शिक्षण एक कला है। इसे हर कोई नहीं कर सकता। शिक्षण का प्रमुख उद्देश्य अधिगमकर्ता के व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाना है। इसका प्रयोग अध्यापक शिक्षण के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए करता है। शिक्षण प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाने के लिए वह शिक्षण नीतियों की सहायता लेता है। 'नीतियां' (Strategy) शब्द ग्रीक भाषा के शब्द 'Strategia' से लिया गया है जिसका अर्थ है योजना बनाना अथवा उचित शिक्षण देने का वातावरण तैयार करना जो निर्धारित किए गए शिक्षण को सीखने के उद्देश्यों की प्राप्ति में विद्यार्थियों की सहायता करे। मिलिट्री विज्ञान तथा युद्ध कौशलों में नीतियों का अर्थ है प्रभावपूर्ण योजना अर्थात् ऐसी योजना जिसके द्वारा युद्ध में कौशल प्राप्त हो सके। अतः इसे युद्ध कला भी कहा जाता है। महाभारत के युद्ध में द्रोणाचार्य ने अभिमन्यू के वध के लिए एक रणनीति तैयार की। उसी प्रकार अध्यापक या अनुदेशनकर्त्ता को इस प्रकार की नीतियों का ज्ञान होना चाहिए जिसके द्वारा वह अपने शिक्षण को प्रभावशाली बना सके।
शिक्षण नीतियां निम्नलिखित हैं-
• पाठ के प्रस्तुतिकरण के लिए सामान्य योजना।
• इसमें अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन के रूप में अनुदेशन के लक्ष्य तथा नीति के कार्यान्वयन के लिए नियोजित युक्तियों की रूप-रेखा सम्मिलित होते हैं।
• यह पाठ्यक्रम के विकास की प्रक्रिया है।
• यह उद्देश्य प्राप्ति के दृष्टिकोण से शिक्षण और अधिगम में सम्बन्ध स्थापित करती है।
• इसमें अनुदेशन की विस्तृत विधियां जैसे व्याख्यान (Lecture), अनुवर्ग शिक्षण (Tutorial Group), व्यक्तिगत अध्ययन (Case Study) तथा अभिक्रमित अनुदेशन (Programmed Instruction) नीतियां शामिल हैं।
अध्यापक शिक्षण से पूर्व शिक्षण नीति की योजना करता है। वह शिक्षण से पहले सोचता है कि उसे किस नीति का प्रयोग करना चाहिए। शिक्षण क्रिया करते समय भविष्य में प्रयोग की जाने वाली नीतियों का ज्ञान उसे हो जाता है।
शिक्षण नीति के निर्माण के पांच तरीके [Five ways of Making a Strategy]
1. सूचना प्रस्तुतिकरण (Presenting Information
2. प्रश्न पूछना (Questioning)
3. प्रश्नों के प्रति अनुक्रिया (Responding to Question
4. पढ़ना (Reading
5. संरचना (Structuring)
नीति निर्माण की प्रक्रिया (Process of Strategy Making)-
1. संस्था का शैक्षिक दर्शन ।
2. शिक्षण स्थिति के उद्देश्य ।
3. शिक्षक से सम्बन्धित अधिगम सिद्धान्त ।
4. नीति के लिए अपेक्षित क्रियाएं।
5. पृष्ठ पोषण।
6. अभिप्रेरणा की युक्तियां
नीति निर्माण के मुख्य कार्य [Main functions of Strategy Building]
अनुदेशन क्रम का चयन।
छात्रों को ज्ञान प्रेरणात्मक यंत्र द्वारा देना।
विशिष्ट ज्ञान देना।
शिक्षण नीतियों के प्रकार (Types of Teaching Strategies
1. प्रभुत्ववादी शिक्षण नीतियां (Autocratic Teaching Strategies
2. लोकतांत्रिक शिक्षण नीतियां(Democratic or Permissive Teaching Strategies)
1. प्रभुत्ववादी शिक्षण नीतियां (Autocratic Teaching Strategies)-
• यह परम्परावादी शिक्षण नीति है।
• यह अध्यापक केन्द्रित है तथा विद्यार्थी की तरफ ध्यान नहीं देती। अध्यापक का स्थान मुख्य तथा विद्यार्थी गौण है।
• विद्यार्थी निष्क्रिय तथा आज्ञाकारी होता है।
• विद्यार्थियों को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता नहीं होती।
• अध्यापक पर प्रस्तुतिकरण का दबाव होता है।
• विद्यार्थी के मानसिक विकास पर बल दिया जाता है।
इसमें निम्न नीतियां शामिल हैं- (1) व्याख्यान (Lecture), (2) प्रदर्शन (Demonstration), 3.)अनुवर्ग (Tutorials), (4) अभिक्रमित अनुदेशन (Programmed Instruction)।
2. लोकतांत्रिक शिक्षण नीतियां (Democratic or Permissive Teaching Strategies)-
• इसमें आधुनिक प्रजातांत्रिक सिद्धान्तों का पालन किया जाता है।
• यह विद्यार्थी केन्द्रित है।
• इसमें विषय-वस्तु का निर्माण विद्यार्थियों द्वारा किया जाता है।
• इसमें विद्यार्थी तथा अध्यापक दोनों ही सक्रिय होते हैं।
• विद्यार्थियों तथा अध्यापक में अधिकतम अन्तर्क्रिया होती है।
• विद्यार्थियों की रुचियों तथा योग्यताओं को महत्त्व दिया जाता है।
• इसे प्रतिभाशाली विद्यार्थी बहुत पसंद करते हैं।
• शिक्षण अधिगम प्रक्रिया स्मृति स्तर से बोध स्तर तथा चिन्तन स्तर तक होती है।
ये शिक्षण नीतियां अनुसंधान में बहुत महत्त्वपूर्ण होती हैं। ये निम्न हैं-प्रश्नोत्तर, अन्वेषण (Heuristic Strategy), प्रोजैक्ट (Project Strategy), समीक्षा (Review), सामूहिक विचार-विमर्श, पात्र अभिनय, दत्त कार्य (Assignment), Brain Storming, स्वतन्त्र अध्ययन (Independent Study), कम्प्यूटर द्वारा अनुदेशन (Computer Assisted Instruction) इत्यादि।
शिक्षण नीति बनाने के सिद्धान्त [Principles of Teaching Strategy Building]
1. चुनाव का सिद्धान्त (Principle of Selection)-एक अच्छी शिक्षण नीति अच्छे तत्त्वों के चयन पर निर्भर करता है। जैसे अधिगमकर्त्ता की योग्यताएं, साधनों की उपलब्धता, छात्र व्यवहार, संस्था/संगठन का पर्यावरण तथा अध्यापक की गुणवत्ता।
2. प्रेरणा का सिद्धान्त (Principle of Motivation)-अध्यापक को एक न्यायिक तथा उचित नीति/युक्ति अपनानी चाहिए। जैसे-प्रशंसा, पुनर्बलन तथा सजा (डांट, शर्मिन्दा करना) को छोड़कर अन्य ईनाम देना।
3. शिक्षण के सूत्रों का सिद्धान्त (Principle of Maxims of Teaching)- अध्यापक को शिक्षण के सामान्य सूत्रों का प्रयोग करना चाहिए। जैसे-सरल से जटिल की ओर, ज्ञात से अज्ञात की ओर, मूर्त से अमूर्त की ओर इत्यादि।
4. विभिन्नता का सिद्धान्त (Principle of Variety)-विभिन्न विधियां, ढंग और विभिन्न क्रियाएं दोनों ही अधिगमकर्ता और अध्यापक का हिस्सा हैं, जबकि उनके दिमाग में विभिन्न नीतियां विद्यमान हों।
5. वातावरण के साथ सह-सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of correlation with Environment)-अध्यापक को ऐसे तत्त्वों की पहचान होनी चाहिए जिससे वातावरण में सहगामी क्रियाओं के साथ प्राकृतिक सम्बन्ध स्थापित कर सके।
6. पृष्ठ पोषण का सिद्धान्त (Principle of Feedback)- शिक्षण और अधिगम दोनों के सुधार के लिए हमेशा पृष्ठ पोषण दिया जाना चाहिए। इससे शिक्षण अधिगम युक्तियों के तत्त्व को मजबूत बनाया जा सकता है।
7. व्यक्तिगत विभिन्नता का सिद्धान्त (Principle of individual Differences)- अध्यापक को प्रत्येक विद्यार्थी की ओर व्यक्तिगत रूप से ध्यान देना चाहिए। इससे प्रत्येक विद्यार्थी (चाहे वह लड़का हो या लड़की) की योग्यता तथा अभिरुचि को बढ़ाया जा सकता है।
8. बच्चे के सर्वांगीण विकास का सिद्धान्त (Principle of child's alround Development)- बच्चे के सर्वांगीण विकास के लिए असामाजिक गत्यात्मक तत्त्वों को भी प्रशंसित किया जाना चाहिए।
प्रदर्शन एक शिक्षण के रूप में या शिक्षण नीति [Demonstration as a Teaching or Training Strategy]
प्रदर्शन एक लोकतांत्रिक नीति है। यह नीति एक परम्परागत कक्षा नीति है जिसका प्रयोग तकनीकी, औद्योगिक और प्रशिक्षण संस्थाओं की समस्याओं के लिए किया जाता है। यह नीति क्रियाओं का दृश्यात्मक प्रस्तुतिकरण तथा वास्तविकता से संबंधित प्रयोगात्मक कार्य करती है। अध्यापक द्वारा दिए पाठ का सिद्धान्त कक्षा में शिक्षण अधिगम क्रिया को सरल बनाना है।
इस तकनीकी का प्रयोग शिक्षक अधिकतर विभिन्न विषयों में विचारों, क्रियाओं, अभिवृत्तियों और प्रक्रियाओं को प्रदर्शित करने के लिए करते हैं। बोले गए शब्दों को विभिन्न सहायक सामग्रियों में प्रदर्शन के द्वारा विकसित किया जाता है, जिसके फलस्वरूप श्रव्य व दृश्य सीखना होता है। ठोस प्रदर्शन को जब सहायक सामग्री द्वारा प्रस्तुत किया जाता है तो यह दो स्रोत आंख और कान को उत्तेजित करते हैं।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रदर्शन विधि शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में अत्यन्त सफलतापूर्वक प्रयोग की जा रही है। अतः इस विधि के प्रयोग में अध्यापक को महत्त्वपूर्ण तकनीकों जैसे दृश्य व श्रव्य विधियों का प्रयोग करना चाहिए।
प्रदर्शन नीति के पद(Steps of Demonstration Strategy)
↓
प्रस्तावना (Introduction)
↓
विकास (Development)
↓
पूर्णता (Integration)
इस नीति के मुख्य रूप से तीन पद हैं-
1. प्रस्तावना (Introduction)- इसके पहले पद प्रस्तावना में पाठ के उद्देश्य तथा व्याख्या वर्णित होते हैं।
2. विकास (Development)- इसके दूसरे पद में प्रश्नोत्तर तथा अन्य कक्षा क्रियाएं सम्मिलित होती हैं। इसमें अध्यापक प्रस्तुत होता है तथा पाठ का विकास व्याख्या विधि, भाषण विधि, प्रश्नोत्तर विधि और अन्य शिक्षण अधिगम सामग्री की सहायता के साथ किया जाता है।
3. पूर्णता (Integration)- इसमें विभिन्न शिक्षण बिन्दू समकक्ष तथा सह-संबंधित होते हैं तथा विद्यार्थियों की अधिगम प्राप्ति का मूल्यांकन किया जाता है। अतः अंतिम पद में विषय-वस्तु का पूर्वाभ्यास, पुनर्निरीक्षण तथा मूल्यांकन किया जाता है।
यह विद्यार्थियों को उपलब्धि तथा अनुवर्ती (follow up) के अवसर प्रदान करता है। इस नीति को और अधिक सफल बनाने के लिए विभिन्न नीतियां जैसे मौखिक प्रस्तुतिकरण, वर्गीकरण, व्याख्या तथा वर्णनात्मक आदि का प्रयोग करना चाहिए।
यह वास्तविकता और सिद्धान्तों को लम्बे समय तक याद रखने में सहायक है तथा इनका प्रयोगात्मक रूप में प्रयोग होता है।
पाठ प्रदर्शन नीति के सिद्धान्त [Principles of Demonstration Strategy]
• यह मुख्य रूप से सामान्य तथा सामान्य से निचले स्तर के बच्चों के लिए तथा अप्रशिक्षित व अनुभवहीन अध्यापकों के लिए शिक्षण नीति के रूप में प्रयोग किया जाता है।
• इस नीति के द्वारा ज्ञानात्मक तथा मनोगामक उद्देश्यों का अनुभव किया जाता है।
• यह नीति छात्राध्यापक के लिए अपने पाठ के विकास में अत्यधिक लाभदायक है।
पाठ प्रदर्शन नीति के लाभ[Advantages of Demonstration Strategy]
• यह छोटी कक्षाओं के विद्यार्थियों के लिए लाभदायक है।
• यह सामान्य बच्चों तथा निम्न स्तर के मानसिक योग्यता वाले विद्यार्थियों के लिए लाभदायक है।
• यह प्रशिक्षण संस्थाओं में सहायक तथा लाभदायक है।
•इसके द्वारा पाठ को व्यवस्थित तथा उचित क्रम में विकसित करने की क्षमता का विकास होता है।
•इसके द्वारा सभी कार्य क्षेत्र के उद्देश्यों का अभ्यास कराया जाता है।
•प्रदर्शन कक्षा क्रियाओं में यथार्थ रुचि तथा ध्यान उत्पन्न करने में सहायता करता है।
• यह विद्यार्थियों को शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में सक्रिय रूप से सम्मिलित होने में मदद करता है तथा अवलोकन, तर्क-वितर्क, गहरी सोच तथा सृजनात्मक, कल्पना के विकास के अवसर प्रदान करता है।
• प्रदर्शन विद्यार्थियों में आवश्यक जोश पैदा करता है जिसके द्वारा वे शिक्षण की वास्तविकता तथा उसके उचित तरीकों के सिद्धान्तों को समझ सकें।
पाठ प्रदर्शन नीति की सीमाएं [Limitations of Demonstration Strategy]
• अनुवर्ती क्रिया पर बल दिया जाता है जिसके कारण नए प्रयोगों तथा विद्यार्थियों की वास्तविकता की अनदेखी की जाती है।
• यदि प्रदर्शन नीति निपुण तथा योग्य अध्यापक द्वारा नहीं किया जाता तो पाठ का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जाता है।
• इस नीति के लिए योग्य तथा निपुण अध्यापकों की आवश्यकता होती है जो हमेशा सम्भव नहीं होती।
• यह नीति केवल प्रदर्शन पर बल देती है तथा स्वयं करके सीखना तथा स्व-प्रयोगात्मक क्रियाओं के अवसर नहीं देती।
• यदि प्रदर्शन सही प्रकार से न किया जाए तो इससे अध्यापक व विद्यार्थी का समय व धन नष्ट होता है।
पाठ प्रदर्शन नीति के सुझाव[Suggestions related to Demonstration Strategy]
1. पाठ प्रदर्शन के पश्चात् अध्यापक को समस्या हल करने के लिए विद्यार्थियों को उचित अवसर प्रदान करना चाहिए।
2. योग्य व निपुण अध्यापक द्वारा पाठ प्रदर्शन किया जाना चाहिए।
3. प्रदर्शन सामग्री का आकार बड़ा होना चाहिए ताकि वह प्रत्येक विद्यार्थी को दिखाई दे सके।
4. सरल तथा समझने योग्य भाषा का प्रयोग करना चाहिए।
5. विद्यार्थियों का मूल्यांकन करना चाहिए तथा उन्हें पृष्ठपोषण प्रदान करना चाहिए।
6. प्रदर्शन के बाद वाद-विवाद किया जाना चाहिए।
7. अनुरूपित सामाजिक शिक्षण में पाठ प्रदर्शन का प्रयोग अतिरिक्त (Supplementary) रूप में किया जाना चाहिए।