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Mental and Cognitive Development(मानसिक एवं संज्ञानात्मक विकास)
Sep 29, 2022   Ritu Suhag

Mental and Cognitive Development(मानसिक एवं संज्ञानात्मक विकास)

Mental and Cognitive Development(मानसिक एवं संज्ञानात्मक विकास)

After reading this article you will be able to answer the following questions-

1.what is the meaning of mental and cognitive development?

2.what are the various aspects of mental or cognitive development?

3.what are the various factors affecting mental or cognitive development?

4.what is the educational implication of mental or cognitive development?

5.explain Piaget's theory of cognitive development.

6.explain Bruner's theory of cognitive development.

संज्ञानात्मक अथवा मानसिक विकास का अर्थ(Meaning of Cognitive or Mental Development)

पहले अध्याय में हम देख चुके हैं कि किस प्रकार शारीरिक वृद्धि और विकास के फलस्वरूप बालकों की शारीरिक क्षमताओं, योग्यताओं और सामर्थ्य में पर्याप्त वृद्धि के दृष्टिकोण से सभी आन्तरिक और शारीरिक बाह्य अवयवों में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं। इस प्रकार की वृद्धि और विकास के परिणामस्वरूप वे ऐसे-ऐसे परिश्रम सम्बन्धी कार्य कर सकते हैं अथवा ऐसे खेल खेल सकते हैं जिन्हें खेलने में अपनी शैशवावस्था या छोटी अवस्था में वे अपने आपको असमर्थ पाते थे। उसी प्रकार बच्चा अपने शैशव या वाल्यकाल में ऐसे कार्य भी नहीं कर सकता जिन्हें करने के लिए अधिक विकसित मानसिक शक्तियों की आवश्यकता होती है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है वैसे-वैसे उसकी मानसिक योग्यतायें और क्षमतायें बढ़ती जाती हैं और वह ऐसी समस्याओं को जिन्हें वह बचपन में नहीं सुलझा पाता था, आसानी से सुलझाने लगता है। इस प्रकार से संज्ञानात्मक अथवा मानसिक विकास से तात्पर्य बालक की उन सभी मानसिक योग्यताओं और क्षमताओं में वृद्धि और विकास से है जिसके परिणामस्वरूप वह अपने निरन्तर बदलते हुए वातावरण में ठीक प्रकार समायोजन करता है और बड़ी-बड़ी उलझनपूर्ण समस्याओं को सुलझाने में अपनी मानसिक शक्तियों को पूरी तरह समर्थ पाता है।वास्तव में संवेदना(Sensation),प्रत्यक्षीकरण(Perception),कल्पना(Imagination),स्मरण शक्ति एवं तर्क शक्ति, विचार शक्ति, निरीक्षण, परीक्षण तथा सामान्यीकरण शक्ति, बुद्धि और भाषा सम्बन्धी योग्यता, समस्या समाधान योग्यता (Problem Solving Ability) और निर्णय लेने की क्षमता आदि सभी प्रकार की संज्ञानात्मक, मानसिक और बौद्धिक शक्तियाँ, योग्यताएं और क्षमताएँ हमारी मानसिक वृद्धि और विकास की प्रक्रिया द्वारा ही नियन्त्रित होती हैं। ये सभी मानसिक शक्तियाँ अथवा योग्यतायें एक-दूसरे से बहुत सम्बन्धित हैं। इनमें से किसी का भी अपने आप में अकेले होने या किसी दूसरे को प्रभावित किए बिना विकसित होना सम्भव नहीं है। इसलिए जब भी किसी स्तर पर किसी बालक के मानसिक विकास की बात करते हैं तो उस समय हमारा तात्पर्य इन सभी योग्यताओं, क्षमताओं और शक्तियों के समन्वित विकास से ही होता है।

संज्ञानात्मक या मानसिक विकास के विभिन्न क्षेत्रों या पहलुओं में होने वाला विकास(Development in Various Areas and Aspects of Cognitive or Mental Development)

जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि बालक के मानसिक अथवा संज्ञानात्मक क्षेत्र के अन्तर्गत उसकी समस्त मानसिक योग्यताएँ और शक्तियाँ सम्मिलित होती हैं। इन योग्यताओं अथवा शक्तियों का विकास बच्चे में धीरे-धीरे ही होता है। जन्म के पश्चात् ये किस प्रकार पनपती हैं, यह जानकारी बहुत ही रोचक एवं उपयोगी सिद्ध हो सकती है। यद्यपि मानसिक शक्तियों और योग्यताओं के क्षेत्र में बच्चा - समान रूप से आगे रहता है, परन्तु किसी आयु अथवा अवस्था विशेष में इन योग्यताओं और शक्तियों में विकास की गति कम अथवा अधिक होती रहती है।

वृद्धि और विकास की विभिन्न अवस्थाओं में होने वाली मानसिक वृद्धि और कास को ध्यान में रखकर आगे के पृष्ठों में मानसिक विकास के विभिन्न पहलुओं या दूसरे शब्दों में विभिन्न महत्त्वपूर्ण मानसिक योग्यताओं और शक्तियों के क्षेत्र में बच्चा अपनी आयु के साथ-साथ किस प्रकार आगे बढ़ता है, इस बात की चर्चा की जाएगी।

1.संवेदना और प्रत्यक्षीकरण (Sensation and Perception)—संवेदना और प्रत्यक्षीकरण दोनों ही मानसिक विकास के महत्त्वपूर्ण पहलू माने जाते हैं। आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा आदि ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा हमें जो कुछ भी अनुभूति होती है उसे संवेदना (Sensation) कहा जाता है। जब संवेदनाओं से कोई निश्चित अर्थ निकालने की चेष्टा की जाती है तो वे प्रत्यक्षीकरण (Perception) का रूप धारण कर लेती हैं। प्रारम्भ में बच्चा संवेदना और प्रत्यक्षीकरण दोनों में ही बहुत पिछड़ा हुआ होता है। उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ इतनी अधिक विकसित नहीं होती। फलस्वरूप न तो वह वस्तुओं की पहचान कर सकता है और न उनसे कोई विशेष अर्थ ग्रहण कर पाता है। बच्चे की दृष्टि भी पहले पहल स्थिर नहीं रहती। दीपक की लौ तथा अन्य रंग-बिरंगी वस्तुओं की और अपनी दृष्टि जमाए रहना संवेदना के पा विकसित होने की प्रारम्भिक अवस्था मानी जा सकती है। इसके पश्चात् वह व्यक्तियों और वस्तुओं के अन्तर को समझने और उन्हें पहचानने लग जाता है। अब वह परिचित तथा अपरिचित में भी भेद कर सकता है। इस प्रकार से धीरे-धीरे वह अपने वातावरण से परिचित होने लगता है और उससे निहित वस्तुओं और व्यक्तियों को पहचान कर उनको भली-भाँति जानने अर्थ ग्रहण करने तथा प्रयोजन सिद्ध करने की चेष्टा करने लगता है। धीरे-धीरे यह वस्तुओं के प्रत्यक्ष सम्पर्क में आकर उनके नाम या कोई ध्वनि विशेष के माध्यम से ही अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना प्रारम्भ कर देता है।इस प्रकार से जब वह अपनी ज्ञानेन्द्रियों का उपयोग करना प्रारम्भ कर देता है तो उसकी अपनी चारों ओर के वातावरण के विषय में अधिक-से-अधिक जानने की जिज्ञासा भी बहुत बढ़ जाती है। वह प्रत्येक घटना या वस्तु को क्यों, क्या और कौन जैसे प्रश्नों में जोड़ कर अनगिनत प्रश्न पूछने का प्रयास करता है। प्रारम्भ में बच्चों में समय, स्थान, आकार, गति और दूरी से सम्बन्धित प्रत्यक्षीकरण विकसित नहीं होते। इसी कारण उसे दूर जाती हुई वास्तविक रेलगाड़ी अपनी खिलौना रेलगाड़ी जैसी दिखाई देती है। दूरी के बारे में प्रत्यक्षीकरण योग्यता के अभाव में जब वह मेज पर प्लेट इत्यादि वस्तुएँ रखना चाहता है तो उन्हें वह मेज की दूरी या ऊँचाई से नीचे या इधर-उधर छोड़ देने की भूल कर बैठता है। धीरे-धीरे उसकी प्रत्यक्षीकरण योग्यता विकसित होने लगती है। जैसे-जैसे वह किशोरावस्था की ओर पग बढ़ाता है, ज्ञानेन्द्रियों की कार्यकुशलता और क्षमता अपने शिखर पर पहुँच जाती है और उसके प्रत्यक्षीकरण का ढंग सुव्यवस्थित और विवेकपूर्ण बन जाता है। अब उसके प्रत्यक्षीकरण (Perception) अनुभव अधिक निश्चित, अर्थपूर्ण एवं विस्तृत हो जाते हैं तथा उनके ऊपर उसकी आवश्यकताओं, रुचिओं और मानसिक तैयारी के अतिरिक्त उसके विश्वासों, विचारों तथा आदर्शों इत्यादि की गहरी छाप पड़नी प्रारम्भ हो जाती है। इसके अतिरिक्त अब प्रत्यक्षीकरणों को निश्चित रूप से स्थूल वस्तुओं से सम्बन्धित करने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

2.सम्बोध या संप्रत्यय निर्माण(Concept Formation)- बच्चों में सम्बोधों या संप्रत्ययों का निर्माण होना भी उनके मानसिक विकास का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। सम्बोध या संप्रत्यय एक प्रकार से ऐसे सामान्यीकृत विचार हैं जो एक व्यक्ति द्वारा विभिन्न प्रत्यक्षीकरण अथवा प्रत्यक्ष अनुभवों के माध्यम से आगमनात्मक तर्क प्रणाली का प्रयोग करते हुए विभिन्न व्यक्तियों तथा प्रक्रियाओं के बारे में बना लिए जाते हैं।संप्रत्यय निर्माण में विभेदीकरण(Discrimination) और सामान्यीकरण(Generalization) से सम्बन्धित दोनों प्रकार की योग्यताओं का उपयोग होता है। वस्तुओं अथवा मनुष्यों को पहचान कर विभेदीकरण कर सकने की योग्यता बच्चे में बहुत शीघ्र विकसित होने लगती है। बाद में जब वह अपने प्रत्यक्षीकरण सम्बन्धी अनुभवों के आधार पर सामान्य निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न करना प्रारम्भ कर देता है तब संप्रत्यय निर्माण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। संप्रत्यय निर्माण में वास्तविक वस्तुओं के द्वारा ग्रहण किए गए स्थूल अनुभव बहुत सहयोग देते हैं। इनकी सहायता से बच्चे के अन्दर विभिन्न संप्रत्ययों का निर्माण हो जाता है।जब बच्चा कुछ और बड़ा हो जाता है तो उसमें स्थूल तथा प्रत्यक्ष अनुभवों के द्वारा भी संप्रत्ययों का निर्माण होने लगता है। अब वह किसी वस्तु या किसी व्यक्ति या प्रक्रिया के बारे में पुस्तकों से पढ़कर या अपने अध्यापक द्वारा सुनकर अथवा चित्र या फोटोग्राफ में देख कर ही निश्चित धारणा बनाना. प्रारम्भ कर देता है। बाद के वर्षों में बालकों में न केवल नए-नए संप्रत्ययों का निर्माण होता है, बल्कि उसके अन्दर पहले से ही विद्यमान पुराने संप्रत्ययों को भी नवीन रूप मिलता रहता है। नवीन अनुभवों का कसौटी पर खरा न उतरने के कारण त्याग भी करना पड़ता है।सामान्यतया संप्रत्ययों के विकसित होने की प्रक्रिया में स्थूल में सूक्ष्म की ओर, अस्पष्टता एवं अनिश्चित से निश्चित की ओर चला जाता है।इसी कारण बच्चों के संप्रत्यय अस्पष्टता, अनिश्चितता और अपर्याप्तता से युक्त होते हैं। उदाहरण के तौर पर बच्चे में समय सम्बन्धी संप्रत्यय का सर्वथा अभाव होता है। क्रो व क्रो (Crow and Crow) ने इसके बारे में विचार व्यक्त करते हुए लिखा है, " समय अपने इस रूप में जैसा कि समझा जाता है बच्चों के लिए कुछ भी महत्त्व नहीं रखता। उसे 'आज', 'कल' और अगले सप्ताह में कोई अन्तर दिखाई नहीं देता। समय की अवधि के सूचक वे सभी शब्द उसे शब्द मात्र ही प्रतीत होते हैं।" उसी प्रकार बच्चे में स्थिति, दूरी, गहराई आदि से सम्बन्धित संप्रत्यय भी बहुत अस्पष्ट एवं अल्प विकसित अवस्था में होते हैं, परन्तु जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है, परिपक्वता ग्रहण करने के फलस्वरूप वे अधिक-से-अधिक स्पष्ट, विशिष्ट और निश्चित होते चले जाते हैं।

3.भाषा विकास(Language Development)-व्यक्ति की मानसिक वृद्धि और विकास में भाषा का विकास भी महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। भाषा विकास के प्रारम्भिक चरण में बच्चे बोलना सीखने का प्रयत्न करते हैं। शुरू-शुरू में रोने, किलकारी भरने, चिल्लाने आदि से सम्बन्धित ध्यनियाँ द्वारा उनकी यह इच्छा व्यक्त होती है। प्रथम वर्ष में वह केवल कुछ शब्दों का उच्चारण ही सीख पाता है, परन्तु उसके पश्चात् बोलने सम्बन्धी शब्दकोष में बहुत तेजी से वृद्धि होती है। अनुकरण की प्रक्रिया इस कार्य में सहायता करती है। बच्चा अपने परिवेश में अपने से बड़ों तथा साथियों का अनुकरण कर शीघ्रता से बोलना सीखता है। बोलने और सीखने की इस प्रक्रिया में बच्चों में तुतलापन, हकलाहट और रुक-रुक कर बोलने जैसे दोष भी उत्पन्न हो सकते हैं। अतः माता-पिता और अध्यापकों को इस समय के बोलने के प्रयत्नों पर पूरा-पूरा ध्यान देना चाहिए।जहाँ तक भाषा सम्बन्धी शब्दकोष का प्रश्न है, इसकी उपस्थिति बचपन में बहुत सीमित मात्रा में होती है। जैसे-जैसे आयु बढ़ती है वैसे-वैसे परिपक्वन और औपचारिक तथा अनौपचारिक शिक्षा के माध्यम से इसके कलेवर में निरन्तर वृद्धि होती रहती हैं.अगर पढ़ने सम्बन्धी रुचियों और आदतों को ठीक प्रकार से बनाए रखा जाए तो व्यक्ति न केवल युवा और प्रौढ़ावस्था में बल्कि वृद्धावस्था में भी अपने शब्द भण्डार में यथेष्ट वृद्धि करने में सक्षम हो है सकता है।शब्दकोष में वृद्धि और बोलना सीखने के साथ-साथ वाक्य निर्माण और भावों द्वारा अपने भावों की अभिव्यक्ति करने के ढंग में भी पर्याप्त कुशलता आने लगती है। बाल्यावस्था के प्रारम्भ में बच्चे प्रश्नों का उत्तर केवल एक शब्द में देने का प्रयत्न करते हैं। उस समय उनकी भाषा में संज्ञा शब्दों की भरमार होती है। कुछ समय पश्चात् धीरे-धीरे वे विशेषण, सर्वनाम, क्रिया विशेषण आदि अन्य विन्यासों का प्रयोग भी अच्छी तरह सीख लेते हैं और उनके उत्तर अब भाषा रचना की दृष्टि से संक्षिप्त और अधूरे होने की अपेक्षा लम्बे, गूढ़ और सशक्त होने लगते हैं।

4.स्मरण शक्ति का विकास(Development of Memory)-मानसिक विकास का एक अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू स्मरण शक्ति है। जन्म के समय बच्चों में स्मरण शक्ति कितनी मात्रा में होती हैं. इसके बारे में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता। आयु में वृद्धि होने पर परिपक्वता और अनुभवों के माध्यम से इसका धीरे-धीरे विकास होने लगता है। हरलॉक (Hurlock) और श्वार्टज (Schwartz) ने विकास की इस प्रक्रिया पर टिप्पणी करते हुए लिखा है " शुरू के छः महीने के बच्चे जो बातें उन पर गहरा प्रभाव छोड़ती हैं, केवल उन्हीं को स्मरण रखते हैं, परन्तु साल के अन्त तक उनमें वास्तविक स्मरण शक्ति विकसित होने के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। प्रथम वर्ष में तो वे प्रत्यक्ष वस्तुओं के सम्पर्क में आने पर उनसे सम्बन्धित बातों को याद रख सकते हैं। बोलना आ जाने के बाद, प्रायः दो वर्ष के पश्चात् वे विचारों के रूप में भी बहुत कुछ स्मरण रख सकते हैं। प्रथम दो वर्षों में परिस्थितियों की अपेक्षा व्यक्ति और वस्तुओं से सम्बन्धित स्मरण शक्ति ही अधिक अच्छी पाई जाती है। बाल्यकाल के शुरू में तीन से लेकर छः वर्ष तक बच्चे की स्मरण शक्ति में परिस्थितियों और घटनाओं का स्थान बहुत बढ़ जाता है। अनुभूतियों से जुड़े हुए संवेग अब स्मरण-शक्ति को प्रभावित करने लगते हैं। तीन वर्ष की आयु तक बच्चे अपनी स्मरण-शक्ति के आधार पर कुछ दिन पहले सुनी हुई कहानी अथवा अपने पूर्व अनुभवों को सुनाने में समर्थ हो जाते हैं।"इस प्रकार से बाल्यावस्था के प्रारम्भ से ही बच्चों में स्मरण-शक्ति के चिन्ह स्पष्ट दिखाई देने लग जाते हैं, परन्तु छोटी अवस्था में बच्चों की स्मरण शक्ति रट्टू तोते की तरह की होती हैं। वे किसी भी चीज को बिना सोचे-समझे बार-बार दोहरा कर अथवा रट कर याद करने का प्रयत्न करते हैं। बाल्यावस्था के बाद के वर्षों और किशोरावस्था में स्मरण शक्ति धीरे-धीरे तर्क और सूझ-बूझ पर निर्भर होने लगती है और प्रौढ़ावस्था के अन्तिम वर्षों में, स्मरण शक्ति कम होना प्रारम्भ कर देती है। किस विशेष आयु से ऐसा होना प्रारम्भ होता है, यह बात निश्चित रूप से नहीं कही जा सकती। आयु और स्वास्थ्य के अतिरिक्त घटनाएँ, परिस्थितियाँ और संवेगात्मक कारक भी स्मरण शक्ति को खो बैठने या इसमें कमी आ जाने के लिए उत्तरदायी ठहराए जा सकते हैं।

5.समस्या समाधान योग्यता का विकास(Development of Problem Solving Ability)—समस्या समाधान करने की योग्यता भी मानसिक विकास का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। व्यक्ति के सामने किसी-न-किसी रूप में अनगिनत समस्याएँ रहती हैं। उनका समाधान करने के लिए इस प्रकार की योग्यता की आवश्यकता होती है। सोचने-विचारने और तर्क करने दोनों ही प्रकार की शक्तियाँ समस्या के समाधान में सहायक सिद्ध होती हैं इसलिए समस्या समाधान योग्यता, सोचने-विचारने और तर्क करने की शक्ति पर निर्भर करती है। सोचने-विचारने और तर्क करने की शक्ति 2% और 3 वर्ष की आयु से ही विकसित होती आरम्भ हो जाती है, परन्तु इस आयु में बच्चे की विचार-शक्ति अधिक सूक्ष्म नहीं होती। वह अमूर्त विचारों (Abstract Ideas) का चिन्तन करने में प्राय: असमर्थ होता है। ऐसी पेचीदा समस्याओं को, जिनमें सूक्ष्म विचार-शक्ति, कल्पना शक्ति और अधिक संगठित तर्क-शक्ति की आवश्यकता होती है, सुलझा सकने की आशा उससे नहीं की जा सकती। लेकिन धीरे-धीरे आयु बढ़ने के साथ-साथ उसमें अमूर्त विचारों का चिन्तन करने और सूक्ष्म के साथ सम्बन्ध बनाने की योग्यता आने लगती है। अब वह मौलिक तथा अमूर्त विचारों, काल्पनिक चित्रों, सूत्रों तथा संकेतों की सहायता से विभिन्न समस्याओं को सुलझाने में समर्थ बन जाता है।इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रारम्भिक अवस्था में बच्चों के सामने हल करने के लिए ऐसी सरल और उपयोगी समस्याएँ प्रस्तुत की जानी चाहिए जो उनके वातावरण से सम्बन्धित हों तथा जिनके हल के लिए काल्पनिक या अमूर्त विचार चिन्तन तथा सूक्ष्म पर्यवेक्षण की कम-से-कम आवश्यकता पड़ती हो। फिर जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती जाए उनके सामने कठिन और कठिनतर समस्याएँ रखी जानी चाहिए। इस प्रकार से बच्चों में धीरे-धीरे समस्या समाधान योग्यता विकसित की जानी चाहिए।उपरोक्त पहलुओं के अतिरिक्त मानसिक विकास और वृद्धि की दिशा में ध्यान (Attention), कल्पना शक्ति, निष्कर्ष निकालने और निर्णय लेने की क्षमता आदि का भी अपना एक विशेष महत्त्व है। बच्चों में ये विशेष शक्तियाँ और योग्यता भी जैसे-जैसे उसकी आयु बढ़ती जाती है, ऊपर वर्णन की गई। मानसिक योग्यताओं की तरह परिपक्वन और शिक्षा के माध्यम से धीरे-धीरे पनपती रहती हैं।

मानसिक या संज्ञानात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक(Factors affecting Mental or Cognitive Development)

वंशानुक्रम और वातावरण दोनों ही मानसिक वृद्धि और विकास को अधिक से अधिक प्रभावित करने की चेष्टा करते हैं। जीवन की किसी भी अवस्था में एक व्यक्ति का मानसिक विकास उसके वंशानुक्रम और वातावरण की सम्मिलित देन कहा जा सकता है। गर्भाधान के समय अपने माता-पिता के माध्यम से मानसिक विशेषताओं और गुणों के रूप में जो कुछ भी वंशानुगत पूंजी उसे प्राप्त होती है वह भविष्य में उसकी मानसिक वृद्धि और विकास की दिशा में एक ठोस आधार का कार्य करती है। इस आधार के ऊपर अपनी आयु में वृद्धि के साथ-साथ बच्चा अपने भौतिक, सामाजिक और शैक्षिक वातावरण के सहारे मानसिक वृद्धि और विकास रूपी भव्य प्रासाद के निर्माण में संलग्न रहता है।वास्तव में देखा जाए तो परिपक्वन (Maturation) और सीखना (Learning) दोनों ही मानसिक वृद्धि और विकास को नियन्त्रित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। परिपक्वन द्वारा शारीरिक वृद्धि और विकास में होने वाली यह वृद्धि मानसिक वृद्धि और विकास को काफ़ी प्रभावित करती है। जन्म के समय मस्तिष्क और स्नायु संस्थान दोनों ही बहुत अविकसित होते हैं। जन्म के पश्चात् इनमें तेजी से वृद्धि और विकास प्रारम्भ हो जाता है और जैसे-जैसे इनमें परिपक्वता आती जाती है, वैसे-वैसे बच्चे की . मानसिक शक्तियां और योग्यताएं बढ़ती जाती हैं। इस प्रकार से स्नायु संस्थान मानसिक विकास को एक निश्चित दिशा प्रदान करने में पूरी तरह से सहायक सिद्ध होता है।सीखने की प्रक्रिया भी, चाहे वह औपचारिक शिक्षा अथवा माध्यम से हो और चाहे वह अनौपचारिक शिक्षा अथवा व्यक्तिगत अनुभवों के ऊपर आधारित हो, स्वाभाविक रूप से परिपक्वन के परिणामस्वरूप होने वाली मानसिक वृद्धि और विकास को अपनी चरम सीमा तक पहुंचने में पूरी तरह सहायक सिद्ध होती है। मानसिक वृद्धि और विकास में इसकी भूमिका की तुलना शारीरिक वृद्धि और विकास की दिशा में शारीरिक व्यायाम द्वारा उठाए जाने वाले लाभ से की जा सकती है। जैसा कि सोरेन्सन (Serenson, 1948 : 32) ने लिखा है-"एक बच्चे की टांगें, भुजाएं और शरीर स्वास्थ्यप्रद खेल द्वारा सशक्त बन जाता है। हम यह परिणाम निकाल सकते हैं कि मस्तिष्क और स्नायु संस्थान दोनों ही पढ़ने, गणना करने, स्मरण रखने, बोलने, कल्पना करने और अन्य मानसिक क्रियाओं को करते रहने में होने वाले अभ्यास 'और मानसिक व्यायाम द्वारा उन्नत और अधिक सक्षम बन जाते हैं।"(A Child's legs, arms and body are made stronger by healthful play. We can deduce that the mind with its organic counter-part, the nervous system, improves and becomes better equipped because of use and exercise in the form of reading, calculating, memorizing, speaking, imagining and other mental activities.) मानसिक या संज्ञानात्मक विकास की जानकारी के शैक्षिक निहितार्थं(Educational Implications of the knowledge of mental or cognitive development)

विभिन्न अवस्थाओं में मानसिक वृद्धि और विकास के स्वरूप का लाभ और मानसिक योग्यताओं और क्षमताओं में आयु के साथ-साथ होने वाले परिवर्तनों की अमूल्य जानकारी अध्यापक के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध हो सकती है। इस उपयोगिता को संक्षिप्त रूप में निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता

1.विभिन्न आयु स्तरों पर पाठ्यक्रम सम्बन्धी और सहगामी क्रियाओं तथा अनुभवों के चयन और नियोजन में इससे सहायता मिल सकती है।

2.किस विधि और तरीके से पढ़ाया जाए, सहायक सामग्री तथा शिक्षण साधन किस प्रकार प्रयोग में लाए जाएं, शैक्षणिक वातावरण किस प्रकार का हो, यह सब निश्चित करने में भी अध्यापक को इससे सहायता मिलती है।

3.विभिन्न अवस्थाओं और आयु-स्तर पर बच्चों की मानसिक वृद्धि और विकास को ध्यान में रखते हुए उपयुक्त पाठ्य पुस्तकें तैयार करने में भी इससे सहायता मिल सकती है।

4.इसकी सहायता से अध्यापक को यह ज्ञात हो जाता है कि एक विशेष प्रकार की पढ़ाई और कार्य जिन्हें करने के लिए कुछ विशेष विकसित मानसिक शक्तियों की आवश्यकता होती है, उपयुक्त समय पर उन शक्तियों के विकसित होने पर प्रारम्भ कराने चाहिएं। अनावश्यक शीघ्रता और देरी दोनों ही इस अवस्था में हानिकारक सिद्ध हो सकती हैं।

5.इस प्रकार के ज्ञान द्वारा अध्यापक अपने शिष्यों की मानसिक शक्तियों और क्षमताओं के पूर्ण विकास में पूर्ण सहयोग प्रदान कर सकता है। वह उन्हें समाधान और सृजनात्मक अभिव्यक्ति के लिए पर्याप्त प्रशिक्षण दे सकता है। बिना सोचे समझे तोते की तरह रटने और अन्धों की तरह इधर-उधर हाथ मार कर कार्य में सफल होने के लिए प्रयास करने की अपेक्षा तर्क शक्तियों तथा सूझ-बूझ के आधार पर याद रखने और अन्य कार्य सम्पन्न करने में भी वह उनकी सहायता कर सकता है। उनके निरीक्षण, प्रत्यक्षीकरण, सामान्यीकरण सम्बन्धी योग्यता को विकसित करने में भी उनकी मानसिक शक्तियों की वृद्धि और विकास के स्तर को ध्यान में रखते हुए वह उनकी पूरी मदद कर सकता है। इस तरह से एक अध्यापक मानसिक वृद्धि और विकास के सभी पहलुओं और उनके विभिन्न स्तरों पर होने वाले सामान्य और विशिष्ट परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए अपने शिष्यों को मानसिक वृद्धि और विकास के पथ पर अच्छी तरह से अग्रसर कर सकता है। वह न केवल उनकी मानसिक शक्तियों और योग्यताओं के विकास में ही सहायता करता है, बल्कि उन्हें इन शक्तियों और योग्यताओं का उसके स्वयं और समाज के लाभ को ध्यान में रखते हुए विवेक और बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग करने में भी समर्थ बना सकता है।

मानसिक या संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त(Theories of Mental or Cognitive Development)

जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं तो उनका मानसिक या संज्ञानात्मक विकास कैसे आगे बढ़ता रहता है ? विकास काल के दौरान बालकों में संज्ञानात्मक ढाँचे में किस-किस तरह परिवर्तन आते रहते हैं ? इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर देने के लिये मनोवैज्ञानिकों ने अपने कुछ विचारों को सामने रखा है। विकासात्मक मनोविज्ञान में इन्हें संज्ञानात्मक सिद्धान्तों का नाम दिया जाता है। इन में से दो महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों- पियाजे का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त तथा ब्रूनर का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त की चर्चा हम आगे करने जा रहे हैं।

पियाजे का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त(Piaget's Theory of Cognitive Development)

जीन पियाजे(Jean Piaget) स्विटजरलैण्ड निवासी एक मनोवैज्ञानिक थे। इनकी रुचि यह जानने की थी कि बालकों में वृद्धि का विकास किस विशेष ढंग से होता है। इसके लिये उन्होंने अपने स्वयं के बच्चों को अपनी खोज का विषय बनाया। बच्चे जैसे-जैसे बड़े होते गये, उनके मानसिक विकास सम्बन्धी क्रियाओं का वे बड़ी बारीकी से अध्ययन करते रहे। इस अध्ययन के परिणामस्वरूप उन्होंने जिन विचारों का प्रतिपादन किया उन्हें पियाजे के मानसिक या संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है।

पियाजे की सैद्धान्तिक अवधारणायें या मान्यतायें(Piaget's Theoretical Notions)

पियाजे ने मानव मस्तिष्क की संज्ञानात्मक प्रणाली की संरचना, कार्यप्रणाली और विकास को समझते हेतु एक उचित प्रारूप विकसित किया। उसने इसे कार्यहेतु अपनी एक सैद्धान्तिक अवधारणा हमारे सामने रखी कि हमारे शरीर के शारीरिक अंगों की तरह हमारे मस्तिष्क के दो पक्ष/पहलू होते है इनमें से एक को हम संज्ञानात्मक संरचना (Cognitive Structure) का नाम दे सकते हैं और दूसरे को संज्ञानात्मक कार्यप्रणाली या व्यवहार का।

संज्ञानात्मक संरचना (Cognitive Structure)-अन्य प्रकातियों से अलग, मानव शिशु कुछ जन्मजात प्रवृत्तियों (instincts) तथा सहज प्रवृत्तियों (reflexes) जैसे दूसना, देखना, पहुँचना तथा पकड़ना को लेकर पैदा होता है। इस तरह शिशु के पास प्रारम्भ में संज्ञानात्मक संरजमा के रूप में ये चार प्रकार की संज्ञानात्मक योग्यतायें क्षमतायें पाई जाती है जिनमें उसे चूसने, देखने, पहुंची तथा पकड़ने जैसे गामक क्रियाओं के संपादन में मदद मिलती है। पियाजे ने इन योग्यताओं और क्षमताओं का श्रीमान (Schomas) का नाम दिया और कहा कि ये चारों हमारे संज्ञानात्मक विकास के मूलाधार हैं। ये शोमाज क्या है, इसे समझने हेतु हम कोई शीमा (Schema) जैसे चूसने से सम्बन्धित सोमा (Sucking Schema) को लेकर चलते हैं। इस शीमा से तात्पर्य वस्तुओं को चूसने सम्बन्धी हमारी सामान्य संज्ञानात्मक योग्यता या क्षमता से है यह शिशु के लिये उपलब्ध एक ऐसी मानसिक या संज्ञानात्मक संरचना है जो उसे सभी तरह की वस्तुओं को चूसने में मदद करती है जैसे माँ का स्तन, एक चम्मच, एक खिलौना आदि। इस तरह किसी शीमा (Schema) विशेष से अभिप्राय: सामान्य योग्यता या क्षमता के रूप में विद्यमान बालक के संज्ञानात्मक संरचना की उस मूलभूत इकाई से है जो उसे किसी विशेष प्रकार के संज्ञानात्मक व्यवहार (जैसे चूसना, पकड़ना, गणना करना आदि) के संपादन में मदद करती है।पियाजे के अनुसार इस तरह शिशु अपने संज्ञानात्मक विकास की यात्रा विभिन्न प्रकार के श्रीमान (Schemas) से संरचित संज्ञानात्मक संरचना से शुरू करता है। चूसने, देखने पहुँचने तथा पकड़ने जैसे कार्यों में सहायक चार शीमाज तो उसके पास जन्मजात होते हैं। इसमें आगे अन्य शीमाज जैसे-जैसे वह बड़ा होता है, वातावरण जन्य अनुभवों के आधार पर जुड़ते चले जाते हैं और इस तरह हमारे मस्तिष्क की संज्ञानात्मक संरचना किसी भी विकास अवस्था में हमारे जन्मजात तथा अर्जित शोमाज का ही कुल योग और प्रतिफल होती है।

संज्ञानात्मक कार्यप्रणाली(Cognitive Functioning)

यह बात सर्वविदित है कि किसी वस्तु या मशीन की संरचना उसकी कार्यप्रणाली के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस दृष्टि से एक बालक के पास शीमाज के रूप में जो भी जमा पूंजी अपनी संज्ञानात्मक संरचना से काम लेने हेतु होती है वही यह निर्धारित करती है कि वह अपने भौतिक तथा समाजिक वातावरण में उपलब्ध बातों से कैसे निपटेगा। यहाँ अब उसके लिये यह आवश्यक हो जाता है वह अपने आपको जीवित रखने तथा अपनी वृद्धि एवं विकास की यात्रा को ठीक ढंग से चलाये रखने हेतु अपने वातावरण (भौतिक तथा सामाजिक) के साथ ठीक प्रकार समायोजित रहे।जितनी अच्छी तरह से वह समायोजित होता रहेगा उसे उसी सीमा तक संज्ञानात्मक रूप से विकसित कहलाने का गौरव मिलता रहेगा। पियाजे के अनुसार इस तरह संज्ञानात्मक विकास की चाभी बालक के द्वारा अपने वातावरण के साथ की जाने वाली उस अन्तःक्रिया से है जिसके माध्यम से वह अपने आपको अपने वातावरण के साथ समायोजित करता रहता है। इस तरह की समायोजन सम्बन्धी कार्य प्रणाली को ठीक तरह आगे बढ़ाने में पियाजे के अनुसार दो मुख्य प्रक्रियाओं आत्मसातीकरण (Assimilation) तथा समायोजीकरण (Accommodation) की प्रमुख भमिका होती है।आत्मसातीकरण में बालक अपने परिवेशजन्य परिस्थितियों से निपटने हेतु अपनी संज्ञानात्मक संरचना में पहले से ही उपस्थित शीमाज को सहायता लेता है। नये खिलौने को भी मुँह में रख कर चूसना यह आत्मसातीकरण ही है। शीमाण के रूप में उसके पास चूसने से सम्बन्धित शीमा है वह सभी वस्तुओं को मुँह में डालकर चूसने की कोशिश करता है। पुराने खिलौनों से वह ऐसे ही खेलता है और इसलिये जब उसके पास कोई नया खिलौना लाया जाता है तो वह अपने पूर्व अनुभवों को ध्यान में रखते हुये इस खिलौने को भी चूसने का प्रयत्न करता है। इस तरह आत्मसातीकरण प्रक्रिया बालक से यह अपेक्षा करती है कि उसके पास पूर्व संज्ञानात्मक संरचना के रूप में जो कुछ भी है वह उसी से किसी नवीन परिस्थिति का सामना करे। यहाँ अभी किन्हीं नये शीमाज के अर्जन तथा संज्ञानात्मक संरचना के फैलाव या विकास की जरुरत बालक को महसूस नहीं होती, परन्तु ऐसी अवस्था में जब नया खिलौना इतना बड़ा हो कि न तो बालक उसे हाथ से पकड़ सके और न वह मुंह में रखा जा सके तो निस्संदेह बालक को अब अपनी वर्तमान संज्ञानात्मक संरचना में कुछ परिवर्तन करने की आवश्यकता अनुभव होगी। नयी चुनौती का मुकाबला करने के लिये उसे अपने सोचने और कार्य करने के ढंग में परिवर्तन लाना होगा। फलस्वरूप बालक अब खिलौने को चूसने के बजाय उसे धक्का देकर खेलना चाहेगा। इसी को समायोजीकरण(accomodation) कहा जाता है क्योंकि यहाँ अब बालक नई परिस्थिति से निपटने के लिये नये ढंग से सोचने और व्यवहार करने हेतु अपने में उचित बदलाव लाने की कोशिश करता है। वह पूर्व अनुभव के आधार पर ही नई परिस्थिति से जूझने में नहीं लगा रहता। यह सोचकर तथा पाकर कि अब पहले उपलब्ध संज्ञानात्मक संरचना से नई परिस्थिति से नहीं निपटा जा सकता वह अपनी संज्ञानात्मक संरचना में नये शीमाज को स्थान देने का प्रयत्न करता है। इस तरह जहाँ आत्मासातीकरण प्रक्रिया(Process of assimilation) में बालक अपने पूर्व ज्ञान तथा अनुभवों के आधार पर ही अपनी अनुक्रिया व्यक्त कर प्रस्तुत परिस्थिति से निपट लेता है वहीं समायोजीकरण(accomodation) में जब उसका काम पूर्व ज्ञान तथा अनुभवों से नहीं चलता तो उसे अपनी वर्तमान संज्ञानात्मक संरचना में अनुकूल परिवर्तन लाकर सोचने तथा काम करने के नये तरीके अपनाने पड़ते हैं।उदाहरण के लिये जब पहली बार बालक को निपल वाली दूध की बोतल की बजाय गिलास में दूध दिया जाता है तो पहले तो वह आत्मसातीकरण प्रक्रिया को अपनाते हुये अपना पहला जैसा ही व्यवहार (चूसना) करने की कोशिश करता है परन्तु फिर सफलता न मिलने पर नये ढंग से सोचने और परिस्थिति अनुसार व्यवहार करने को प्रेरित होकर समायोजीकरण(accomodation) की प्रक्रिया को अपनाता है और इस तरह अपने संज्ञानात्मक संरचना को आगे विकास के पथ पर ले जाने में सफल होता रहता है।संज्ञानात्मक विकास में सहायक उपरोक्त अपनी दो अवधारणाओं आत्मसातीकरण तथा समायोजीकरण के अतिरिक्त पियाजे ने एक तीसरी अवधारणा संतुलनीकरण(Equilibration) को भी सामने रखा।पियाजे ने स्पष्ट किया कि अपने आपको ठीक प्रकार समायोजित रखने के लिये हमें स्वयं तथा हमारे वातावरण की बदलती हुई परिस्थितियों के बीच सामजंस्य तथा संतुलन कायम रखना होता है। इस संतुलन को बनाये रखने में आत्मसातीकरण तथा समायोजीकरण दोनों प्रक्रियायें ही हमारी सहयोगी हैं। जब आत्मसातीकरण से कार्य नहीं चलता तब समायोजीकरण की प्रक्रिया अपनानी पड़ती है दूसरे शब्दों में जब वर्तमान में उपलब्ध संज्ञानात्मक संरचना सामने खड़ी चुनौती के लिये पर्याप्त सिद्ध नहीं होती (उपलब्ध शीमाज अपर्याप्त और अक्षम सिद्ध होते हैं) यानी पूर्व ज्ञान और अनुभवों के आधार पर समस्या का हल नहीं निकलता, तब संज्ञानात्मक संस्था का समायोजीकरण की प्रक्रिया अपनाकर विस्तार करना आवश्यक हो जाता है और फलस्वरूप पुराने अनुभव और तरीकों के स्थान पर सोचने के तथा कार्य करने के नये ढंगों को जन्म मिलता है,समस्या का समाधान ढूंढ लिया जाता है और जो बेचैनी तथा छटपटाहट नयी परिस्थिति तथा समस्या विशेष का हल पुराने तरीके अपनाकर वर्तमान संज्ञानात्मक संरचना के जरिये नहीं मिलने के कारण हो रही थी उस पर विराम लग जाता है तथा बालक का अपने तथा अपनी वातावरण जन्य परिस्थिति के साथ बिगड़ा संतुलन फिर कायम हो जाता है। इस तरह नयी चुनौतियों तथा समस्यायें बालक को अपने परिवेश में मिलती रहती है इनसे उसका वातावरण के प्रति संतुलन डगमगा जाता है। इसी को ठीक बनाये रखने के लिये संज्ञानात्मक संरचना में उपरोक्त बदलाव तथा सुधार लाने की प्रक्रिया आत्मसातीकरण तथा समायोजीकरण के माध्यम से चलती रहती है और बालक का संज्ञानात्मक विकास आगे बढ़ता रहता है।इस प्रकार से पियाजे ने बालकों की मानसिक तथा संज्ञानात्मक संरचना तथा कार्यप्रणाली पर प्रकाश डालने हेतु अपनी सैद्धान्तिक मान्यताओं के माध्यम से निष्कर्ष रूप से आगे तीन महत्त्वपूर्ण तथ्य हमारे सामने रखे। 

1.जन्मजात मूल प्रवृत्तियों(inherited instincts) तथा सहज प्रवृत्तियों (reflexs) के रूप में वंशानुक्रम (Heredity) के द्वारा प्रदत्त मूलभूत संज्ञानात्मक संरचना या बुनियाद जिस पर आगे चलकर संज्ञानात्मक विकास रूपी महल खड़ा होता है।

2.विकास काल में स्वाभाविक बुद्धि एवं विकास की प्रक्रिया (परिपक्वन) के माध्यम से मूलभूत संज्ञानात्मक संरचना और उसकी कार्यप्रणाली में आने वाले परिवर्तन और विकास जिनमें अनुभवों, शिक्षण और प्रशिक्षण आदि की भूमिका नहीं के बराबर होती है।

3.अनुभवों (भौतिक तथा सामाजिक वातावरण के साथ होने वाली अतः क्रिया शिक्षण तथा प्रशिक्षण सम्बन्धी प्रयत्न आदि) के माध्यम से आत्मसातीकरण (assimilation), समायोजीकरण(accommodation) तथा संतुलनीकरण (equilibration) प्रक्रियाओं को काम में लाते हुये समय विशेष पर मौजूद संज्ञानात्मक संरचना तथा कार्यप्रणाली में आने वाले परिवर्तन एवं विकास।

मानसिक या संज्ञानात्मक विकास की अवस्थायें(Stages of Mental or Cognitive Development)

जैसा कि ऊपर देखा जा चुका है पियाजे ने बालकों में होने वाले संज्ञानात्मक विकास के स्पष्टीकरण हेतु संज्ञानात्मक संरचना तथा उसकी कार्यप्रणाली से सम्बंधित अपनी अनूठी अवधारणों को हमारे सामने रखते हुये इस बात पर जोर दिया कि बच्चों में बुद्धि का विकास उनके जन्म के साथ जुड़ा हुआ है। प्रत्येक बालक अपने जन्म के समय कुछ जन्मजात प्रवृत्तियों (Basic Instincts) एवं सहज क्रियाओं (Reflex actions) को करने सम्बन्धी योग्यताओं जैसे चूसना (Sucking), देखना (Looking), वस्तुओं को पकड़ना (Grasping), वस्तुओं तक पहुंचना (Reaching) आदि को लेकर पैदा होता है। अतः जन्म के समय बालक के पास बौद्धिक संरचना (Cognitive Structure) के रूप में इसी प्रकार की क्रियाओं को करने की क्षमता होती है। परन्तु जैसे-जैसे वह बड़ा होता है उसके सामने समायोजन (अपने और अपने वातावरण के बीच संतुलन कायम रखने) सम्बंधी समस्यायें आती रहती है। इनके समाधान में आत्मसातीकरण ( assimilation) तथा समायोजीकरण (accomodation) की प्रक्रियायें उसका साथ देती है, फलस्वरूप उसकी बौद्धिक या संज्ञानात्मक संरचना और कार्यप्रणाली में वांछित परिवर्तन आते रहते हैं और उसके संज्ञानात्मक विकास का पहिया आगे बढ़ता रहता है और वह बुद्धिमान बनता चला जाता है। बालकों में आयु और अवस्था विशेष के अनुसार होने वाला यह संज्ञानात्मक विकास सामान्य रूप से एक क्रमबद्ध तरीके से संपन्न होता है। पियाजे ने इस प्रकार के संज्ञानात्मक विकास के लिये चार चरणों या अवस्थाओं (Stages) की चर्चा की है। नीचे हम इन्हीं का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करने जा रहे हैं,

1.इन्द्रियजनित गामक अवस्था(Sensory Motor Stage)

मानसिक विकास का यह चरण जन्म से लेकर लगभग दो वर्ष तक की अवधि में पूरा होता है। इस अवस्था में बालक की मानसिक क्रियाएं उनकी इन्द्रियजनित गामक क्रियाओं के रूप में ही संपन्न होती हैं। उन्हें भूख लगी है, इस बात को वे रो कर व्यक्त करते है। किसी भी वस्तु को जो उन्हें चाहिए उसे दिखाकर अपनी बात कहते हैं। इस प्रकार से इस अवस्था के बालक भाषा के अभाव में अपने चारों ओर के वातावरण को अपनी इन्द्रियजनित गामक क्रियाओं और अनुभवों के माध्यम से ही जानते हैं। उन्हें विचारों के रूप में जो कुछ कहना और समझना होता है उसकी गामक क्रियाओं (Motor activities) के रूप में ही अभिव्यक्ति होती है। किसी भी वस्तु का आस्तित्व बच्चे के सामने तभी तक होता है जब तक वह वस्तु उसकी आंखों के सामने रहे। आंखों से ओझल होते ही वह वस्तु उनके लिये समाप्त हो जाती है। "खिलौने को चिड़िया ले गयी” (जबकि वह छुपा लिया गया है) और इस बात को शिशु बालक सत्य मान लेता है परन्तु जैसे-जैसे वह इस चरण की समाप्ति यानी 2 वर्ष की आयु को छूता है, उसकी वस्तुओं के बारे में उस प्रकार की धारणा में परिवर्तन होना शुरू हो जाता है। अब अगर आप किसी चादर या पीठ पीछे करके किसी वस्तु को छुपाकर यह कहें कि उसे बिल्ली या चिड़िया ले गई तो वह आपकी बात न मानकर उसे चादर या आपके पीछे खोजने का प्रयत्न करेगा क्योंकि उसे धीरे-धीरे यह समझ आने लगती है कि वस्तुओं का अपेक्षाकृत कुछ स्थायी अस्तित्व होता है। इसी तरह वे धीरे-धीरे यह भी समझने लगते हैं कि सभी वस्तुओं का अपना अलग स्वतन्त्र अस्तित्व होता है जो कि उनके स्वयं के अस्तित्व से अलग होता है।

2.पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था(Pre-Operational Stage) इस अवस्था का समय काल 2 वर्ष से लेकर सात वर्ष के मध्य होता है। इस दौरान बालकों में भाषा का विकास ठीक प्रकार प्रारम्भ हो जाता है। अभिव्यक्ति का माध्यम अब भाषा बनने लग जाती है, गामक (Motor) क्रियायें नहीं। वस्तुओं के बारे में सोचने-विचारने के लिये अब भाषा तथा अन्य तरीकों का प्रयोग प्रारम्भ हो जाता है। इस काल में मानसिक विकास की कुछ विशेषतायें देखने को मिलती हैं।

*बालक अपने परिवेश की विभिन्न वस्तुओं को पहचानने और उनमें भेद करना प्रारम्भ कर देते हैं। वे वस्तुओं को नाम से जानने लगते हैं। उनमें संप्रत्यय निर्माण(Concept formation) की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। वे वस्तुओं को समूहों में विभाजित कर उन्हें नाम देना शुरू कर देते हैं।परन्तु शुरू के वर्षों में उनका संप्रत्यय निर्माण कार्य अधूरा और दोषपूर्ण ही होता है। वे सभी पुरुषों को 'पापा' तथा स्त्रियों को 'मम्मी' कह कर पुकारते हैं तथा सभी चार पैरों वाले प्राणियों को टोमी (उनका कुत्ता) अथवा गाय आदि के नाम से सम्बोधित करते हैं। 5 वर्ष के हो जाने तक उनकी इस प्रकार की भ्रान्तियाँ दूर हो जाती हैं। अब वे विभिन्न पारिवारिक व्यक्ति जैसे बूआ, दादी, दादाजी, चाचाजी आदि में भेद करना समझ जाते हैं तथा गाय, भैंस, घोड़े, बकरी आदि का अलग-अलग अर्थ समझ जाते हैं।

*शुरू के वर्षों में उनमें सजीव तथा निर्जीव वस्तुओं में भेद करने की क्षमता नहीं होती। वे चोट खाने या गिर जाने पर दरवाजे या फर्श को मार कर इस लिए चुप हो जाते हैं कि उन्होंने उनको भी इसी तरह मार दिया और अब वे भी उसकी तरह रो रहे हैं। एक बालिका की गुड़िया को भी उसी तरह गर्मी और सर्दी लगती है जैसे कि उसको लगती है, वह भी उसकी तरह दूध पीती है, आदि-आदि। धीरे-धीरे बालकों में समझ आने लगती है और इस अवस्था को पार करने से पहले ही वे सजीव तथा निर्जीव में पूरी तरह भेद करने और सभी वस्तुओं को अपने से अलग जानने और समझने की क्षमता से युक्त हो जाते हैं।

*शुरू में इस अवस्था के बालक काफी ज्यादा आत्मकेन्द्रित(Self-Centered) होते हैं। संसार में जो कुछ विद्यमान है वह सब उनके लिए ही है ऐसा उनका विश्वास होता है। मम्मी-पापा सब उनके हैं, उन पर किसी और का अधिकार नहीं है।सारे खिलौने उनके लिये हैं। यहाँ तक कि चाँद और तारे भी उन्हीं के माता-पिता तथा सगे-सम्बन्धी हैं जो उन्हीं के लिए चमकते हैं।धीरे धीरे सामाजिकता का दायरा बढ़ने पर बच्चा इस प्रकार की आत्मकेन्द्रितता को त्याग कर दूसरों के साथ अपनी वस्तुओं का लेन-देन करना सीखने लगता है और उनमें दूसरों को अपने जैसा समझने की बात घर करने लगती है।

*इस अवस्था के बालकों में अच्छी तरह सोचने, समझने तथा तर्क करने की शक्ति का पूरी तरह - अभाव पाया जाता है। वे कल्पनाशील तो होते हैं, परन्तु अपनी कल्पना-शक्ति से कुछ सृजन या निर्माण करने की क्षमता उनमें नहीं होती। वे हवाई किले बनाते हैं तथा अपनी सपनों की दुनिया में खोये रहते हैं। उन्हें कल्पना की उड़ान भरने वाली जादूगर, परियों तथा राजरानी की कहानियाँ सुनना पढ़ना अच्छा लगता है। उनका खिलौना हवाई जहाज उन्हें जहाँ ये चाहें, ले जा सकता है आदि ऐसी बातें कहते हुए उन्हें सुना जा सकता है। इस प्रकार इस अवस्था के बालकों में तर्क शक्ति पर आधारित चिन्तन करने की बात नहीं पैदा होती।

इस आयु के बच्चों में दो जिन महत्त्वपूर्ण क्षमताओं का अभाव पाया जाता है ये हैं

(i) विपरीत या पलट करके सोचने की शक्ति(Ability to Reverse)

(ii) वस्तुओं को उनकी संख्या व परिमाण के संदर्भ में सही रूप से समझने की शक्ति(Ability of Conservation in Numbers and Quantity)

पहली योग्यता के अभाव में वह यह समझने में असफल रहता है कि उसके घर से स्कूल उतनी ही दूर है जितना कि स्कूल से उसका घर अथवा उसके एक बहन है तो उसकी बहन का भी एक भाई होना चाहिये आदि-आदि। दूसरी योग्यताओं के अभाव में वह जिस प्रकार की गलती करता है उसे हम निम्न दो प्रयोगों के आधार पर स्पष्ट करना चाहेंगे।

प्रयोग 1. अगर बालक को 7-7 गोलियों के दो सैट दिये जाये तथा उसे स्वयं ही इन सैटों की गोलियों को दो अलग-अलग पंक्तियों में निम्न प्रकार सजाने के लिये कहा जाये।

इस तरह दोनों सेटों की 7-7 गोलियों को दो पंक्तियों में सजाने के बाद पूर्व संक्रियात्मक अवस्था के इस बालक से यह पूछा जाये कि बताओ इन दोनों पंक्तियों में से किस पंक्ति में अधिक गोलियाँ है तो वह यही कहेगा कि नीचे की पंक्ति में अधिक गोलियाँ हैं।इस बात से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि बालक में अभी वस्तुओं की संख्या से सम्बंधित संरक्षण योग्यता (ability regarding conservation in numbers) विकसित नहीं हुई है।

प्रयोग 2.अगर पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (2-7 years) के बालक के सामने दो काँच के बर्तन लिये जायें जिनमें से एक पतला लम्बा हो तथा दूसरा नाटा व चौड़ा। अगर चौड़े आकार के बर्तन में से दूध पतले लम्बे बर्तन में डाल दिया जाये तो वह यह कहेगा कि इस पतले लम्बे बर्तन का दूध पहले वाले से ज्यादा है जबकि वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है, वही दूध दूसरे बर्तन में उसी के सामने डाला गया है।

3.मूर्त संक्रियात्मक अवस्था(Concrete Operational Stage)

इस अवस्था का समय काल 7 वर्ष से 11 वर्ष के बीच होता है।

*बालकों में होने वाले इस अवस्था के मानसिक विकास में उनमें वस्तुओं को पहचानने, उनका विभेदीकरण करने, वर्गीकरण करने तथा उपयुक्त नाम या वर्गीकरण द्वारा समझने और व्यक्त करने की क्षमता विकसित हो जाती है।

*उनमें विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के बीच समानता, सम्बन्ध, असमानता, दूरी और विसंगतता (discrepancies) को समझने लगते हैं।शुरू में इस प्रकार की उनकी समझ केवल मूर्त या स्थूल रूप तक ही सीमित होती है जैसे नौ सेब, तीन सेबों से कितने अधिक होते हैं। कुत्ते या बिल्ली में अगर वे उनके 'सामने हो को उन में निहित अंतरों को वे स्पष्ट कर सकते हैं आदि-आदि। परन्तु धीरे-धीरे वे वस्तुओं के अमूर्त रूप के आधार पर भी चिन्तन करना प्रारम्भ कर देते हैं।

*उनका चिन्तन अब अधिक क्रमबद्ध एवं तर्कसंगत होना प्रारम्भ कर देता है। हवाई उड़ान भरना कम हो जाता है और वे यथार्थ की दुनिया को समझना शुरू कर देते हैं।

*अब उनमें यह समझ आ जाती है कि कोई वस्तु किसी से जितनी अधिक या कम दूर या भारी हल्की होती है दूसरी भी उसी के हिसाब से दूरी या वजन रखती है। अतः अब वे वजन या दूरी के मापों को अच्छी तरह समझ सकते हैं।

*इसी तरह अब वह पहले की तरह यह ग़लती भी नहीं करते कि पतले बर्तन में रखा गया कोई भी उतना ही तरल पदार्थ चौड़े बर्तन से अधिक होता है अथवा फैला कर रखी गई गोलियां पास-पास रखी उतनी ही गोलियों से संख्या में अधिक हो जाती हैं।इस प्रकार 11 वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते बालक मानसिक विकास की काफ़ी उपयुक्त सीमाओं को पार कर लेते हैं, परन्तु उनकी सभी प्रकार की मानसिक क्रियाओं में वस्तुओं का प्रायः मूर्त या स्थूल रूप ही प्रयोग में लाया जाता है। अमूर्त चिन्तन करने की योग्यता के विकास के लिए मानसिक विकास की अगली अवस्था का इन्तजार करना होता है।

4.अमूर्त्त संक्रियात्मक अवस्था(Formal Operational Stage)

इस अवस्था का समय काल 11 वर्ष से 15 वर्ष के बीच होता है। बालकों में इस अवस्था के मानसिक विकास सम्बन्धी मुख्य बातों को निम्न रूप में समझा जा सकता है।सभी प्रकार के संप्रत्ययों का समुचित विकास हो जाता है।

*भाषा सम्बन्धी योग्यता तथा संप्रेषणशीलता का विकास अपनी ऊंचाई को छूने लगता है।

*विचारने, सोचने, तर्क करने, कल्पना करने तथा निरीक्षण, अवलोकन, परीक्षण, प्रयोग आदि के द्वारा उचित निष्कर्ष निकालने की पर्याप्त क्षमता विकसित हो जाती है।

*स्मरण शक्ति रटने पर आधारित न होकर तर्क एवं समझ पर आधारित होने लगती है।

*चिन्तन अब मूर्त नहीं रहता, अमूर्त बन जाता है।

*वस्तुओं के स्थूल रूप का अब चिन्तन प्रक्रिया के लिये उपस्थित रहना अनिवार्य नहीं होता। कल्पना करो कि ABC एक त्रिभुज है, तार में विद्युत प्रवाहित हो रही है आदि-आदि बातों को अब उनके विद्यमान न होने पर भी समझा और सोचा जा सकता है।

*कल्पना शक्ति को सृजन या निर्माण कार्य के लिये अच्छी तरह उपयोग में लाया जा सकता है।

*समस्या समाधान योग्यता का उचित विकास हो जाता है।फलस्वरूप इस आयु के बालकों में समस्या का उचित विश्लेषण (Analysis) कर उसके संभावित हल की खोज करने की क्षमता पैदा हो जाती है।

*प्रयास एवं त्रुटि (Trial and Error) विधि के स्थान पर बौद्धिक शक्तियों के प्रयोग द्वारा सीखने की आदत विकसित हो जाती है।

*संश्लेषण, विश्लेषण, नियमीकरण तथा सूक्ष्म सिद्धान्तों की स्थापना सम्बन्धी उच्च मानसिक अन्वेषणशीलता, मौलिकता, रचनात्मकता आदि सृजन में सहायक आवश्यक बौद्धिक क्षमताओं का समुचित विकास हो जाता है।

इस तरह से बौद्धिक विकास की इस अंतिम अवस्था को पार करते करते किशोर और किशोरियां अपनी मानसिक योग्यता और क्षमताओं के विकास की विशाल ऊंचाइयों को छूने का प्रयत्न करते हैं। जो कुछ भी कमियां रह जाती हैं उसे फिर अनुभव की पतवार लेकर आयु के बढ़ने के साथ-साथ व्यक्ति पूरा करता रहता है और अपने जीवन सागर की कठिनाइयों को इसी बौद्धिक सम्पदा के सहारे हल करता है।

पियाजे के सिद्धान्त की आलोचनात्मक समीक्षा(Critical Evaluation of Plaget's Theory)

पियाजे के संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त की कुछ विद्वानों ने निम्न बातों को लेकर आलोचना की

1. संज्ञानात्मक विकास के जिस पारूप को पियाजे द्वारा हमारे सामने रखा गया है वह जैसा उसने दावा किया है उस तरह न तो सार्वभौमिक है और न उसी रूप में सदैव संपन्न होता है। पियाजे का सिद्धान्त 1920-40 की अवधि से योरोपियन बालकों के अध्ययन पर आधारित है। योरोप तथा बाहर होने वाले बाद में अनुसंधानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि बालकों के संज्ञानात्मक विकास सम्बन्धी पियाजे द्वारा सुझाई गई चारों विकास अवस्था बालकों द्वारा जिस आयु विशेष की अवधि में तय की जाती है उनमें पियाजे द्वारा निश्चित आयु वर्षों को लेकर काफी भिन्नतायें पाई जाती हैं। कुछ बच्चे जल्दी ही उन विकास मंजिलों को तय कर लेते हैं तथा कुछ देर से।

2. पियाजे का यह कहना कि अपने संज्ञानात्मक विकास में क्रमबद्ध तरीके से बालकों को एक अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रवेश करना होता है। परन्तु यह देखा गया है कि विशेष आयु अवधि में बालकों की संज्ञानात्मक क्षमता में वृद्धि ठीक इस क्रम में हो यह जरूरी नहीं है।

3. पियाजे का यह कहना कि मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Concrete operational stage) से पहले बालक क्रमबद्ध एवं तार्किक ढंग से चिन्तन करने में असमर्थ होते हैं और साथ में उनके अंहकार तथा आत्मकेन्द्रित का बाहुल्य रहता है, ठीक नहीं है। विभिन्न अनुसंधानात्मक अध्ययनों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि इस अवस्था से काफी पहले के आयु वर्ग के बालक तार्किक और क्रमबद्ध के ढंग से चिन्तन करने की क्षमता रखते हैं और उनमें दूसरों की भावनाओं तथा विचारों का आदर करने की प्रवृत्ति पाई जाती हैं।

4. पियाजे ने बालकों के संज्ञानात्मक क्षमताओं के विकास को उनके स्वाभाविक वृद्धि एवं विकास से जोड़ने का प्रयत्न किया है और यह बताने की चेष्टा की है जब तक बालक एक निश्चित परिपक्वन स्तर पर नहीं पहुँचते उनसे उस परिपक्वन स्तर से जुड़ी हुई संज्ञानात्मक क्षमता नहीं विकसित होती । अपने इन विचारों के कारण पियाजे की एक ऐसे वंशक्रमवादी तथा परिपक्वन वादी के रूप में आलोचना की जाती है जिसने बालकों के मानसिक विकास में परिपक्वन को जरूरत से अधिक महत्त्व दिया है। परन्तु देखा जाये तो पियाजे की ऐसी आलोचना एक पक्षीय ही है जैसा कि पियाजे ने अपने संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त में यह अच्छी तरह से स्पष्ट कर दिया है कि परिपक्वन तथा वंशानुक्रम द्वारा निर्धारित मूल प्रवृत्तियां एवं सहज प्रवृतियां तो केवल मात्र वह भूमि तथा बुनियाद प्रदान करते हैं, संज्ञानात्मक विकास रूपी महल का ढाँचा तो फिर भौतिक तथा सामाजिक वातावरण के साथ होने वाली अंतः क्रिया के माध्यम से ही खड़ा होता है। पियाजे की इस धारणा की पुष्टि उसके निम्न कथन ( इन हेल्डर एवं पियाजे, 1958) द्वारा भलीभाँति हो सकती है।"स्नायु संस्थान की परिपक्वता किसी अवस्था विशेष में किन क्षमताओं का विकास संभव है और किसका असंभव यह पूरी तरह निर्धारित करने के अलावा और भी बहुत कुछ कर सकती है। परिपक्वता द्वारा इंगित इन संभावनाओं को वास्तविकता में बदलने में किसी सामाजिक परिवेश विशेष की आवश्यकता से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इन संभावनाओं को वास्तविकता में बदलने के कार्य में वृद्धि और कमी बालक विशेष की उपलब्ध सांस्कृतिक तथा शैक्षिक परिस्थितियों पर निर्भर करती है।"(The maturation of the nervous system can do not more than determine the totality of possibilities and impossibilities at a given stage. A particular social environment remains indispensable for the realization of these possibilities. It follows that their realization can be accelerated or retarded as a function of cultural and educational conditions.)

अगर हम पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धान्त के संदर्भ में ऊपर की गई समीक्षा पर ठीक प्रकार ध्यान दें तो हमे यह समझने में देर नहीं लगेगी कि इस सम्बंध में की गई आलोचनाओं में से बहुत सारी एक पक्षीय हैं। जैसा कि पियाजे द्वारा इस सम्बंध में दिये गये उपरोक्त स्पष्टीकरण से मालूम हो सकता है कि यह कहना कि पियाजे का सिद्धान्त संज्ञानात्मक विकास में वातावरण सम्बन्धी प्रभावों को महत्त्व नहीं देता ठीक नहीं हैं। इसी तरह संज्ञानात्मक विकास की कुछ निश्चित अवस्थाओं का उल्लेख कर पियाजे का मतलब यही नही था कि सभी देशों और संस्कृतियों के बालक आवश्यक रूप से इन अवस्थाओं को पियाजे द्वारा निर्धारित आयु वर्षों में ही तय करते हैं। जैसा कि वह किसी बालक के संज्ञानात्मक विकास में जैविक वंशक्रम की विरासत, परिपक्वन तथा वातावरण जन्य अनुभवों तीनों को उनके समन्वित रूप से महत्त्व देना चाहता है तो इस दृष्टि से यह साफ़ हो जाता है कि बौद्धिक था संज्ञानात्मक विकास सम्बन्धी किसी एक या अन्य अवस्थाओं में पहुंचने में बालकों में आयु वर्षों को लेकर विभिन्नतायें अवश्य ही देखने को मिलेगी। कुछ बच्चे दूसरों के मुकाबले कम आयु में ही संवेगात्मक विकास की उच्च और उच्चतर मंजिलें तय करते हुये पाये जा सकते हैं। अब केवल इस बात से लेकर कि पियाजे ने संवेगात्मक विकास की विभिन्न अवस्थाओं से गुत्तरने के लिये जो आयु वर्ष अवधियाँ निश्चित की थी वे आज के समय में सभी देशों और संस्कृतियों में बालकों के लिये उचित नहीं बैठती, पिनाने के सिद्धान्त की बहुमुखी उपयोगिता से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। चाहे आयु वर्षों तथा अवधि को लेकर कितनी भी भिन्नतायें पियाजे द्वारा निर्धारित संवेगात्मक विकास अवस्थाओं को तय करने हेतु हमें देखने को मिले एक बात जिसकी सार्वभौमिकता तथा एकरुपता से इन्कार नहीं लिया जा सकता है वह यह है कि सभी बालक चाहे वे किसी भी संस्कृति और देश से सम्बंधित क्यों न हो पियाजे द्वारा बताई गई चार संज्ञानात्मक विकास अवस्थाओं में पियाजे द्वारा निर्धारित क्रम से ही गुजरते हैं हाँ यह बात अलग है कि वैयक्तिक भेदों के फलस्वरूप कोई कम तथा कोई ज्यादा आयु के किसी विशेष संज्ञानात्मक अवस्था में से गुजरता पाया जाये।

पियाजे के सिद्धान्त की शैक्षिक उपयोगिता तथा योगदान(Educational utility and Contribution of Piaget's Theory) बाल मनोविज्ञान तथा संज्ञानात्मक विकास के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त प्रसिद्ध विद्वान जीन पियाजे ने अपने संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त के माध्यम से शिक्षा जगत को बहुत कुछ देने का प्रयत्न किया है। उनके सिद्धान्त की शैक्षिक उपयोगिता तथा योगदान को संक्षेप में निम्न प्रकार लिपिबद्ध किया जा सकता है।

1. पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धान्त ने बुद्धि की व्यावहारिक दृष्टि से व्याख्या करने तथा परिभाषित करने में काफी अच्छी भूमिका निभाई है। जन्म से ही व्यक्ति विशेष को अपने अस्तित्व की रक्षा तथा अपने वातावरण के साथ समायोजन करने के लिये सतत संघर्ष करना पड़ता है। बुद्धि अपनी संज्ञानात्मक संरचना और कार्य प्रणाली के रूप में उसे इस कार्य में काफी सहायक सिद्ध होती है। इसलिये व्यक्ति विशेष की बुद्धि का मापन उसकी उस समायोजन क्षमता (अपने और अपने वातावरण के बीच तालमेल बिठाने) के आधार पर ही किया जा सकता है। जिसका प्रदर्शन वह किसी समय और परिस्थिति विशेष में करता हुआ हमें दिखाई देता है। पियाजे ने इस तरह बुद्धि को एक गतिमान प्रक्रिया के रूप में हमारे सामने रखा है जिसके द्वारा किसी एक समय तथा परिस्थिति विशेष में समायोजन योग्यता या क्षमता के रूप में एक विशेष भूमिका निभाई जाती है। जैसे-जैसे बालक बड़ा होता है उसकी समायोजन क्षमता बढ़ती जाती है और फलस्वरूप उसके बौद्धिक या संज्ञानात्मक विकास में प्रगति होती रहती है।

2. पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धान्त ने बालक में अधिगम तथा विकास में अभिप्रेरकों तथा अभिप्रेरणा के महत्त्व को अच्छी तरह उजागर किया है। अपनी एक अवधारणा संतुलनीकरण (equilibration) के माध्यम से पियाजे ने यह बताने की कोशिश की हम अपनी क्षमताओं और अपने वातावरण की माँगों के बीच संतुलन बनाये रखने की हर संभव कोशिश करते रहते हैं क्योंकि इस प्रकार के संतुलनीकरण से हमें संतुष्टि मिलती है। जब तक ऐसा नहीं होता हम इसके लिये सतत संघर्ष करते रहते हैं। इस तरह व्यक्ति के व्यवहार को लगातार क्रियाशीलता प्रदान करने में पियाजे द्वारा प्रतिपादित `संतुलनीकरण (equilibration) की अवधारणा की तुलना फ्रायड द्वारा प्रतिपादित यौन संतुष्टि (Sex gratification) तथा युंग द्वारा प्रतिपादित आत्म साक्षात्तीकरण या आत्माभिव्यक्ति से की जा सकती है।

3.पियाजे का सिद्धान्त पाठ्यक्रम नियोजन तथा अध्ययन क्रम की संरचना हेतु हमें काफी महत्त्वपूर्ण ज्ञान तथा परामर्श देता हुआ दिखाई दे सकता है किसी क्षेत्र विशेष के बालक अपने संज्ञानात्मक विकास की किसी विशेष अवस्था में एक विशेष आयु सीमा के अन्तर्गत ही प्रवेश करते हैं,इस दृष्टि से उनके लिये जो भी पाठ्यक्रम और सिलेबस बनाया जाये वह उनके परिपक्वन स्तर तथा मानसिक योग्यताओं से मेल खाता हुआ ही होना चाहिये। दूसरे शब्दों में एक पाठ्यक्रम तभी उपयुक्त माना जा सकता है जब वह सही समय पर सही अधिगम अनुभव प्रदान करे। उदाहरण के लिये पहली और दूसरी कक्षा के विद्यार्थियों को विश्व का भूगोल पढ़ाना ठीक नहीं है क्योंकि अपने संज्ञानात्मक विकास को लेकर अभी उनके देश, राज्य और यहाँ तक शहरों से सम्बंधित वे अवधारणायें विकसित नहीं हुई है जिनकी आवश्यकता उन्हें विश्व की भौगोलिक जानकारी हेतु चाहियें। इसलिये इन कक्षाओं में उन्हें स्थानीय भूगोल जो उन्हें उनके पास-पड़ोस, विद्यालय, कक्षा कक्ष सम्बन्धी परिवेश से परिचित कराने में सहायक हो, पढ़ाया जाना ही ज्यादा ठीक रहता है। इसी तरह चौथी या पाँचवी कक्षा के विद्यार्थियों को बीज गणित (algebra) पढ़ाना भी उचित नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि अभी इस आयु वर्ग के बालकों में बीजगणित से सम्बंधित सूक्ष्म अवधारणाओं को समझने की योग्यता नहीं विकसित होती। पाठ्यक्रम के विकास में इस तरह की गतियों से बचने का परामर्श देते हुये पियाजे का सिद्धान्त स्पष्ट रूप से यह कहता हुआ प्रतीत होता है कि पाठ्यक्रम में उन्ही अधिगम अनुभवों को स्थान मिलना चाहिये जो विद्यार्थियों के संज्ञानात्मक विकास और उसके परिवेश सम्बंधी आवश्यकताओं के अनुकूल हों ।

4.पियाजे का सिद्धान्त अध्यापकों तथा माता-पिता के लिये यह बताने में काफी मूल्यवान सिद्ध हो सकता है किसी आयु विशेष में बालकों को विचार प्रक्रिया तथा अन्य संज्ञानात्मक क्षमताओं का क्या स्वरूप होता है। साथ ही बालकों की संज्ञानात्मक संरचना और कार्यप्रणाली में आयु की वृद्धि के साथ जिस प्रकार के परिवर्तन आते रहते हैं उनसे भी उनका परिचय हो जाता है। इस प्रकार का ज्ञान उन्हें बालकों के साथ उचित व्यवहार करने तथा उनकी शिक्षा और प्रशिक्षण को सही दिशा प्रदान करने में भलीभाँति सहायक सिद्ध हो सकता है।

5.पियाजे के सिद्धांत का एक काफी बड़ा योगदान अपने तीन प्रमुख अवधारणाओं आत्मसातीकरण, समायोजीकरण तथा संतुलनीकरण के माध्यम से बालकों के वांछित अधिगम तथा विकास हेतु उपयुक्त परिस्थितियाँ प्रदान करने सम्बंधी सुझाव देना है। पियाजे के अनुसार बालक का अधिगम और विकास बालक की संज्ञानात्मक संरचना और उसके वातावरण जन्य अनुभवों की पारस्परिक अंतः क्रिया का परिणाम होता है। सर्वोत्तम अधिगम हेतु बालकों को प्रदान की जाने वाली विषय वस्तु तथा अधिगम अनुभव इस प्रकार के होने चाहियें कि एक तरफ तो वे उनकी वर्तमान संज्ञानात्मक संरचना में अच्छी तरह आत्मसात (assimilate) हो जायें तो दूसरी तरफ वे इतने अलग तथा कठिन हों कि उनके अर्जन हेतु समायोजीकरण (Accomodation) की प्रक्रिया का सहारा लेना आवश्यक हो जाये। इस तरह पियाजे का सिद्धान्त स्पष्ट रूप से यह संकेत देता है कि बालकों को जो भी अधिगम अनुभव प्रदान किये जाये वे कुछ अर्थों में नवीन तथा चुनौती पूर्ण होने चाहिये ताकि बालकों को समायोजीकरण (Accomodation) V की प्रक्रिया को अपनाकर कुछ नया सीखने का मौका मिले परन्तु साथ ही इन अनुभवों का बालकों के पूर्व ज्ञान तथा अनुभवों से उचित सम्बंध बने रहना भी काफी आवश्यक है ताकि विद्यार्थियों द्वारा नये अनुभवों का अच्छी तरह आत्मसातीकरण करके अच्छी तरह से ग्रहण करने में सुविधा हो।

6.पियाजे का सिद्धान्त बालकों के संज्ञानात्मक विकास हेतु भौतिक तथा सामाजिक वातावरण सम्बंधी अनुभवों को काफी आवश्यक ठहराता है और इस दृष्टि से यह अध्यापकों, माता-पिता तथा समाज में अन्य सदस्यों, जो किसी भी तरह बालक की शिक्षा, विकास तथा प्रगति से जुड़े हुये हैं, से यह अपेक्षा करता है कि वे बालक के सर्वोत्तम विकास तथा वांछित अधिगम हेतु उसे अच्छे से अच्छा उचित वातावरण तथा प्रेरणादायक परिस्थितियाँ उपलब्ध करायें।

7.पियाजे का सिद्धान्त छोटे बच्चों की शिक्षा (नर्सरी तथा किन्डरगार्टन स्तर) के संदर्भ में निम्न सुझाव प्रस्तुत करता हुआ दिखाई दे सकता है।नर्सरी तक किन्डरगार्टन स्तर के बालकों का चिन्तन स्थूल या मूर्त चिन्तन (concrete thinking) होता है अतः उन्हें नयी बातों को समझाने और नये अधिगम अनुभव प्रदान करने हेतु स्थूल वस्तुओं (Concrete objects) प्रयोगो तथा क्रियात्मक कार्यों की सहायता लेना आवश्यक होता है।

8.अध्यापक को चाहिये कि वह स्वयं ही विद्यार्थियों को सभी कुछ बताने या पढ़ाने की चेष्टा न करें बल्कि उनको स्वयं ज्ञान की खोज करने को अभिप्रेरित करे। इस कार्य हेतु उन्हें ऐसी अधिगम परिस्थितियाँ, साधन तथा सामग्री बालकों को सुलभ कराने की ओर ध्यान देना चाहिये जिससे वे स्वयं के अपने प्रयत्नों से वांछित अधिगम अनुभवों की प्राप्ति कर सकें।

पियाजे का सिद्धान्त यह बताने का कार्य भी करता है कि इन्द्रियजनित गामक अवस्था (Sensory motor stage) के बाद बालकों में भाषा विकास होने के फलस्वरूप अब उनकी चिन्तन प्रक्रिया पूरी तरह भाषा से ही निर्देशित और क्रियान्वित रहती है। इस समय भी ऐसे बालक हो सकते हैं जो भाषा को अपने चिन्तन का साधन या माध्यम बनाने की बजाय अशाब्दिक माध्यम जैसे आकृतियों, सम्बंधों तथा अन्य चिन्ह एवं संकेतों को प्राथमिकता देते हों अथवा उन्हीं पर आश्रित हों। इस तरह शिक्षण अधिगम प्रक्रिया शाब्दिक संप्रेषण के उपयोग तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिये परन्तु इसमें अशाब्दिक संप्रेषण सम्बंधी बातों को भी (अधिगम परिस्थितियों तथा अधिगमकर्त्ता की आवश्यकताओं के परिप्रेक्ष्य में) ठीक तरह शामिल किया जाना चाहिये।

9.अंत में परन्तु काफी महत्त्वपूर्ण योगदान पियाजे के सिद्धान्त का इस बात को लेकर है कि इसने शिक्षा और उसकी प्रक्रिया के वैयक्तीकरण (individualization) पर जोर दिया। इसने यह कहते हुये कि बालक को दिये जाने वाले अधिगम अनुभव उसकी संज्ञानात्मक संरचना के हिसाब से तय किये जाने चाहियें, जहाँ एक तरफ बाल केन्द्रित शिक्षा का मार्ग प्रशस्त किया तो वही दूसरी ओर बालकों को दिये। जाने वाले अधिगम अनुभवों में उनके संवेगात्मक विकास को ध्यान में रखते हुये उचित विभिन्नता लाने की बात पर जोर देते हुये शिक्षा तथा उसकी प्रक्रिया का समुचित वैयक्तीकरण करने की बात हमारे सामने रखी।

ब्रूनर का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त(Bruner's Theory of Cognitive Development)

जेरोम ब्रूनर का जन्म 1915 में अमेरिका के न्यूयार्क शहर में हुआ तथा बाद में इनकी शिक्षा ड्यूक विश्वविद्यालय तथा हावर्ड विश्वविद्यालय में संपन्न हुई। उनकी पहचान विश्व के एक जाने माने संज्ञानात्मक तथा शिक्षा मनोवैज्ञानिक के रुप में होती है। साथ ही ग्रूनर की प्रतिष्ठा एक अच्छे लेखक के रूप में कोई कम नहीं हैं।आइये ब्रूनर के इस प्रकार के अध्ययन कार्य तथा सिद्धान्त का संक्षेप में परिचय प्राप्त किया जाये।

1.ब्रूनर ने अपने अनुसंधान कार्यों के प्रारम्भिक चरण में बालकों के संज्ञानात्मक विकास के संदर्भ में पियाजे द्वारा वर्णित संज्ञानात्मक विकास अवस्थाओं को अपना अध्ययन विषय बनाया। उसने पियाजे के विचारों से प्रभावित होते हुये यह निष्कर्ष निकाला कि हमारी बौद्धिक योग्यता विकास रूपी यात्रा मस्तिष्क को काम में लाने सम्बंधी हमारी सीढ़ी दर सीढ़ी प्रगति के हिसाब से शैशवावस्था से प्रौढ़ावस्था के मध्य तय किये जाने वाले कुछ निश्चित विकास पड़ावों में से होकर गुजरती है। परन्तु ब्रूनर द्वारा प्रदत्त संज्ञानात्मक सिद्धान्त को पियाजे के संज्ञानात्मक विकास सम्बंधी अवस्था सिद्धान्त का प्रतिरूप नहीं ठहराया जा सकता। ब्रूनर ने पियाजे की तरह विकास के लिये कुछ निश्चित अवस्थाओं (Stages of cognitive development) की आवश्यकता या उनकी उपस्थिति पर जोर नहीं दिया बल्कि यह सुझाव दिया कि बालकों में शनैः शनैः संज्ञानात्मक कौशलों का अर्जन होता है। इन कौशलों को ब्रूनर द्वारा चिन्तन के ढंग या विचारों के प्रस्तुतीकरण का ढंग (modes of thinking or modes of representing or symbolizing human thought) कहा गया । चिन्तन के इस प्रकार के ढंगों के रुप में ब्रूनर ने तीन चिन्तन ढंग या चिन्तन शैलियों की चर्चा की और उन्हें इनेक्टिव ढंग (Enactive mode), आईकोनिक ढंग (lconic mode) तथा प्रतीकात्मक ढंग (Symbolic mode) का नाम दिया।

इनेक्टिव ढंग (Enactive Mode)

ब्रूनर के अनुसार बालकों के संज्ञानात्मक विकास रूपी यात्रा करके सी की शुरुआत में बालकों को अपने सोचने-विचारने हेतु जिस तरह का ढंग या तरीका अपनाते हुये पाया जाता है उसे इनेक्टिव ढंग (Enactive mode) की संज्ञा दी जा सकती है। सही अर्थों में यही एक शिशु के संज्ञानात्मक विकास की विशेषता या पहचान होती है। इस ढंग को अपनाते हुये एक शिशु में चिन्तन का स्वरुप मानसिक न होकर शारीरिक ही होता है। यहाँ किसी वस्तु या घटना के बारे में तभी सोचा जा सकता है जब उसका अस्तित्व भौतिक तथा स्थूल रूप में शिशु के सामने रहे। एक त्रिभुजाकार या गोलाकार आकृति की कल्पना करो। ऐसी सोच शिशुओं में अभी विकसित नहीं होती उन्हें तो त्रिभुजाकार या गोलाकार आकृति के बारे में सोचने के लिये उनके स्थूल रूप में वास्तविक त्रिभुजाकार या गोलाकार वस्तुयें चाहियें। 2 + 2 = 4 इस तरह की बात को सोचने और समझने के लिये 2 वस्तुयों में 2 वस्तुयें और मिलाकर गिनने का कार्य स्वयं उनके द्वारा क्रियात्मक रूप से किया जाना चाहिये।इस तरह सोचने-विचारने के अपने इस ढंग द्वारा तो व्यक्ति विशेष को कोई बात तभी समझ में आ सकती है या किसी बात को वह तभी सीख सकता है जबकि उस बात से सम्बंधित क्रियाओं का वह उनके स्थूल रूप में भलीभांति अभ्यास करे। जैसे किसी को कार चलाना सीखना है तो वह कार चलाने से सम्बन्धित सभी आवश्यक क्रियाओं को स्थूल रूप से स्वयं करके अच्छी तरह अभ्यास न कर ले उसको कार चलाना नहीं आ सकता। यहाँ कार चलाने से सम्बंधित जितनी भी वैचारिक या चिन्तन प्रक्रिया है उसका इनेक्टिव ढंग में ही किया जाना आवश्यक रहता है। इस तरह चिन्तन का यह ढंग यद्यपि एक आयु या अवस्था विशेष-शैशव अवस्था में ही हमारे द्वारा अधिक अपनाया जाता है परन्तु इसकी जरूरत कार्य तथा परिस्थिति विशेष की प्रकृति और जरूरतों के मुताबिक हमें अपने जीवन की किसी भी अवस्था - बचपन, किशोरावस्था, प्रौढ़ या वृद्धावस्था में कभी भी हो सकती है जबकि हमारे लिये प्रयोगात्मक रूप से सक्रिय रहकर वस्तुओं तथा घटनाओं से अन्तः क्रिया कर सीखना ही एक मात्र अच्छा विकल्प हो। हाँ दूसरी बात यह भी बिल्कुल ठीक है कि स्थूल वस्तुओं का प्रयोग करने तथा क्रियात्मक रूप से अभ्यास करते हुये अधिगम अर्जन करने का एक मात्र ढंग छोटी उम्र में ही विशेष तौर पर अपनाया जाता है और यही कारण है जिन कौशलों के अर्जन में चिन्तन के एनेक्टिव ढंग या तरीके को अपनाया जाता है (जैसे कार या स्कूटर चलाना, कंप्यूटर को काम में लाना) उन्हें ज्यादा उम्र हो जाने पर अर्जन करने में कठिनाई होती है। ब्रूनर द्वारा सुझाया गये चिन्तन के इस इनेक्टिव ढंग तथा संज्ञानात्मक विकास के इस प्रारम्भिक स्तर की तुलना पियाजे द्वारा वर्णित इन्द्रियजनित गामक अवस्था से की जा सकती है जिसमें शिशु अपने परिवेश में उपलब्ध वस्तुओं तथा घटनाओं से शारीरिक तौर पर अंतः क्रिया करके ही अधिगम अर्जन करने का प्रयास करते दिखाई देते हैं।

आईकोनिक ढंग(lconic mode) आईकोन (Icon) वह चीज़ है जो दिखाई देती है और इस दृष्टि से चिन्तन या सोच विचार का आईकोनिक ढंग सोचने वाले से यह अपेक्षा करता है कि जिस वस्तु का विचार उसके मन में (वस्तु विशेष की भौतिक रूप में उपस्थिति के बिना ही) आ रहा है उसकी "उपस्थिति को चित्रात्मक या दृश्यात्मक रूप में वह महसूस करे। सोचने का यह ढंग निश्चित रूप से एनेक्टिव ढंग के बाद ही विकसित होता है। क्योंकि जब तक कोई वस्तु अपने स्थूल या भौतिक यथार्थ रूप में किसी के सामने नहीं आयेगी वह उसकी चित्रात्मक या दृश्यात्मक छवि को अपने मानस पटल कर कैसे अंकित कर पायेगा। इस दृष्टि से शैशवकाल के पश्चात ही बालक अपने चिन्तन या सोचने विचारने हेतु आईकोनिक ढंग अपनाते दिखाई देते हैं। एक त्रिभुजाकार या गोलाकार आकृति कैसी होती है, इसकी चित्रात्मक या दृश्यात्मक छवि को अपने मानस पटल पर अंकित करने सम्बंधी संज्ञानात्मक योग्यता अब उनमें विकसित हो जाती है और इसलिये अध्यापक द्वारा श्यामपट्ट पर बनाई गई या चार्ट में दिखाई गई वृत्ताकार आकृति के माध्यम से अब वे वृत्ताकार आकृति के बारे में सभी आवश्यक कल्पनायें तथा चिन्तन करने में कामयाब होते दिखाई देते हैं। इस तरह जहाँ एनेक्टिव ढंग में चिन्तन में बालक की गत्यात्मक क्षमताओं का उपयोग होता है वही आइकोनिक ढंग के चिन्तन में बालक अपनी इन्द्रिय जनित क्षमताओं का उपयोग करके अधिगम अर्जन करने का प्रयत्न करते हैं। यही कारण है कि 2-7 वर्ष के बालकों के अधिगम अर्जन सम्बंधी गतिविधियों में स्थूल वस्तुओं का उपयोग करने की बजाय कल्पना और मानसिक बिम्बों की सहायता से चिन्तन कर सीखने की प्रवृत्ति अधिक दिखाई देती है। अगर पियाजे की संज्ञानात्मक विकास सम्बंधी अवस्थाओं से इसका साम्य ढूंढा जाये तो आइकोनिक ढंग का चिन्तन पियाजे द्वारा वर्णित पूर्व संक्रियात्मक अवस्था के बालकों के लिये उचित ठहराया जा सकता है।

सिम्बोलिक या प्रतीकात्मक ढंग (Symbolic mode)

प्रतीकात्मक ढंग से चिन्तन करने का तरीका बालकों को आईकोनिक तथा इनेक्टिव ढंग से चिन्तन करने के बाद ही आता है। अब वस्तुओं और घटनाओं को उनके स्थूल भौतिक स्वरूप में देखने और अनुभव करने (इनेक्टिव ढंग) अथवा उनकी चित्रात्मक या दृश्यात्मक अनुभूति अपने मन मंदिर में करने (आइकोनिक ढंग) के स्थान पर बालक उन वस्तुओं या घटनाओं के बारे में अपनी विचार प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिये या उनके प्रति अपनी अनुक्रिया व्यक्त करने के लिये कुछ प्रतीकात्मक चिन्हों, संकेतों तथा भाषा आदि का प्रयोग करने लगते हैं। यह स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ने वाली वह अवस्था है जिसमें बालक में उन अवधारणाओं को समझने और ग्रहण करने की संज्ञानात्मक क्षमता आ जाती है जो स्वाभाविक रूप से कठिन, सूक्ष्म हों और अधिक विचारशील हों। इस प्रकार के चिन्तन ढंग में सीखने के लिये प्रत्यक्ष अनुभव तथा करके सीखने और समझने जैसी बातों की जरुरत नहीं होती। उदाहरण के लिये जब एक बालक रेडियो पर किसी घटना से सम्बंधित समाचार सुनता है तो वह उस घटना से सम्बंधित बातों को बिना उस घटना के भौतिक प्रत्यक्षीकरण किये ही अच्छी तरह समझ जाता है और वे अच्छी तरह से उसकी स्मृति में भी रहती है। इसी तरह अगर रेडियों पर किसी व्यंजन को बनाने की विधि बताई जाती है तो इस प्रक्रिया को अपने भाषा ज्ञान के आधार पर समझकर एक गृहणी अपनी रसोई में उस व्यंजन को तैयार करने में सफल हो जाती है। इस तरह का अधिगम अर्जन सिम्बोलक या प्रतीकात्मक ढंग से चिन्तन-मनन करने की संज्ञानात्मक योग्यता विकसित होने के बाद ही होता है। ब्रूनर के इस प्रकार के संज्ञानात्मक विकास स्तर की थोड़ी बहुत तुलना पियाजे की संक्रियात्मक अवस्था (operational stage) से की जा सकती है जिसकी झलक किशोरावस्था और उससे कुछ वर्ष पहले के बालकों के संज्ञानात्मक विकास में देखने को मिलती है।

*बूनर ने अपने संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त के माध्यम से यह बताने की कोशिश की किस प्रकार हमारी विचार प्रक्रिया सोचने-विचारने सम्बंधी तीन ढंगों द्वारा संचालित एवं निर्देशित रहती है। ब्रूनर के पूर्व पियाजे ने यह बताने की कोशिश की थी कि बालकों में उनकी संज्ञानात्मक योग्यता या चिन्तन के विशिष्ट ढंगों का विकास उनके विकास सम्बंधी अवस्थाओं (stages) से जुड़ा हुआ होता है। और बालक संज्ञानात्मक विकास की दूसरी अवस्था में तभी पदापर्ण कर सकता है जबकि उसके पिछली अवस्था से सम्बंधित सभी संज्ञानात्मक योग्यताओं का विकास हो चुका हो। ब्रुनर ने पियाजे की तरह संज्ञानात्मक विकास के लिये निश्चित और क्रमबद्ध अवस्थाओं से गुजरने की बात स्वीकार नहीं की। उसने यह स्पष्ट किया कि यद्यपि विभिन्न आयु वर्ग तथा विकास अवस्थाओं में विकसित तीन विभिन्न  Stagess चिन्तन ढंगों के विकास पर ही हमारा संज्ञानात्मक विकास आधारित रहता है परन्तु इनमें से कोई भी एक चिन्तन ढंग किसी आयु वर्ग तथा अवस्था विशेष की ही बपौती नहीं है। इनका विकास हो जाने पर हमारी कोई भी आयु क्यों न हो सभी में तीनों प्रकार के चिन्तन का ढंग हर सोचने-विचारने तथा अपनी बौद्धिक क्षमता का उपयोग करने हेतु कर सकते हैं। ब्रूनर का संज्ञानात्मक विकास प्रतिमान इस तरह से हमारे सामने हमारे संज्ञानात्मक विकास के फलस्वरूप हमें किसी भी बौद्धिक कार्य को करने तथा सीखने हेतु परिस्थिति अनुसार तीन विभिन्न संज्ञानात्मक कौशलों अथवा चिन्तन ढंगों (एनेक्टिव, आईकोनिक तथा सिम्बोलिक) के समन्वित रूप से उचित प्रयोग का सुझाव देता हुआ प्रतीत होता है।

*पियाजे के अतिरिक्त अपने संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त के प्रतिपादन में ब्रूनर को प्रसिद्ध रुसी मनोवैज्ञानिक लेव व्यगोटस्काई (Lev vygotsky) से भी काफी कुछ सीखने को मिला। व्यगोटस्काई बालकों के संज्ञानात्मक विकास में सामाजिक अन्तः क्रिया तथा भाषा के प्रयोग का काफी पक्षधर था। > ब्रूनर ने इसका समर्थन करते हुये पियाजे की इस कमी की ओर संकेत किया कि उसने बालको के संज्ञानात्मक विकास में संस्कृति, सामाजिक अन्तः क्रिया तथा भाषा के योगदान को उचित महत्त्व नहीं दिया। इस बात में पियाजे से अपने आपको अलग करते हुये तथा व्यगोटस्काई से सहमति जताते हुये ब्रूनर ने कुछ निम्न बाते सामने रखीं

(i)बालकों के वांछित संज्ञानात्मक विकास हेतु अन्तः वैयक्तिक संप्रेषण काफी जरूरी है।

(ii) माता-पिता, अध्यापकों, साथी विद्यार्थियों तथा विषय विशेषज्ञों (जिनका संज्ञानात्मक विकास स्तर अपेक्षाकृत अधिक होता है) के सक्रिय सहयोग से बालकों को अपने संज्ञानात्मक विकास में बहुत सहायता मिलती है।

(iii) अगर हम बड़ों द्वारा बालकों के साथ पारस्परिक विचार विनिमय, संप्रेषण तथा बोलचाल अच्छी तरह चलती रहे तो इससे बालकों के संज्ञानात्मक विकास में काफी सहायता मिलती है।

(iv) बालकों में संज्ञानात्मक विकास में भाषा का विकास काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विचार प्रक्रिया तथा चिन्तन के लिये भाषा एक सशक्त साधन और माध्यम का कार्य करती है। भाषा सम्बंधी कमियाँ विचारों के प्रवाह को अवरुद्ध कर देती है। इसलिये शुरू से ही बालकों के भाषा और संप्रेषण सम्बंधी योग्यताओं के उचित विकास पर समुचित ध्यान दिया जाना चाहिये। भाषा सम्बंधी योग्यता तथा सामाजिक अन्तः क्रिया ये दोनो मिलकर बालक के संज्ञानात्मक विकास में किस तरह सहयोगी सिद्ध हो सकते हैं इसकी अनुभूति ब्रूनर द्वारा वर्णित बालकों के निम्न संज्ञानात्मक विकास क्रम द्वारा भलीभाँति हो सकती है :

- भाषा के ज्ञान से पहले बालकों में जो विचार पनपते हैं उनकी आधारभूमि ये खेल तथा सांस्कृतिक परिवेश के रीति रिवाज होते हैं जिनमें बालक पलते हैं। बालकों के विचारों को जन्म देने वाले इन सामाजिक माध्यों का स्थान आगे जाकर हम बड़ों के साथ होने वाली अन्तः क्रिया ले लेती है। इस अंतः क्रिया के फलस्वरूप बालकों की संज्ञानात्मक संरचना में नये ज्ञान का समावेश होता रहता है।

- भाषा अर्जन के द्वारा बड़ों से तथा अपने साथियों से अंतः क्रिया या संप्रेषण करने के कार्य में आवश्यक रूप से इतना इजाफा होता है कि बालकों के संज्ञानात्मक विकास कार्य को इच्छित रूप में सम्पन्न किया जा सके

4. ब्रूनर के अनुसार बालकों के संज्ञानात्मक विकास में तभी ज्यादा से ज्यादा सहायता मिल सकती जबकि उन्हें स्वयं अपने प्रयत्नों से सूचनायें प्राप्त करने तथा ज्ञान की खोज करने के अवसर दिये जाये। इस कार्य के लिये बालकों में मस्तिष्क के सीधे ही ज्ञान को ठूंसना ठीक नहीं बल्कि उन्हें स्वयं अपने प्रयत्नों से ज्ञान प्राप्ति के मार्ग पर चलाने की कोशिश की जानी चाहिये ब्रूनर ने स्पष्ट रूप से यह घोषणा की बालकों के संज्ञानात्मक विकास हेतु उन्हें ज्ञान से सराबोर करना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं जितना कि उन्हें अपने प्रयत्नों से स्वयं ज्ञान प्राप्ति का ढंग सिखाना। इस विषय पर अपने विचार प्रकार करते हुये ब्रूनर (1966 : 72) ने लिखा है।"किसी को अनुदेशन देना उसके मस्तिष्क में पहले से ही निकले परिणामों को भरना नहीं है। बल्कि उसे उस प्रक्रिया में भाग लेने के लिये शिक्षित करना है जिससे ज्ञान की स्थापना या खोज में मदद मिले। हम किसी विषय को उस विषय विशेष पर विद्यार्थी के रूप में कोई छोटा जीता जाता पुस्तकालय खड़ा करने के लिये नहीं पढ़ाते बल्कि इसलिये पढ़ाते हैं कि विद्यार्थी, एक गणितज्ञ की तरह से (तार्किक एवं क्रमबद्द) चिन्तन तथा एक इतिहासकार की तरह से विषय सामग्री का मनन कर ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया में भाग ले सके। क्योंकि ज्ञान प्रक्रिया है, प्रक्रिया का परिणाम नहीं।"(To instruct someone is not a matter of getting him to commit results to mind. Rather it is to teach him to participate in the process that makes possible the establishment of knowledge. We teach a subject not to produce little living libraries on that subject, but rather to get a student to think mathematically for himself, to consider matters as an historian does, to take part in the process of knowledge getting. Knowing is a process not a product)

5.ब्रूनर ने बालक के ज्ञानात्मक विकास में बालक की अपनी भूमिका को पूरी प्रतिष्ठा देने का प्रयत्न किया। उसने कहा कि बालक के किसी भी प्रकार के अधिगम अर्जन और विकास में बालक को निष्क्रिय रूप से नहीं बल्कि सक्रिय रूप से अपनी सांझीदारी निभानी चाहिये। अगर वह अपना उचित संज्ञानात्मक विकास चाहता है तो उसे नये ज्ञान को ग्रहण करने हेतु अपने स्वयं के प्रयत्नों से ही आगे बढ़ना होगा। पकी पकाई खीर खाने की जगह स्वयं अपने आप तैयार करके ही खीर खाने की आदत डालनी होगी। अपने मस्तिष्क को ज्ञान का गोदाम बनाने की अपेक्षा उसे ज्ञान के सृजन तथा संरचना का कारखाना बनाना होगा। बालक को इस प्रकार ज्ञान प्राप्त करने के मार्ग पर चलाने के लिये ब्रूनर ने सुझाव दिया कि वे अपने संज्ञानात्मक विकास में सहायक एनेक्टिव, आईकोनिक तथा सिम्बोलिक चिन्तन करें। प्रणालियों को ऐसे समन्वित एवं वांछित प्रारूप में काम में लाने का प्रयत्न करे ताकि वे स्वयं के प्रयत्नों से ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकें।

6.ब्रूनर के अनुसार एक बात और जो बालकों के उचित संज्ञानात्मक विकास में अधिक कारगर सिद्ध हो सकती है वह यह है कि बालकों के अधिगम अनुभवों तथा उन्हें ग्रहण किये जाने वाले तरीकों को इस तरह संगठित किया जाये कि उन्हें स्वयं के प्रयत्नों द्वारा ज्ञान प्राप्ति में पूरी-पूरी सहायता मिल सके। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये ब्रूनर ने अनुदेशन का एक अपना अलग सिद्धान्त विकसित किया जिसे ब्रूनर का अनुदेशन या अधिगम का संज्ञानात्मक सिद्धान्त कहा जाता है। अपने इस अनुदेशन सिद्धान्त का बालकों के उचित संज्ञानात्मक विकास से तालमेल बिठाते हुये ब्रूनर ने इस बात पर जोर दिया कि शिक्षक का कार्य बालक के सामने पहले से ही विद्यमान ज्ञान को रखना नही है बल्कि उसे ऐसी सुविधा प्रदान करने वाले की भूमिका निभानी चाहिये जिससे विद्यार्थी स्वयं ही अपने प्रयत्नों से ज्ञान की प्राप्ति या खोज कर सके। ब्रूनर (1966) के अपने शब्दों मे " शिक्षक या अनुदेशक का कार्य अधिगम सामग्री को इस प्रकार के प्रारूप में प्रस्तुत करना है जो विद्यार्थी के वर्तमान चिन्तन तथा अवबोध स्तर (इनेक्टिव, आईकोनिक या सिम्बोलिक) से मेल खाता हो और इसे इस तरह कुंडलाकार (spiral manner) संगठित करना है कि बालक अपने पूर्व अर्जित अधिगम को आधार बनाता हुआ लगातार आगे नवीन अधिगम अनुभव ग्रहण करता रहे।" इस प्रकार से ब्रूनर ने बालक की विद्यालीय शिक्षा योजना में "कुंडलीय पाठ्यक्रम" (Spiral Curriculum) की अवधारणा को हमारे सामने रखा और ऐसे पाठ्यक्रम को अपनाने की सिफारिश करते हुये इसे बालक के उचित संज्ञानात्मक विकास तथा उसके द्वारा स्वयं अपने प्रयत्नों से सीखने के कार्य में बेहद जरुरी और उपयोगी करार दिया।

पियाजे के सिद्धान्त से ब्रूनर के सिद्धान्त की तुलना(Comparison between Piaget's and Bruner's theory)

ब्रूनर द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त, अपने से पहले विकसित पियाजे के संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त से जिन मुख्य बातों को लेकर अलग अथवा एक जैसा दिखाई देता है, उन्हें संक्षिप्त रूप में निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है।

1.पियाजे तथा ब्रूनर द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास सम्बंधी दोनो सिद्धान्तों को सामाजिक संज्ञानात्मक अवस्था सिद्धान्त कहा जा सकता है क्योंकि दोनो ही यह बताते हैं कि व्यक्ति विशेष का संज्ञानात्मक विकास उसकी संज्ञानात्मक संरचना तथा वातावरण के बीच होने वाली अंतक्रिया का परिणाम होता है। दूसरे शब्दों में जो कुछ भी व्यक्ति सीखता है वह उसके और उसके वातावरण (विशेषकर सामाजिक एवं सांस्कृतिक) के बीच होने वाली पारस्परिक अंतःक्रिया का ही प्रतिफल है। लेकिन इस सम्बंध में जहाँ ब्रूनर ने निस्संदेह व्यगोटस्काई (Vygotsky) से प्रभावित होकर बालको के संज्ञानात्मक विकास में संस्कृति, सामाजिक अंतःक्रिया, बड़ों का सहयोग तथा भाषा विकास आदि वातावरणजन्य कारकों को काफी महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया वहीं पियाजे ने संज्ञानात्मक योग्यताओं के विकास में सामाजिक अंतःक्रिया तथा भाषा के महत्त्व को लगभग नकारकर बालकों के संज्ञानात्मक विकास को उनकी व्यक्तिगत जिम्मेदारी बताकर उनके अपने वातावरण के साथ समायोजित रहने सम्बंधी प्रयत्नों का प्रतिफल बताया।

2.ब्रूनर और पियाजे दोनों ने ही बालकों के संज्ञानात्मक विकास को एक क्रमबद्ध प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया। पियाजे ने इस कार्य हेतु संज्ञानात्मक विकास की चार अवस्थाओं का वर्णन किया। ब्रूनर ने निश्चित तौर पर इस बात में पियाजे से प्रभावित होकर इनेक्टिव, आईकोनिक तथा सिम्बोलिक नाम से तीन विकास अवस्थाओं को प्रस्तुत किया। उसने पियाजे की तरह यह बात भी कही कि अमूर्त चिन्तन (Abstract thinking), मूर्त चिन्तन (Concrete thinking) से ही विकसित होता है। ऐसी बातों में सादृश्य होते हुये भी ब्रूनर का सिद्धान्त पियाजे के सिद्धान्त से इस रूप में अलग दिखाई देता है कि जहाँ ब्रूनर ने पियाजे की तरह ही संज्ञानात्मक विकास को कुछ क्रमबद्ध चरणों (इनक्टिव आईकोनिक तथा सिम्बोलिक) में संपन्न होने वाली सतत विकास प्रक्रिया बताया और यह कहा कि विकासात्मक काल की किस आयु या अवस्था विशेष में किस प्रकार का विकास अच्छी तरह होता है, वहाँ पिजाये की तरह किसी विशेष आयु या अवस्था विशेष के संज्ञानात्मक विकास को उस आयु या अवस्था की ही व्यती नहीं माना बल्कि यह कहा कि यद्यपि चिन्तन के तीनों ढंग (इनेक्टिव, आईकोनिक तथा सिम्बोलिक) अलग-अलग आयु वर्षों या विकास काल की कुछ निश्चित अवस्थाओं की विशेषता अथवा पहचान माने जाते हैं परन्तु इनकी उपस्थिति सभी समयों में रहती है। इसी कारण हम अपने जीवन में जब भी कोई ऐसा कार्य करते हैं जिसमें संज्ञानात्मक योग्यतायें अपेक्षित हो तब हमें तीनों प्रकार के चिन्तन ढंगों के रूप में विकसित बौद्धिक क्षमता को ही काम में लाया जाता है।

3.ब्रूनर ने अपने सिद्धान्त के माध्यम से इस बात पर जोर दिया कि सक्रिय वार्तालाप, सम्प्रेषण तथा मार्गदर्शन के रूप में बड़ों से की जाने वाली अन्तः क्रिया बालकों के संज्ञानात्मक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। लेकिन पियाजे ने अपने सिद्धान्त में बालकों को संज्ञानात्मक विकास में बड़ों के द्वारा प्रदत मार्गदर्शन, बालकों के साथ उनकी अन्तः क्रिया, वार्तालाप तथा संप्रेषण आदि की भूमिका को लगभग नकार सा ही दिया। उसने इस सम्बंध में केवल इतना कहा कि बालकों का संज्ञानात्मक विकास उनके विकास काल की कुछ निश्चित अवस्थाओं तथा आयु वर्षों में आत्मसातीकरण, एकोमोडेशन तथा संतुलनीकरण आदि प्रक्रियाओं के माध्यम से उनकी संज्ञानात्मक संरचना में लाये गये परिवर्तनों के फलस्वरूप धीरे-धीरे एक क्रमबद्ध रूप में सम्पन्न होता रहता है।

4.पियाजे तथा ब्रूनर दोनों ही रचनात्मकवाद (constructivism) के प्रणेता माने जाते है क्योंकि दोनों ने ही इस बात पर जोर दिया कि विद्यार्थियों द्वारा ज्ञान की प्राप्ति उनके स्वयं के प्रयत्नों से ज्ञान की खोज अथवा सृजन से होनी चाहिये। अपनी इस रचनात्मक सोच को आगे बढ़ाते हुये दोनों ने ही यह कहने की कोशिश की अगर हम अपने बालकों की उनके संज्ञानात्मक विकास में मदद करना चाहते हैं। तो हमें उन्हें स्वयं अपने प्रयत्नों द्वारा ज्ञान की प्राप्ति या खोज में लगाना होगा। परन्तु जहाँ इस प्रकार की ज्ञान प्राप्ति प्रक्रिया (Knowledge getting process) को पियाजे ने बालक विशेष का व्यक्तिगत मामला बना दिया तथा बड़ों या साथी बालकों के साथ अन्तःक्रिया करने, अनुदेशन, मार्गदर्शन या किसी अन्य प्रकार की उचित सहायता प्राप्त करने सम्बंधी बातों को लगभग नकार सा ही दिया वही ब्रूनर ने एक सामाजिक रचनात्मकवादी (Social constructivist) होने के नाते बालकों के उचित संज्ञानात्मक विकास हेतु बड़ों के मार्गदर्शन तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक अन्तःक्रिया सम्बंधी वातावरणजन्य प्रभावों को काफी जरूरी बताया।

5.वांछित संज्ञानात्मक विकास हेतु अध्यापकों द्वारा विद्यार्थियों के लिये अनुदेशन प्रारूप का नियोजन करने में पियाजे तथा ब्रूनर दोनों ने ही इस बात पर जोर दिया कि उन्हें ऐसा करने से पहले अपने विद्यार्थियों के संज्ञानात्मक विकास स्तर का स्पष्ट ज्ञान होना जरूरी है। पियाजे ने इस सम्बंध में यह कहा कि विद्यार्थियों को दिये जाने वाले अधिगम अनुभव तथा इनकी प्राप्ति के तरीके बालकों के विकास काल से सम्बंधित विशिष्ट आयु वर्ग या अवस्थाओं में होने वाले विद्यार्थियों के संवेगात्मक विकास से मेल खाने चाहियें। पियाजे के अनुसार इसलिये पाठ्यक्रम के आयोजन में “सरल से कठिन” तथा "स्कूल से सूक्ष्म" सिद्धान्तों का अनुगमन किया जाना चाहिये। ब्रूनर ने पियाजे के इस प्रकार के विचारों से अपना अलग मत प्रकट करते हुये पाठ्यक्रम आयोजन हेतु "कुंडलाकार पाठ्यक्रम" (Spiral curriculum) का प्रस्ताव रखा। अपने इस प्रकार के प्रस्ताव को सैद्धान्तिक आधार प्रदान करने हेतु ब्रूनर ने घोषणा की कि "किसी भी विषय को किसी भी विकास अवस्था विशेष से सम्बंधित बालक को आवश्यक बौद्धिक ईमानदारी बरतते हुए प्रभावी ढंग से पढ़ाया जा सकता है।" अपनी इस सैद्धान्तिक अवधारणा को पाठ्यक्रम आयोजन का आधार बनाते हुए ब्रूनर ने कुंडलीकार पाठ्यक्रम के विकास का प्रस्ताव रखा।और इस पाठ्यक्रम को एक ऐसे पाठ्यक्रम के रूप में परिभाषित किया कि जो पिछली कक्षाओं में पढ़ा दिया जाता है, उसकी चर्चा आगे की कक्षाओं में भी होती जाती है ताकि जब विद्यार्थी किसी एक विद्यालय स्तर की शिक्षा ले तो उसके पास पिछली सभी कक्षाओं तथा वर्तमान का पूरा ज्ञान होना चाहिए।

6.पियाजे से अलग चलते हुए (जो बालकों के संज्ञानात्मक विकास में किसी प्रकार के दूसरों के साथ किए हुए सम्प्रेषण एवं अन्तःक्रिया को कोई महत्त्व नहीं देता था) बुनर ने स्पष्ट किया कि बच्चों के संज्ञानात्मक विकास में बड़ों की काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। वे उनके साथ वार्तालाप करते रहते हैं; प्रश्न पूछते रहते हैं और अन्य प्रकार की सामाजिक गतिविधियों में उनका साथ देते हुए उनको विचारों को वाणी देने का प्रयत्न करते हुए देखे जाते हैं। इस प्रकार की अन्तःक्रियाओं और सम्प्रेषण का बालकों के संज्ञानात्मक विकास पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अपने इस प्रकार के मत को व्यक्त करने में ब्रूनर को हम रशियन मनोवैज्ञानिक व्यागोटस्काई द्वारा व्यक्तधारणा (बड़ों के सानिध्य का बच्चों के संज्ञानात्मक विकास पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव) के काफी करीब पाते हैं। इसके अतिरिक्त ब्रूनर को हर व्यागोटस्काई की तरह बालकों में संज्ञानात्मक विकास में भाषा के महत्त्व पर भी काफी बल देता हुआ पाते हैं। ब्रूनर ने स्पष्ट रूप से यह बताया है कि आईकोनिक (Iconic) चिन्तन के स्थान पर उच्चस्तारीक सिम्बोलिक (syrnbolic) चिन्तन को बालक तभी अपनाता है जब उसमें अपेक्षित भाषा का विकास हो चुका होता है।

शैक्षषिक निहितार्थ(Educational Implications)

जो कुछ ऊपर कहा गया है उसके आधार पर ब्रूनर के संज्ञानात्मक सिद्धान्त के शैक्षिक निहितार्थ को संक्षेप में निम्नप्रकार व्यक्त किया जा सकता है

1.शिक्षाशास्त्रियों अध्यापकों तथा मातापिता को ब्रूनर द्वारा सुझाए गए चिन्तन के तीनों प्रारूपों या ढंगों की प्रकृति और उनके महत्त्व से परिचित होना आवश्यक है। बच्चा कब किस ढंग का चिन्तन करने योग्य होता है उसको ध्यान में रखते हुए वे बालकों की कार्य सम्बन्धी क्षमताओं और योग्यताओं के विकास की बात सोच सकते हैं। दूसरी बात इस संदर्भ में उनके द्वारा यह च्छी तरह ध्यान में रखी जा सकती है कि बालकों में उपस्थित चिन्तन ढंगों का किसी विशेषप्रकार की कार्यक्षमताओं या कौशलों के विकास हेतु उपयोग किया जा सकता है। उदाहरण के लिये एनेक्टिवल (Enactive) चिन्तन के ढंग को उपयुक्त रूप से काम में लाने पर जोर दिया जाय तो इसके गामक क्षमताओं तथा यान्त्रिक कौशलों (Mechanical skills) के विकास में समुचित मदद मिल सकती हैं। इसीतरह चिन्तन के आईकोनिक (lconic) प्रारूष का उपयोग एन्द्रिक तथा कल्पना सम्बन्धी क्षमताओं तथा सिम्बोलिक (Symbolic) प्रारूप का उपयोग अमूर्ज, गूठ तथा उच्च स्तरीय चिन्तन से युक्त योग्यताओं एवं कौशलों के विकास में यथेस्ट रूप से सहयोगी सिद्ध हो सकता है।

2.ब्रूनर की सलाह के अनुसार हमें यह ध्यान रहना चाहिये कि एक्टिव, आईकोनिक या सिम्बोलिक चिन्तन स्तन पर सोच विचार करने की क्षमता किसी आयु स्तर या अवस्था विशेष की ही. वपौती नहीं है। कोई भी ऐसा मानसिक कार्य या गतिविधि जिसमें संज्ञानात्मक कौशलों की जरूरत होती है उसके संपादन में हमें किसी भी एक या अनेक चिन्तन के तरीकों या ढंगों का इस्तेमाल करना पड़ सकता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अध्यापकों को अपने को इस बात के लिये तैयार रखना चाहिये कि जैसी परिस्थिति हो उसके हिसाब से बालकों को तीनों में से किसी एक या उनके समन्वयन प्रारूप को अपनाकर बालकों की किसी अधिगम या कार्य के संपादन में उचित मदद करनी चाहिये। ब्रूनर के द्वारा दिये गये इस प्रकार के सुझाव ने ही अनुदेशन के क्षेत्र में बहु माध्य उपागम (multimedia approach) को अपनाने का रास्ता दिखाया है।

3.ब्रूनर ने अपने संज्ञानात्मक सिद्धान्त में यह भी स्पष्ट किया है कि चिन्तन के एनेक्टिव, आईकोनिक या सिम्बोलिक ढंग यद्यपि बालकों के विकास काल से सम्बंधित सभी विकास अवस्थाओं या आयु स्तरों में उनके किसी न किसी रूप में अवश्य मौजूद रहते हैं परन्तु इसके साथ-साथ यह बात भी सत्य है कि चिन्तन का एक विशेष पिढंग किसी अवस्था विशेष को ही विशेष पहचान होती है। जैसे कि चिन्तन के एक्टिव ढंग का शैशवकाल में बोलबाला रहता है। इसी तरह आईकोनिक तथा सिम्बोलिक चिन्तन ढंगों का बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था में अधिक बोलबाला रहता है। इससे यह स्पष्ट है कि शैशवावस्था, बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था के बालकों के लिये उनके संज्ञानात्मक विकास स्तर के अनुकूल अधिगम अनुभवों एवं शिक्षण-अधिगम विधियों का चयन करते समय उनकी अवस्था विशेष में हावी चिन्तन ढंगों (एनेक्टिव, आईकोनिक तथा सिम्बोलिक) का भी पूरा-पूरा ध्यान रखा जाना चाहिये। इसके अतिरिक्त एक बात और जो ब्रूनर के सिद्धान्त द्वारा हमारे ध्यान में लाई जा सकती है वह यह है कि जहाँ शैशवावस्था बालकों की गामक योग्यताओं और कौशलों के विकास का काल है, बाल्यावस्था उनकी इन्द्रिय जनित तथा कल्पना करने सम्बंधी योग्यताओं तथा कौशलों के विकास का समय है वहीं पूर्व किशोरावस्था तथा किशोरावस्था उनके सूक्ष्म चिन्तन एवं विचार कौशल के प्रादुर्भाव का समय है। फलस्वरूप यह समझने में अब देर नहीं लगनी चाहिये कि अगर अनुदेशन को बालकों की योग्यता और क्षमताओं के अनुकूल ढालना है तो शिशुओं और बाल्यकाल के बालकों की शिक्षा में जहाँ स्थूल सामग्री तथा श्रव्य दृश्य सामग्री के अधिकाधिक उपयोग पर जोर दिया जाना चाहिये वहीं किशोरावस्था में यह मान लेना चाहिये कि बालकों में अब सूक्ष्म चिन्तन की शक्ति विकसित हो गई है। और वे अब उच्च स्तर की मानसिक योग्यताओं तर्क शक्ति, विचारशक्ति तथा कल्पना शक्ति का उपयोग कर अधिगम अनुभव ग्रहण करने में समर्थ हो सकते हैं। 4. ब्रूनर ने यह स्पष्ट किया कि बालकों का विकास (जिसमें उनका संज्ञानात्मक विकास भी शामिल है) तभी ठीक तरह संभव है जबकि वह अपने स्वयं के प्रयत्नों से अनुभवों तथा ज्ञान की प्राप्ति के लिये आगे आयें। इस दृष्टि से अध्यापकों का यह परम कर्त्तव्य बन जाता है कि वे बालकों के ऊपर ज्ञान की बौछार करने से बाज आयें तथा अपनी ओर से ऐसी सभी सुविधायें तथा परिस्थितियाँ बालकों को आगे आने के लिये दें जिनमें वे अपने प्रयत्नों से वांछित ज्ञान की प्राप्ति या खोज कर सकें वे शिक्षा और अनुदेशन को ज्ञान प्राप्ति का साधन एवं प्रक्रिया के रूप में देखे तथा बालकों के सामने यही आदर्श रखें कि ज्ञान से ज्ञान प्राप्ति के ढंग को सीखना उनके लिये ज्यादा बेहतर है।

5.ब्रूनर ने इस बात पर भी जोर दिया कि कोई अपने संज्ञानात्मक विकास के रास्ते में ज्यादा से ज्यादा आगे की मंजिल तभी तय कर सकता है जब वह इसके लिये पूरी तरह तैयार (अभिप्रेरित) हो तथा अपनी संज्ञानात्मक संरचना (अभी तक विकसित संज्ञानात्मक कौशल तथा अर्जित अनुभवों से युक्त) को नये अनुभव, ज्ञान तथा कौशलों के अर्जन में प्रयुक्त करता रहे। शिक्षक को इसलिये यह चाहिये कि वह शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के प्रति विद्यार्थियों को भलीभाँति अभिप्रेरित रख इसमें उनकी सक्रिय भागीदारी हासिल करने का प्रयत्न करे। उसे यह भी चाहिये कि वह विद्यार्थियों की प्रकृति और उनके संज्ञानात्मक विकास स्तर के अनुकूल उचित अधिगम अनुभवों तथा विधियों के नियोजन तथा क्रियान्वयन में विद्यार्थियों के पूर्व अनुभवों तथा उनकी वर्तमान संज्ञानात्मक संरचना को भी पूरी तरह ध्यान में रखें।

6.पाठ्य एवं सह-पाठ्य अनुभवों की गुणवत्ता और विद्यार्थियों के समुचित संज्ञानात्मक विकास में धनात्मक सह सम्बंध पाया जाता है। ब्रूनर ने इस बात से ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाने के लिये "कुंडलाकार पाठ्यक्रम" के अनुगमन का सुझाव दिया। इस दृष्टि से पाठ्यक्रम निर्माताओं को चाहिये कि वे पाठ्यक्रम सम्बंधी अधिगम अनुभवों तथा प्रकरणों में निहित विषय सामग्री का संगठन इस प्रकार करें कि शुरू-शुरू में छोटी कक्षाओं में प्रकरण विशेषों से सम्बंधित बातों की मात्र शुरूआत ही की जाये और फिर धीरे-धीरे आगे की कक्षाओं में उन प्रकरणों से सम्बंधित और बातें "सरल से कठिन तथा "स्थूल से सूक्ष्म" सिद्धान्तों का अनुगमन करते हुये रखी जाये परन्तु साथ-साथ इन आगे की कक्षाओं में पिछली कक्षाओं में पढ़ायी जाने वाली विषय वस्तु तथा अनुभवों की पुनरावृत्ति का भी ध्यान रखा जाता रहे ताकि बालकों को पहले जो कुछ पढ़ा दिया है वह और जो अब पढ़ाया जा रहा है वह सभी कुछ अपने संज्ञानात्मक स्तर में लगातार वृद्धि करने के लिये उपलब्ध होता रहे। ब्रूनर द्वारा प्रतिपादित कुंडलाकार पाठ्यक्रम की इस अवधारणा को चित्रात्मक रूप में निम्न प्रकार प्रस्तुति की जा सकती है।

7.ब्रूनर संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त बालकों के विकास काल से सम्बंधित किसी भी आयु वर्ग के लिये निश्चित अनुदेशनात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं तथा संज्ञानात्मकवादी अधिगम सिद्धान्तों के प्रयोग को काफी अधिक महत्त्व देता है। इसलिये अध्यापकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने शिक्षण से बेहतर परिणाम पाने हेतु ब्रूनर के द्वारा सुझाई गई विधियों तथा प्रक्रियाओं का इस्तेमाल करें। इस सम्बंध में ब्रूनर द्वारा सुझायी गई जिन संज्ञानात्मक विधियों, प्रारूपों एवं प्रक्रियाओं का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है वे हैं—खोज विधि, पूछताछ तथा अन्वेषणात्मक विधि, संप्रत्यय उपलब्धि प्रतिमान, संवाद एवं गोष्ठी विधि, रचनात्मक अधिगम विधियाँ (जैसे सहकारी अधिगम तथा रचनात्मकतावादी अधिगम) आदि।

8.ब्रूनर ने बालकों के विकास में भाषा तथा सामाजिक अन्तःक्रिया की भूमिका को पूरा-पूरा महत्त्व देने की चेष्टा की है। इस दृष्टि से हम अध्यापकों को चाहिये कि हम अपने विद्यार्थियों की भाषा सम्बंधी योग्यताओं तथा संप्रेषण कौशलों के विकास पर समुचित ध्यान दें ताकि विद्यार्थियों को अपनी इन योग्यताओं तथा क्षमताओं से पूरा फायदा उठाकर नवीन ज्ञान की प्राप्ति और अपने संज्ञानात्मक स्तर में उचित वृद्धि करने के कार्य में यथेष्ट सहयोग मिल सके।

9. ब्रूनर ने बालकों के विकास में सांस्कृतिक तथा सामाजिक अन्तःक्रिया तथा बड़ों द्वारा दिये गये म प्रदर्शन को भी काफी महत्त्व दिया है। इसलिये हमें चाहिये कि विषय वस्तु, शिक्षण विधि, शिक्षण अधिगम वातावरण साधन तथा परिस्थितियों का इस प्रकार भलीभाँति नियोजन करे जिससे विद्यार्थियों के समुचित विकास में हम बड़ों (अध्यापकों सहित) को विद्यार्थियों के लिये उचित अनुदेशन, परामर्श तथा अन्य प्रकार की सभी आवश्यक सहायता और सहूलियते प्रदान करने के वांछित अवसर उपलब्ध हो सकें।

10.अंतिम परन्तु काफी महत्त्वपूर्ण बात जो ब्रूनर के संज्ञानात्मक सिद्धान्त के माध्यम से अच्छी तरह समझ में आ सकती है वह यह है कि अध्यापकों को अपने विद्यार्थियों के वर्तमान संज्ञानात्मक स्तर का (उनके एक्टिव, आईकोनिक तथा सिम्बोलिक रुप में चिन्तन कर सकने की क्षमताओं के संदर्भ में) अपने शिक्षण में पूरा-पूरा फायदा उठाने की कला में सिद्धहस्त होने का प्रयास करना चाहिये। उदाहरण के लिये अगर एक अध्यापक अपने विद्यार्थियों को डायनासोरों (dinosours) के बारे में जानने में मदद करना चाहता है तो उसे चाहिये कि वह इनके बारे में चिन्तन तथा सोच-विचार करने के लिये विद्यार्थियों में विद्यमान चिन्तन के तीनों ढंगों के समन्वित रूप से प्रयोग करने पर ध्यान दे। ऐसा करने के लिये वह यहाँ अब विद्यार्थियों से डायनासोरों के मॉडल बनाने के लिये कह सकता है (इनेक्टिव चिन्तन), डायनासोरों के ऊपर बनी हुई किसी फिल्म को देखने के लिये कह सकता है (आईकोनिक चिन्तन) और उन्हें डायनासोरों के बारे में अपने द्वारा बताई गई पुस्तकों तथा अन्य संदर्भित सामग्री के द्वारा वांछित जानकारी लेने तथा फिर इस प्राप्त जानकारी की कक्षा में सबके साथ चर्चा करने के लिये भी आवश्यक प्रेरणा तथा सुविधायें उपलब्ध करा सकता है (सिम्बोलिक या प्रतीकात्मक चिन्तन)।इस प्रकार से ब्रूनर के द्वारा प्रदत्त प्रगतिशील विचार तथा संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त शिक्षा की प्रक्रिया तथा परिणामों में गुणवत्ता लाने तथा बालकों के संज्ञानात्मक स्तर को अधिक-से-अधिक ऊँचा उठाने सम्बंधी प्रयत्नों में अपना भरसक योगदान देने की पूरी-पूरी क्षमता रखते हैं। विद्यार्थियों तथा विद्यार्थियों के हित चिन्तन से जुड़े हुये सभी व्यक्तियों के लिये ब्रूनर द्वारा बालकों में संज्ञानात्मक विकास हेतु दिखाया गया मार्ग सभी तरह से काफी उपयोगी सिद्ध हो सकता है। ब्रूनर के इस प्रकार के योगदान के प्रति अपने विचार प्रकट करते हुये प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक हॉवर्ड गार्डनर (2001 : 94), जो मल्टीपिल इंटेलीजेन्स थ्योरी के प्रतिपादक के रूप में विश्वविख्यात है, ने लिखा है :"जेरोम ब्रूनर की गिनती सिर्फ अपने समय के एक अग्रणी शैक्षिक चिन्तकों में ही नहीं होती बल्कि वे एक प्रेरणाशील अध्ययनकर्ता तथा शिक्षक भी हैं। ब्रूनर जब यह कहते हैं तो ठीक ही कहते हैं कि बुद्धिमतापूर्ण कार्य कहीं भी और कैसे भी प्रकाश में आ सकता है चाहे उसका संपादन ज्ञान के सर्वोच्च स्तर पर हो रहा है अथवा तीसरी कक्षा के कक्षा कक्ष में। ब्रूनर से जो परिचित है निस्संदेह उनके लिये ब्रूनर एक पूर्ण शिक्षाविद का जीता जागता उदाहरण है।"

Reference-uma Mangal&SK mangal


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