After reading this article you will be able to answer following questions-
- what is Jainism or Jain philosophy?
- what are 24 tirthankar of Jain religion?
- who was mahaveer swami?
- mahaveer swami ki shiksha?
- what are the different branches of Jainism?
- similarity and difference between Buddhism and Jainism?
Jainism/Jain Philosophy/Jain Religionजैनवाद/जैन दर्शन/जैन धर्म
भूमिका(Introduction)
जैन धर्म का अभिप्राय है- जिन द्वारा प्रणीत धर्म। जिस प्रकार शिव के उपासक
शैव कहलाए और विष्णु के अनुयायी वैष्णव,उसी प्रकार जिन के उपदेशों को मानने वाले जैन एवं उनके धर्म को जैन धर्म कहा गया।जिन का अर्थ होता है विकारों एवं राग-द्वेष जीतने वाला अर्थात् जिसने अपने आत्म विकारों एवं राग-द्वेष,मिथ्या विश्वासों,निरर्थक कर्मकाड़ों आदि पर विजय प्राप्त कर ली हो।इस विजय को प्राप्त करने का सार ही जैन धर्म है।जैन दर्शन एक प्राचीन भारतीय दर्शन है।इस दर्शन का प्रादुर्भाव वेदों के द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों एवं विभिन्न कर्मकाण्डों के विरुद्ध सामाजिक परिस्थितियों के परिणामस्वरुप हुआ।दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जैन दर्शन वह भारतीय दर्शन है जो वेदों की प्रमाणिकता को अस्वीकार करता है।जैन शब्द 'जिन' शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है-वह पुरुष जिसने समस्त मानवीय वासनाओं पर पूर्ण विजय प्राप्त कर ली हो।तात्कालिक ब्राह्मण व्यवस्था से व्यापक असंतोष एवं अलगाव के कारण लोग जैन धर्म की ओर अग्रसर हुए एवं इसे अपनाया।जैन धर्म के समर्थक यह मानते हैं कि उनका धर्म(जैन धर्म) अनादि एवं सनातन है लेकिन काल की दृष्टि से सीमित है।जैन धर्म का विकास वास्तव में जैन धर्म से संबंधित चौबीस(24) तीर्थंकरों द्वारा समय-समय पर त्याग एवं तपस्या से संबंधित दिए गए सामाजिक उपदेशों एवं बातों के आधार पर हुआ है।जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव थे जबकि चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर थे।जैन दर्शन नैतिक आचरण के संदर्भ में त्याग,तपस्या एवं अंहिसा को प्रमुख मानता है।जैन दर्शन का प्रमुख प्रयोजन यह है कि जीव समस्त सासांरिक दुःखों से विमुक्त होकर अनन्त आध्यात्मिक सुखों का उपभोग करे।इस संदर्भ में इस दर्शन में तर्क,ज्ञान,तत्त्व एवं आचार मीमांसा का उचित(सम्यक्) प्रयोग हुआ है।यह दर्शन सृष्टि को अनादि मानता है एवं इनका(जैनियों का) विश्वास है कि इस सृष्टि की रचना किसी ने नहीं की बल्कि प्रकृति स्वयं प्रकृति के नियमों से संचालित होती है।
जैन धर्म से संबंधित कुछ तथ्य(Some Facts Related to Jainism)
जैन धर्म से संबंधित कुछ प्रमुख तथ्यों का वर्णन निम्नलिखित है
1.ऋषभदेव जैन धर्म के संस्थापक एवं प्रथम तीर्थंकर थे।
2.ऋषभदेव का उल्लेख श्रीमद्भागवद में है।
3.जैन धर्म का सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्धांत अहिंसा है।
4.जैन धर्म के 24वें एवं अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी थे।
5.महावीर स्वामी का जन्म 540 ई.पू. में कुण्डग्राम (वैशाली के निकट) में हुआ था।
6.महावीर स्वामी के पिता सिद्धार्थ ज्ञात्रिक कुल के मुखिया थे।
7.महावीर स्वामी की माता त्रिशला थी। त्रिशला वैशाली के लिच्छवि राज्य की राजकुमारी थी।
8.महावीर स्वामी को तेरह वर्ष की कठिन तपस्या के उपरान्त् जुम्मिक ग्राम के समीप ऋजपालिका नदी के तट पर एक साल(वृक्ष का एक प्रकार/नाम) वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
9.महावीर स्वामी की ज्ञान प्राप्ति को जैन ग्रंथ में 'कैवल्य' के नाम से जाना जाता है।
10.पार्श्वनाथ (काशी नरेश अश्वसेन के पुत्र) जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर थे।
11.पार्श्वनाथ के अनुयायियों को 'निर्ग्रन्थ' कहा जाता था।
12.पार्श्वनाथ महावीर स्वामी से 250 वर्ष पहले(पूर्व) हुए थे।
13.जैन धर्म में स्त्रियों को प्रवेश पार्श्वनाथ ने दिया था।
14.पार्श्वनाथ को तीस वर्ष की अवस्था में वैराग्य प्राप्त हुआ था।
15.जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ का प्रतीक चिह्न सर्प है।
16.जैन धर्म के त्रिरत्न(Triratna or three jewels) सम्यक् ज्ञान,सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् आचरण है।
17.जैन धर्म के अनुसार इस संसार का निर्माण छः द्रव्यों (जीव,पुद्गल,धर्म,अधर्म,आकाश,काल) से मिलकर हुआ है।
18.जैन धर्म में 18 पापों का वर्णन किया गया है।
19.जैन भिक्षुओं को नग्न रहने की शिक्षा महावीर ने दी।
20.जैन भिक्षुओ को वस्त्र धारण करने की शिक्षा पार्श्वनाथ नदी
21.प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव का प्रतीक चिह्न साँड है।
22.द्वितीय जैन तीर्थंकर आदिनाथ का प्रतीक चिह्न हाथी है।
23.तेहीसवें (23वें) जैन तीर्थंकर का प्रतीक चिह्न सर्प है।
24.चौबीसवें (24वें) जैन तीर्थंकर का प्रतीक चिह्न सिंह है।
25.जैन धर्म पुनर्जन्म में विश्वास करता है।
26.जैन साहित्य को 'आगम' कहा जाता है।
27.जैन धर्म ईश्वर को सृष्टिकर्त्ता नहीं मानता अपितु सृष्टि का निर्माण छ द्रव्यों को मिलाकर हुआ है।
28.महावीर स्वामी के प्रथम सहयोगी गोशाल बनें।
29.'कल्पसूत्र' जैन धर्म का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है जो भद्रबाहु द्वारा रचित है।
30.जैन धर्म के सिद्धांतों में निवृत्त मार्ग का स्थान प्रमुख (प्रधान) है।
31.महावीर स्वामी के 11 शिष्य थे जिन्हें 'गणधर' अथवा 'गंधर्व' कहा जाता था।
32.जैनियों ने अपने धर्मोपदेश के लिए प्राकृत भाषा का प्रयोग किया।
33.मथुरा एवं उज्जैन जैन धर्म के प्रमुख केन्द्रों के रूप में काफी प्रसिद्ध रहे हैं।
34.मौर्यकाल में जैन धर्म दो सम्प्रदायों दिगम्बर एवं श्वेताम्बर में विभक्त हो गया।
जैन धर्म के 24 तीर्थंकर(24 Tirthankars of Jain Religion)
1. ऋषभदेव
2. अजितनाथ
3. सम्भवनाथ
4. अभिनंदननाथ
5. सुमतिनाथ
6. प्रद्मप्रभु
7. सुपार्श्व
8. चन्द्रप्रभु
9. सुविधिनाथ
10. शीतलनाथ
11. श्रेयास
12. वासुपूज्य
13. विमलनाथ
14. अनंतनाथ
15. धर्मनाथ
16. शांतिनाथ
17. कुन्थनाथ
18. अरह (अर्हनाथ )
19. मल्लिनाथ
20. मुनिसुव्रतनाथ
21. नेमिनाथ
22. अरिष्टनेमि
23. पार्श्वनाथ
24. महावीर स्वामी।
महावीर स्वामी(Mahaveer Swami)
भगवान महावीर का जन्म चैत्रशुक्ल की त्रयोदशी को प्राचीन भारत के वैशाली गणराज्य में 540 ई.पू. में हुआ था। उनके पिता वैशाली राज्य के कुण्डलपुर के प्रधान राज्याध्यक्ष थे। भगवान महावीर की माता का नाम त्रिशला देवी था जो एक सर्वगुण सम्पन्न एवं धार्मिक महिला थी। शिशुकाल से ही भगवान महावीर को जीवन से संबंधित सम्पूर्ण सुख-सुविधाएँ एवं राजसी वैभव प्राप्त थे। लेकिन उनकी रुचि सुख-सुविधाओं एवं राजसी वैभव में नहीं थी। भगवान महावीर सदा ऐसे कार्यों में लिप्त रहते थे जो जनता के हितों अर्थात् जनकल्याण से संबंधित होते थे। विभिन्न प्रकार के असंभव कार्यों एवं घटनाओं की वजह से छोटी-सी उम्र में ही उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई तथा वे वीर, अतिवीर, महावीर, वर्धमान एवं सन्मति आदि नामों से जानें जाने लगे। युवावस्था में जब उन्हें राज्य संचालन का दायित्व दिया जाने लगा तो उन्होंने वह स्वीकार नहीं किया और देखते ही देखते वे सर्वत्यागी संत होकर तपोवन को चले गए। जैसे ही तपोमयी साधना पूरी हुई वे एक महान साधक के रूप में विख्यात हुए जिनके अन्दर एक ही साधन से अनेक साध्यों को सिद्ध करने का सामर्थ्य था। इसी सामर्थ्य के आधार पर उनके कट्टर विरोधी एवं महाविद्वान इन्द्रभूति न केवल उनसे प्रभावित ही हुए बल्कि वह उनके अनुयायी भी बन गए। भगवान महावीर में असाधारण गाम्भीर्य एवं विशिष्ट दिव्य दृष्टि थी। साथ ही उनकी दिव्य ध्वनि में सभी धर्मो की सच्चाई का समन्वय था। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि उनकी दिव्य ध्वनि में सभी भाषाओं का समावेश "अर्थात् सर्वभाषामयी थी। वे जहाँ भी जाते वहाँ पर सभी प्रकार के वैर-भाव, झगड़े एवं कलह शांत हो जाते थे एवं सत्य तथा अहिंसा का वातावरण व्याप्त हो जाता था। भगवान महावीर को 468 ई.पू. में 72 वर्ष की अवस्था में पावपुरी, बिहार (Pavapuri, Bihar) में निर्वाण की प्राप्ति हुई।
जैन दर्शन के पाँच महाव्रत (Five Mahavrata(Vows)of Jain Philosophy)
सत्य(Truth)
अहिंसा(Non-violence)
अस्तेय(Not stealing the property of others)
अपरिग्रह (Giving away of superfluous wealth/renunciation)
ब्रह्मचर्य(Continence/Celibacy)
जैन दर्शन में आचार्य से संबंधित पाँच समितियाँ(Five Committees Related to Aacharya in Jain Philosophy)
1.ईया समिति-चलने-फिरने के नियमों के पालन से संबंधित
2.भाषा समिति-बोलने के नियमों एवं उनके पालन से संबंधित
3.एषगा समिति-भिषा मांगने के नियमों के पालन से संबंधित
4.आदान निक्षेपण समिति-धार्मिक कार्यों के लिए भिक्षा के कुछ अंश को बचाने से संबंधित
5.प्रतिस्थापना समिति-दान को अस्वीकार करने एवं उसका सतर्कता से पालन करने से संबंधित
जैन दर्शन में आचार्य से संबंधित दस धर्म(Ten Dharam Related from Aacharya in Jain Philosophy)
1. क्षमा
2.सरलता/आर्जव
3.मृदुता/मादर्व/कोमलता
4.शौर्य /पवित्रता
5.सत्य
6.संयम
7.तप
8.त्याग
9.औदासीनय/अममत्व
10.ब्रह्मचर्य
जैन धर्म की शाखाएँ/सम्प्रदाय(Branches of Jainism)
जैन धर्म की दो मुख्य शाखाएँ/ सम्प्रदाय हैं-1.दिगम्बर,2.श्वेताम्बर।
1. दिगम्बर (Digamber)
दिगम्बर का अर्थ है -दिर्श अर्थात् दिशा। जिसका वस्त्र है अम्बर अर्थात् नग्न दिगम्बर सम्प्रदाय के साधु नग्न रहते हैं तथा जीव-जन्तुओं को दूर करने के लिए वे अपने साथ मोर पंख का एक गुच्छा (जिसे पीछी कहते हैं) रखते हैं। इसके अतिरिक्त वे अपने साथ एक कमंडल भी रखते हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय के लोगों का नग्न रहना, त्याग एवं अपरिग्रह का चरम उदाहरण है। दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी श्वेताम्बरों द्वारा मानित साहित्य की प्रामाणिकता को स्वीकार नहीं करते अर्थात् वे उसे प्रमाणिक नहीं मानते। दिगम्बर शाखा/सम्प्रदाय के अनुसार स्त्रियों को मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती।
2.श्वेताम्बर(Shvetamber)
श्वेताम्बर का अर्थ है-श्वेत वस्त्र है जिसका आवरण अर्थात् श्वेताम्बर।श्वेताम्बर सम्प्रदाय के साधु श्वेत वस्त्र धारण करते हैं और वे नग्नता को विशेष महत्त्व नहीं देते। दिगम्बर एवं श्वेताम्बर सम्प्रदाय दोनों ही मूर्तिपूजा के उपासक हैं लेकिन इन दोनों में कुछ पथ ऐसे भी हैं जो मूर्तिपूजा के विरोधी हैं।श्वेताम्बरसम्प्रदाय के वे साधु जो मूर्तिपूजक हैं,वे अपने मुँह पर सफेद वस्त्र की पट्टी नहीं बाँधते वहीं श्वेताम्बर सम्प्रदाय के स्थानकवासी साधु अपने मुँह पर श्वेत वस्त्र की पट्टी बाँधे रहते हैं।मूर्तिपूजक श्वेताम्बर सम्प्रदाय को मंदिरमार्गी सम्प्रदाय भी कहा जाता है।
जैन दर्शन एवं शिक्षा के उद्देश्य(Jain Philosophy and Aims of Education)
जैन धर्म के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित हैं
1.सम्यक ज्ञान की प्राप्ति/अर्जन करवाना।
2.मनुष्य को अच्छे कर्म के लिए प्रेरित करना।
3.गुरु के प्रति श्रद्धा भाव रखना।
4.व्यक्ति के व्यक्तित्व का समुचित (समग्र) विकास करना।
5.व्यक्ति को मुक्ति दिलवाना।
6.व्यक्ति के चरित्र का उचित विकास करना।
जैन दर्शन एवं शिक्षा पद्धति(Jain Philosophy and Education System)
जैन शिक्षा पद्धति में शिक्षा उपदेशों के माध्यम से दी जाती थी तथा सम्पूर्ण शिक्षा मौखिक एवं स्मृति के आधार पर चलती थी। जैन धर्म में गुरु का विशेष महत्त्व था तथा पाँच परम श्रेष्ठियों में अरहन्त सिद्ध आचार्य, उपाध्याय एवं साधु थे। जैन दर्शन के अरहन्त एवं सिद्ध को परम गुरु माना गया है क्योंकि वे सर्वज्ञानी एवं सर्वदशा होते थे। इसके अतिरिक्त गुरुओं को तीन स्तर पर वर्गीकृत किया गया है;1.आचार्य 2. उपाध्याय, 3. साधु।
जैन दर्शन एवं शिक्षक(Jain Philosophy and Teacher)
जैन दर्शन में दो प्रकार के शिक्षकों का वर्णन है।पहले प्रकार का शिक्षक 'आचार्य' कहलाता है जबकि दूसरे प्रकार का शिक्षक 'उपाध्याय' कहलाता हैं।'आचार्य' का कार्य छात्रों में अनुशासन एवं चरित्र निर्माण को देखना है जबकि 'उपाध्याय' अध्यापन का कार्य करता है।आचार्य सदाचार का प्रतीक होता है।उसका व्यक्तित्व प्रभावशाली होना चाहिए। पाँच महाव्रत उसके जीवन के अंग होने चाहिए, उसका चरित्र उच्च होना चाहिए, उसमें दस गुणों (धर्म) का समावेश होना चाहिए, उसका इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए, वह ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला होना चाहिए, उसका व्यवहार मन, वचन एवं कर्म की दृष्टि से परिपूर्ण एवं संयमित होना चाहिए तथा उसका आचरण सामाजिक मान्यताओं एवं धर्म पर आधारित होना चाहिए।उपाध्याय से यह अपेक्षा की जाती वह शिक्षा से संबंधित ज्ञान की विशिष्ट शाखा में निपुण हो, उसकी पढ़ाने की शैली उत्तम हो, छात्रों की शंकाओं का निवारण करने वाला हो, सामान्य ज्ञान भी उच्च कोटि का हो, उसका आचरण सामान्य मनुष्यों की अपेक्षा अधिक ऊँचा एवं श्रेष्ठ हो तथा वह समस्त दृष्टियों से आदर्श हो।
जैन दर्शन एवं छात्र(Jain Philosophy and Student)
जैन दर्शन की मान्यता है कि यह संसार अनेक पौद्गालिक अणुओं से बना है। अतः इस संदर्भ में बालक (छात्र) का शरीर एवं वातावरण भी अनेक पौद्गालिक अणुओं से सम्मिश्रण के परिणामस्वरुप बना है। जैन दर्शन के अनुसार बालक के व्यक्तित्व के निर्माण में दो तत्त्वों का मेल है; पहला तत्त्व है -चैतन्य आत्मा जिसे इस दर्शन में जीवात्मा कहा गया है तथा दूसरा तत्त्व है शरीर। बालक का शरीर उसके पूर्वजन्मों में अर्जित कर्मों का मेल है और पूर्व जन्म में अर्जित कर्म ही बालक के इस जन्म के निर्धारक होते हैं। इस कारण प्रत्येक छात्र (बालक) एक-दूसरे से शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक दृष्टि से भिन्न होते हैं किंतु आत्मा के मामले में सभी छात्र समान होते हैं। अतः शिक्षकों के लिए सभी बालक समान होते हैं।जैन दर्शन प्रत्येक बालक (छात्र) की विभिन्नता को स्वीकार करता है और यह मानता है कि प्रत्येक बालक का अपना शरीर है, उसकी अपनी स्वतन्त्र आत्मा है, उसके अपने स्वयं के कर्म हैं, उसके अपने स्वयं के निर्णय हैं, उसमें स्वतन्त्र तरीके से चुनाव करने की क्षमता है तथा उसका सबसे अलग अपना एक व्यक्तित्व है।जैन दर्शन के अनुसार छात्र अनन्त ज्ञान से युक्त है। छात्र के संदर्भ में जैन दर्शन में छात्र के दो रूप/स्तर बताए गए हैं पहले रुप/स्तर पर छात्र 'श्रमण' कहलाता है, जो महाव्रती होता है,दूसरे रूप / स्तर पर छात्र 'श्रावक' कहलाता है, जो अणुव्रती होता जैन दर्शन में छात्रों के लिए कठोर अनुशासन का प्रावधान है। इस दर्शन की यह मान्यता है कि छात्र ऐसा होना चाहिए जो सहनशील हो, शिष्टाचारी हो, सभी व्यवहारों में दक्ष हो, न्यायसंगत बातों का उचित पालन करने वाला हो एवं गुरु के प्रति सर्मपण भाव रखता हो।
जैन दर्शन एवं छात्र के लक्षण/गुण(Jain Philosophy and Virtues of Student)
जैन दर्शन में छात्र में निम्नलिखित लक्षण/गुण बताए गए
1.वह गुरुजनों से विनम्रता से वार्तालाप करता हो।
2.वह गुरुजनों का अपमान न करता हो।
3.वह निष्कपट भाव से बर्ताव करता हो।
4.वह चालाक (चपल) न हो।
5.वह गुरुजनों से नीचे आसन पर बैठता हो।
6.वह कलह एवं ईर्ष्या से संबंधित बातें न करता हो।
7.वह अनावश्यक बातों में रुचि न लेता हो।
8.वह ज्ञान प्राप्त करने वाला हो।
9.वह भिन्नता का निर्वाह करता हो।
10.वह शिष्टाचार का पालन करता हो अर्थात् शिष्टाचारी हो
11.उसने इन्द्रियों पर विजय पाई हुई हो।
12.वह अहम् भावना न रखता हो।
13.वह मित्रों पर क्रोध न करता हो।
14.गुरुजनों के प्रति समर्पण भाव रखता हो।
15.वह हमेशा दूसरों में दोष ही न देखता हो ।
16.वह अप्रिय लोगों के गुणों को भी ग्रहण करता हो ।
17.वह सहनशील एवं न्यायसंगत बातों में विश्वास रखता हो ।
जैन दर्शन एवं पाठ्यक्रम(Jain Philosophy and Curriculum)
1.पाठ्यक्रम ज्ञान अर्जन का साधन है।
2.पुद्गल' के अध्ययन पर बल ।
3.पाठ्यक्रम में लौकिक एवं आध्यात्मिक विषयों को समान महत्त्व ।
4.पाठ्यक्रम में जगत एवं उसके रहस्यों से संबंधित ज्ञान पर बल ।
5.पाठ्यक्रम में धर्म एवं अधर्म के अध्ययन पर बल।
6.पाठ्यक्रम में जीवों एवं उनमें होने वाले परिवर्तनों के अध्ययन का समावेश
7.पाठ्यक्रम में सामाजिक परिवर्तन एवं इतिहास का समय के अध्ययन के अन्तर्गत समावेश |
8.पाठ्यक्रम में मनोविज्ञान,धर्म एवं नीतिशास्त्र का समावेश।
9.पाठ्यक्रम में कला तथा शिल्प का समावेश
10.पाठ्यक्रम में वनस्पति शिक्षा के अध्ययन पर बल ।
जैन दर्शन एवं अनुशासन(Jain Philosophy and Discipline)
जैन धर्म में शिक्षा प्राप्त करने के संदर्भ में कठोर अनुशासन पर बल दिया गया है। जैन दर्शन यह मानकर चलता है कि बगैर संयम और विनय के अनुशास स्थापित नहीं हो सकता और बगैर अनुशासन के उचित शिक्षा नहीं प्राप्त की जा सकती।अनुशासन के संदर्भ में जैन दर्शन में निम्न बातों का उल्लेख मिलता है
1.ज्ञान का उपहास न करके उसे गंभीरता से ग्रहण करना।
2.इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना।
3.क्रोध पर नियंत्रण रखना।
4.कठोर एवं अप्रिय भाषा का प्रयोग न करना।
5.सदैव सत्य का पालन करना।
6.लोभ से दूर रहना।
7.चरित्रवान होना।
8.अंहकार एवं आलस्य का त्याग करना। 9.कोई अकरणीय कार्य न करना।
10.शुद्ध आचरण करना, आदि।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जैन दर्शन में छात्रों पर अनुशासन थोपा नहीं जाता बल्कि आत्मानुशासन एवं स्वानुशासन पर बल दिया जाता है।कहने का तात्पर्य यह है कि जैन दर्शन में अनुशासन छात्रों पर बाह्य रूप से आरोपित नहीं किया जाता बल्कि छात्र स्वयं ही अनुशासन के प्रति प्रयत्नशील होते हैं। जिसके परिणामस्वरुप छात्रों में आत्मानुशासन विकसित होने लगता है। अनुशासन के उचित विकास के संदर्भ में आचार्य एवं उपाध्याय छात्रों को विशेष मार्गदर्शन एवं सहायता भी प्रदान करते हैं।
जैन दर्शन की प्रमुख विशेषताएँ(Characteristics of Jain Philosophy)
जैन दर्शन की कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1.जैन दर्शन सृष्टि को अनादि मानता है।
2.जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि जड़ (प्रकृति) और चंतन बनी है।
3.जैन दर्शन करुणा,त्याग,सदाचार एवं मानवीय मूल्यों पर आधारित दर्शन हैं।
4.जैन दर्शन व्यक्ति को ज्ञानार्जन एवं सच्चरित्र की ओर प्रेरित करना है।
5.जैन दर्शन कर्मकाण्डो के विरुद्ध एवं अहिंसा तथा तप पर बल देता है।
6.जैन दर्शन केवल शारीरिक अहिंसा तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह बौद्धिक अहिंसा को भी अनिवार्य मानता है।
बौद्ध धर्म एव जैन धर्मः समानताएँ(Similarities between Buddhism and Jainism)
1.दोनों धर्म जाति प्रथा का विरोध करते हैं।
2. दोनों धर्म अनीश्वरवादी है।
3. बौद्ध एवं जैन दोनों ही धर्म सांसारिक कर्म का वैदिक सिंद्धात नहीं मानते।
4. दोनों ही धर्मों के उपदेश में प्राकृत एवं पालि भाषा का प्रयोग हुआ हैं।
5. दोनों धर्म वैदिक यज्ञ-विधान तथा कर्मकाण्ड का विरोध करते हैं।
बौद्ध धर्म एवं जैन धर्मः असमानताएँ(Dissimilarities between Buddhism and Jainism) बौद्ध एवं जैन धर्म से संबंधित कुछ असमानताएँ निम्नलिखित हैं
1. बौद्धों की नजर में निर्वाण अस्तित्व की समाप्ति है न कि शरीर का त्याग जबकि जैन मोक्ष या निर्वाण के रुप में शरीर के त्याग पर विश्वास करते हैं।
2. जैनी कठोर व्रत के नियम का पालन करते हैं; जबकि बौद्ध धर्म को मानने (अपनाने) वाले मध्यम मार्ग अर्थात् न ज्यादा दुःख और न ज्यादा सुख को अपनाते हैं।
3. दोनों धर्म अहिंसावादी प्रवृत्ति रखते हैं; परंतु बौद्धों की तुलना में जैनियों ने अंहिसा पर अधिक बल दिया है।
4. जैन धर्म आत्मा अथवा जीव को शाश्वत मानता है; जबकि बौद्ध धर्म ईश्वर के साथ-साथ आत्मा का भी विरोध करता है।
Reference- Dr Naresh Kumar Yadav