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Learning-concept and importance(अधिगम- अवधारणा एवम महत्व)
Aug 31, 2022   Ritu Suhag

Learning- concept and importance (अधिगम -अवधारणा एवम महत्व)

अधिगम का अर्थ एवं परिभाषाएं (Meaning and Definitions of Learning)

 

अधिगम या सीखना एक बहुत ही सामान्य और आम प्रचलित प्रक्रिया है। जन्म के तुरन्त बाद से ही व्यक्ति सीखना प्रारम्भ कर देता है और फिर जीवन पर्यन्त जाने-अनजाने कुछ-न-कुछ सीखता ही रहता है। एक बच्चा जलती हुई दियासलाई की तीली या लैम्प की लौ को छूने से जल जाता है। उसके लिये यह पहला कटु अनुभव होता है। यह अनुभव दूसरी बार कभी भी जलती हुई तीली, लैम्प की लौ और यहां तक किसी भी जलती हुई वस्तुओं यानि आग से दूर रहना सिखा देता है। दूसरे शब्दों में, हम यह कह सकते हैं कि बच्चा यह सीख जाता है कि अगर किसी गर्म वस्तु या लौ को हाथ लगाया जायेगा तो अवश्य ही जलने की पीड़ा उठानी होगी। इस प्रकार से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष अनुभवों के माध्यम से एक व्यक्ति के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन होते रहते हैं। अनुभवों द्वारा व्यवहार में होने वाले इन परिवर्तनों को साधारण रूप में सीखने की संज्ञा दे दी जाती है।

सीखना एक ऐसी प्रक्रिया या उसका परिणाम है, जिसमें अनुभव के माध्यम से सीखने वाले के व्यवहार में परिवर्तन लाए जाते हैं। यहां यह स्पष्ट करने का भी प्रयास किया गया है कि व्यवहार में परिवर्तन यद्यपि अन्य कारकों तथा कारणों के प्रभाव स्वरूप भी घटित होते हैं परन्तु उन सभी को सीखने का दर्जा नहीं दिया जा सकता।

व्यवहार में परिवर्तन लाने वाले कारकों या शक्तियों का मुख्य रूप से तीन श्रेणियों में विभाजन किया जा सकता है: 1. व्यवहार में स्थायी परिवर्तन लाने वाली शक्तियां या कारक जैसे परिपक्वन (Maturation) |

2. व्यवहार में अस्थायी परिवर्तन लाने वाली शक्तियां या कारक जैसे मानसिक या शारीरिक थकावट(Mental or Physical fatigue),बीमारी( Illness),मादक पदार्थ (Drugs or intoxicating objects), औषधि (Medicines),अनिद्रा (Sleeplessness),क्रोध,भय, संवेगात्मक अवस्था(Emotions),आदि।

3. व्यवहार में स्थायी और अस्थायी दोनों के बीच की स्थिति वाले परिवर्तन लाने वाले कारक जैसे प्रशिक्षण,अभ्यास तथा अनुभव आदि।

*.सीखना एवं परिपक्वन के द्वारा होने वाले परिवर्तन(Changes brough out by Maturation) सीखना और परिपक्वन ये दोनों प्रक्रियायें कुछ इस प्रकार से जुड़ी हुई हैं कि कभी-कभी निश्चित रूप से यह कहना कठिन हो जाता है कि व्यवहार सम्बन्धी किन परिवर्तनों के पीछे सीखने की प्रक्रिया का हाथ है तथा किन के पीछे परिपक्वता का। इसे जानने के लिए हमें इन दोनों प्रक्रियाओं में निहित अन्तर को भली-भांति समझ लेना आवश्यक हो जाता है।परिपक्वन एक नैसर्गिक प्रक्रिया है, इसके लिए बाह्य उद्दीपनों की आवश्यकता नहीं। यह एक प्रकार से मानव की अन्तर्निहित शक्तियों का विकास है। जैसे बीज से पत्ते, टहनी, फल-फूल इत्यादि प्राप्त हो जाते हैं, वैसे ही प्राकृतिक रूप में किसी पूर्व अनुभव, अधिगम या प्रशिक्षण के बिना परिपक्वन की क्रिया के फलस्वरूप जन्मजात योग्यताओं और शक्तियों में वृद्धि हो जाती है तथा प्राणी में आवश्यक परिवर्तन आ जाते हैं। बिग्गी (Biggic) एवं हंट (Hunt) ने परिपक्वन के अर्थ को स्पष्ट करते हुए निम्न विचार व्यक्त किए हैं :

परिपक्वन एक विकासात्मक प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत एक व्यक्ति समय के साथ साथ उन सभी विशेषताओं और गुणों को ग्रहण करता है जिनकी नींव उसके गर्भ में आने के समय ही उसकी कोशिकाओं में रखी जा चुकी है।

दूसरी ओर अधिगम या सीखना व्यक्ति में होने वाले उन परिवर्तनों के लिए प्रयुक्त होता है, जिनके लिए आवश्यक रूप से वंशानुक्रम की प्रक्रिया उत्तरदायी नहीं होती। इन्हें सीखने में अनुभव की आवश्यकता पड़ती है और विशेष प्रयत्न भी करने पड़ते हैं। सीखने की प्रक्रिया के दौरान व्यवहार में जो परिवर्तन होते हैं वे सदैव किसी न किसी प्रक्रिया-प्रशिक्षण अथवा अनुभव के फलस्वरूप प्राप्त होते हैं। अतः, अगर परिपक्वन को सीखने से अलग करके देखा जाए तो हम निम्न परिणाम पर पहुंच सकते हैं -

"अगर व्यवहार के किसी पक्ष का विकास आयु के बढ़ने के साथ-साथ बिना किसी अभ्यास और प्रशिक्षण की सहायता से स्वाभाविक रूप से सम्पन्न होता है, तो इस विकास के लिए परिपक्वता की क्रिया को ही उत्तरदायी ठहराया जाता है।"

पक्षियों का हवा में उड़ना और हिरण के बच्चे का कुलाचें भरना आदि क्रियाएँ परिपक्वता का परिणाम कही जा सकती हैं। लेकिन मानव की अधिकांश क्रियाओं में निश्चित रूप से यह कहना कठिन हो जाता है कि वे परिपक्वता का परिणाम है या नहीं।उदाहरण के लिए हम बच्चे में भाषा के विकास को ले सकते हैं। यह ठीक है कि बच्चा बोलना और भाषा का प्रयोग करना तब तक नहीं सीखता जब तक वह परिपक्वन की एक विशेष अवस्था या आयु पर नहीं पहुंच पाता। परन्तु केवल परिपक्वता ग्रहण करने या आयु में बड़ा होने मात्र से ही उसको बोलना तथा प्रयोग करना नहीं आता, उसे यह सब कुछ सिखाना पड़ता है।

वास्तव में देखा जाए तो परिपक्वन और सीखना—ये दोनों प्रक्रियाएं एक-दूसरे से बहुत अधिक सम्बन्धित हैं। दोनों का लक्ष्य समान है। दोनों ही बालक के व्यवहार में संशोधन एवं परिवर्तन लाती हैं। तथा विकास के सभी स्तरों पर साथ-साथ चलती हैं। एक के बिना दूसरी उतनी प्रभावोत्पादक नहीं बन जाती।परिपक्वता सीखने में सहायक होती है।

*.व्यवहार में अस्थायी परिवर्तन लाने वाले कारक(Factors Associated with Temporary Changes in Behaviour)

थकावट, बीमारी, भय, क्रोध, चिन्ता, नशीले पदार्थ, तथा औषधियों के सेवन से व्यवहार में काफ़ी प्रभावी परिवर्तन आ जाते हैं। सुबह दफ्तर जाते हुए जिन बाबू जी का व्यवहार काफ़ी हंसमुख तथा सौम्य प्रतीत होता है वे दफ्तर के काम-काज तथा सफ़र की थकावट के कारण चिड़चिड़े और काफ़ी असंयत नजर आते हैं। परन्तु जैसे ही उन्हें गृहिणी के द्वारा जलपान मिलता है तथा घर का वातावरण उनकी थकावट को दूर करता है,वे अपने सुबह वाली व्यवहार स्थिति में आ जाते हैं। यही बात शराब या अन्य कोई नशीले पदार्थ के सेवन करने करने वाले के साथ दिखाई देती है। कहावत है कि नशे के कारण चूहा भी शेर की तरह दहाड़ने लगता है परन्तु फिर नशा उतरते ही वह पुनः चूहा बन जाता है।

*अनुभव के द्वारा होने वाले अपेक्षाकृत स्थायी परिवर्तन (Relatively Permanent Changes through Experience)

अब तीसरे प्रकार के व्यवहार परिवर्तन आते हैं जो न तो परिपक्वन द्वारा लाए गए परिवर्तनों की भांति बिल्कुल स्थायी (Absolutely permanent) होते हैं और न थकावट, नशे या बीमारी जैसे कारकों द्वारा लाए गए परिवर्तनों की तरह बिल्कुल अस्थायी (Quite temporary) इन परिवर्तनों की प्रकृति स्थायी तथा अस्थायी परिवर्तनों के बीच की होती है, जिसे शब्दों में अपेक्षाकृत स्थायी परिवर्तनों (Relatively permanent changes) की संज्ञा दी जा सकती है। ये परिवर्तन अनुभव (प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष) के द्वारा ही लाए जाते हैं और केवल इस प्रकार के व्यवहार परिवर्तनों को ही सीखने की प्रक्रिया या परिणामों से जोड़ा जा सकता है।

Process of learning (अधिगम की प्रक्रिया)

सीखने की प्रक्रिया के प्रथम सोपान के रूप में अभिप्रेरक अथवा चालक की चर्चा की है। अभिप्रेरक,शक्ति के वह गतिशील स्रोत हैं,जो व्यवहार को शक्ति प्रदान करने और बालक को कुछ न कुछ करने के लिए प्रेरित करते हैं।इस कार्य के लिए उसे कुछ स्पष्ट लक्ष्य और उद्देश्य निर्धारित करने पड़ते हैं। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कुछ सीखने की प्रक्रिया में से गुजरना पड़ता है।लक्ष्य और उद्देश्य जितने स्पष्ट होते हैं,सीखने की अभिलाषा उतनी ही बलवती होती है।इसके अन्तर्गत किसी न किसी प्रकार की रुकावट,कठिनाई या बाधा सामने आ जाती है।यही बाधा और कठिनाई उसे कुछ सीखने को प्रेरित करती है।माना एक विद्यार्थी अपना नाम कालेज की हॉकी टीम में शामिल कराना चाहता है। हॉकी एक ऐसा खेल है जिसे खेलने से उसकी बहुत सी मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। इसके द्वारा अपने सहपाठियों तथा अध्यापकों की दृष्टि में उसका मूल्य बढ़ता है तथा उसकी रुचि और अभिरुचि के अनुकूल उसे खेलने का अवसर मिलता है। इस प्रकार टीम में शामिल होने के लिए वह पूरी तरह से अभिप्रेरित (Motivated) रहता है और इसे अपना लक्ष्य बना लेता है। लेकिन खेल खेलते समय उसका निशाना प्रायः चूक जाता है और साथी खिलाड़ियों के साथ वह ठीक प्रकार तालमेल भी नहीं बिठा पाता। अतःलक्ष्य प्राप्ति में बाधा या कठिनाई आ पड़ती है। उसके खेल का स्तर उतना अच्छा नहीं कि उसे टीम में चुना जा सके।परन्तु वह अपने खेल के स्तर को सुधारने के लिए पूरी तरह कमर कस लेता है।दिन-रात के अभ्यास और प्रशिक्षण द्वारा वह अपनी कमी को पूरा कर लेता है और इस तरह अन्त में टीम में शामिल होने के अपने लक्ष्य को पूरा कर लेता है।

Nature and characteristics of learning (अधिगम की प्रकृति या विशेषताएं) 

1.सीखना व्यवहार में परिवर्तन है (Learning is the Change in Behaviour) —सीखने की प्रक्रिया और उसके परिणाम का सीधा सम्बन्ध सीखने वाले के व्यवहार में परिवर्तन लाने से होता है। किसी भी प्रकार का सीखना क्यों न हो इसके द्वारा विद्यार्थी में परिवर्तन लाने की भूमिका सदैव ही निभाई जाती है। हां, यह व्यवहार परिवर्तन अपेक्षित दशा और दिशा में हो इस बात का ध्यान अवश्य ही रखा जाना चाहिए।

2.अर्जित व्यवहार की प्रकृति अपेक्षाकृत स्थायी होती है (Change in Behaviour Caused by Learning is Relatively Permanent) –सीखने के द्वारा व्यवहार में जो परिवर्तन लाए जाते हैं वे न तो पूर्ण स्थायी होते हैं और न बिल्कुल अस्थायी। उनकी प्रकृति इन दोनों के बीच की स्थिति वाली होती है जिसे अपेक्षाकृत स्थायी का नाम दिया जा सकता है।

3.सीखना जीवन पर्यन्त चलने वाली एक सतत प्रक्रिया है (Learning is a Continuous Life Long Process)— सीखना यद्यपि वंशक्रम की धरोहर नहीं है परन्तु इसकी शुरूआत बालक के जन्म से पहले मां के गर्भ में ही हो जाती है। अभिमन्यु ने चक्रव्यूह भेदन की प्रक्रिया अपनी मां के गर्भ में उसी समय सीख ली थी जबकि उसके पिता अर्जुन उसकी माता सुभद्रा को इसके बारे में बता रहे थे। जन्म के बाद वातावरण में प्राप्त अनुभवों के द्वारा इस कार्य में पर्याप्त तेजी सी आ जाती है और औपचारिक तथा अनौपचारिक, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष इन सभी अनुभवों के माध्यम से हम जब तक मृत्यु को प्राप्त होते हैं कुछ न कुछ सीखते ही रहते हैं।

4.सीखना एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है (Learning is a Universal Process) –सीखन किसी व्यक्ति विशेष, जाति, प्रजाति, तथा देश-प्रदेश की बपौती नहीं है। इस संसार में जितने भी जीवधारी (Living organism) हैं वे अपने-अपने तरीके से अनुभवों के माध्यम से कुछ न कुछ सीखते रहते हैं। यह सोचना या दावा करना कि किसी जाति विशेष जैसे ब्राह्मण या सवर्ण हिन्दू परिवार में जन्मा बालक अन्य वर्णों के बालकों की तुलना में अच्छी तरह सीख सकता है या लड़के, लड़कियों की अपेक्षा अथवा गोरे यूरोपियन, हरिशयों की अपेक्षा जल्दी और अच्छा सीखते हैं, बिल्कुल निराधार और भ्रम मूलक है।

5.सीखना उद्देश्यपूर्ण एवं लक्ष्य निर्देशित होता है। (Learning is Purposive and Goal Directed)—जब भी हम कुछ सीखने का प्रयास करते हैं या दूसरे शब्दों में अपना व्यवहार में परिवर्तन लाना चाहते हैं तो उसका कोई न कोई निश्चित उद्देश्य होता है। हमारे सीखने की प्रक्रिया इसी उद्देश्य या लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ती है। जैसे जैसे हमें इस लक्ष्य प्राप्ति में सहायता मिलती रहती है हम अधिक उत्साह से सीखने के कार्य में जुटे रहते हैं।

6.सीखने का संबंध अनुभवों की नवीन व्यवस्था से होता है (Learning Involves Reconstruction of Experiences )—सीखने की प्रक्रिया में प्राप्त अनुभवों के नवीन समायोजन तथा पुनर्गठन का कार्य चलता ही रहता है। जो कुछ पूर्व अनुभवों के आधार पर सीखा हुआ होता है, उसमें नवीन अनुभवों के आधार पर परिवर्तन लाना जरूरी हो जाता है। इस तरह अनुभवों की नवीन व्यवस्था या समायोजन का कार्य चलते रहना ही सीखने के मार्ग पर आगे बढ़ने की विशेष आवश्यकता और विशेषता बन जाती है।

7.सीखना वातावरण एवं क्रियाशीलता की उपज है (Learning is the Product of Activity and Environment) — वातावरण के साथ सक्रिय अनुक्रिया करना सीखने की एक आवश्यक शर्त है। जो बालक जितनी अच्छी तरह से पूर्ण सक्रिय होकर वातावरण के साथ अपेक्षित अनुक्रिया करेगा वह उतना ही सीखने के मार्ग पर आगे बढ़ सकेगा। वातावरण में उद्दीपकों (Stimuli) की उपस्थिति चाहे कैसी भी सक्षम क्यों न हो सीखने वाले के द्वारा अगर सक्रिय होकर अनुक्रिया नहीं की जाएगी तो सीखने का कार्य आगे ही कैसे बढ़ेगा। इस तरह सीखने की प्रक्रिया में यह विशेषता होती है कि यह सीखने वाले से वातावरण के साथ पर्याप्त क्रियाशीलता चाहती है ताकि अनुभवों के माध्यम से उचित अधिगम हो सके।

8.सीखने का एक परिस्थिति से दूसरी में स्थानान्तरण होता है (Learning is Transferable from one Situation to Another) जो कुछ भी एक परिस्थिति में सीखा जाता है उसका अर्जन किसी भी दूसरी परिस्थिति में सीखने के कार्य में बाधक या सहायक बनकर अवश्य ही आगे आ जाता है। इस तरह अधिगम अर्जन की एक विशेष विशेषता इसी बात को लेकर है की उसका  एक से दूसरी परिस्थिति में स्थानान्तरण होता रहता है।

9.सीखने के द्वारा शिक्षण अधिगम उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है (Learning helps in the Attainment of Teaching Learning Objectives) सीखने के द्वारा विद्यार्थी निर्धारित शिक्षण अधिगम उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उचित प्रयत्न कर सकते हैं। इस प्रकार के उद्देश्यों की पूर्ति द्वारा बालकों में अपेक्षित ज्ञान और समझ, सूझबूझ, कुशलताएं, रुचि तथा दृष्टिकोण आदि का विकास किया जा सकता है।

10.सीखने के द्वारा विद्यार्थी को उचित वृद्धि एवं विकास में सहायता पहुंचती है (Learning helps in the Proper Growth and Development ) - वृद्धि एवं विकास के सभी आयामों शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक, नैतिक, सौन्दर्यात्मक तथा भाषा संबंधी विकास आदि में सीखने की प्रक्रिया हर कदम पर सहायता पहुंचाती है।

 

11.सीखना व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक होता है (Learning Helps in the Balanced Development of the Personality)- बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण और संतुलित विकास, शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य होता है और सीखने की प्रक्रिया सभी तरह से इस कार्य में अच्छी तरह सहायता पहुंचाती है।

12.सीखना समायोजन में सहायक है (Learning Helps in Proper Adjustment)-सीखने की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप सीखने वाले को अपने तथा अपने वातावरण से उचित समायोजन के कार्य में पर्याप्त सहायता मिलती है।

13.सीखने के द्वारा जीवन लक्ष्यों की पूर्ति में सहायता मिलती है (Learning helps in the Realization of Goals of Life)- प्रत्येक व्यक्ति अपने ढंग से अपनी जिन्दगी जीता है। उसके अपने आदर्श तथा जीवन लक्ष्य होते हैं जिनकी प्राप्ति के लिए वह संघर्षरत रहता है। सीखने की प्रक्रिया द्वारा प्राप्त परिणाम उसे इन आदर्शों अथवा जीवन लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता पहुंचाते हैं।

14.अधिगम एवं विकास एक-दूसरे के पर्याय नहीं है (Learning does not necessarily imply improvement ) - अधिगम या सीखने का सम्बन्ध प्रशिक्षण एवं अभ्यास से होता है और इसलिए प्राय: यह समझा जाता है कि सभी तरह का अधिगम बालकों को विकास के पथ पर ही अग्रसर करता रहता है। परन्तु यह सही नहीं है। वे अपने विद्यालय तथा सामाजिक वातावरण में बहुत सी ऐसी बातों का अधिगम करते हैं जो किसी भी तरह उनके उचित विकास में सहायता नहीं करती बल्कि बहुधा उनके विकास मार्ग को अवरुद्ध करने का ही प्रयास करती है। इस तरह से अधिगम के उदाहरण के रूप में हम बहुत सी अवांछित आदतों जैसे कामचोरी, आलस्य, भगोड़ापन, बड़ों का अनादर करना, त्रुटिपूर्ण उच्चारण, लेखन सम्बन्धी अशुद्धियां, खराब हस्त लेखन तथा काम करने के त्रुटिपूर्ण तरीकों को सीखने का उदाहरण दे सकते हैं। इस तरह हम यह अच्छी तरह कह सकते हैं कि अधिगम के लिये यह आवश्यक नहीं कि उससे सदैव उचित विकास की दिशा ही तय की जाये।

15.अधिगम के द्वारा व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाये जा सकते हैं (Learning helps in bringing desirable changes in behaviour)- अधिगम को ऐसी प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जाता है जिससे अधिगमकर्त्ता के व्यवहार में परिवर्तन लाने की भूमिका निभाई जाती है। अगर अधिगम की प्रक्रिया की दशा और दिशा पर उचित नियन्त्रण स्थापित किया जा सके तो इसके माध्यम से विद्यार्थियों के व्यवहार में पहले से ही निश्चित अपेक्षित परिवर्तन लाने में भरपूर सहायता मिल सकती हैं।

Domains of learning (अधिगम के अनुछेत्र)

अधिगम का उद्देश्य जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, अधिगमकर्ता के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाना होता है व्यवहार में ये परिवर्तन उसके व्यक्तित्व के सभी पक्षों (aspects) तथा अनुक्षेत्रों (domains) में लाये जाते हैं। हमारे व्यवहार के ये अनुक्षेत्र क्या हैं आइये उनके अर्थ एवं प्रकारों से परिचित होने का प्रयत्न किया जाये।अपने इस अर्थ में व्यवहार शब्द का प्रयोग हमारी उन सभी क्रियाओं और गतिविधियों के लिये प्रयोग किया जा सकता है जिन्हें हमारे द्वारा हमारी जिन्दगी की विविध परिस्थितियों में किसी न किसी रूप में संपन्न किया जाता है। जब से हमारी जीवन यात्रा शुरू होती है और जब तक हम अपनी अंतिम सांस लेते हैं, हमारी ज़िन्दगी का कोई भी पल ऐसा नहीं है जब हम किसी न किसी प्रकार की क्रिया या गतिविधि में रत नहीं रहते। इस दृष्टि से जब हम चुपचाप शांत बैठे रहते हैं और लेटे रहते हैं और कोई हमसे पूछता है कि आप क्या कर रहे हैं तो हमारा यह उत्तर "कि कुछ भी तो नहीं" बिल्कुल गलत होता है। बाहर से दिखाई देने वाली अपनी इस शाँत और निष्क्रिय अवस्था में भी हम निश्चित रूप से कुछ न कुछ अवश्य ही कर रहे होते हैं। कर्मेन्द्रियों के निष्क्रिय रहने पर भी हमारा दिल और दिमाग कुछ न कुछ कर रहा होता है। इस तरह जीवन का कोई भी पल ऐसा नहीं जब हम कर्मेन्द्रियों से कर्म करने, दिमागी कसरत करने तथा हृदय से अनुभव करने जैसी किसी भी क्रिया को संपन्न करने में संलग्न नहीं रहते। इस प्रकार से अधिगम के संज्ञानात्मक, क्रियात्मक एवं भावात्मक अनुक्षेत्र एक प्रकार से मानन व्यवहार के के तीनों जाने-माने अनुक्षेत्र हैं जिनमें औपचारिक एवं अनौपचारिक शिक्षण-अधिगम अनुभवों द्वारा बालक के व्यवहार में इस प्रकार के वांछित परिवर्तन लाने का प्रयास किया जाता है जिनके माध्यम से बालक के समुचित वैयक्तिक विकास एवं सामाजिक विकास के वांछित उद्देश्यों की पूर्ति का कार्य किया जा सके। कक्षागत और विद्यालय के परिवेश में भी अध्यापक तथा विद्यालय अधिकारियों का सदैव ही यही उद्देश्य रहता है कि कक्षा क्रियाओं तथा विद्यालय की गतिविधियों को इस तरह सुनियोजित एवं संगठित किया जाये कि विद्यार्थियों के संज्ञात्मक, क्रियात्मक एवं भावात्मक अनुक्षेत्रों से सम्बन्धित व्यवहार क्रियाओं के संपादन एवं परिमार्जन में यथेष्ट सफलता अर्जित हो सके।

Importance of learning(अधिगम का महत्व)

1.अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन में सहायक (Helpful in the modification of behaviour in desired way): अधिगम को उसके उद्देश्यों की पूर्ति की दृष्टि से जैसी इच्छा हो उसी तरह नियन्त्रित किया जा सकता है। यही कारण है कि इससे विद्यार्थी के व्यवहार को जैसा चाहे वैसा रूप और स्वरूप प्रदान किया जा सकता है। अधिगम अपने औपचारिक एवं अनौपचारिक सभी तरह के स्वरूपों में इस कार्य हेतु विद्यार्थियों में निम्न प्रकार की बातों का समावेश करने हेतु सभी प्रकार की भूमिका निभा सकता है-

*उचित एवं स्वस्थ्य आदतों का विकास जो अच्छी तरह रहने,सीखने तथा कार्य करने में समुचित रूप से सहायक सिद्ध होती है।

*ऐसी रुचियाँ एवं अभिरुचियां विकसित करना जो विद्यार्थियों के दिन प्रतिदिन के जीवन को और उनके कामकाज की दुनिया को नवीन अर्थ प्रदान कर सकें। *व्यक्तित्व के समुचित विकास हेतु वांछित व्यक्तित्व गुणों जैसे- ईमानदारी, सच्चाई, समय की पाबन्दी, वफादारी, कर्त्तव्यनिष्ठा, सहयोग पूर्ण दृष्टिकोण, सामाजिक व्यवहार कौशल, अनुशासन,प्रियता एवं विनम्रता आदि के उचित विकास में सहायता करना। *समाज सेवा, मानव सेवा, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना विकसित करने हेतु उचित भावनाएं एवं दृष्टिकोण विकसित करने में सहायता करना ।

2.वृद्धि एवं विकास की प्रक्रिया में सहायक (Helpful in the process of growth and . development) : हमारे व्यक्तित्व के सभी पक्षों-भौतिक, गामिक, संज्ञानात्मक, सामाजिक, संवेगात्मक, सौन्दर्यात्मक, नैतिक एवं आध्यात्मिक में जो कुछ भी वृद्धि और विकास होता है वह सभी तरह से परिपक्वता एवं अधिगम की अन्तःक्रिया का ही परिणाम माना जाता है। जहां तक परिपक्वता की बात है यह वृद्धि एवं विकास से सम्बन्धित एक ऐसी स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसका नियन्त्रण वंशानुक्रम और अन्य स्वाभाविक रूप से कार्य करने वाले कारकों के हाथ में होता है। यही कारण है कि परिपक्वन की प्रक्रिया और उसके परिणामों को कोई भी दिशा एवं दशा प्रदान करना हमारे वश की बात नहीं है। इसके विपरीत अधिगम एक अर्जित व्यवहार होने के नाते किसी भी इच्छित दिशा और दशा में भली-भांति नियन्त्रित किया जा सकता है।

3.अधिगम किसी भी शिक्षा प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण पहलू एवं लक्ष्य होता है (Learning is the key component and goal of any process of education) :शिक्षा चाहे किसी भी रूप में, किसी भी प्रकार से दी जाए उसका उद्देश्य विद्यार्थियों को किसी न किसी प्रकार के वांछित अधिगम को अर्जन करने में सहायता प्रदान करना ही होता है। इसलिए जब भी कभी विद्यार्थियों को किसी भी श्रेणी या आयु स्तर पर शिक्षा प्रदान करने सम्बन्धी नियोजन एवं प्रबन्धन कार्य किया जाता है तब सभी तरह से ऐसे प्रयत्न किए जाते हैं कि निर्धारित शैक्षिक लक्ष्यों के सन्दर्भ में विद्यार्थियों को अपेक्षित अधिगम अनुभवों की प्राप्ति हो सके। इस तरह से किसी भी शिक्षा प्रक्रिया और व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य और प्रयोजन विद्यार्थियों को वांछित अधिगम अनुभवों की प्राप्ति कराना ही है। फलस्वरूप यह कहना 'बिल्कुल सही है कि अधिगम शिक्षा प्रक्रिया और व्यवस्था को उसके अपने लक्ष्य और उद्देश्यों के निर्माण -को निर्धारित करने की राह दिखाता है। क्योंकि अधिगम की प्रक्रिया और परिणाम ही शिक्षा के सिद्धान्तों को प्रयोग में बदलने की क्षमता रखते हैं।

4.अधिगम सभी प्रकार की व्यक्तिगत एवं सामाजिक प्रगति की कुंजी है (Learning is the key of all individual and social progress) : किसी भी बालक की अन्तर्निहित योग्यताओं और क्षमताओं का,अनुभव या प्रशिक्षण जैसे अधिगम अवसरों को प्रदान कर प्रस्फुटन और विकास किया जा सकता है।अधिगम सम्बन्धी यह प्रयास बालक की वृद्धि और विकास में उसी प्रकार का सहयोग देते हैं जैसा कि बीज से वृक्ष बनने में मिट्टी, पानी, वायु एवं प्रकाश आदि वातावरणजन्य सुविधाओं द्वारा दिया जाता है। 

Reference -s.k.Mangal and Usha Mangal


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