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Indian Education Commission-1964-66 / Kothari Commission
Jan 21, 2025   Ritu Suhag

Indian Education Commission-1964-66 / Kothari Commission

भारतीय शिक्षा आयोग से पहले, यद्यपि देश के कई राज्यों ने मुदालियर कमीशन की सिफारिशों को लागू कर दिया था, परन्तु जिस उद्देश्य को लेकर इस आयोग ने सुझाव दिए थे, वे पूर्णरूप से प्राप्त नहीं हो सके, इसका मुख्य कारण देश की माध्यमिक शिक्षा प्रणाली में समरूपता का न आना था। कई राज्यों में अभी भी माध्यमिक शिक्षा के भिन्न-भिन्न रूप प्रचलित थे। इन सभी कारणों से जिस नए कमीशन का गठन हुआ वह कोठारी कमीशन के नाम से मशहूर हुआ। इस शिक्षा आयोग का गठन भारत सरकार के पारित प्रस्ताव, दिनांक 14 जुलाई, 1964 के आदेशानुसार किया गया। डॉ. डी. एस. कोठारी (Dr. D.S. Kothari) की अध्यक्षता में गठित इस आयोग का कार्यकाल, इससे पहले गठित सभी कमीशनों से कहीं ज्यादा लम्बा था। इसके अतिरिक्त इसका गठन शिक्षा के राष्ट्रीय ढाँचे और आम सिद्धान्त और नीतियों के बारे में शिक्षा के प्रत्येक स्तर और पहलू के विकास के लिए सुझाव प्राप्त करने के लिए किया गया था। डॉ. कोठारी के अतिरिक्त इस आयोग में 16 सदस्य थे, जिनमें से 11 भारतीय तथा 5 विदेशी थे। आयोग के सचिव पद का भार श्री जे.पी. नैयर (Sh. J.P. Naiyar), सलाहकार, शिक्षा मंत्रालय को सौंपा गया। 2 अक्टूबर (2nd of October) को प्रारम्भ हुए इस आयोग ने लगभग डेढ़ साल के दौरान जून 20, 1966 को अपनी रिपोर्ट सरकार के सामने प्रस्तुत कर दी। कमीशन द्वारा बताए गए मुख्य सुझाव निम्नलिखित हैं-

1. शिक्षा और राष्ट्रीय उद्देश्य (Education and National Objectives)- देश की उत्पादन क्षमता, आधुनिकता के कार्यों में तेजी, सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता और सामाजिक व नैतिक मूल्यों में वृद्धि के लिए यह अनिवार्य है कि सर्वप्रथम देश की शिक्षा का अर्थपूर्ण विकास हो।

2. निर्देशों का माध्यम (Medium of Directions)- इस आयोग ने इस बात पर जोर दिया कि विद्यालय तथा महाविद्यालय स्तरों पर शिक्षा निर्देशन का माध्यम राजकीय भाषा में होना चाहिए। इसके साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय जरूरतों को ध्यान में रखते हुए अंग्रेजी भाषा को विद्यालय स्तर से ही बढ़ावा देना चाहिए।

3. व्यावसायिकता (Vocationalization)- माध्यमिक शिक्षा व्यावसायिक होनी चाहिए या माध्यमिक शिक्षा में व्यावसायिकता अनिवार्य कर देनी चाहिए। 

4. दिशा-निर्देशन एवं योजनाबन्दी (Guidance and Planning) - आयोग के अनुसार दिशा-निर्देश और योजना की शिक्षा को पूरे भाग में लागू करना चाहिए।

5. कार्य-अनुभव (Work-Experience)- आयोग के अनुसार शिक्षा चाहे सामान्य हो या व्यावसायिक, कार्य अनुभव को पूर्ण रूप से शिक्षा के प्रत्येक भाग पर लागू करना चाहिए।

6. सामान्य विद्यालय प्रणाली (Common School System) - आयोग के अनुसार सम्पूर्ण देश के नागरिकों की शिक्षा एक तथा सामान्य शिक्षा प्रणाली आरम्भ करनी चाहिए।

7. सामाजिक एवं राष्ट्रीय सेवा (Social and National Service)- आयोग के अनुसार ऐसी शिक्षा का ढाँचा तैयार करना चाहिए जिसमें सामाजिक और राष्ट्रीय सेवा हर स्तर पर लागू हो सके।

8. पाठ्यक्रमों का चयन (Selection of Curriculum) - माध्यमिक स्तर पर पाठ्यक्रमों में विभिन्नता इस प्रकार होनी चाहिए कि छात्र किसी समूह (Group) के तीन विषयों का अध्ययन पूर्ण रूप से कर सकें। विद्यार्थियों के व्यक्तित्व के विकास के लिए इस स्तर पर आधा समय वैकल्पिक विषयों को दिया जाना चाहिए, एक चौथाई समय शारीरिक शिक्षा, कला-हस्तकला, भौतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा को दिया जाना चाहिए।

9. भाषाओं का अध्ययन (Study of Languages) - आयोग के अनुसार त्रिभाषा सूत्र को लागू करना चाहिए, जो हैं-

(i) मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा

(ii) केन्द्र की सहकारी भाषा

(iii) आधुनिक भारतीय यूरोपीय भाषा।

10. शारीरिक शिक्षा (Physical Education)-आयोग के अनुसार शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रम की पुनः परीक्षा होनी चाहिए। इसके गठन के समय बालक के विकास का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए।

11. मूल्यांकन (Evaluation)- आयोग के अनुसार माध्यमिक स्तर पर प्रश्न-पत्र बनाने वालों को नई विधियाँ अपनानी चाहिए। स्टेट बोर्ड ऑफ स्कूल एजूकेशन (State Board of School Education) को बाहरी परीक्षाओं के परिणामों में छात्रों की विभिन्न विषयों की योग्यता को प्रकट करना चाहिए। पास और फेल का कोई संकेत न हो। छात्र को उन विषयों में जिनमें उसने कम अंक प्राप्त किए हैं, पुनः परीक्षा देने की अनुमति मिलनी चाहिए, जिससे वह अपनी योग्यता विकसित कर सके। आंतरिक मूल्यांकन का अलग से स्पष्टीकरण होना चाहिए।

शिक्षा प्रणाली, संरचना और स्तर (Education System, Structure and Standards)-भारतीय शिक्षा आयोग द्वारा पारित माध्यमिक शिक्षा के स्वरूप को हम निम्नलिखित तरीकों से प्रस्तुत कर सकते हैं-

(1) सैकेण्डरी-कक्षा 8 से 12 या 11-12

(ii) निम्न माध्यमिक शिक्षा-कक्षा 8-10

(iii) उच्चतर माध्यमिक शिक्षा-कक्षा 9-11।

उसका वास्तविक उद्देश्य देश की शिक्षा प्रणाली को एकरूपता मिले तथा उससे ऐसे विद्यार्थियों का निर्माण हो जो समाज सेवा और राष्ट्र-सेवा को प्राथमिकता देते हुए अपना सम्पूर्ण योगदान दें। 

यदि हम शिक्षा के विकास के पिछले कुछ वर्षों को देखें तो पाएँगे कि उस दौरान माध्यमिक शिक्षा की अवधारणा (Concept) में बहुत बदलाव आया है। इसका परिणाम 11 वर्षीय शिक्षा के रूप में निकला। इन 11 वर्षों के दौरान, पहले पाँच वर्षों का प्राथमिक, तीन वर्षों का माध्यमिक तथा तीन वर्षीय उच्चतर माध्यमिक स्तर आता है। परन्तु शिक्षा का विषय राज्यों के अन्तर्गत होने के कारण इस संरचना को कई राज्यों ने स्वीकार नहीं किया। कमीशन की प्रस्तावित संरचना है 10 + 2 + 3 शिक्षा योजना।

आयोग द्वारा प्रस्तावित शिक्षा काल पद्धति निम्न प्रकार से है-

(i) एक से तीन वर्षीय पूर्व (Pre) स्कूल की व्यवस्था (Provision for pre-school Education from one to three years)

(ii) 7 या 8 वर्षीय प्राथमिक अवस्था (Provision for 7 or 8 years' primary Education)

निम्न प्राथमिक अवस्था (Pre-primary Stage) निम्न प्राथमिक अवस्था (Pre-primary Stage) चार या पाँच वर्षीय और उच्चतर प्राथमिक अवस्था तीन वर्षीय।

iii) निम्न माध्यमिक अथवा उच्च विद्यालय अवस्था जिसका समयकाल, सामान्य शिक्षा के लिए दो या तीन साल तक सीमित हो।

(iv) निम्न माध्यमिक अवस्था दो वर्ष की अवधि वाली या एक से तीन साल की व्यावसायिक शिक्षा अवधि । दुनिया के कई विकसित देशों ने 12 से 13 वर्षीय विद्यालय शिक्षा को लागू कर रखा है। यहाँ परम्परागत शिक्षा के साथ, इस दौरान, व्यावसायिक या तकनीकी (Vocational or Technical Courses) भी पढ़ाए जाते हैं।

(v) उच्चतर शिक्षा अवस्था जिसमें स्नातक होने के लिए दो से तीन वर्ष की पढ़ाई जरूरी है। इसके बाद स्नातकोत्तर डिग्री या अनुसंधान की डिग्री के लिए अलग-अलग कार्यकाल निश्चित किया गया है।

देश में सामान्यतः एक प्रश्न उठता है-क्या यह शिक्षा युवाओं में बढ़ती बेरोजगारी की समस्या का कुछ हल निकाल पाएगी। इस सोच के पीछे शिक्षा का श्रम के प्रति निष्ठा पैदा नहीं करना है। इन सभी समस्याओं को देखते हुए तथा इनके निराकरण के लिए ही शायद कोठारी कमीशन (Kothari Commission) ने 10 +2 +3 शिक्षा पद्धति को व्यावसायिक शिक्षा का मुख्य आधार मानते हुए इसे लागू करने की सिफारिश की। केन्द्र सरकार द्वारा संचालित ये विद्यालय साधन सम्पन्न हैं और इनमें प्रवेश भी प्रतियोगिता के आधार पर रखा गया है। ये सब बातें इनकी सफलता की गारन्टी (guarantee) देती प्रतीत होती हैं।

सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवर्तन लाने के लिए शिक्षा का विकास कुछ इस तरह होना चाहिए कि इससे सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकीकरण स्वतः ही संभव हो सके। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए 10 +2 +3 शिक्षा पद्धति के तहत शिक्षा को उत्पादन से जोड़ने का प्रयास किया गया तथा साथ ही साथ शिल्प विज्ञान, विज्ञान शिक्षा तथा व्यावसायिकरण को कार्यानुभव से जोड़ने की बात की गई। सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकीकरण के लिए समान विद्यालयी भाषाई, नीति, राष्ट्रीय चेतना आदि को बढ़ावा देने पर विशेष बल दिया गया।

इस आयोग ने देश के साधनों को विकसित करके उनका प्रयोग करने पर भी बल दिया। राष्ट्रीय आय को बढ़ाने के लिए उत्पादन में वृद्धि करना शिक्षा का मुख्य उद्देश्य माना। उसके अतिरिक्त अंतर्राष्ट्रीय जरूरतों को ध्यान में रखते हुए आयोग ने अंग्रेजी भाषा के महत्त्व को समझते हुए इसे कक्षा '3' से लेकर '9' के मध्य कहीं भी लागू करने का प्रावधान रखा। इसके अतिरिक्त प्रादेशिक भाषाओं में से एक के पठन को अनिवार्य करने की सिफारिश की।

परन्तु समयान्तराल के बाद शिक्षाविदों तथा सामान्य व्यक्तियों ने पाया की जिस आशा के साथ 10 + 2 + 3 प्रणाली को लागू किया गया था वह पूर्णरूप से कारगर सिद्ध नहीं हुई। आज अधिकतर शिक्षाविदों के अनुसार नवीन शैक्षिक प्रणाली का पुनर्गठन कुछ इस प्रकार से हो कि वह शिक्षा के वास्तविक उद्देश्यों को प्राप्त कर सके। उनके अनुसार नई शिक्षा प्रणाली कुछ इस प्रकार से गठन हो कि 1-8 = सामान्य प्रवाह 

9-10= सामान्य विशेष प्रवाह इसके अन्तर्गत भाषा तथा गणित अनिवार्य हो तथा रुचि अनुसार किन्हीं तीन विषयों का अध्ययन।

11-12 = विशेष प्रवाह जिसके अन्तर्गत साहित्यिक, व्यावसायिक, ललित कला आदि उपवर्ग हों। + 3 स्तर को + 2 स्तर ही रखा जाए। + 2 पोस्ट ग्रेजुएट (स्नातकोत्तर) शिक्षा में विषय विशेष को प्राथमिकता दी जाए। निष्कषर्तः हम कह सकते हैं कि वर्तमान संदर्भ में सबसे बढ़िया तथा कारगर यही होगा कि थोड़ा-सा परिवर्तन करके 10+2 +3 को सम्पूर्ण ढंग से अपना लिया जाए।

केन्द्रिय सरकार का निर्णय (Decision of Central Government) - माध्यमिक शिक्षा आयोग कोठारी आयोग, केन्द्रिय शिक्षा परामर्श बोर्ड (Central Advisory Board of Education) तथा अखिल भारतीय माध्यमिक शिक्षा परिषद् (All India Council of secondary Education) के सुझावों को दृष्टिगोचर करते हुए भारत सरकार ने शिक्षा ग्रहण का निर्णय निम्नलिखित रूप से किया है-

(1) छः वर्ष की आयु में प्रवेश हुए बच्चों के लिए कुल 12 वर्षीय स्कूली शिक्षा ।

(2) कम से कम चार वर्षीय माध्यमिक शिक्षा ।

(3) इन चार वर्षों में दो परीक्षाएँ भी होनी चाहिए। एक परीक्षा दो वर्षों पश्चात् जिसे उच्चतर माध्यमिक भाग I व दूसरी परीक्षा चार वर्षों के अन्त में जिसे उच्चतर माध्यमिक भाग II कहा जाए।

(4) उच्चतर माध्यमिक भाग II का स्तर पुरानी इन्टरमीडियेट (Intermediate) के बराबर होना चाहिए। इस परीक्षा में सफल होने वाले विद्यार्थियों को तीन वर्षीय डिग्री कोर्स प्रवेश प्राप्त करने के योग्य समझा जाए।

(5) यह परिवर्तन दो अवस्थाओं में पूरा किया जाए-

(i) प्रथम अवस्था 10 वर्षीय कोर्स में एक वर्ष और जोड़ना।

(ii) द्वितीय अवस्था में 11 वर्षीय अवस्था में एक वर्ष और जोड़ना।

आजकल हम दूसरी अवस्था से गुजर रहे हैं। देश के अधिकतर भागों में 12 वर्षीय वरिष्ठ माध्यमिक स्कूलों (Senior Secondary schools) की स्थापना की जा रही है-

(1) उपलब्ध तथ्यों एवं निष्कर्षों के आधार पर 8 वर्षों की प्रभावोत्पादक प्राथमिक शिक्षा के बाद 4 वर्षों की माध्यमिक शिक्षा प्रदान की जाए।

(2) 12 वर्षीय स्कूल शिक्षा का व्यावहारिक एवं उपयोगी ढाँचे का संगठन किया जाए जो व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र के विकास में आवश्यक है।

(3) माध्यमिक शिक्षा पूरी करने की आयु निश्चित की जाए।

(4) भारत में माध्यमिक शिक्षा के लिए 17 वर्ष की आयु ही उचित एवं व्यावहारिक है क्योंकि यहाँ इस आयु में ही किशोरावस्था समाप्त होती है।

(5) माध्यमिक शिक्षा की योजना इस प्रकार से तैयार की जाए जो विद्यार्थियों को विभिन्न कोर्सों में तैयार करने के योग्य बनाए और विद्यार्थियों को भविष्य में भली-भाँति खड़े होने में ज्ञान, परिपक्वता, सूझ-बूझ तथा दृष्टिकोण की तर्कसंगत डिग्री प्राप्त करने में सहायक सिद्ध हो सके। यह डिग्री दोनों प्रकार के विद्यार्थियों के लिए लाभदायक है जो विश्वविद्यालय में प्रवेश लेना चाहते हैं और जो इस स्तर पर शिक्षा समाप्त कर जीवन के उत्तरदायित्व निभाने के लिए सामाजिक जीवन में प्रवेश करते हैं।

भारतीय शिक्षा आयोग तथा शिक्षा के उद्देश्य

(Indian Education Commission and Aims of Education)

1966 ई. में कोठारी आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की और शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य बताए-

(1) उत्पादिकता में वृद्धि करना (To increase productivity) 

2) सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता (Social and National integration)

(3) आधुनिकीकरण के लिए शिक्षा (Education for Modernisation)

(4) सामाजिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों का विकास (Development of social, moral and spiritual values) डॉ. कोठारी ने इन उद्देश्यों को कार्यान्वित करने के लिए कुछ सुझाव भी दिए हैं जो इस प्रकार हैं-

(1) उत्पादिकता में वृद्धि का उद्देश्य (Aim of increasing productivity) - भारतीय शिक्षा आयोग ने देश के साधनों को विकसित करने तथा प्रयोग करने पर अत्यधिक बल दिया है। राष्ट्रीय आय को बढ़ाने के लिए उत्पादन में वृद्धि करना शिक्षा का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए। उचित प्रकार की शिक्षा उत्पादिकता को बढ़ा सकती है। उत्पादिकता और शिक्षा में सम्बन्ध विकसित करने के लिए कोठारी आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए हैं-

(क) विज्ञान शिक्षा को प्रोत्साहन देना (Encouraging science education)

(ख) कार्य अनुभव (Work experience)

(ग) माध्यमिक शिक्षा का व्यावसायीकरण (Vocationalisation of Secondary Education)

(2) सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता के लिए शिक्षा (Education for social and National Integration)- राष्ट्र को सामाजिक तथा राष्ट्रीय दृष्टिकोण से शक्तिशाली बनाने के लिए कोठारी आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए हैं-

(क) सामान्य स्कूल प्रणाली (Common school system)

(ख) सामाजिक तथा राष्ट्रीय सेवा (Social and national Service)

(ग) उपयुक्त भाषा नीति का विकास (Development of appropriate language policy)

(घ) राष्ट्रीय चेतना विकसित करना (Promoting national consciousness)

(3) आधुनिकीकरण के लिए शिक्षा (Education for Modernisation)

(4) सामाजिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों का विकास (Development of social, moral and spiritual values)

भारतीय शिक्षा आयोग तथा पाठ्यक्रम

(Indian Education Commission and Curriculum)

इस आयोग के अनुसार माध्यमिक स्तर का पाठ्यक्रम संकीर्ण है, सैद्धान्तिक है। इसमें उपयोगी तथा महत्त्वपूर्ण सामग्री का अभाव है। इसमें बच्चे की व्यक्तिगत विभिन्नताओं की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। यह पाठ्यक्रम भारी है। परीक्षाओं पर अधिक जोर है। तकनीकी तथा औद्योगिक विषयों की व्यवस्था अपर्याप्त है।

सुझाव (Suggestions)-

(1) गुणात्मक सुधार (Qualitative improvement) - स्कूल के पाठ्यक्रम में विकास सम्बन्धी शोधकार्य द्वार वृद्धि की जाए।

(2) तालमेल (Co-ordination) - पाठ्यक्रम के सभी विषयों में तालमेल होना चाहिए।

(3) सामाजिक जीवन तया राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुसार (According to social life and national needs) - पाठ्यक्रम सामाजिक जीवन एवं राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिए।

(4) लचीलापन (Elasticity) - पाठ्यक्रम में छात्रों को अपनी आवश्यकताओं, योग्यताओं एवं अभिरुचियों के अनुसार विषयों का चयन करने के लिए स्वतन्त्रता प्रदान करनी चाहिए।

(5) व्यावसायिक विषयों को उचित स्थान देना (Giving appropriate place to the vocational courses)- देश की औद्योगिक एवं व्यावसायिक इकाइयों में उत्पादन में वृद्धि करने के लिए और उनके लिए कुशल कार्यकर्ताओं की प्राप्ति को सुगम बनाने के लिए पाठ्यक्रम में व्यावसायिक विषयों को उचित स्थान दिया जाना चाहिए। 

6.)विविध विषयों पर विशेष बल (Special emphasis on diversified courses)- इस आयोग ने माध्यमिक शिक्षा आयोग द्वारा सुझाए गए विविध विषयों पर बल देने का समर्थन किया है। जहाँ माध्यमिक शिक्षा आयोग ने कृषि, विज्ञान तथा गृह विज्ञान विषयों पर बल दिया है वहाँ कोठारी आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के व्यावसायिकरण के लिए अंकगणित पर विशेष बल दिया है। इसके अतिरिक्त इस आयोग ने जीव-विज्ञान, गृह-विज्ञान, भूगर्भ शास्त्र, भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र, समाज सेवा तथा कार्य-अनुभव जैसे विषयों तथा क्रियाओं पर महत्त्व दिया है।

कोठारी आयोग तया पाठ्य-पुस्तकें (Recommendations of Kothari Commission relating to text-books)-कोठारी आयोग ने पाठ्य-पुस्तकों के सुधार के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए हैं-

(1) पाठ्य-पुस्तकों का N.C.E.R.T. के निर्देशानुसार उत्पादन (Text-books should be prepared according to the adivice of N.C.E.R.T.) - राष्ट्रीय स्तर पर पाठ्य-पुस्तकों के उत्पादन का विस्तृत कार्यक्रम राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसन्धान व प्रशिक्षण परिषद् (N.C.E.R.T.) के निर्देशानुसार किया जाना चाहिए।

(2) राज्य स्तर पर पाठ्य-पुस्तकों के उत्पादन के लिए पृथक् विभाग (A separate department for production of text books at state level)- राष्ट्रीय स्तर पर इसे प्रत्येक राज्य का समर्थन प्राप्त हो और प्रत्येक राज्य पाठ्य-पुस्तकों के उत्पादन के पृथक् विभाग स्थापित करके इसमें अभिवृद्धि करे।

(3) राज्य के शिक्षा विभाग पर उत्तरदायित्व (Responsibility on Education department of the state)- पाठ्य-पुस्तकों की तैयारी, परीक्षण और मूल्यांकन का उत्तरदायित्व राज्य के लिए शिक्षा विभाग पर होना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो पाठ्य-पुस्तकों का उत्पादन राज्य शिक्षा विभाग द्वारा ही किया जाए।

(4) एक से अधिक पुस्तकें (More than one text books) - कम से कम 3 या 4 पुस्तकें प्रत्येक विषय में ऐसी तैयार की जानी चाहिए कि वे स्कूलों के लिए पुस्तकों के बहु-उद्देशीय चुनाव की व्यवस्था करें।

(5) निरन्तर संशोधन (Regular amendments) - पाठ्य-पुस्तकों में निरन्तर संशोधन तथा सुधार होते रहना चाहिए।

(6) लेखकों के पारिश्रमिक देने के लिए उदार नीति अपनाई जानी चाहिए।

(7) अध्यापकों से पाठ्य-पुस्तकों की पांडुलिपियाँ (Manuscripts) आमन्त्रित की जाएँ तथा उन में से चुनाव किया जाए।

(8) पाठ्य-पुस्तकों का मूल्य 'हानि-लाभ' रहित आधार पर रखा जाना चाहिए।

(9) विशेष पुस्तकों का राष्ट्रीय स्तर पर उत्पादन (Production of special text books at national level)- विशेष वैज्ञानिक तथा तकनीकी पुस्तकों का उत्पादन राष्ट्रीय स्तर पर होना चाहिए।

भारतीय शिक्षा आयोग के शिक्षण-विधियों सम्बन्धी सुझाव (Recommendations of Indian Commission regarding methods of teaching)- कोठारी आयोग ने शिक्षण-विधियों सम्बन्धी निम्नलिखित सुझाव दिए हैं-

(1) शिक्षण-विधियाँ-आविष्कार तया प्रचार (Discovery and diffusion of teaching methods)- पाठ्यक्रम से निरन्तर बढ़ोत्तरी के साथ शिक्षण-विधियों में भी समान रूप से सशक्त सुधार की आवश्यकता है। शिक्षा प्रणाली की कठोरता और स्कूलों में नयी विधियों के प्रसार की असफलता ही अरुचिकर और प्रेरणाहीन शिक्षण-विधियों के प्रमुख कारण हैं। इन त्रुटियों को शीघ्र दूर करना चाहिए।

(2) लचीलापन और गतिशीलता (Elasticity and Dynamism) - एक अच्छी शिक्षा प्रणाली स्पष्ट होनी चाहिए और अध्यापकों के लिए विभिन्न स्तरों के अनुसार काम करने में सहायक होनी चाहिए। ऐसा लचीलापन तभी सम्भव हो सकता है जबकि अध्यापकों को प्रशासन की ओर से पर्याप्त सहायता मिले। मुख्याध्यापक का प्रोत्साहन हो, विषय में कुशलता हो, प्रशिक्षण संस्थाएँ नेतृत्व प्रदान करें और आवश्यक शिक्षण-सामग्री उपलब्ध हो।

(3) आवश्यक न्यूनतम शिक्षण सहायक सामग्री (Minimum necessary teaching aids)- प्रत्येक स्कूल को आवश्यक शिक्षण सहायक सामग्री प्रदान की जानी चाहिए। प्रत्येक स्कूल के लिए इस सामग्री की व्यवस्था करने के काम को उच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए। 

4.) मीडिया का सहयोग (Co-operation of the media) - शिक्षा विभाग को आकाशवाणी, दूरदर्शन इत्यादि में पाठों के प्रसार का प्रबन्ध करना चाहिए। नयी-नयी विधियों को अध्यापक शिक्षण-संस्थानों में प्रयोग करना चाहिए।

(5) कम खर्चीली शिक्षण सहायक सामग्री का उपयोग (Use of less costly teaching aids)- अध्यापकों को चाहिए कि वे कम खर्चीली स्थानीय शिक्षण सामग्री पर विश्वास करें। यदि शिक्षण सामग्री कीमती हो तो कई स्कूल मिलकर इसका प्रबन्ध कर सकते हैं।

इन सुझावों से यह प्रतीत होता है कि भारतीय स्कूलों में शिक्षण-विधियों को सुधारने की ओर विशेष ध्यान दिया गया है। परिणामस्वरूप गत वर्षों में सैमिनार (Seminars), रिफ्रैशर कोर्स, शिक्षात्मक कार्यशालाएँ (Educational workshops) के द्वारा अध्यापकों को नवीन शिक्षण पद्धतियों के विषय में जानकारी देने का प्रयास किया गया है।

परीक्षा एवं मूल्यांकन (Examination and Evaluation)-सामान्य शब्दों में विद्यार्थी ने विद्यालय में क्या सीखा तथा अध्यापक ने कितना काम किया इसे जाँचने की प्रक्रिया को परीक्षा कहते हैं। अगर हम वास्तव में देखें तो पाएँगे कि केवल विद्यालय में ही परीक्षाओं से नहीं गुजरा जाता है, अपितु पूरा जीवन ही एक परीक्षा है। इस विषय में कोठारी आयोग का कहना है कि मूल्यांकन निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है जो शिक्षा की सम्पूर्ण प्रणाली का एक अभिन्न अंग है तथा उसका शैक्षिक उद्देश्यों से घनिष्ठ सबन्ध है। प्रायः परीक्षा को लोग कक्षा - करने का साधन मानते हैं। प्रत्येक अध्यापक एवं बालक का भी यही दृष्टिकोण बनता जा रहा है। लेकिन उनकी यह सोच गलत है, क्योंकि यह बालक को सम्पूर्ण नागरिक बनने तथा राष्ट्र की प्रगति में योगदान देने ते वंचित कर देता है।

मूल्यांकन, जहाँ तक मेरी सोच है, विद्यार्थी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की जाँच करना होता है न कि केवल उसकी शैक्षणिक प्रगति। इसलिए इस व्यापक शब्द को पहले गहराई से समझ लेना विद्यार्थी की प्रथप आवश्यकता है। कमीशन द्वारा परीक्षा पद्धति में सुधार लाने के लिए दिए गए सुझाव निम्नलिखित हैं-

1. वस्तुनिष्ठ प्रश्नों पर आधारित प्रश्न-पत्र (Question paper based on objective type Questions)-बाह्य परीक्षाएँ जिनका संचालन शिक्षा बोर्ड या विश्वविद्यालय करता है उनमें प्रश्नों को वस्तुनिष्ठ बनाया जाना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार के प्रश्न-पत्र बनाते समय पाठ्यक्रम का ज्यादातर हिस्सा प्रयोग में लाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त विद्यार्थियों को भी अच्छे अंक लेने के लिए पूरे पाठ्यक्रम को पूर्ण रूप से खंगालना पड़ेगा, जो उनके ज्ञानवर्धन को पूर्णता की ओर ले जा सकता है। इस प्रकार की परीक्षा के समय यदि पर्यवेक्षक अपना काम ईमानदारी से करता है तो ये परीक्षाएँ विद्यार्थियों के वास्तविक स्वरूप को दिखाने में सक्षम हैं।

2. लिखित परीक्षाओं में सुधार (Improvement in written examinations)-कमीशन के अनुसार देश में जारी लिखित परीक्षाओं का स्वरूप वास्तव में अपूर्ण है। इस प्रकार की परीक्षाओं में विद्यार्थियों को कुल 5 से 7 प्रश्न करने होते हैं। विद्यार्थी इसलिए सम्पूर्ण पाठ्यक्रम को तैयार करने के स्थान पर कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्नों को रट लेता है, और परीक्षा में पास हो जाता है। इस प्रकार की परीक्षा वास्तव में एक अधूरा तथा असफल प्रयास लगती है। इसके अतिरिक्त उत्तर-पुस्तिकाओं के जाँच कार्य के दौरान भी यह निश्चित नहीं है कि जाँचकर्ता पूर्ण न्याय कर पाएगा। इसलिए लिखित परीक्षाओं में सुधार अत्यधिक आवश्यक है और विद्यार्थी की जिन शक्तियों का मापन इन लिखित परीक्षाओं के द्वारा सम्पूर्ण रूप से नहीं किया जा सकता, उसके लिए नई विधियों का आविष्कार किया जाना चाहिए।

3. आन्तरिक जाँच हेतु प्रमाणीकृत परीक्षाओं का प्रयोग (Use of Standardized Examination for Internal Examination)-विद्यार्थियों के ज्ञान की आन्तरिक जाँच के लिए अध्यापकों द्वारा निर्मित परीक्षाओं, प्रयोगात्मक परीक्षाओं, मौखिक परीक्षाओं, रुचियों तथा मनोवृत्तियों को जाँचने के भिन्न-भिन्न प्रमाणित परीक्षाओं का प्रयोग किया जाना चाहिए। 

4. प्रमाण-पत्रों में अंकों का विवरण (Detail of marks in Certificates)-आयोग की सिफारिशों के अनुसार विद्यालय बोर्ड की परीक्षाओं के प्रमाण-पत्रों में भिन्न-भिन्न विषयों में प्राप्त अंकों का विवरण होना चाहिए। प्रमाण-पत्रों में उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण की घोषणा की बजाए केवल अंक दिए जाएँ और साथ में शिक्षण संस्था से विद्यालय लेखा लगा होना चाहिए।

वर्तमान शिक्षा प्रणाली अनेक दोषों से पूर्ण है और इसका सबसे बड़ा दोष यह है कि इससे मानसिक और नैतिक विकास नहीं होता है। शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य बच्चे का सर्वांगीण विकास है, इसलिए यह केवल बौद्धिक विकास तक सीमित न होकर संवेगात्मक, मानसिक, सामाजिक समायोजन तथा शारीरिक विकास से भी सम्बन्धित है। अतः शिक्षा प्रणाली में फैले दोषों को दूर करना सर्वप्रथम आवश्यकता है, इनको दूर करने से विद्यार्थी का सर्वांगीण विकास स्वतः ही निश्चित हो जाता है।

भारतीय शिक्षा आयोग के सुझाव

(Recommendations of Indian Education Commission)

(1) उच्चकोटि के अधिकारियों की नियुक्ति (Appointment of supervisors of high calibre)

कोठारी आयोग के अनुसार निरीक्षण कर्मचारियों के वेतन बढ़ाए जाएँ और उच्च कोटि के अधिकारियों की नियुक्ति की जाए।

(2) पर्याप्त विशेषज्ञ अधिकारियों की व्यवस्था (Provision of adequate specialist supervisors)

मूल्यांकन पाठ्यक्रम सुधार मार्गदर्शन या शारीरिक शिक्षा जैसे विशेष विषयों के जिला स्तर पर पर्याप्त संख्या में विशेषज्ञ अधिकारी होने चाहिए।

(3) कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि (Increase in the number of officials)- जिला कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि की जाए ताकि इस क्षेत्र के उत्तरदायित्व को पूरा किया जा सके।

(4) जिलों शिक्षा अधिकारी को पर्याप्त दर्जा दिया जाना चाहिए।

(5) महिलाओं की नियुक्ति (Appointment of women Supervisors) - अधिक से अधिक महिलाओं को निरीक्षण कार्य में नियुक्त किया जाए ताकि लड़कियों की शिक्षा की ओर उचित ध्यान दिया जा सके।

भारतीय शिक्षा आयोग तथा प्रसार की समस्या (Indian Education Commission and Problem of Expansion)- माध्यमिक शिक्षा के प्रसार के लिए आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए-

(1) जिला स्तर पर एक योजना बनाकर कार्यक्रम लागू किया जाए जिसमें विद्यमान संस्थाएँ अपेक्षित स्तर का निर्माण कर सकें।

(2) इस स्तर पर प्रवेश के लिए आत्म चुनाव (Self selection) आधार पर छात्रों को चुना जाए। इसमें विद्यालय के रिकार्ड को भी ध्यान में रखा जाए।

(3) (क) विद्यालय उचित स्थान पर हो।

(ख) प्राप्त सुविधाओं के आधार पर प्रवेश दिया जाए।

(ग) अच्छे विद्यार्थियों का चुनाव हो।

(4) माध्यमिक विद्यालयों में 1985-86 तक लगभग 30% विद्यार्थियों को व्यावसायिक प्रशिक्षण देने वाली संस्थाओं का प्रावधान किया जाए।

(5) कक्षा 7 से 8 से ही अंशकालीन तथा पूर्णकालीन व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था की जाए। लड़कियों की शिक्षा में घरेलू कार्यों की शिक्षा पर बल दिया जाए।

(6) लड़कियों की शिक्षा का प्रसार हो। यह प्रसार निम्न स्तर पर 1: 2 हो तथा माध्यमिक स्तर पर 1:3 हो जाये। लड़कियों के लिए अलग विद्यालय तथा छात्रवृत्तियों की व्यवस्था हो।


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