचाने के लिये हर संभव प्रयत्न करें।
10.पाठ्यक्रम का उचित आयोजन (Proper organisation of the curriculum)-पाठ्यक्रम अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन लाने की दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अतः विद्यालय पाठ्यक्रम की इस प्रकार आयोजित किया जाना चाहिये कि वह बालकों में अधिक से अधिक सृजनात्मकता विकसित करने में सहायक सिद्ध हो सके।कुछ निम्न उपाय इस दिशा में अधिक लाभप्रद हो सकते हैं-
(i)तथ्यों (Facts) की अपेक्षा संप्रत्ययों(Concepts) को पाठ्यक्रम के आयोजन का आधार बनाया जाना चाहिए
(ii)सभी बालकों की सामान्यभूत आवश्यकताओं(Generalised needs) की पूर्ति के स्थान पर बालकों की व्यक्तिगत आवश्यकताओं(Individualized needs) की पूर्ति को ही पाठ्यक्रम द्वारा प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
(iii)"सत्य की खोज की जाती है,वह स्वयं ही प्रकट नहीं होता ।"इस दार्शनिक दृष्टिकोण को पाठ्यक्रम के चयन और आयोजन में विशेष स्थान दिया जाना चाहिये।
(iv)पाठ्यक्रम काफ़ी लचीला होना चाहिये और उसमें परीक्षा और मूल्यांकन की आवश्यकता से परे हटकर कुछ और पढ़ने-पढ़ाने एवं करने की पर्याप्त स्वतन्त्रता होनी चाहिये।
संक्षेप में,पाठ्यक्रम का आयोजन सब प्रकार से इस तरह किया जाना चाहिये कि उसके द्वारा सृजनशीलता में सहायक विभिन्न गुणों-प्रवाहात्मकता,लचीलापन, मौलिकता,विविधता पूर्ण चिन्तन,अन्वेषणशीलता और विस्तारीकरण आदि के विकास में भरपूर सहयोग मिल सके।
11.मूल्यांकन प्रणाली में सुधार-जो कुछ भी विद्यालय में पढ़ा और पढ़ाया जाता है वह सब प्रकार से परीक्षा केन्द्रित ही होता है।अतःजब तक परीक्षा और मूल्यांकन के ढांचे में अनुकूल परिवर्तन नहीं आता तब तक किसी भी शिक्षा व्यवस्था के द्वारा सृजनात्मकता का पोषण नहीं किया जा सकता।इसके लिए हमें रटन्त स्मृति(Rote memory),केन्द्रित और एक विध चिन्तन (Convergent thinking),घिसेपिटे एक से उत्तर अथवा अनुक्रियाओं की मांग आदि सृजनशीलता को नष्ट करने वाली बातों के स्थान पर परीक्षा प्रणाली में उन सभी बातों का समावेश करना चाहिये जिनके द्वारा विद्यार्थियों को ऐसे अधिगम अनुभव अर्जित करने के लिए प्रोत्साहन मिले जो सृजनात्मकता का पोषण और विकास करते हों।
12.सृजनात्मकता के विकास के लिये विशेष तकनीकों का प्रयोग(Use of special techniques for fostering creativity)-सृजनात्मकता के क्षेत्र में कार्य कर रहे अनुसंधानकर्ताओं ने बालकों में सृजनात्मकता के विकास के लिये जिन विशेष तकनीक एवं विधियों का उपयोग उचित ठहराया है, इनमें से कुछ का उल्लेख हम नीचे कर रहे हैं :
(a)मस्तिष्क उद्वेलन(Brain storming)- मस्तिष्क उद्वेलन एक ऐसी तकनीक एवं विधा है जिसके द्वारा किसी समूह विशेष से बिना किसी रोक टोक,आलोचना,मूल्यांकन या निर्णय की परवाह किये बिना किसी समस्या विशेष के हल के लिये विभिन्न प्रकार के विचारों एवं समाधानों को जल्दी जल्दी प्रस्तुत करने के लिये कहा जाता है और फिर विचार-विमर्श के बाद उचित हल या समाधान तलाशने का प्रयत्न किया जाता है।
तकनीक की प्रयोग विधि-मस्तिष्क उद्वेलन तकनीक को काम में लाने हेतु बालकों को एक समूह के साथ बिठाकर किसी समस्या विशेष का समाधान ढूंढने के लिये प्रेरित किया जाता है।उदाहरण के लिये कुछ समस्यायें इस प्रकार की हो सकती हैं, यथा 'विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता,'देश में बढ़ती हुई जनसंख्या अथवा बेरोजगारी', 'अलगाववाद और सम्प्रदायवाद की समस्या','विद्यालय पुस्तकालय की सेवाओं में सुधार','परीक्षाओं में बढ़ती हुई नकल की प्रवृत्ति' आदि।किसी एक समस्या पर बालकों का ध्यान केन्द्रित करते हुए यह स्पष्ट बता दिया जाता है कि कोई भी बालक बिना किसी झिझक या हिचकिचाहट के अपने विचार व्यक्त करने एवं समाधान प्रस्तुत करने के लिये स्वतन्त्र हैं।वे जितने भी समाधान प्रस्तुत करना चाहें, कर सकते हैं।इस तरह से पूरा का पूरा समूह समस्या विशेष पर समाधानों से युक्त अपने-अपने विचारों तथा सुझावों की एक आंधी सी ला देता है।इसी विचार रूपी आंधी में से रह रह कर नये नये समाधानों तथा सृजन के रूप में विद्युत् छटा सी कौंधती रहती है और इस तरह सभी बालकों को सृजनात्मक चिन्तन का पूरा-पूरा अवसर मिलता रहता है।सृजनात्मकता के विकास में सहायक इस तकनीक से उचित लाभ उठाने की दिशा में कुछ आगे बातों पर ध्यान देना विशेष उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
(i)समूह में सभी को अपने विचार एवं सुझाव प्रस्तुत करने की पूरी स्वतन्त्रता मिलनी चाहिये।कोई भी विचार या सुझाव सही या ग़लत नहीं है,बालकों को यह समझाकर पर्याप्त प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये तथा साथ में यह भी बता देना चाहिये कि जिस समय सुझाव आमंत्रित किये जा रहे हों तब बीच में रोका टोकी या आलोचना आदि कदापि नहीं की जानी चाहिये।
(ii)कोई भी बालक समस्या समाधान के लिये जितने विचार एवं विविध तरीके प्रस्तुत करना चाहे कर सकता है।परम्परागत प्रतिमानों से हटकर असाधारण विचारों(Unusual ideas),समाधान और सुझावों को प्रोत्साहित करने का प्रयत्न किया जाना चाहिये
(iii) बालकों द्वारा सर्वथा नये विचार और बिल्कुल ही अलग प्रकार के समाधान प्रस्तुत किये जायें यह आवश्यक नहीं।वे दूसरों के द्वारा दिये गये विचारों में जितना भी फेर बदल और परिवर्तन कर सकें अथवा पुराने विचारों एवं समाधानों को नवीन ढंग से प्रस्तुत कर सकें,ये भी सृजन में शामिल होता है,अतः ऐसा करने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
(iv)अंत में मूल्यांकन और समालोचन का कार्य मिल बैठकर किया जाना चाहिये।जितने भी विचार एवं समाधान बालकों द्वारा प्रस्तुत किये जायें उन्हें लिखित रूप में समूह के सामने रखा जाना चाहिये और उन पर निष्पक्ष रूप से खुलकर चर्चा होनी चाहिये ताकि समस्या समाधान में सहायक उपयुक्त युक्तियों एवं विचारों का ठीक चयन हो सके।
(b)शिक्षण प्रतिमानों का प्रयोग (Use of Teaching Models)- शिक्षा शास्त्रियों द्वारा प्रतिपादित कुछ विशेष शिक्षण प्रतिमानों का प्रयोग भी बालकों की सृजनशीलता के विकास में पर्याप्त योगदान दे सकता है।उदाहरण के लिये ब्रूनर का संप्रत्यय उपलब्धि-प्रतिमान(Bruner's Concept Attainment Model)संप्रत्ययों को ग्रहण करने के अलावा बालकों को सृजनशील बनाने में भी सहयोग देता है और इसी तरह सचमैन का पूछताछ प्रशिक्षण प्रतिमान(Suchman's Inquiry Training Model) वैज्ञानिक ढंग से पूछताछ करने के कौशल को विकसित करने के अतिरिक्त सृजन में सहायक विशेष गुणों को विकसित करने में पर्याप्त सहायता करता है।
(c)क्रीड़न तकनीकों का प्रयोग(Use of Gaming Techniques)-खेल-खेल में ही सृजनात्मकता का विकास करने की दृष्टि से क्रीड़न तकनीकों का अपना एक विशेष स्थान है।इस कार्य हेतु इन तकनीकों में जो प्रयोग सामग्री काम में लाई जाती है वह शाब्दिक(Verbal) और अशाब्दिक(Non verbal) दोनों ही रूपों में होती है। शाब्दिक सामग्री के अन्तर्गत प्रायः निम्न प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं:
(i)जितनी भी गोल वस्तुओं के बारे में आप सोच सकते हैं, उन सभी के नाम बताइये
(ii)एक चाकू को जितने विभिन्न ढंगों से प्रयोग में लाया जा सकता है उनका उल्लेख कीजिये
(iii)कुत्ता और बिल्ली किन-किन बातों में समान ठहराये जा सकते हैं उन सभी बातों को बताइये
अशाब्दिक क्रीड़न सामग्री के अन्तर्गत बालकों को कोई भी चित्र बनाने,अधूरे चित्र को पूरा करने,किसी डिजाइन या नमूने की रचना करने अथवा उसकी व्याख्या करने,ब्लाक या टुकड़ों की सहायता से दी हुई आकृति या चित्र के अनुरूप कोई प्रतिमान बनाने,रेखाचित्र या कार्टून बनाने और दिये हुए कच्चे माल एवं उपलब्ध उपकरणों की सहायता से कोई विशेष निर्माण अथवा अपनी इच्छानुसार कुछ भी नया बनाने के लिये कहा जा सकता है।इस प्रकार की क्रीड़न सामग्री द्वारा बालकों को खेल-खेल में ही निर्माण एवं सृजन के लिये जो बहुमूल्य अवसर प्राप्त होते हैं उन सभी का उनकी सृजनशीलता के विकास एवं पोषण हेतु पूरा-पूरा लाभ उठाया जा सकता है।
Reference -Uma Mangal&SK Mangal