Social Development(सामाजिक विकास)
After reading this article you will be able to answer the following questions-
*सामाजिक विकास क्या है?(What is Social Development ?)
*विकास की विभिन्न अवस्थाओं में सामाजिक विकास(explain Social Development during different stages of Development)
*सामाजिक परिपक्वता क्या है?(what is Social Maturity?)
*सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक कोन कोन से हैं?(what are the various Factors Affecting Social Development)
*'इरिक्सन का मनो-सामाजिक सिद्धान्त(explain Erickson's Theory of Psycho-Social Development)
सामाजिक विकास क्या है?(What is Social Development ?)
मानव को अपनी एक अपूर्व विशेषता के कारण अन्य वर्ग से भिन्न माना जाता है। वह विशेषता यह है कि वह एक सामाजिक प्राणी है। समाज उसके लिए जल, वायु तथा भोजन की तरह ही एक आवश्यक वस्तु है। वह समाज में रह कर जीना चाहता है और सामाजिक सम्बन्धों को बनाने तथा दूसरों के साथ समायोजन करने की चेष्टा करता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि मानव शिशु में इस प्रकार के सामाजिक गुण और व्यावहारिक विशेषताएं जन्मजात होती हैं। वृद्धि और विकास के अन्य महलुओं की तरह सामाजिक गुण भी बच्चे में धीरे-धीरे पनपते हैं। इन गुणों के विकास की प्रक्रिया जो बच्चे के सामाजिक व्यवहार में वांछनीय परिवर्तन लाने का कार्य सम्पन्न करती है, सामाजिक विकास अथवा समाजीकरण के नाम से जानी जाती है। सामाजिक विकास या समाजीकरण मानव वृद्धि और विकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, यहां तक कि हम किसी को व्यक्ति (Person) कह कर तभी पुकारते हैं जब वह सामाजिक विकास या समाजीकरण की प्रक्रिया में से हो कर गुजर चुका हो।सामाजिक विकास या समाजीकरण के अर्थ को स्पष्ट रूप से समझने के लिए हमें कुछ निम्नलिखित परिभाषाओं से और अधिक सहायता मिल सकती है -
1.सोरेन्सन(Sorenson): "सामाजिक वृद्धि और विकास से हमारा तात्पर्य अपने साथ और दूसरों के साथ भली-भांति चले चलने (समायोजन करने) की बढ़ती हुई योग्यता से है।"(By social growth and development we mean increasing ability to get along well with oneself and others.)इस प्रकार से सोरेन्सन यह स्पष्ट करते हैं कि सामाजिक विकास की प्रक्रिया के दौरान व्यक्ति की सामाजिक योग्यताओं और कौशल में बढ़ोतरी होती है। इन बढ़ी हुई योग्यताओं और क्षमताओं के सहारे वह सामाजिक सम्बन्धों को अच्छी तरह निभाने में कुशल बनता चला जाता है। वह अपने व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाने की चेष्टा करता है तथा दूसरों के साथ समायोजन करने और हिल-मिल कर प्रेम से रहने की लालसा रखता है।
श्रीमती हरलॉक(Mrs. Hurlock):"सामाजिक विकास से अभिप्राय सामाजिक सम्बन्धों में परिपक्वता प्राप्त करने से है।"(Social development means the attaining of maturity in social relationship.इस छोटी सी परिभाषा में गहरा अर्थ छुपा हुआ है। यह संकेत करती है कि जैसे संवेगात्मक विकास के फलस्वरूप संवेगात्मक परिपक्वता ग्रहण करना अन्तिम लक्ष्य होता है, उसी प्रकार सामाजिक विकास का लक्ष्य भी बच्चे में सामाजिक परिपक्वता लाना होना चाहिए। एक व्यक्ति को अपने सामाजिक व्यवहार को सुधारने और उसमें प्रगति लाने के लिए सभी प्रकार के अवसर उपलब्ध होने चाहिएं ताकि वह सामाजिक सम्बन्धों को ठीक प्रकार से बनाए रख सके और अपने सामाजिक परिवेश में अपना समायोजन कर सके।उपरोक्त विचारों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि सामाजिक विकास और समाजीकरण वह प्रक्रिया है :
(i) जो शिशु के पहले पहल दूसरे व्यक्तियों के सम्पर्क में आने के साथ-साथ ही शुरू हो जाती है और जीवन पर्यन्त चलती रहती है।
(ii) जिसमें सामाजिक परिवेश से सम्बन्धित शक्तियां व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार के परिवर्तन लाती रहती हैं।
(iii)जो व्यक्ति को विभिन्न सामाजिक गुणों और विशेषताओं को सीखने तथा अर्जित करने में सहायता करती है।
(iv)जो इस प्रकार के सीखने और अर्जन द्वारा व्यक्ति को अपने सामाजिक परिवेश में ठीक प्रकार से समायोजित होने तथा सामाजिक सम्बन्धों को भली भांति निभा सकने में पूर्ण सक्षम बनाती है।
विकास की विभिन्न अवस्थाओं में सामाजिक विकास(Social development during different Stages of development)
1.शैशवास्था में सामाजिक विकास(Social Development in Infancy)
जन्म के समय शिशु का व्यवहार सामाजिकता से काफ़ी दूर होता है। वह अत्यधिक स्वार्थी होता है। उसे केवल अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने की लौ लगी रहती है तथा दूसरों के हित चिन्तन की वह कुछ भी परवाह नहीं करता। वह इस आयु में गुड्डे-गुड्डियों, खिलौने, मूर्तियों आदि निर्जीव पदार्थों तथा पशु-पक्षी, मनुष्य आदि सजीव प्राणियों में कोई अन्तर नहीं समझ पाता।बच्चों में सामाजिक व्यवहार के प्रथम लक्षण उस समय प्रकट होते हैं जब वह वस्तुओं और व्यक्तियों में अन्तर करने लगता है। इस अवस्था में वह अपनी मूल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रौढ़ व्यक्तियों पर निर्भर करता है। इसलिए साधारणतया बच्चे का सामाजिक सम्पर्क पहले पहल प्रौढ़ व्यक्तियों के साथ ही जुड़ता है। श्रीमती हरलॉक (Mrs. Hurlock) ने अपनी पुस्तक 'बाल मनोविज्ञान' (Child Psychology) में प्रौढ़ों के सम्पर्क के फलस्वरूप प्रथम दो वर्ष में होने वाले सामाजिक विकास की प्रक्रिया को बड़े अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया है। उनके विचारों का सार हम नीचे दे रहे हैं :
First month-बालक ध्वनि और अन्य ध्वनियों में अन्तर समझने में समर्थ होता है।
Second month-बालक ध्वनि या आवास को पहचानने लगता है और व्यक्तियों का मुस्कान के साथ स्वागत करता है।
Third month-अपनी माता को पहचानता है और उससे अलग होने पर दुखित होता है। व्यक्तियों के चेहरों को अलग-अलग रूप से पहचान कर ध्यान देना शुरू करता है। उसे व्यक्तियों का साथ अच्छा लगता है।
Fourth month-हंसने और डांट-फटकार पर अलग-अलग प्रक्रिया करता है और प्यार तथा क्रोध की आवाज़ समझने लगता है।
Fifth month-परिचितों का मुस्कान के साथ स्वागत करता है जबकि अपरिचितों को देख कर भय की अनुभूति दिखाता है।
Sixth month-दूसरों की बोली, हावभाव, मुद्रा तथा अंग संचालन की नकल करने का प्रयत्न करता है।
Seventh month-अपनी छाया के साथ क्रीड़ा करता है, यहां तक कि उसका इस प्रकार चुम्बन करता है जैसे कि वह कोई दूसरा शिशु हो ।
Eighth month-न-न कहने अथवा किसी और तरह से मना करने पर किसी कार्य को न करने के लिये मान जाता है।
Nineth month-बड़ों के दिन-प्रतिदिन के कार्यों में हाथ बंटाने का प्रयत्न करता है तथा धीरे-धीरे परिवार का एक सक्रिय सदस्य बन जाने का प्रयास करता है।
अन्य शिशुओं तथा बालकों के साथ सम्पर्क में आने के फलस्वरूप शिशुओं का सामाजिक विकास(Social Development of Infants as a result of contact with other Infants and Children)
शिशुओं के सामाजिक व्यवहार का अध्ययन करने पर पता चलता है कि उनका प्रारम्भिक व्यवहार बहुत ही स्वार्थ और अंह से भरा हुआ है। वे अपने खिलौनों से दूसरों को खेलते हुए नहीं देख सकते। वे चाहते हैं कि जो कुछ भी हो सब उन्हीं के लिए है। किसी अन्य शिशु या बालक का हस्तक्षेप पसंद नहीं करते। परन्तु लगभग 13वें माह से लेकर 18वें माह के बीच शिशु का ध्यान खेलने वाले साथियों की ओर उन्मुख हो जाता है। अब खिलौनों के लिए लड़ना कम हो जाता है और मिलजुल कर खेलने की भावना जोर पकड़ने लगती है। 3 वर्ष का बच्चा अपने पास जो कुछ है उसमें से दूसरों को बांटना या मिलजुल कर खेलना, खाना इत्यादि सीख लेता है। अब वह सामूहिक और संगठित खेलों में रुचि लेने लगता है। 6 वर्ष की आयु तक बालक और बालिकाएं बिना किसी लैंगिक भेदभाव के एक दूसरे के साथ हिलमिल कर खेलते रहते हैं।संवेगों की भांति सामाजिक व्यवहार की प्रारम्भिक अवस्था में शिशुओं में नकारात्मक सामाजिक गुणों (Negative Social Qualitics) का समावेश पाया जाता है। प्रथम दो वर्ष में अनुकरण, दब्बूपन, लज्जाशीलता, प्रतिद्वन्द्विता, ईर्ष्या और संग्रह सम्बन्धी लालच, ये सभी प्रवृत्तियां हावी रहती हैं। धीरे-धीरे सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही प्रकार के सामाजिक गुणों का प्रभाव बच्चों में अच्छी तरह देखा जा सकता है।
B.बाल्यावस्था में सामाजिक विकास (Social Development during Childhood)
शिशुओं के सामाजिक सम्पर्क का दायरा बहुत ही सीमित होता है। अतः सामाजिक विकास के दृष्टिकोण से उनसे बहुत अधिक आशा नहीं की जा सकती। बाल्यावस्था में प्रवेश करने के साथ-साथ अधिकांश बच्चे विद्यालय में जाना प्रारम्भ कर देते हैं और अब उनका सामाजिक दायरा बहुत विस्तृत बनता चला जाता है। इस अवस्था में उनके सामाजिक व्यवहार में कुछ निम्न परिवर्तन दृष्टिगत होते हैं
1. इस अवस्था में बालकों में सामाजिक चेतना का यथेष्ट विकास हो जाता है। उनकी सामाजिक दुनिया बड़ी और विस्तृत हो जाती है। दूसरों के साथ समायोजन के लिए आवश्यक सामाजिक गुण भी उनमें पनपने लगते हैं।
2. अब वह अपने माता-पिता तथा अन्य बड़ों की छत्रछाया से अपने आपको मुक्त कर स्वतन्त्र होने. की कामना करता है और उनके साथ कम से कम समय बिताना चाहता है। वास्तव में अब उनके साथ खेलने-कूदने में कोई आनन्द नहीं आता। उसे अपनी आयु के बच्चों के साथ खेलना अधिक अच्छा लगता है।
3. अब वह अपनी अवस्था के बच्चों के किसी न किसी गिरोह (Gang) का सक्रिय सदस्य बन जाता है। इस गिरोह की गतिविधियों का बालक पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इसके आदर्श और मान्यताएं उसके लिए बहुत ही प्रिय होते हैं तथा वह हर प्रकार से इस गिरोह में अपना एक गौरवपूर्ण स्थान बनाना चाहता है।
4. अपने समूह या गिरोह विशेष के प्रति बालकों में गहरी आस्था या भक्ति भाव पाया जाता है। दूसरी ओर पीढ़ियों के दृष्टिकोण तथा विचारों में अन्तर के कारण माता-पिता तथा गुरुजनों की मान्यताओं का बालकों की टोली या गिरोह की मान्यताओं तथा आदशों से प्रायः टकराव होता रहता है। अतः बालकों के सामने समायोजन सम्बन्धी नवीन समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं।
5. इस आयु में बालक और बालिकाओं में एक-दूसरे से अलग-अलग रहने की प्रवृत्ति पाई जाती है। आदतों, रुचियों और अभिरुचियों में पर्याप्त अन्तर होने के कारण दोनों ही अपने अलग अलग समूह बना कर खेलना-कूदना पसन्द करता हैं।
6. बाल्यकाल की अन्तिम अवस्था में अर्थात् 11वें और 12वें वर्ष की आयु में बालक गिरोहावस्था (Gang Age) के शिखर (Peak) पर पहुंच जाता है। अब उसमें अपनी टोली, समूह या गिरोह विशेष के प्रति अन्ध-भक्ति पैदा हो जाती है। परिणामस्वरूप वह अन्य गिरोह या समूहों, यहां तक कि अपने माता-पिता और गुरुजनों के साथ संघर्षरत दिखलाई पड़ता है। यह विशेष टोली या गिरोह उसमें विभिन्न प्रकार के अच्छे और बुरे सामाजिक गुणों को विकसित करता है।
C.किशोरावस्था में सामाजिक विकास(Social Development during Adolescence)
किशोरावस्था तीव्र परिवर्तन और समायोजन की अवस्था है। सामाजिक विकास के दृष्टिकोण से इस अवस्था के बच्चे में बहुत कुछ परिवर्तन और विशेषताएं दिखाई पड़ती हैं। इनमें से कुछ की चर्चा नीचे की जा रही है।
1. किशोरावस्था में लिंग सम्बन्धी चेतना (Sex-consciousness) तीव्र हो जाती है। फलस्वरूप लड़के और लड़कियां एक-दूसरे के प्रति आकर्षण का अनुभव करते हैं। तरह-तरह की वेशभूषा, केश विन्यास, हाव-भाव द्वारा वे विपरीत लिंग के सदस्यों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न करते दिखलाई पड़ते हैं। उनके मन में एक दूसरे के निकट आने, मित्र बनाने तथा यहां तक कि यौन सम्बन्ध स्थापित करने की लालसा उत्पन्न होने लगती है। इस अवस्था में इस तरह सामाजिक व्यवहार की कुंजी प्रायः यौन सम्बन्धी आवश्यकताओं और अभिलाषाओं के हाथ में चली जाती हैं।
2. इस आयु में अधिकतर किशोर और किशोरियां अपने वय-समूह (Peer Group) के सक्रिय सदस्य होते हैं। उनमें समूह के प्रति असीम भक्ति और आस्था पाई जाती है। वे अपने समूह के विचार, व्यवहार के ढंग, आदतें और दृष्टिकोण अपनाने का प्रयत्न करते हैं। वे अपने दल या समूह के लिए हर प्रकार का त्याग करने को उद्यत रहते हैं। समूह के प्रति श्रद्धा के कारण प्राय: उनका उनके माता-पिता या गुरुजनों के साथ संघर्ष भी छिड़ा रहता है।
3. समूह के प्रति उत्पन्न भक्ति भावना अब केवल टोली या गिरोह विशेष तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि यह विद्यालय, समुदाय, प्रान्त और राष्ट्र तक व्यापक बन जाती है। सहानुभूति, सहयोग, सद्भावना, परोपकार और त्याग का अद्भुत सामंजस्य इस अवस्था में देखने को मिलता है और इसके लिए किशोरावस्था को अधिकांश शहीद और देशभक्तों को उत्पन्न करने का श्रेय मिलता है।
4. किशोरावस्था में मैत्री सम्बन्धों में भी अत्यधिक वृद्धि दिखलाई पड़ती है। बाल्यावस्था की मित्रता से जो केवल खेलकूद की दुनिया तक ही सीमित होती है, यह मित्रता कुछ अधिक व्यापक और स्थिर होती है। कभी-कभी तो यह मित्रता जीवन भर के आत्मीय सम्बन्धों में बदल जाती है।
5. किशोरावस्था संवेगों की तीव्र अभिव्यक्ति की अवस्था है। किशोरों का सामाजिक व्यवहार, उसके संवेगों के अधीन होता है। किशोर स्वभाव से ही संवेदनशील, कल्पना और आदर्शों की दुनिया में विचरण करने वाला, भावुक तथा समाज सुधारक होता है। वह पीड़ितों और शक्तिहीनों के प्रति पूरी सहानुभूति रखता है और उसके लिए कुछ करना चाहता है। यही कारण है कि सामाजिक बुराइयों और अन्याय का प्रतिकार करने के लिए किशोर लड़के और लड़कियां ही प्रायः क्रान्ति के कर्णधार बनते हुए दिखाई देते हैं।
6. किशोरावस्था में विशिष्ट रुचियों और सामाजिक सम्पर्क का क्षेत्र भी अत्यधिक विस्तृत होता है। वैयक्तिक विशेषताओं के अतिरिक्त संस्कृति, परिवार की सामाजिक और आर्थिक स्थिति, यौन सम्बन्धी स्वतन्त्रता और जानकारी इत्यादि उनकी सामाजिक रुचियों और सामाजिक सम्बन्धों को प्रभावित करती है। किशोरों में रुचियों और सामाजिकता के दृष्टिकोण से वैयक्तिकता भी बहुत अधिक देखने को मिलती है। कुछ तो अधिक मिलनसार और सामाजिक होते हैं जबकि कुछ को सामाजिक सम्पर्क से दूर भागते हुए अधिक से अधिक एकान्त का इच्छुक पाया जाता है।अन्त में यह कहा जा सकता है कि किशोरावस्था अत्यधिक सामाजिक चेतना, बढ़ते हुए सामाजिक सम्बन्धों और प्रगाढ़ मित्रता की अवस्था है। इस अवस्था में व्यक्ति को सामाजिक समायोजन तथा सामाजिक गुणों का अर्जन करने के लिए पर्याप्त अवसर तथा रुचियों एवं अभिरुचियों का विशाल क्षेत्र मिलता है। इस अवस्था के दौरान व्यक्ति अपने आपको अपने सामाजिक जीवन में एक उत्तरदायित्वपूर्ण प्रौढ़ व्यक्ति की भूमिका निभाने के लिए पूरी तरह तैयार करता है। इस अवस्था के अन्त तक प्रायः बालक सामाजिक रूप से परिपक्व (Socially mature) हो जाता है।
सामाजिक परिपक्वता(Social Maturity)
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, सामाजिक विकास का उद्देश्य सामाजिक परिपक्वता अर्जित करना होता है। एक बालक अपनी विभिन्न विकास अवस्थाओं से गुजरता हुआ इसकी प्राप्ति के लिये वांछित प्रयासों में जुटा रहता है।आइए देखें कि सामाजिक परिपक्वता से क्या आशय है अथवा सामाजिक रूप से परिपक्व व्यक्ति कहलाने के लिए किसी व्यक्ति विशेष में क्या विशेषताएं होनी चाहिए। संक्षेप में इस प्रकार की विशेषताओं को निम्न रूप में व्यक्त किया जा सकता है
1. सामाजिक रूप से परिपक्व व्यक्ति दूसरों के साथ मेल जोल बढ़ाना पसन्द करता है। वह दोस्त बनाने और दोस्ती को कायम रखने में सक्षम हो सकता है।
2. वह आत्म केन्द्रित नहीं होता। वह समूह, समाज और राष्ट्र के हित चिन्तन हेतु वह अपने फायदों का त्याग करने के लिए हमेशा तैयार रहता है। अपने अधिकारों की माँग करने से पहले अपने कर्त्तव्यों को पूरा करने के लिए सचेत रहता है।
3. उसमें अपने सामाजिक दायित्वों को दूसरों के साथ बांटने तथा आवश्यकता पड़ने पर स्वयं उनका भार वहन करने की क्षमता होती है। जिस तरह की परिस्थिति हो, उसी के हिसाब से नेतृत्व के लिए आगे आने अथवा किसी के नेतृत्व में ईमानदारी से काम करने की योग्यता पाई जाती है।
4. किसी सामाजिक संकट, समस्या अथवा ऐसी परिस्थितियां जिनमें उसकी सहायता अपेक्षित हो,वह उचित निर्णय लेने और उसके अनुसार काम करने की क्षमता रखता है।
5. उसमें बहुत सहयोग प्रदान करने की प्रवृत्ति पाई जाती है। वह दूसरों के साथ अच्छे सम्बन्ध स्थापित करने और साथ-साथ काम करने में विश्वास रखता है। वह कोई भी ऐसी बात नहीं करना चाहता है जिससे दूसरों का दिल दुखे। वह न्याय, समता, समानता और बन्धुत्व में विश्वास रखता है और कभी भी ऐसा कोई काम नहीं करना चाहता है जिससे समाज विशेष की एकता एवं अखंडता पर कोई आँच आए। वास्तव में देखा जाए तो उसमें सभी प्रकार के महत्त्वपूर्ण सामाजिक गुण और विशेषताओं जैसे- धैर्य, दूसरों के विचारों का आदर करना, दयालुता और सहानुभूति, सहयोग, विनम्रता, विनोद प्रियता, आत्म विश्वास, आत्म नियन्त्रण, आत्म सम्मान, विपरीत लिंग के व्यक्तियों के प्रिय आदरभाव, धार्मिक और सांस्कृतिक सहिष्णुता आदि का समावेश रहता है।
6. उसकी सामाजिक रुचियों और सहभागिता का क्षेत्र काफी विस्तृत होता है। उसकी रुचियां उत्कृष्ट होती हैं और सामाजिक शिष्टाचार पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है।
7. उसका सामाजिक व्यवहार समाज के नियम, रीतिरिवाज, आचार-विचार तथा मानदंडों के अनुकूल पाया जाता है। वही कभी समाज विरोधी आचरण और व्यवहार का शिकार नहीं बनता।
8. उसमें समाज सेवा की प्रबल भावना पाई जाती है। उसे समाज में व्याप्त बुराईयों तथा गलत आचरण खटकते है और वह इनके निवारण हेतु सामाजिक सुधार लाने में विश्वास करता है।
9. उसमें काफी हद तक अनुकूलन और समायोजन की क्षमता पाई जाती है इसलिये हर प्रकार की सामाजिक परिस्थितियों तथा सामाजिक मांगों के साथ पटरी बिठाने में वह सफल रहता है।
सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक(Factors affecting Social Development)
बच्चे को सामाजिक रूप से अच्छी तरह विकसित होने में किस प्रकार सहायता की जाए, यह एक विचारणीय प्रश्न है। इसके लिए यह सोचना अधिक उपयोगी है कि ऐसे कौन से तत्त्व या कारक हैं जो बच्चे के सामाजिक विकास को प्रभावित अथवा नियन्त्रित करते हैं। इन सभी कारकों या तत्त्वों में से कुछ तो व्यक्तिगत हैं और कुछ वातावरण से सम्बन्धित हैं। यह कारक क्या हैं और किस प्रकार ये सामाजिक विकास को प्रभावित करते हैं, इसकी चर्चा नीचे की जा सकती है।
A.व्यक्तिगत कारक(Personal Factors)
1.शारीरिक ढांचा और स्वास्थ्य (Bodily Structure and Health) : सामाजिक व्यवहार व्यक्ति के अपने शारीरिक ढांचे और स्वास्थ्य पर बहुत कुछ निर्भर करता है। एक स्वस्थ्य और सामान्य डीलडौल वाले बच्चे में आत्म-विश्वास होता है और वह आत्म गौरव से युक्त होता है। उसमें कठिन से कठिन सामाजिक परिस्थितियों में अपने आप को समायोजित करने की पूरी योग्यता और क्षमता होती है। वह सहयोगी प्रवृत्ति का होता है तथा हर अवस्था में खुश रहने का प्रयत्न करता है। दूसरों के साथ मिल कर कार्य करने में उसे कोई असुविधा नहीं होती। इसके विपरीत एक बीमार, शक्तिहीन अथवा किसी प्रकार के शारीरिक दोषों या न्यूनताओं से ग्रस्त बच्चा हीन भावना का शिकार होने के कारण अपने. सामाजिक समायोजन में कठिनाई अनुभव करता है। इसलिए सामाजिक विकास के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि बच्चों के शारीरिक विकास की ओर शुरू से ही यथेष्ट ध्यान दिया जाए।
2. बुद्धि (Intelligence) : बुद्धि की परिभाषा उचित समय पर उचित निर्णय लेने और नवीन परिस्थितियों में ठीक प्रकार अपना समायोजन कर सकने की योग्यता और क्षमता के रूप में दी जाती है। इस प्रकार की योग्यता और क्षमता कुशल सामाजिक व्यवहार के लिए अत्यन्त आवश्यक होती है। अतः बौद्धिक विकास का सामाजिक विकास से बहुत निकट का सम्बन्ध है। कोई व्यक्ति जितना अधिक बुद्धिमान होता है, वह उतना ही सफलतापूर्वक सामाजिक परिवेश में अपने आप को समायोजित कर अधिक सामाजिक सिद्ध होता है।
3.संवेगात्मक विकास(Emotional Development) : बच्चे के संवेगात्मक और सामाजिक विकास में भी धनात्मक सह-सम्बन्ध (Positive Correlation) पाया जाता है। संवेगात्मक समायोजन और परिपक्वता को सामाजिक परिपक्वता का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता है। जो व्यक्ति अपने संवेगों को समय का विचार करते हुए ठीक मात्रा में व्यक्त करने की क्षमता रखते हैं वे सामाजिक रूप से अधिक स्वस्थ एवं कुशल पाए जाते हैं। इसके विपरीत संवेगात्मक रूप से जिन व्यक्तियों का समायोजन ठीक प्रकार नहीं हो पाता वे सामाजिक बुराइयों और दोषों से ग्रस्त रहते हैं। अतः बच्चों के संवेगों को उचित प्रशिक्षण देने तथा उनके संवेगात्मक विकास को उचित दिशा प्रदान करने का हर सम्भव प्रयत्न किया जाना चाहिए ताकि वे अपने सामाजिक विकास में कोई कठिनाई अनुभव न करें।
B.वातावरण सम्बन्धी कारक(Environmental Factors)
1. परिवार का वातावरण (Family Environment) : बच्चे के समाजीकरण में परिवार सब से अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। घर का वातावरण और आपसी पारिवारिक सम्बन्ध बच्चे के सामाजिक विकास पर गहरा प्रभाव डालते हैं। बच्चा अपने माता-पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों से सामाजिकता के प्रारम्भिक पाठ पढ़ता है। जाने अनजाने वह उनके व्यवहार का अनुकरण करता है और इस तरह अच्छे या बुरे सामाजिक गुणों और आदतों को ग्रहण करता है जो उसके साथ कभी-कभी जीवन पर्यन्त चलती रहती हैं। घर में बच्चों की संख्या, परिवार के आपसी सम्बन्ध, माता-पिता और परिवार के सदस्यों का बच्चे के प्रति किया जाने वाला व्यवहार, परिवार की आर्थिक और सामाजिक स्थिति, पारिवारिक मूल्य, परम्पराएं और मान्यताएं आदि सभी बातें बच्चे के विकास पर प्रभाव डालती हैं ।ऐसे परिवार में जहां बच्चे को स्वस्थ सामाजिक वातावरण मिलता है और जहां बच्चे की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहती है, सामाजिक रूप से स्वस्थ एवं सन्तुलित बच्चों को जन्म मिलता है। लेकिन ऐसे घरों में जहां पारिवारिक सम्बन्धों में कटुता और खिंचाव पाया जाता है तथा परिवार के बड़े लोगों में सामाजिक कुसंस्कार और बुराइयां व्याप्त होती हैं, वहां बच्चों में भी अवांछित सामाजिक बुराइयां और दोष घर कर जाते हैं। इसलिए बच्चों के उचित सामाजिक विकास के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि स्वस्थ एवं सुन्दर पारिवारिक वातावरण प्रदान करने के लिए उनके माता-पिता का अधिक सहयोग प्राप्त किया जाए।
2.विद्यालय और उसका वातावरण(The school and its atmosphere) : बच्चों के सामाजिक विकास विद्यालय किस प्रकार कार्य करता है और बच्चे को किस प्रकार का सामाजिक परिवेश वहां मिल पाता है, इस बात पर भी निर्भर करता है। विद्यालय में अध्यापकगण और विद्यार्थियों के पारस्परिक सम्बन्ध, उनके द्वारा संचालित क्रियाएँ और विभिन्न कार्यक्रम, उनके आदर्श, सिद्धान्त तथा मान्यताएं, अध्यापक और साथ में पढ़ने वाले विद्यार्थियों का सामाजिक व्यवहार और गुण-दोष आदि सभी बातें बच्चे के सामाजिक विकास को प्रभावित करती हैं। स्वस्थ सामाजिक और प्रजातान्त्रिक वातावरण से युक्त विद्यालय विद्यार्थियों में स्वस्थ एवं उपयोगी सामाजिक गुणों का विकास करता है जबकि अस्वस्थ एवं सामाजिक बुराइयों से ग्रस्त विद्यालय का वातावरण विद्यार्थियों को समाज का कोढ़ बना देता है। अतः अध्यापकों और सम्बन्धित अधिकारियों को बच्चे के उचित सामाजिक विकास के लिए विद्यालय के वातावरण को अधिक से अधिक स्वस्थ एवं प्रेरणादायक बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। उन्हें अपने स्वयं के व्यवहार के द्वारा सामाजिक गुणों और विशेषताओं से युक्त उचित आदर्श बच्चों के सामने रखना चाहिए तथा पाठान्तर क्रियाओं, उचित शिक्षण विधियों और व्यक्तिगत सम्पर्क के माध्यम से बच्चों को उनके उचित सामाजिक विकास में भरपूर सहायता देनी चाहिए।
3. वय समूह या मित्र ण्डली का प्रभाव (Influence of the Peer Croup or Friend circle) : सामाजिकता विकसित करने के दृष्टिकोण से बच्चों के अपने बय-समूह या मित्र- पण्डली का भी बहुत महत्त्व है। संगति का असर पड़े बिना नहीं रहता। जैसे जिसके साथी होते हैं वह वैसा ही बन जाता है। वय-समूह या मित्र-मण्डली के जो आदर्श होते हैं और समूह के सदस्यों का जैसा व्यवहार है, वैसे ही गुण और आदर्श बच्चा अपनाने के लिए बाध्य हो जाता है। विभिन्न प्रकार के सामाजिक गुण और अवगुणों को अर्जित करने में मित्र मण्डली या वय-समूह महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सहयोग, त्याग, सद्भावना, सहानुभूति, समूह भक्ति, सामूहिक हित का ध्यान रखने, नेतृत्व करने और किसी को नेता मानकर उसके पीछे चलने तथा कर्त्तव्य और अधिकार का पारस्परिक सम्बन्ध समझने आदि बहुमूल्य सामाजिक गुणों को विकसित करने में वय-समूह या टोली बहुत सहायता करती है। अतः अध्यापक और माता-पिता को बच्चों के मित्रों और साथियों पर नज़र रखकर उन्हें बुरी संगति से बचाने का प्रयत्न करना चाहिए। बच्चों के वय-समूह और मित्र मण्डली को ऊंचे आदशों की ओर उन्मुख कर सामाजिक बुराइयों और दोषों से ग्रस्त होने से बचाने का भी प्रयत्न होना चाहिए। प्रत्येक बच्चा जिस वय-समूह या टोलीका सदस्य है, उसमें उसको उचित स्थान या सम्मान मिल रहा है या नहीं, इसके ऊपर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त बच्चों को अपने मित्रों, साथियों तथा सहपाठियों के साथ कार्य करने के अवसर देकर सामाजिक रूप से समायोजित होने में पूरी-पूरी सहायता की जानी चाहिए।
4. पास-पड़ोस और समुदाय (Neighbourhood and the community): जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है वह घर के आंगन को लांघ कर पड़ोस और जिस समुदाय में वह पैदा हुआ है उसके सम्पर्क में आता है। पड़ोसियों की रुचियों, आदतों और गुण तथा अवगुणों का बच्चे के सामाजिक जीवन पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से गहरा प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक समुदाय और समाज में अपने रहन-सहन, खाने-पीने, बोलने-चालने और अन्य सांस्कृतिक और सामाजिक क्रियाकलापों को करने का एक विशेष ढंग होता है जिसको बच्चा अनायास ही ग्रहण कर लेता है और वह उसी तरह से व्यवहार करने लगता है। इस प्रकार से बच्चों के सामाजिक व्यवहार को दिशा प्रदान करने में पड़ोस, समुदाय तथा समाज एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते है।
5. धार्मिक संस्थायें और क्लब इत्यादि (Religious Institutions and Clubs etc.) : विभिन्न धार्मिक संस्थाएं जैसे मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर और सामाजिक क्लब इत्यादि बच्चों के सामाजिक विकास को प्रभावित करते हैं। समाज के सदस्यों के इकट्ठे होकर विचार विनिमय करने, एक दूसरे के सम्पर्क में आने तथा पारस्परिक सम्बन्धों को बढ़ाने के दृष्टिकोण से इन स्थानों का बहुत महत्त्व है। इन धार्मिक और सामाजिक स्थानों में जिस तरह का वातावरण होता है और इन संस्थाओं के जो आदर्श, परम्पराएं और मान्यताएं होती हैं उनका व्यक्तियों के सामाजिक व्यवहार को उचित और अनुचित-दिशा प्रदान करने में बहुत हाथ रहता है।
6. सूचना और मनोरंजन प्रदान करने वाले साधन (Means of Information and Entertainment) : समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं, पुस्तकों, रेडियो, सिनेमा, टेलीविजन आदि सूचना और मनोरंजन प्रदान करने वाले साधनों का बच्चे के सामाजिक विकास के दृष्टिकोण से काफ़ी महत्त्व है।सूचना देने वाले साधन अपने पाठक अथवा श्रोताओं को सामाजिक संरचना तथा मूल्यों और मान्यताओं में होने वाले परिवर्तनों से परिचित कराते रहते हैं। ये जनमानस में सामाजिक कुरीतियों, बुराइयों और कुसंस्कारों के प्रति घृणा पैदा कर उनका उन्मूलन करने का प्रयास भी करते हैं और इस तरह व्यक्तियों के सामाजिक व्यवहार को वांछित दिशा प्रदान करने में भरपूर सहयोग देते हैं। जनसमूह का मनोरंजन करने वाले साधन जैसे रेडियो, सिनेमा, टेलीविजन इत्यादि भी समाज के सदस्यों के व्यवहार एवं आचरण पर गहरा प्रभाव डालते हैं। सिनेमा के पर्दे पर जो कुछ नायक और नायिका करते हैं, उनका अनुकरण नई पीढ़ी बहुत शीघ्रता से कर लेती है। इस तरह इन साधनों द्वारा जीवन मूल्यों, आदर्शों, रहन सहन, खान-पान तथा बोल-चाल के तरीकों एवं सामाजिक व्यवहार के अन्य पहलुओं में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन लाने का कार्य निरन्तर चलता रहता है। जनसमूह को अत्यधिक प्रभावित करने वाले इन साधनों को मनमाने ढंग से कार्य करने की छूट देना किसी भी अवस्था में उचित नहीं ठहराया जा सकता। इनके द्वारा किसी भी प्रकार का अवांछनीय प्रभाव बच्चों और युवकों पर न पड़े, इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए तथा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में सभी प्रकार से इन साधनों को बहुमूल्य प्रजातान्त्रिक भूल्यों और सामाजिक गुणों को ग्रहण करने का साधन बनाया जाना चाहिए।"
इरिक्सन का मनोसामाजिक सिद्धान्त(Erickson's Theory of Paycho-Social Development)
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक ईरिक इरिक्सन जर्मनी के रहने वाले थे। उन्होंने अपने युवावस्था के प्रारम्भिक . वर्ष कला के अध्ययन में तथा योरोप भ्रमण में व्यतीत किये। अपने योरोप भ्रमण के दौरान उनकी मुलाकात वियाना में प्रसिद्ध मनोविश्लेषक साइमन्ड फ्रायड के साथ हुई और इसके साथ ही उन्हें फ्रायड से मनोविश्लेषण विषय अध्ययन करने के सम्बन्ध में निमन्त्रण भी प्राप्त हुआ। यहीं से उनके एक अलग कार्यक्षेत्र की शुरूआत हुई। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु वे अमेरिका जाकर बस गये। इसमें उन्हें अपने देश जर्मनी में हिटलर द्वारा प्रताड़ित करने के भय से भी मुक्ति मिल गई। अमेरिका में उन्होंने मानव विकास सम्बन्धी आदिवासी अमेरिकन परम्पराओं का अध्ययन किया और फिर एक मनोविश्लेषक के रूप में इस अध्ययन कार्य को आगे बढ़ाने का प्रयत्न किया। फलस्वरूप 1950 में उन्होंने अपने मनोसामाजिक सिद्धान्त को सबके सामने रखा।अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुये इरिक्सन ने स्पष्ट किया कि व्यक्ति विशेष का विकास उसके और उसके सामाजिक वातावरण में परस्पर चलने वाली अन्तः क्रिया का परिणाम होता है। अपने जन्म के समय से ही शुरू हो जाने वाला उसका यह सामाजिक विकास विभिन्न विकास अवस्थाओं तथा आयु वर्षों में से गुजरने के साथ ही उसके सामने इन अवस्थाओं की अपनी जरूरतों को पूरा करने के सन्दर्भ में काफी अलग सी मुश्किलें तथा संघर्षमयी स्थितियां (जिन्हें इरिक्सन द्वारा क्राइसिसेज आफ लाइफ यानी जीवन संकट अथवा परेशानियां कहा गया है) खड़ी करता रहता है। व्यक्ति विशेष अपनी तरह से अवस्था विशेष से जुड़ी हुई आवश्यकताओं को यथासंभव पूरा करने के अपने प्रयासों के द्वारा किसी अवस्था विशेष की संघर्षमयी स्थितियों यानी जीवन संकट से उबरने की कोशिश करता रहता है। परन्तु बालक के विकास के साथ-साथ समाज या सामाजिक वातावरण की माँगें उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाती हैं। इसलिये, अपने विकास की हर एक अवस्था (शैशवकाल से लेकर वृद्धावस्था तक) में व्यक्ति विशेष के सामने कोई एक अलग सा नया संकट खड़ा होता रहता है जो उससे आवश्यक रूप से यह अपेक्षा करता है कि वह अवस्था विशेष में होने वाले विकास को लेकर जो नई चुनौतियां तथा परेशानियाँ सामने आई है उसके उचित समाधान हेतु यथासंभव प्रयास किये जायें। जिस ढंग से व्यक्ति विशेष विकास अवस्थाओं की माँगों से जुड़ी हुई इन संघर्षमयी स्थितियों या जीवन संकटों से निपटता है उसी के अनुरूप उसका व्यक्तित्व ढलता रहता है और उसके व्यवहार में सकारात्मकता या नकारात्मकता की छाप स्पष्ट झलकने लगती है। इरिक्सन ने अपने मनोसामाजिक सिद्धान्त में व्यक्ति के विकास से सम्बन्धित विभिन्न विकास अवस्थाओं तथा आयु वर्षों में अवतरित होने वाली आठ ऐसी संघर्षमयी स्थितियों या जीवन संकटों (Crises of life) का जिक्र किया है और फिर इनका सम्बन्ध व्यक्ति विशेष के पूरे जीवन काल में व्याप्त आठ विभिन्न मनोसामाजिक विकास अवस्थाओं से जोड़ा है।
पहली अवस्था : विश्वास बनाम अविश्वास (जन्म से 1½ वर्षं तक)
विद्यार्थी, अधिगम एवं संज्ञान तालिका में दिया गया उपरोक्त विभाजन इस बात का संकेत दे रहा है कि मानव जीवन की किस अवस्था या आयु अवधि में किस तरह की संघर्षमयी परिस्थितियों या संकटों से गुजरना पड़ेगा। साथ ही इनसे सम्बन्धित व्यक्ति के मनोसामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं का भी यहाँ उल्लेख किया है। व्यक्ति विशेष में किस अवस्था या आयु अवधि विशेष में किस प्रकार के व्यक्तित्व सम्बन्धी गुण तथा विशेषतायें पाई जा सकती है इसका भी स्पष्ट संकेत हमें यहाँ दिख रहा है। इन गुणों या विशेषताओं के दो विपरीत रूप यहाँ दिखाये गये है जो यह प्रकट करते हैं कि अगर व्यक्ति अपनी जीवन अवधि की किसी एक अवस्था या आयु वर्षों से सम्बन्धित एक विशेष प्रकार की संघर्षमयी परिस्थिति या संकट से सफलतापूर्वक उबर जाता है तब उसमें सकारात्मक व्यक्तित्व का विकास होता है अन्यथा वह नकारात्मक व्यक्तित्व गुणों से आक्रान्त होने पर मजबूर हो जाता है। अब क्योंकि इस प्रकार के व्यक्तित्व गुण और समायोजन के ढंगों (जो व्यक्ति विशेष के मनोवैज्ञानिक स्वरूप का निर्धारण करते हैं) का अर्जन व्यक्ति विशेष के अपने और अपने सामाजिक वातावरण की पारस्परिक अन्तः क्रिया के फलस्वरूप होता है, फलस्वरूप विकास की इस प्रक्रिया को मनोसामाजिक विकास तथा विकास अवस्थाओं को मनो सामाजिक विकास अवस्थाओं का नाम दिया जाता है। हमारे मनोसामाजिक विकास से सम्बन्धित इन अवस्थाओं की न तो एक दम शुरूआत होती है और न एक दम इनका अंत एक अवस्था को पार कर ही व्यक्ति दूसरी अवस्था में प्रवेश करता है। अगर एक अवस्था से सम्बन्धित संघर्षमय परिस्थिति या संकट (Crisis) से उभरने की बात उस अवस्था विशेष में नहीं बनती तो वह फिर किसी न किसी रूप में आगे आने वाली विकास अवस्थाओं को भी प्रभावित करती रहती है। इस सम्बन्ध में मनो-सामाजिक विकास की इन अवस्थाओं में क्या कुछ होता रहता है इसका परिचय अब हम आये प्राप्त करने का प्रयत्न करेंगे।अपने जन्म से 1-2 वर्ष की अवधि में एक शिशु को विश्वास बनाम अविश्वास जन्म संघर्षपूर्ण परिस्थिति या संकट से गुजरना पड़ता है। इस समय अवधि में बालक अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अपनी माँ या उसकी देखभाल करने वालों के ऊपर पूरी तरह आश्रित रहता है। जिस तरह बालक का लालन पालन किया जाता है और वह जिस रूप में अपने आपको सुरक्षित और आरामदायक परिस्थिति में महसूस करता है उसी रूप में वह अपनी माँ तथा देखभाल करने वाले अन्य व्यक्तियों और इसके फलस्वरूप उस सामाजिक वातावरण या परिस्थितियों में जिनमें वह पल रहा है, विश्वास या अविश्वास रखने लगता है। अपने परिवेश के प्रति विकसित इस विश्वास या अविश्वास को लेकर ही बालक फिर अपने विकास की अगली अवस्था में प्रवेश करता है और यह बात उसके विकसित व्यक्तित्व और अर्जित व्यवहार में भी आगे स्पष्ट झलकती है।
द्वितीय अवस्था : : स्वायत्तता बनाम लज्जा एवं शंका (1-वर्ष - 3 वर्ष)
प्रथम अवस्था में अपने परिवेश के प्रति वांछित विश्वास और सुरक्षा की भावना से ओतप्रोत होकर एक बालक अब यहां अपने विकास की दूसरी अवस्था में पदार्पण करता दिखाई दे सकता है। उसके पास इस आयु विशेष में होने वाले गामक विकास के फलस्वरूप कुछ गामक कौशल भी होते हैं और अर्जित की गई भाषा भी। इन्हीं की सहायता से अब वह पहले की विकास अवस्था से जुड़ी हुई आश्रितता का परित्याग कर स्वायत्तता तथा आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ाने के लिये लालायित रहता है। अब वह अपने परिवेश को जानने समझने में रुचि लेने लगता है और जो कुछ उसने अपनी योग्यताओं और क्षमताओं के रूप में अर्जित किया है उसकी सार्थकता अथवा असमर्थता की परख करने के प्रयत्नों में रत रहता है। परन्तु यहाँ अब उसे अपने इस प्रकार की स्वायत्तता तथा आत्मनिर्भरता के उपभोग के संदर्भ में अपने रास्ते में आने वाली परेशानियों से भी जूझना पड़ सकता है। यहाँ अब उसे अपनी विभिन्न प्रकार की स्वतन्त्र गतिविधियों जैसे चलना, दौड़ना, कूदना, छलांग लगाना, वस्तुओं को संभालना, उचित रूप से व्यवहार करने के तरीके तथा उचित भाषा का प्रयोग करना सीखना आदि के विषय में अपेक्षित देखभाल और नियन्त्रण की जरूरत होती है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उसे आत्मनिर्भरता की ओर कदम उठाने के लिये आवश्यक सभी प्रकार की स्वतन्त्रता से वंचित कर दिया जाये। सुरक्षा जितनी आवश्यक हो उसका ध्यान रखते हुये बालक को यहाँ ऐसे अवसर तो अवश्य ही प्रदान किये जाने चाहिये जिनसे एक ओर तो उसके कदम स्वायत्तता तथा आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ें और दूसरी ओर अपनी विकसित क्षमताओं और योग्यताओं की भी सामर्थ्य और असमर्थता का भी ठीक आभास हो जाये।अब वे बालक जिन्हें किसी कारणवश आत्मनिर्भर बनने सम्बन्धी आवश्यक परिस्थितियां नहीं उपलब्ध होतीं माँ बाप का उनकी सुरक्षा के बारे में बहुत अधिक चिन्ता करना, जरूरत से ज्यादा अनुशासन और पाबंदियां बच्चों पर लादना, उनके प्रति अनुदार होना ऐसी कुछ बातें हो सकती हैं जिनके परिणामस्वरूप बालक अपनी योग्यताओं और क्षमताओं के प्रति शंकालु (doubtful) रहते हैं, अपने आप कुछ भी करने से डरते और हिचकिचाते हैं और यही बात उन्हें दूसरों के सामने लज्जा या शर्मिन्दगी महसूस करने की ओर ले जाती है। कुछ मायनों में इस प्रकार की शंका या लज्जा अगर वह अपनी सीमा में रहे तो हानिप्रद नहीं होती। क्योंकि उचित रूप से अपनी क्षमताओं के बारे में रखी जाने वाली शंका बालक को अपनी सामर्थ्य के मुताबिक ही काम करने में सहायक बनती है और शर्मिन्दगी तथा लज्जा की अनुभूति उसे गलत कार्य करने से रोकती है। इसलिये मनोसामाजिक विश्वास की इस अवस्था में बालकों को इस तरह उचित सहायता की जानी चाहिये कि वे एक तरफ तो अपने सामाजिक परिवेश की आवश्यकताओं के संदर्भ में आवश्यक स्वायत्तता तथा आत्मनिर्भरता ग्रहण करने में कामयाब हो सके तो दूसरी और उन्हें अपने अनुचित प्रयासों तथा माँ-बाप और बड़ों के अनुचित व्यवहार के कारण अनावश्यक रूप से अपनी योग्यताओं के प्रति शंकाशील बनने तथा अपने व्यवहार के कारण शर्मिन्दगी उठाने की नौबत न आये।
तीसरी अवस्था : पहल बनाम अपराध बोध (3-6 वर्ष)
जब बालक को अपने परिवेश तथा अपनी क्षमताओं पर विश्वास आ जाता है और वह आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ लेता है तो उसमें स्वतः ही अपने वातावरण के प्रति सक्रिय रूप से अन्तः क्रिया करने की शुरूआत होने लगती है। अब वह अपने वातावरण की हर चीज के बारे में जानने को बेहद उत्सुक हो उठता है, उनके बारे में तरह तरह के प्रश्न पूछता है और विविध प्रकार की क्रियाकलापों के बारे में सोचना और करना शुरू कर देता है। उसकी शारीरिक और मानसिक इस प्रकार की गतिविधियों के संपादन सम्बन्धी पहल अब जिस अनुपात में माता-पिता तथा अन्य उपलब्ध सामाजिक परिवेश सम्बन्धी सहूलियतों के माध्यम से पुनर्बलित, प्रोत्साहित या हतोत्साहित की जाती है उसी अनुपात में बालकों में बड़े होकर शारीरिक और मानसिक गतिविधियों में पहल कर बढ़ चढ़ कर भाग लेने की प्रवृत्ति और इससे सम्बन्धित आवश्यक क्षमताओं के विकास का रास्ता खुल जाता है।अगर माँ-बाप, अभिभावकों द्वारा उसकी क्षमताओं पर उचित विश्वास न होने के कारण (उसे अभी छोटा समझने की वजह से) उसकी की जाने वाली इस प्रकार की पहल के लिये उसे हतोत्साहित किया जाता है, अनुचित आलोचना करके उसकी खिंचाई की जाती है, छोटी-छोटी उसकी गलतियों और असावधानियों को तूल देकर उससे मारपीट तथा अन्य सजा सुनाई जाती है तो अवश्य ही ये बातें उसे अपराधबोध से ग्रस्त कर आने वाले जीवन के कार्यकलापों के नियोजन तथा क्रियान्वयन हेतु उचित पहल करने में हिचकिचाने तथा असमंजस में रहने जैसी स्थितियों को जन्म देने वाली सिद्ध हो सकती है। यद्यपि यह बात भी सही है कि असफल होने पर सही समय सही निर्णय नहीं लेने अथवा अपनी गतिविधियों के नियोजन तथा क्रियान्वयन में गलतियां कर बैठने के कारण उसे अपराध बोध की अनुभूति होती है परन्तु इससे उन्हें अपनी गलतियों और असफलता से सीखने का मौका भी मिलता है। परन्तु इस स्वीकारोक्ति तथा पाठ को गहरे अपराध बोध में बदलना (अपनी गलतियों को याद करके अपने आपको कोसते रहना) बालक के सही व्यक्तित्व विकास के लिये काफी हानिप्रद सिद्ध हो सकता है। इसलिये यह जरूरी है कि इस अवस्था की " पहल बनाम अपराध बोध" नामक विषम परिस्थिति या चुनौती का उपयुक्त समाधान तलाश किया जाये। इसे संभव बनाने के लिये हमें चाहिये कि हम उसके द्वारा विभिन्न प्रकार की गतिविधियों को संपादन करने की उसकी पहल को उचित रूप से प्रोत्साहित करने के लिये एक ओर तो अपना समुचित पर्यवेक्षण तथा मार्गदर्शन प्रदान करें तथा दूसरी ओर उसमें अपनी गतिविधियों की एवं मूल्यांकन कर उनसे पुनबर्लित होने या उनमें आवश्यक सुधार लाते रहने की अच्छी आदतें विकसित करने में उनकी पूरी मदद करें।
चौथी अवस्था-अध्यवसाय बनाम हीनता (6-12 वर्ष)
अपनी इस अवस्था से सम्बन्धित आयु अवधि में पहुंचते-पहुंचते सभी बालक प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करने लगते हैं। यहां इन्हें तरह-तरह की बातें पढ़नी और सीखनी होती हैं। फलस्वरूप अध्यापकों तथा विद्यालय परिवेश सम्बन्धी हालातों की वजह से उनमें अधिक से अधिक काम करने अच्छे से अच्छे परिणाम दिखाने का दबाव बढ़ता चला जाता है। दूसरी ओर माता पिता तथा अभिभावकों की भी उनसे (उनकी आयु में बढ़ोतरी होने के साथ साथ) अब अपेक्षायें काफी बढ़ जाती है। वे एक ओर तो उनसे पढ़ाई में आगे रहने की उम्मीद करते हैं तथा दूसरी ओर यह भी चाहते हैं कि वे उनके घर परिवार तथा रोजगारों से सम्बन्धित कार्यों में भी हाथ बँटाये। इससे अतिरिक्त विद्यालय जाने वाले इन बालकों को अपने सहपाठियों से भी विद्यालय तथा अन्य सामाजिक परिस्थितियों में बेहतर कर दिखाने हेतु लगातार प्रतियोगिता में बना रहना पड़ता है। अब अगर बालक विद्यालय घर तथा सामाजिक परिवेश सम्बन्धी इन परिस्थितियों में कुछ अच्छा कर दिखाने में सफल रहता है और उसकी गामक समर्थता तथा बौद्धिक उपलब्धियों की वजह से प्रशंसा होती है तो उसमें ज्यादा से ज्यादा मेहनत करके अच्छे से अच्छे परिणाम लाने सम्बन्धी बातें घर कर जायेंगी। परिणामस्वरूप ऐसे बालक जिन्दगी में ज्यादा से ज्यादा मेहनत करके ज्यादा से ज्यादा पाने तथा प्रगति की ऊँची से ऊँची मंजिले तय करने के लिये पूरी तरह अभिप्रेरित रहेंगे। दूसरी ओर अगर किसी वजह से बालक का उपलब्धि या निस्पत्ति स्तर अपने सहपाठियों की तुलना में काफी कम रहता है अथवा इससे उनके अध्यापकों तथा माँ-बाप को संतुष्टि नहीं मिलती तो बालक स्वयं अपनी नजरों में गिरता जाता है और उसमें हीनता की भावना घर कर लेती है।विद्यार्थियों तथा विद्यालय अधिकारियों द्वारा यहां अब बालकों में अध्यवसाय बनाम हीनता सम्बन्धी इस निकट परिस्थिति तथा चुनौती से ठीक तरह निपटने में सहायता की जा सकती है। बालक के लिये विद्यालय ही वह स्थान है जहां सफलता और असफलता से उसका सही रूप में साक्षात्कार होता है। इसलिये अध्यापक तथा विद्यालय अधिकारियों का यह कर्त्तव्य बन जाता है कि वे कक्षाकक्ष तथा विद्यालय की गतिविधियों एवं वातावरण को इस प्रकार नियोजित एवं संगठित करें कि विद्यार्थी सदैव ही अपने बारे में सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाकर अपनी योग्यता और क्षमताओं में विश्वास रखना सीखे
पाँचवीं अवस्था: पहचान बनाम भूमिका भ्रान्ति (12-19 वर्ष)
किशोरावस्था के आगमन से शुरू होने वाली यह अवस्था बालकों को ऐसी विकट स्थिति में डाल देती हैं कि एक तरफ तो वे अपने स्वयं की पहचान बनाने के लिये जी जान से उतारू रहते हैं तो दूसरी ओर वे यह नहीं समझ पाते कि ऐसा करने में उन्हें किस प्रकार की भूमिका निभानी चाहिये। अपनी भूमिका को लेकर वे दोराहे पर खड़े दिखाई देते हैं। इस बात में पूरी सचाई रहती है और यह होना नितान्त स्वाभाविक है कि किशोरावस्था तक पहुँचते पहुंचते बालकों में अपने पूर्व विकास के आधार पर अपने और अपने परिवेश में विश्वास रखना स्वायत्तता या आत्मनिर्भरता, पहल करना तथा अपनी प्रगति के लिये पूरी मेहनत करना आदि योग्यताओं और क्षमताओं का समावेश हो जाता है और फलस्वरूप उन्हें अपनी पहचान बनाने की आवश्यकता जोर शोर से महसूस होने लगती है। उनके शरीर तथा मानसिक प्रक्रिया में अकस्मात आने वाले परिवर्तनों तथा सामाजिक परिवेश द्वारा उनसे की जाने वाली अपेक्षायें उनसे इस प्रकार के प्रश्नों को पूछने के लिये उकसाती है कि मैं क्या हूँ ? मुझे क्या होना है? क्या मैं वही हूँ जो पहले हुआ करता था ? मुझे क्या करना चाहिये और मेरा व्यवहार किस तरह का होना चाहिए ? आदि।इरिक्सन का इस सम्बन्ध में यह कहना है कि इस अवस्था में एक किशोर की अपने पिछली विकास अवस्थाओं के आधार पर अपनी पहचान बनाने से सम्बन्धित जो अटूट लालसा होती है उसके पीछे (i) उसके शरीर में होने वाले आकस्मिक परिवर्तन तथा (ii) अपने आगामी शिक्षा तथा भविष्य के बारे में किसी निर्णय पर पहुँचने से सम्बन्धित चिन्ता और दबाव ही होते हैं। फलस्वरूप किशोर अपनी नई पहचान तथा नयी भूमिका तलाश करने में प्रयासरत रहता है। इसीलिये उसे विभिन्न प्रकार के यौनगत, रोजगार तथा शिक्षा सम्बन्धी विकल्प तलाशते हुये यह मालूम करता पाया जाता है कि वह क्या है तथा क्या हो सकता है।व्यक्ति विशेष अपनी एक पहचान बनाने के इन प्रयासों में कितना सफल होगा अब यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसे अपनी पिछली विकास अवस्थाओं से सम्बन्धित चुनौतियों, विकट परिस्थितियों तथा उलझनों को सुलझाने में किस सीमा तक कामयाबी मिलती है। उसकी इस संदर्भ में नाकामयाबी उसे अपनी भूमिका के विषय में भ्रमित कर सकती है और फलस्वरूप व्यक्ति विशेष अपने आपको ढूंढने और अपनी दृष्टि तथा दूसरों की दृष्टि में अपनी एक विशेष पहचान बनाने में कामयाब नहीं हो पाता। तब वह दिग्भ्रमित सा हो जाता है और यह नहीं जान पाता कि उसे स्वयं क्या करना चाहिये तथा उसका व्यवहार कैसा होना चाहिये। वह अपने शैक्षिक तथा व्यावसायिक जिन्दगी के बारे में कोई निर्णय लेने तथा दोस्त बनाने में नाकामयाब नजर आता है। आत्म साक्षात्कार (Self-identification) करने सम्बन्धी असमर्थता तथा भूमिका भ्रान्ति उसे गलत रास्ते पर डाल सकती है और वह बच्चों की तरह व्यवहार करने, दुश्चरित्र और असामाजिक तत्वों की भूमिका में अपने आपको उतारने की गलती करता हुआ दिखाई दे सकता है। अगर दूसरी ओर किशोरों का मनोसामाजिक विकास उन्हें अपनी पहचान देने में कामयाब रहता है तो इससे किशोरों को जो कुछ वे कर रहे हैं उसे करने के लिये उनमें पर्याप्त आत्म विश्वास जागृत होता है, संवेगात्मक रूप से वे समायोजित रहते है और उसका अपने और अपने वातावरण के साथ पटरी बिठाने में आसानी रहती है।शिक्षक और अभिभावक किशोरों को उनके इस संकट "पहचान बनाम भूमिका भ्रान्ति" से उभारने में उचित रूप से सहायक सिद्ध हो सकते हैं। उन्हें चाहिये कि उनके किशोर बालक जो अपनी एक पहचान बनाने के लिये प्रयासरत हैं, उनको उनके अपने रूप में (अच्छाईयों तथा बुराईयों दोनों के साथ) स्वीकार करें। दूसरी बात जो सभी किशोर चाहते हैं कि अब उन्हें बालक नहीं बल्कि एक जिम्मेदार वयस्क व्यक्ति के रूप में देखा जाना चाहिये, उनकी इस चाहत को भी ध्यान में रखकर उनसे बच्चों की तरह व्यवहार करना छोड़ देना चाहिये। उनके साथियों तथा बाहर वालों के समक्ष उनसे व्यवहार करते समय यह ध्यान रखा जाना चाहिये कि किसी भी तरह उनके अहं (जो पहचान तथा भूमिका उन्होंने अपने लिये अपने मन में बना रखी है) उसको किसी भी तरह ठेस न लगे। उन्हें उनकी योग्यताओं के अनुरूप वैयक्तिक या सामूहिक रूप से जिम्मेदारी के काम सौंपे जायें तथा उनके चरित्र, किये जाने वाले कार्यों तथा वायदों पर विश्वास करके चला जाये।
छटी अवस्था : अन्तरंगता बनाम अकेलापन (20-45 वर्ष)
मनोसामाजिक विकास की यह छटी अवस्था का सम्बन्ध व्यक्ति विशेष की पूर्व वयस्क अवस्था से सम्बन्धित आयु वर्षों से होता है। इस अवस्था में वह अपनी चाहत के किसी व्यक्ति के साथ अन्तरंग सम्बन्ध स्थापित करने में प्रयासरत रहता है। इरिकसन (1950) ने इस बारे में अपनी टिप्पणी करते हुये लिखा है :"एक युवा वयस्क जो अपनी एक पहचान बनाने के प्रयासों से अभी अभी उभरा है वह अब अपनी पहचान को दूसरों की पहचान में आत्मसात कर उनसे अन्तरंग सम्बन्ध जोड़ने के लिये लालायित रहता है। इस अवस्था में उसमें ऐसी सक्षमता नजर आती है कि वह ठोस सम्बन्ध कायम करने तथा अच्छा सहयोगी बनने की भूमिका का निर्वाह कर सके तथा अपने अंदर ऐसा नैतिक सामर्थ्य जुटा सके कि वह इस प्रकार के सहयोगी रहने व बनने के वायदों को किसी भी कीमत पर पूरा करता हुआ दिखाई दे।"इस तरह इस अवस्था में व्यक्ति अपनी पहचान को दूसरों की पहचान में आत्मसात कर उनसे घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित करता हुआ दिखाई देता है। उसके इस सम्बन्धों में इतनी प्रागढ़ता आ जाती है कि उसमें अहं तथा तेरा मेरा पन की भावना बिल्कुल नहीं रहती। इस तरह के प्रगाढ़ सम्बन्धों के उदाहरण रूप में हम पति-पत्नी, अन्तरंग दोस्तों तथा एक आदर्श शिक्षक शिष्य के मध्य पाने वाले सम्बन्धों का उल्लेख कर सकते हैं। इस तरह की सर्वोच्च अन्तरगता तथा एक दूसरे में विलय की भावना के दर्शन कामेच्छा तृप्ति करते हुये प्रेमी जोड़ों में संभोग की चरम अवस्था में अच्छी तरह लक्षित हो सकते हैं। दूसरे तरह की ऐसी घनिष्टता और अन्तरंगता वहां देखी जा सकती है जहाँ लोगों को अपनी मित्रता निभाने तथा परिवार के सदस्यों का साथ देने के लिये हर प्रकार के त्याग करता हुआ पाया जाता है।अन्तरंगता के ठीक विपरीत हम अकेलापन को पाते हैं। जहां अन्तरंगता में सम्बन्धों का अटूट बन्धन प्रगाढ़ता तथा घनिष्ठता होती है वहां अकेलेपन में सम्बन्धों के नाम पर पूर्ण रिक्तता होती है। जब कोई किसी से भरोसे लायक घनिष्ट सम्बन्ध नहीं बना पाता अथवा जब बने बनाये सम्बन्ध किसी कारणवश तार-तार हो जाते हैं तब व्यक्ति विशेष में अकेलापन घर करने लगता है, उसके दूसरों से सम्बन्ध खत्म जाते हैं और वह सबसे अलग-थलग पड़ जाता है। ऐसा होना न तो उसके हित में है और न समाज के सम्बन्धों को बनाने और उनमें प्रगाढ़ता लाने के यहां कुछ-कुछ उपाय अवश्य किये जाने चाहिये। परन्तु इससे यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिये कि अकेलापन सभी तरह से अवांछनीय या हानिप्रद है। किसी भी तरह का कुछ न कुछ एकान्त और अकेलापन व्यक्ति विशेष की अपनी वैयक्तिकता तथा छवि को बनाये रखने तथा उसके व्यक्तित्व को वांछित दिशा प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। परन्तु अगर यह बात सीमा से बाहर हो जाये तब यह दूसरों से अच्छे सम्बन्ध बनाने में पहल करने तथा बने सम्बन्धों को टिकाये रखने में बाधक बनकर व्यक्ति विशेष को अपने में ही सिमट कर रह जाने तथा एकान्त और अकेलेपन की ओर धकेल सकती है। इसलिये यहां अब यह आवश्यक हो जाता है कि इस अवस्था विशेष की एक बड़ी चुनौती तथा विषम परिस्थिति" अन्तरंगता बनाम अकेलेपन " के भंवर जाल से ठीक प्रकार निपटा जाए। यह ठीक तरह संभव है अगर हम अपनी दो तरह की एक दूसरे के विपरीत खड़ी हुई आवश्यकता - अन्तरंग सम्बन्ध बनाने की आवश्यकता तथा अपनी वैयाक्तिकता को बनाये रखने की आवश्यकता की पूर्ति में उचित संतुलन कायम रख सकें। जितनी अच्छी तरह से हम ऐसा कर सकेंगे उतनी ही अच्छी तरह से हम अपने आपस और अपनी दुनिया जिसमें हम रहते है उससे समायोजन कर सकेंगे।
सातवीं अवस्था उत्पादनशीलता या सृजनशीलता बनाम जड़ता( 45-65 वर्ष)
इस अवस्था तक पहुँचता पहुँचता व्यक्ति अपने व्यवसाय विशेष में अच्छी तरह पैर फैला लेता है। अब वह अपनी व्यावसायिक दुनिया नई पीढ़ी तथा समाज को कुछ अपनी ओर से देने के लायक न जाता है। फलस्वरूप अपने आप कुछ नया कर दिखाने तथा अपने क्षेत्र में अपने कार्यों द्वारा भरसक योगदान देने आदि की इच्छा उसमें जाग्रत होती है। वह अपनी उत्पादनशीलता तथा सृजनात्मकता तथा आने वाली पीढ़ी को रास्ता दिखाने सम्बन्धी अपनी इस चाहत को भी पूरा करना चाहता है। इस प्रकार की अपनी इच्छा और चाहत को पूरा करने के लिये उसके द्वारा अपने बच्चों को आगे बढ़ाने दूसरे युवा लोगों का मार्गदर्शन करने अथवा किसी न किसी ऐसी रचनात्मक, उत्पादक या प्रयोजनपूर्ण गतिविधियों में प्रयासरत होने की कोशिश की जाती है जिससे समाज, देश या मानवता का भला हो। केवल अपने बारे में या अपने घर परिवार तथा घनिष्ट मित्रों के बारे में ही न सोचकर तथा इस संकीर्ण दायरे से कुछ बाहर निकलकर अब उसका ध्यान आने वाली पीढ़ी को अपनी ओर से कुछ कर जाने की तरफ होता है।वह अपने बालकों के अलावा, अपने विद्यार्थियों, अधीन कर्मियों तथा सामान्य रूप से सभी युवा व्यक्तियों को अपना जीवनदर्शन देकर जीवन में आगे बढ़ने तथा अपने कैरियर में सफल होने के गुण सिखाने का प्रयत्न करता है। इस तरह से वह अपने आत्म के विस्तार तथा अपने आत्म का समाज के अच्छे सदस्यों के आत्म के साथ आत्मसातीकरण या विलय के प्रयत्नों के रत होता दिखाई देता है।उत्पादनशीलता या सृजनात्मकता के ठीक विपरीत इस अवस्था में कुछ व्यक्तियों को आत्मकेन्द्रितता, अहं तथा स्वार्थपरता से भी बहुत अधिक ग्रस्त पाया जाता है। परिणामस्वरूप वे अपने ही लिये जीते और मरते पाये जाते है, दूसरों के लिये कुछ करने या समाज के लिये कुछ देने जैसे भावों का उनमें अभाव ही रहता है। इसके अतिरिक्त वे समाज के उत्पादक उपयोगी तथा सृजनशील अंग के रूप में विकसित न होकर जड़ता (Stagnation) से ग्रस्त हो जाते हैं। न वे कुछ नया करना चाहते हैं और न आने वाली पीढ़ी को उचित मार्गदर्शन द्वारा आगे बढ़ने में सहायता करने की उनमें कोई चाहत होती है। इस तरह की निष्क्रियता या जड़ता दिखाने की बात स्वयं उसके तथा समाज के लिये कई प्रकार से हानिप्रद सिद्ध हो सकती है। परन्तु कुछ समय के लिये अगर निष्क्रिय रहने तथा जड़ता ग्रहण करने की बात हो तो यह व्यक्ति को जो कुछ किया है उसे भली भाँति नियत्रित एवं संगठित करने, उसका मूल्यांकन कर आगे के लिये सबक लेने तथा अपनी शक्तियों को पूर्णजीवन देकर नये उत्साह से उत्पादन या सृजन में जुटने में उचित सहायता कर सकती है परन्तु इसकी अतिशयता व्यक्ति को आत्मकेन्द्रित, स्वार्थी तथा उच्च प्रकार की असामाजिक प्रवृतियों की ओर धकेल सकती है। इसीलिये भलाई इसी में है कि उनकी उत्पादनशीलता तथा निष्क्रयता या जड़ता सम्बन्धी दो विपरीत आवश्यकताओं में आवश्यक संतुलन बनाकर रखा जाये जिससे वे एक ओर तो अपनी विकसित योग्यताओं और क्षमताओं के बलबूते पर उत्पादन और सृजनात्मक कार्यों में अपना भरपूर योगदान देते रहे तो दूसरी ओर निष्क्रियता एवं जड़ता के क्षणों में अपने उत्पादन तथा सृजन को संगठित करने तथा ऊर्जा का संचय करने में इस प्रकार समर्थ बन सकें कि वे आगे आने वाले समय में नई पीढ़ी तथा समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को पूरे जोश से निभा सकें।
आठवीं अवस्था :अहं संतुष्टि बनाम हताशा (65 वर्ष से मृत्यु तक )
मनोसामाजिक विकास की इस अवस्था का सम्बन्ध व्यक्ति की वृद्धावस्था (old age) से है। इस अवस्था में व्यक्ति अपने जीवन काल की अन्तिम संघर्षमय परिस्थिति तथा चुनौती "अहं संतुष्टि बनाम हताशा " के चक्रव्यूह में फँसा पाया जा सकता है। पिछली सभी अवस्थाओं को सफलतापूर्वक पार करके ही कोई इस अवस्था तक पहुँचता है। सभी अवस्थाओं में उसे किसी न किसी प्रकार की चुनौती। या उलझन भरी परिस्थिति से जूझना पड़ता है और इन सबसे अच्छी तरह निपटकर यहां तक पहुँचना अब उसे कुछ सीमा तक संतोष या संतुष्टि का अनुभव कराता है।अहं संतुष्टि से भी यहां यही आशय है कि व्यक्ति जब पीछे मुड़कर अपने अतीत पर नजर डालता है और उसने जो कुछ किया उससे वह संतुष्टि का अनुभव करता है तो इससे उसके अहं की संतुष्टि की होती है। मैंने कुछ किया, मैं कुछ कर पाया, यह बात उसमें अपने प्रति आदर यानी उसके दृष्टिकोण को उसके स्वयं के प्रति सकारात्मक बनाने में बहुत मदद करती है। जब व्यक्ति स्वयं ठीक महसूस करता है। तो उसे सभी जगह अच्छाईयां नजर आने लगती हैं और उसका दृष्टिकोण दूसरों के प्रति भी सकारात्मक बन जाता है। इस प्रकार अपने आप से तथा दुनिया से संतुष्ट व्यक्ति को अब अपने अतीत से कोई शिकायत नहीं होती। वह यही सोचता है कि उन परिस्थितियों में जो कुछ भी हो सका ठीक हुआ। दूसरी ओर वे व्यक्ति जो पिछली अवस्थाओं की चुनौतियों तथा उलझन भरी परिस्थितियों / संकटों (Crises of life) से ठीक तरह नहीं निपट पाये उनकी सोच यहां अब काफी नकारात्मक पाई जा सकती है। उन्हें अपने अतीत में झाँककर निराशा हाथ लगती है। ऐसा हो गया, ऐसा नहीं होना चाहिये, मुझे ऐसा न करके ऐसा करना चाहिये था, यही सोच-सोचकर वे पश्चाताप की अग्नि में जलते रहते हैं और अपने विगत इतिहास को लेकर अपने से काफी नाराज और दुखी दिखाये देते हैं। जीवन में इतना लम्बा रास्ता तय करने के बाद अब वह यह सोचते हैं कि उनकी जिन्दगी ठीक तरह नहीं बीती और अब तो उनके पास अपनी भूलें सुधारने तथा कुछ नया हट कर करने का समय ही कहाँ बचा है, यही बात अब उन्हें पूरी तरह हताशा की ओर धकेल देती है। इन व्यक्तियों को ही मृत्यु का भय हर समय सताता रहता है। दूसरी ओर वे व्यक्ति जिन्हें अपने अतीत पर कोई पश्चाताप नहीं होता और जो अपने किये पर गौरवान्वित या संतुष्टि का अनुभव करते है वे जीवन और मरण को एक स्वाभाविक प्रक्रिया मानकर डर डर कर नहीं जीते बल्कि अपनी आखिरी साँस तक अपनी जिन्दगी को पूरी तरह से जीते हैं।दूसरी ओर देखा जाये तो असंतुष्टि और हताशा आवश्यक रूप से व्यक्तित्व का नकारात्मक पहलू नहीं है। किसी काम से या किसी बात से हमारा संतुष्ट होना या न होना नितान्त सामान्य और स्वाभाविक है। हम अपनी जिन्दगी में हमारे द्वारा की जाने वाली कई भूलों तथा कमियों का स्मरण कर पछताते हैं। परन्तु यह बात इतनी अधिक नहीं बढ़ जानी चाहिये कि इससे हम में अपने स्यवं के प्रति नफरत या हीनता के भाव पैदा हो जायें तथा हम निराशा और हताशा के अँधेरों में खो जायें। इसलिये यह आवश्यक है कि वृद्धावस्था से अहं संतुष्टि तथा हताशा के बीच भली भाँति संतुलन कायम करने का प्रयत्न किया जाये ताकि जिन्दगी के इस आखिरी पड़ाव में व्यक्ति अपने और अपनी दुनिया के प्रति सकारात्मक आशावादी दृष्टिकोण अपनाते हुये दुनिया और समाज के लिये उपयोगी बनकर अपने शेष दिनों को सम्मानपूर्वक जीये।
Reference-uma Mangal and SK Mangal