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Heredity and environment (वंशानुक्रम एवम वातावरण)
Aug 30, 2022   Ritu Suhag

Heredity and environment (वंशानुक्रम एवम वातावरण)

अपने मां-बाप और पूर्वजों से जन्मजात विशेषताओं के रूप में हमें जो कुछ भी प्राप्त होता है वह मां-बाप द्वारा प्रदान किए गए पित्र्येकों (Genes) के माध्यम से मां के गर्भ में जीवन प्रारम्भ होने (शुक्र कीट द्वारा अण्डकोष का निषेचन होने) के समय ही प्राप्त हो जाता है । अतः वंशानुक्रम का सम्बन्ध जीवन लीला प्रारम्भ होने की उस प्रक्रिया से है जिसके परिणामस्वरूप माता-पिता के माध्यम से एक बच्चा अपने पूर्वजों द्वारा अर्जित कुछ गुणों और विशेषताओं को लेकर अपना जीवन व्यापार शुरू करता है।

Theories of Heredity (वंशानुक्रम संबंधी सिद्धांत)

1. बीजकोष की निरन्तरता का सिद्धान्त (Theory of continuity of Germplasm )

इस सिद्धान्त के प्रतिपादन का श्रेय वीजमैन (Weiseman) को जाता है। वीजमैन के अनुसार मानव शरीर में दो प्रकार के कोष होते हैं- दैहिक कोष (Somatic Cells) तथा उत्पादक कोष (Germ Cells)। जहां शारीरिक संरचना को अपना एक रूप देने का कार्य देहिक या शारीरिक कोषों द्वारा होता है, वहीं जन्म देने का कार्य उत्पादक कोषों द्वारा किया जाता है। इन उत्पादक कोषों का निर्माण बीजकोष (Germplasm) द्वारा होता है। बीजकोष निरन्तरता की प्रक्रिया का अनुसरण करते हैं। माँ-बाप अपनी संतानों को उन बीजकोषों का हस्तान्तरण करते हैं जो उन्हें अपने मां-बापों से मिले थे। उनके मां-बापों ने भी ये इसी तरह हस्तान्तरित किये थे। दूसरे शब्दों में मां-बाप पूर्वजों से प्राप्त बीजकोष के संरक्षक (trustees) होते हैं जो उन्हें अपने बालकों को प्रदान करने होते हैं। इन बीजकोषों में ही वंशक्रम सम्बन्धी धरोहर और पूंजी सुरक्षित रहती है और इस तरह बीजकोषों के हस्तान्तरण के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी सुरक्षित वंशक्रम सम्बन्धी गुण और विशेषताओं का बालकों में संक्रमण होता रहता है। यही कारण है कि मानव की संतान मानव होती है तथा पशु पक्षियों की पशु-पक्षी। बीच में आने वाली पीढ़ियों द्वारा जो कुछ भी अपने प्रयत्नों द्वारा उपार्जन किया गया तथा गुण और विशेषताओं में जो भी परिवर्तन किये गये उनका प्रभाव बीजकोष पर नहीं पड़ता और इसलिये उनका हस्तान्तरण नई पीढ़ी को नहीं होता।वीजमैन ने अपने इन विचारों की पुष्टि के लिये चूहों पर किये गये अपने प्रयोगों का सहारा लिया । पीढ़ी दर पीढ़ी इन चूहों की पूंछ को वह काटता गया परन्तु जब भी नई पीढ़ी जन्म लेती थी वह पूंछ .वाली ही होती थी, पूंछ कटी हुई नहीं। इससे उसने यह परिणाम निकाला कि शारीरिक संरचना सम्बन्ध किसी भी संशोधन और बदलाव का (चाहे वह किसी भी कारण से हुआ हो) नई पीढ़ियों में हस्तान्तरण नहीं होता है।"एक माँ जो किसी ब्यूटी पार्लर की मदद से अपने बाल घुंघराले कर लेती है, वह अपने बालों का घुंघरालापन वंशक्रम विरासत के रूप में अपनी बेटी को नहीं दे सकती। इसी तरह एक कुशल बढ़ई (Carpenter) का बेटा भी लकड़ी के काम में कुशल तभी बन सकता है जबकि वह इसके लिये आवश्यक उन सभी आवश्यक योग्यताओं और क्षमताओं को वंशक्रम की धरोहर के रूप में प्राप्त न कर ले जो कि उसे आवश्यक अभिप्रेरणा और प्रशिक्षण के आधार से अपने पिता जैसी या उससे भी अधिक कुशलता ग्रहण करने में मदद कर सके।

2. गाल्टन का बायोमेट्री (सांख्यिकी विधि) सिद्धान्त(Galton's Biometry Theory)

वंशक्रम सम्बन्धी अध्ययनों के लिये प्रयुक्त अपनी सांख्यिकी विधियों की सहायता से गाल्टन ने यह निष्कर्ष निकाला कि केवल वर्तमान माँ-बाप ही नहीं बल्कि बालक के सभी पूर्वज घटते हुये प्रभाव के आधार पर अपना कुछ न कुछ योगदान बालक को वंशक्रम धरोहर सौंपने हेतु देने की चेष्टा करते हैं।मां-बाप और पूर्वजों द्वारा यह योगदान गाल्टन के अनुसार निम्न रूप में दिया जाता है :

“माँ के द्वारा 1/4 तथा पिता के द्वारा 1/4 और इस प्रकार से वंशक्रम धरोहर का कुल 1/2 भाग बालक को अपने तत्कालीन माता-पिता द्वारा प्रदान किया जाता है। दादा, दादी, नाना तथा नानी इनमें से प्रत्येक के द्वारा 1/16 भाग और इस तरह सभी चारों (Grand parents) द्वारा कुल का 1/4 भाग प्रदान किया जाता है।

3.)मेन्डल का वंशक्रम सिद्धान्त (Mendel's Theory of Heredity)

आस्ट्रिया निवासी ग्रेगर मेन्डल जो एक पादरी थे अपनी रुचि, अध्ययन और अनुसंधानों के

परिणामस्वरूप आज एक विख्यात वनस्पति शास्त्री तथा वंशक्रम अनुसंधानकर्ता के रूप में याद किये जाते हैं। इनके द्वारा मटरों (Peas) की कई प्रजातियों के संक्रमण को लेकर किये गये प्रयोग काफी चर्चित रहे हैं। अपने एक प्रयोग में उन्होंने मटर की दो किस्मों (Varieties) लम्बी (Tall) तथा बौनी (Short) को समान संख्या में बोया । इनसे जो मटर के पौधे उगे और बड़े होकर उनसे जो मटर के दाने प्राप्त हुये उन वर्ण संकर (Hybrid) बीजों को पुनः बोया तथा उनसे जो पौधे और बीज प्राप्त हुये उन्हें फिर बोया इस तरह वह वर्ण शंकर बीजों को बार-बार बो कर पौधे और मटर (बीज) प्राप्त करता रहा। अपने इन प्रयत्नों के फलस्वरूप जो परिणाम उसे प्राप्त हुये वह कुछ इस प्रकार थे।

(i) शुद्ध लम्बी तथा शुद्ध बौने प्रजाति के मटरों के बीजों से पहली बार वर्णसंकर प्रजाति के मटर के पौधे उगे वे सब लम्बे आकार के (Tall) थे। (ii) इन लम्बे आकार के पौधों से प्राप्त बीजों को जब बोकर दूसरी संतति (Second generation) के मटर के पौधे प्राप्त हुये तो उनमें लम्बे और बौने दोनों ही आकार के पौधे प्राप्त हुये इनकी संख्या में 3:1 का अनुपात था । (iii) दूसरी संतति में प्राप्त लम्बे तथा बौने आकार के पौधों के बीजों को जब पुनः बोया गया तो तीसरी संतति प्रजाति के मटर के पौधों में यह पाया गया कि बौने के बीजों ने अपने ही प्रजाति के पौधों (बौनों) को जन्म दिया जबकि लम्बी प्रजाति के बीजों से लम्बे तथा बौने दोनों ही प्रकार के पौधे निम्न अनुपातों में उगे।

- लम्बी प्रजाति के1/3 पौधों से लम्बी प्रजाति के पौधे उगे।

- लम्बी प्रजाति के शेष 2/3 पौधों से लम्बे तथा बौनी प्रजाति के पौधे 3:1 के अनुपात से पैदा हुये।

मैन्डल के इन प्रयोगों ने वंशक्रम के सम्बन्ध में निम्न दो मुख्य प्रनियमों तथा धारणाओं को प्रकाश में लाया

1. प्रभावशीलता या प्रधानता का नियम (Principle of dominance ) — इस नियम के अनुसार जब किन्हीं दो विरोधी गुणों या विशेषताओं वाली प्रजातियों से वर्णसंकर की उत्पत्ति होती है तो वर्णसंकर में उसी गुण की प्रधानता रहती है जो अधिक प्रभावशील (Dominant) होता है। मैन्डल के प्रयोग में लम्बापन (Tallness), बौनेपन (Shortness) पर हावी था इसलिये उसकी ज्यादा प्रबलता (Dominance) के कारण पहली संतति विशुद्ध लम्बे आकार के पौधों की थी और बाद की संततियों में भी इसी गुण की प्रधानता रही।

2. अलगाव या पृथकता का नियम (Principle of segregation)- वर्णसंकर होने पर भी प्रजातियाँ अपने विशुद्ध गुणों जैसे मटर के पौधों की लम्बापन और बौनापन) को बनाये रखने का -प्रयत्न करती रहती हैं और इस तरह पीढ़ी दर पीढ़ी अपने विशुद्ध गुणों और विशेषताओं का प्रदर्शन करती रहती हैं और अंततः उनका झुकाव वर्णसंकर गुणों से मुक्ति पाकर अपनी प्रजाति के शुद्ध गुणों और विशेषताओं को पाना ही होता है। मैन्डल के उपरोक्त प्रयोग में भी यह भली-भाँति देखा गया कि तीसरी संतति में बौने पौधों से शतप्रतिशत बौने पौधे ही प्राप्त हुए और लम्बे पौधों से भी केवल कुछ को छोड़कर लम्बे पौधे ही प्राप्त हुये।

4.)डार्विन का सिद्धान्त(Darwin's Theory)

डार्विन के अनुसार प्राणियों का जीवन संघर्षों से भरा हुआ है। सभी को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए निरन्तर संघर्ष करना पड़ता है। अस्तित्व रक्षा के इस संघर्ष में वे प्राणी ही अपने आपको बचा पाने में समर्थ होते हैं जो अपने आपको निरन्तर बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित करने में सफल हो सकें। अगर पीछे की ओर मुड़कर देखा जाये तो बहुत सी ऐसी प्रजातियों का आज कहीं भी अता-पता नहीं जो किसी कारण से अपने आप में वातावरण के अनुकूल परिवर्तनों को लाने और उनका आने वाली पीढ़ियों में संक्रमण कर पाने में असफल रहीं। इसके विपरीत जो ऐसा कर सकीं वे आज भी अपने पीढ़ी दर पीढ़ी परिवर्तनों को संक्रमित करते हुये नये रूपों में जी रही हैं और आगे बढ़ रही हैं।इस तरह डार्विन के इस उद्भव और विकास सिद्धान्त के अनुसार प्रजातियां अपने आपमें अपने वातावरण से समायोजित होने के प्रयास हेतु कुछ आवश्यक परिवर्तन सुधार या विकास कार्य करती हैं। उनका यह विकास प्राकृतिक चयन प्रनियम (Principle of natural selection) पर आधारित होता है। उनमें वे परिवर्तन सहज रूप में अपने अस्तित्व की रक्षा करने हेतु स्वाभाविक ढंग से ही आ जाते हैं, वे उसी का चयन करके अपने आप में आत्मसात् कर लेते हैं जो उनको अस्तित्व की लड़ाई में मदद करें और फिर यही परिवर्तन वे स्वाभाविक रूप में वंशक्रम धरोहर के रूप में आने वाली पीढ़ियों को हस्तान्तरित करते जाते हैं।

5. लेमार्क का सिद्धान्त (Lemark's Theory)

लेमार्क ने भी अपने अनुभवों और प्रयोगों के द्वारा एक पीढ़ी द्वारा अर्जित गुणों और विशेषताओं को आने वाली पीढ़ियों को संकुचित करने की बात अपने विकासवादी सिद्धान्त के द्वारा कही है। उसके अनुसार सभी प्रजातियों में परिवर्तित परिवेश में अपने आपको ठीक प्रकार से समायोजित करते रहने के लिये एक जन्मजात आंतरिक प्रवृति (innate inwant urge) मूलभूत आवश्यकता (Basic need) के रूप में पायी जाती है।उदाहरण के लिये अगर हम जिराफ (giraffe) की गर्दन के आकार को ही ले तो हमें यह स्पष्ट विदित हो सकता है कि आवश्यकता ने आविष्कार, परिवर्तन विकास की जननी कहे जाने को यहाँ किस प्रकार उपयुक्त प्रकार से चरितार्थ किया है। ऊंचे पेड़ों की टहनियों से अपना भोजन ग्रहण करने की आवश्यकता और उसके लिये किये गये प्रयासों ने ही गर्दन लम्बा करने की नींव एक विशेष पीढ़ी में रखी होगी और फिर पीढ़ी दर पीढ़ी अपने प्रयासों से अर्जित तथा परिवर्तित गर्दन की बढ़ी हुई लम्बाई का हस्तान्तरण वंशक्रम की प्रक्रिया द्वारा आने वाली पीढ़ियों को स्वाभाविक रूप से होता रहा होगा।

Laws of Heredity and their educational implications (वंशक्रम प्रनियम और उनका शैक्षिक महत्व)

1. समानता का नियम (Law of Similarity or resemblence ) — इस नियम को "जैसे आप वैसी ही संतान" (Like begets like) के रूप में भी अच्छी तरह प्रसिद्धि प्राप्त है। सरल शब्दों में यह नियम प्रतिपादित करता है कि माँ-बाप के गुणों का उनकी संतानों में (वंशक्रम के प्रभाव के कारण) अपने उसी रूप में आना नितान्त स्वाभाविक है। यही कारण है कि गोरे माँ-बाप के बच्चे गोरे होते हैं तथा कालों के काले । बुद्धिमान माँ-बाप के बच्चे भी बुद्धिमान होते हैं तथा अल्पबुद्धियों के अल्पबुद्धि। इनकी ये विशेषतायें और गुण समानता के नियम का अनुसरण करते हुये इन्हें अपने माँ-बाप तथा पूर्वजों से ही प्राप्त होती हैं।समानता के इस नियम की सभी तरह से सभी स्थितियों में अनुपालना हो यह आवश्यक नहीं। ऊपर से देखने में यह सार्वभौमिक (Universal) लग सकता है जैसे आम से आम ही पैदा होते हैं नींबू या संतरा नहीं। आदमियों की संतान आदमी ही होती है बंदर या गधा नहीं। परन्तु यह भी हो सकता है कि गोरे माँ-बाप की संतान काली हो तथा मूर्ख और अल्पबुद्धि माँ-बाप की संतान कुशाग्र बुद्धि हो और विद्वानों के बच्चों की मूर्खों में गिनती हो। इस तरह की माँ-बाप और बालकों में पायी जाने वाली असमानताओं तथा भिन्नताओं को समझने हेतु निश्चित रूप से वंशक्रम की प्रक्रिया और परिणामों को स्पष्ट करने वाले किन्हीं अन्य प्रनियमों की सहायता की आवश्यकता है।

2. विभिन्नता का नियम (Law of veriation)-विभिन्नता को लेकर एक बात तो यह स्पष्ट है कि गर्भाधान के समय पता नहीं किस प्रकार के गुण सूत्र और पित्र्येक (chromosomes and genes) बालकों को माँ-बाप से प्राप्त हो जायें। यह एक महज संयोग की बात है इसके लिये कोई नियम नहीं परिणामस्वरूप बच्चों को किस प्रकार के गुण और विशेषतायें वंशक्रम की देन के रूप में मिल जायें यह कुछ निश्चित नहीं और परिणामस्वरूप एक ही माँ बाप की संतानें यहाँ तक कि एक ही लिंग के और जुड़वां बच्चों में विभिन्नतायें देखने को मिल सकती हैं।दूसरी ओर जैसा कि बीजकोष की निरन्तरता के सिद्धान्त (Theory of continuity of germ plasm) से स्पष्ट होता है कि माँ-बाप के उत्पादक कोषों में पूर्वजां के गुण और विशेषताओं से युक्त क्रोमोसोम तथा जीन्स भी रहते हैं। इनमें से कोई भी क्रोमोसोम तथा जीन्स (जो माँ और बाप में सुप्त रूप में विद्यमान हों) बच्चे को संयोगवश विरासत में मिल सकते हैं।फलस्वरूप वह अपने माता या पिता किसी से साम्य न रखकर किन्हीं गुणों और विशेषताओं में उनके किसी भी पूर्वज जैसा हो सकता है।

3. प्रत्यागमन का नियम (Law of Regression)- वंशक्रम सम्बन्धी यह नियम प्रत्यागमन की प्रक्रिया और धारणा पर आधारित है। जिसका अर्थ है कि मनुष्य मात्र में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के गुणों और विशेषताओं के संक्रमण हेतु औसत की ओर जाने (moving towards average) की स्वाभाविक कि आंतरिक प्रवृति पाई जाती है। परिणामस्वरूप, जैसा कि क्रो एवं क्रो ने भी अनुमोदित किया है, " लम्बे और माता-पिता के बच्चे औसत से अधिक लम्बे तो होते हैं परन्तु अपने माँ-बाप जैसे लम्बे नहीं होते। इसी रूप में विशेष प्रतिभा युक्त माँ-बाप के बच्चों में अपने माँ-बाप से कम प्रतिभा होने तथा कम योग्यता को वाले माँ-बाप के बच्चों में अपने माता-पिता से अधिक योग्यता होने की संभावनायें ही ज्यादा होती हैं।"

Conclusion and educational implications of Heredity (निष्कर्ष एवं शैक्षणिक महत्त्व)

1. एक बालक को वे सभी बातें गुण तथा विशेषतायें वंशक्रम के जरिये विरासत में अवश्य ही प्राप्त होंगी जिन पर सामान्यतया मनुष्य होने के नाते उसका अधिकार है तथा जिन्हें धारण करने पर ही मनुष्य के रूप में उसे पशु-पक्षी, जीव-जन्तु तथा धरती पर उपस्थित अन्य भौतिक वस्तुओं से अलग समझा जाता है। थोड़ा आगे चलें तो हम यह पायेंगे कि बालक उन गुणों एवं विशेषताओं को भी (थोड़ी बहुत विभिन्नताओं के साथ) धरोहर के रूप में ग्रहण करता हुआ पाया जा सकता है जिन्हें उसके वंश तथा जाति की परिचय तथा सामान्य विशेषतायें (family, race and casto traits) कहा जा सकता है जो हमें यह याद दिलाती हैं कि अमुक व्यक्ति में इस प्रकार के खानदानी या जाति गुण हैं। इस प्रकार की उपरोक्त जानकारी अध्यापन तथा शिक्षा वैचारिकों को बालकों को उनके वर्तमान रूप से समझने तथा उनके लिये व्यक्तिगत भेदों के अनुरूप कार्यक्रम तय करने में काफी मदद कर सकती है। मनुष्य के रूप में तथा किसी जाति एवं वंश से सम्बन्धित होने के नाते किस से किस प्रकार की योजनाओं तथा क्षमताओं की अपेक्षा की जा सकती है इसके अनुरूप ही उसकी शिक्षा और विकास प्रयत्नों की मंजिलें तथा राहें बनाई जा सकती हैं।

2. "जैसे आप वैसी संतान" इस नियम के आधार पर जहाँ हमें यह अनुमान लगाने और अपेक्षा करने में सहायता मिलती है कि माता-पिता, वंश-परम्परा तथा प्रजातीय एवं जातीय विशेषता के आधार पर बालक के बारे में क्या सोचा जाये वहीं विभिन्नता का नियम (Law of Variety) तथा प्रत्यागमन नियम (Law of Regression) हमें सचेत करते हैं कि बालक किसी भी अवस्था में अपने माँ-बाप, वंश तथा जाति का हू-ब-हू प्रतिनिधि नहीं हो सकता। वह उनसे किसी न किसी रूप में अलग ही होगा। इन विभिन्नताओं का दायरा भी बहुत बड़ा हो सकता है। अतः यह भी कोई आश्चर्य नहीं कि माता-पिता,वंश या जाति के सामान्य और विशेष गुणों से ठीक विपरीत गुण बालक में दिखाई दें। माँ-बाप तथा -अध्यापक वंशक्रम प्रक्रिया के विभिन्नता सम्बन्धित नियम को ताक पर रखकर प्रायः यह भूल कर बैठते हैं कि वह बालक को उसके अपने प्रत्यक्ष रूप की अवहेलना कर उससे वही अपेक्षा करने लगते हैं या उसी रूप में देखने का प्रयत्न करते रहते है।

3. प्रत्यागमन का नियम (Law of Regression) निश्चित रूप से यह संकेत देता है कि वंशक्रम धरोहर के रूप में किसी भी गुण को ग्रहण करने हेतु बालकों की प्रवृति औसत की ओर जाने की होती है। यहाँ निश्चित रूप से एक आशा की किरण दिखाई देती है विशेषकर उन बालकों को जिन्हें उन मां बाप से वंशक्रम धरोहर के रूप में कुछ प्राप्त करना है जो योग्यता और क्षमताओं की दृष्टि से निम्न कोटि के माने जाते हैं। औसत की ओर जाने की दृष्टि से अब वे अपने मां-बाप के स्तर से एक बेहतर स्तर पा सकेंगे। परिणामस्वरूप बौने मां-बाप के बच्चे उनसे कुछ अधिक ऊँचाई वाले होंगे तथा अल्पबुद्धि मां बाप संतानें कुछ अधिक बुद्धिमान हो सकेंगी। उन अध्यापकों के लिये यहां एक स्पष्ट चेतावनी है जो "जैसे आप वैसी संतान" के नियम का अनुसरण करते हुये ऐसे बच्चों की क्षमताओं और योग्यताओं को (उनके माँ-बाप से तुलना करते हुये) कम आंकने की गलती कर बैठते हैं और उनको निरुत्साहित करते रहते हैं। दूसरी ओर अध्यापकों को इस बात के लिये सचेत रहना चाहिए कि यह आवश्यक नहीं कि बहुत प्रतिभाशाली मां-बाप के बच्चे भी उनके जैसे हों, प्रत्यागमन के नियम के अनुसार उनमें प्रायः कम प्रतिभा ही पाई जाती है। बालकों से मां-बाप के गुणों को ध्यान में रखते हुये वैसी ही अपेक्षा करना ठीक नहीं है।

4. वंशक्रम सम्बन्धी नियम, विशेषकर वे नियम जो बीजकोष की निरन्तरता नामक सिद्धान्त से प्रभावित हैं, मां-बाप और अध्यापकों को यह सिखा सकते हैं कि उत्पादक कोष (Germ cells) ही वंशक्रम धरोहर को संक्रमित करने के लिये उत्तरदायी होते हैं, दैहिक कोष (Somatic cells) नहीं। अतः शरीर में जो भी रचना सम्बन्धी दोष या विकार हों उनका हस्तान्तरण मां-बाप द्वारा अपने बालकों को नहीं होता। किसी अपंग मां-बाप की संतान का जन्म से अपंग होना इस दृष्टि से बिल्कुल भी जरूरी नहीं है। अंधे मां-बाप की संतान अच्छी दृष्टि वाली हो सकती है। इसी संदर्भ में आगे जाकर यह बात भी अच्छी तरह समझी जा सकती है कि मां-बाप द्वारा अपने आप अर्जित की गई कुशलताओं ज्ञान, रुचि, अभिवृत्ति आदि का भी वंशक्रम प्रक्रिया द्वारा बाल कों में हस्तान्तरण नहीं होता, अतः अध्यापकों तथा माता-पिता को यह समझने की भूल नहीं करनी चाहिये कि एक संगीतज्ञ का बेटा स्वतः ही संगीतज्ञ बन जायेगा और एक कुशल बढ़ई या स्वर्णकार का बेटा जन्म से ही इन कुशलताओं को लेकर पैदा होगा।

What is environment (वातावरण क्या है?)

वातावरण अथवा पर्यावरण से तात्पर्य उन सभी बाह्य तत्त्व अथवा शक्तियों से है जो मां द्वारा गर्भाधान के तुरन्त बाद से ही व्यक्ति विशेष की वृद्धि और विकास को प्रभावित करते रहते हैं। जन्म से पहले मां का गर्भाशय इन शक्तियों का कार्यक्षेत्र होता है। मां जो कुछ भी खाती है, करती, सोचती और अनुभव करती है, उस सभी का प्रभाव गर्भ में स्थित बालक पर पड़ता है। जन्म के पश्चात् तो चारों ओर से वातावरण सम्बन्धी शक्तियां उसको प्रभावित करना प्रारम्भ कर देती हैं। इन शक्तियों को भौतिक और सामाजिक अथवा सांस्कृतिक दो विभिन्न प्रकारों में विभक्त किया जा सकता है । भोजन, जल, जलवायु, घर, विद्यालय, ग्राम या शहर का वातावरण और भौतिक सुविधाएं- ये सभी वातावरण सम्बन्धी भौतिक शक्तियां कहलाती हैं, जबकि माँ-बाप, परिवार के सदस्य, पड़ोसी, मित्रगण और सहपाठी, अध्यापक वर्ग, समुदाय तथा समाज के अन्य सदस्य, संचार, यातायात और मनोरंजन के साधन, धार्मिक स्थान, क्लब, पुस्तकालय तथा वाचनालय इत्यादि को सामाजिक एवं सांस्कृतिक शक्तियों में सम्मिलित किया जाता है।

Relative importance of Heredity and environment (वंशानुक्रम और वातावरण का सापेक्षिक महत्त्व)

व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए वंशानुक्रम अधिक उत्तरदायी है या वातावरण, यह एक विवादास्पद प्रश्न है। इस बारे में मनोवैज्ञानिक और विद्वान् स्पष्ट रूप से दो पक्षों में विभाजित हैं। एक पक्ष वंशानुक्रम को अधिक महत्त्व देना चाहता है तो दूसरा वातावरण को कट्टर वंशानुक्रमवादी (Hereditarians) व्यक्तित्व के विकास के लिए वंशानुक्रम को ही सब प्रकार से उत्तरदायी ठहराते हैं। इनके अनुसार व्यक्तित्व के निर्माण में शिक्षा, प्रशिक्षण और अन्य वातावरण सम्बन्धी शक्तियों के कार्य की तुलना लकड़ी की कुर्सी, मेरा इत्यादि फ़र्नीचर पर पॉलिश या रंग करने के कार्य से की जा सकती है। जिस तरह कोई भी अच्छी से अच्छी पॉलिश या पेंट मेज, कुर्सी या फ़र्नीचर में लगी हुई आम की लकड़ी को सागवान या शीशम की नहीं बना सकता, वह उसे चमका कर उसकी शोभा या आयु में केवल नाम मात्र की वृद्धि कर सकता है, उसी तरह अच्छे से अच्छा वातावरण भी बच्चे की मूल प्रकृति या विकास क्रम को नहीं बदल सकता। वह वही बनता है जो वंशानुक्रम द्वारा तय किया हुआ है। दूसरी ओर कट्टर वातावरणवादी (Environmentalists) व्यक्तित्व के विकास में वंशानुक्रम को कोई भी भूमिका नहीं देना चाहते। व्यक्ति को अपने माता-पिता या पूर्वज से कुछ गुण या विशेषताएं विरासत में मिलती हैं। इस बात को ये केवल कल्पना का महल समझते हैं। इनके अनुसार एक बालक वही बनता है जो उनका वातावरण उसे बनाता है। जो कुछ एक व्यक्ति ने किया है दूसरा भी अगर उसे समुचित वातावरण और अवसर प्राप्त हो जाए, वही कर सकता है। इस तरह से कोई भी बालक आगे जा कर गांधी, लिंकन, शिवाजी या राणा प्रताप बन सकता है। वातावरण की शक्तियों पर अपनी अटूट आस्था व्यक्त करते हुए वाटसन जैसे वातावरणवादी ने तो यहां तक कह दिया है कि, "आप मुझे कोई बालक दें, मैं उसे वही बना दूंगा जो आप चाहते हैं।" इस तरह से वातावरण के पक्ष के विद्वान् बालक की वृद्धि और विकास के लिए वातावरण को ही सर्वेसर्वा मान कर चलना चाहते हैं।

Experiments performed by environmentalists(वातावरणवादियों द्वारा किए गए कुछ प्रयोग

(i) न्यूमेन, फ्रीमैन और हालजिंगर (Newman, Freeman and Holzinger) ने 1937 ई० में सम-यमजों (Identical Twins) के 10 जोड़ों को अपने अध्ययन का विषय बनाया इन जुड़वां बच्चों में से जिन को एक साथ पाला गया, ,उनके बड़े होने पर उनकी बुद्धि लब्धि में विशेष अन्तर देखने को नहीं मिला जबकि अलग-अलग वातावरण में पलने वाले जुड़वां बच्चों की बुद्धि लब्धि में पर्याप्त अंतर देखने को मिला।

(ii) सोडक (Shodak) ने भी अपने प्रयोग के आधार पर वातावरण को महत्त्वपूर्ण सिद्ध करने का प्रयत्न किया। 80 बच्चों की असली माताओं की खोज कर उनकी बुद्धि परीक्षा ली गई। इन 80 माताओं की औसत बुद्धि लब्धि 87.7 पाई गई। अधिकांश माताएं सामान्य से कम बुद्धि वाली थीं। 53.8 प्रतिशत की बुद्धिलब्धि 90 थीं, 163 प्रतिशत सामान्य से कुछ इधर-उधर तथा 13.8 प्रतिशत मंद बुद्धि थीं। इन माताओं के बच्चों (जो अब गोद लिए हुए स्थानों पर पल रहे थे) की औसत बुद्धि लब्धि 116 पाई गई। अगर केवल वंशानुक्रम को ही बुद्धि के लिए उत्तरदायी ठहराया जाए तो इन बच्चों की बुद्धि सामान्य से इतनी अच्छी नहीं पाई जा सकती थी। अतः इस अध्ययन के द्वारा बुद्धि और व्यक्तित्व के अन्य गुणों के विकास में वातावरण की महत्ता दिखाने का प्रयत्न किया गया।

3. जंगलों में भेड़ियों द्वारा पाले गए कुछ बच्चों के जीवन इतिहास के माध्यम से भी व्यक्तित्व के विकास में वातावरण की भूमिका को समझने में सहायता मिलती है।एक ऐसा बच्चा रामू था जिसे भेड़िया बालक कहा जाता है। जब वह बहुत छोटा था तभी उसे मादा भेड़िये ने उठा लिया था। वह भेड़ियों के बीच रह कर बड़ा हुआ। भेड़ियों की तरह वह हाथ-पांवों से चलता था और बोलने के नाम पर उन्हीं की तरह गुर्राता था। खाने-पीने और अन्य आदतों में वह एक भेड़िया ही बन गया था। इसी तरह की बात अमला और कमला के साथ घटित हुई। उन्हें 1920 ई० में बंगाल के जंगलों में भेड़िये की मांद से पकड़ा गया। इस समय इन लड़कियों की आयु उनके लापता होने के हिसाब से क्रमश: 2 वर्ष और 9 वर्ष की थी। इनका चलना, बोलना, आदतें और स्वभाव भेड़ियों जैसा था। इन दोनों को अस्पताल में ला कर सुधारने के बहुत प्रयत्न किए गए। छोटी अमला तो कुछ समय बाद मर गई। बड़ी के साथ प्रयत्न किए जाते रहे और कुछ सफलता भी मिली। उचित वातावरण और प्रशिक्षण के प्रभाव से वह मनुष्यों की तरह चलना और कुछ शब्दों को उच्चारण करना सीख गई।

Conclusion regarding relative importance of Heredity and environment (वंशानुक्रम और वातावरण के सापेक्षिक महत्त्व के सम्बन्ध में निष्कर्ष)

1. व्यक्ति के व्यक्तित्व के किसी भी विशेष गुण या विशेषता के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि यह वंशानुक्रम के कारण है अथवा वातावरण के। वास्तव में हम सबका व्यक्तित्व वंशानुक्रम और वातावरण दोनों की ही संयुक्त देन है। इस संदर्भ में मैकाइवर एवं पेज (Molver and Page) ने ठीक ही कहा है कि "जीवन की प्रत्येक घटना दोनों का परिणाम होती है। इनमें से एक परिणाम के लिए उतनी ही आवश्यक है जितनी दूसरी कोई न तो कभी हटाया ही जा सकता है और न कभी पृथक् ही किया जा सकता है।

2. व्यक्तित्व के विकास में वंशानुक्रम और वातावरण दोनों में से कौन अधिक महत्त्वपूर्ण है, इस पहेली में उलझना ही व्यर्थ है। यह कुछ ऐसा ही है जैसे कि कोई यह सोचे कि किसी पौधे के समुचित विकास के लिए बीज का अधिक महत्त्व है अथवा भूमि का बीज और भूमि दोनों में से कोई अकेला कुछ नहीं कर सकता। यह सच है कि बीज में उगने की शक्ति है और वह आगे जरूर एक विशेष किस्म का पौधा बन सकता है। लेकिन वह ऐसा कितनी अच्छी तरह से कर पाएगा, यह उस भूमि पर निर्भर करता है जिसमें उसे लगाया जा रहा है। उन्नत किस्म के अच्छे बीज और उपजाऊ मिट्टी दोनों का ठीक संयोग होने पर ही अधिक अच्छे पौधे की आशा की जा सकती है। इस कार्य के लिए बीज और भूमि दोनों में से कौन अधिक आवश्यक है अथवा अधिक महत्त्वपूर्ण है, यह निर्णय लेना असम्भव ही है।

3. बच्चे की वृद्धि और विकास के संदर्भ में वंशानुक्रम और वातावरण इन दोनों के बीच जो रिश्ता है उसमें ' अथवा ' और ' या ' की कोई गुंजाइश नहीं। यह सम्बन्ध केवल 'और' से व्यक्त किया जा सकता है। अतः व्यक्तित्व का विकास वंशानुक्रम और वातावरण दोनों पर निर्भर करता है, यह अधिक यथार्थ और संगत है। वंशानुक्रम और वातावरण के बीच वास्तव में क्या सम्बन्ध है, इसी की चर्चा करते हुए वुडवर्थ एवं माविस (Woodworth and Marquis) ने लिखा है, "वंशानुक्रम और वातावरण का सम्बन्ध जोड़ की तरह न हो कर गुणा की तरह अधिक है। व्यक्ति वंशानुक्रम + वातावरण नहीं बल्कि वंशानुक्रम x वातावरण है।" ("The relation of heredity and environment is not like addition but more like multiplication. The individual does not equal heredity + environment but does equal heredity environment."-1948, p.158)

4. एक और दृष्टिकोण से भी हम सोचें तो वंशानुक्रम के फलस्वरूप जन्मजात योग्यताओं और शक्तियों के रूप में हमें अपना जीवन-व्यापार शुरू करने के लिए कुछ पूंजी प्राप्त होती है। इस पूंजी में अधिक से अधिक वृद्धि अनुकूल वातावरण के द्वारा ही संभव हो सकती है। जिस तरह एक व्यवसाय में सफलता पूंजी और अनुकूल परिस्थितियों-दोनों पर निर्भर करती है, उसी प्रकार व्यक्ति की सफलता का रहस्य भी उसकी जन्मजात शक्तियों और इन शक्तियों को पनपने की अनुकूल परिस्थितियों या वातावरण के हाथों में है। ऐसे अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं जिनमें बहुत ही तुच्छ और नगण्य धन राशि से प्रारम्भ कर लोग लाखों और करोड़ों में खेल लेते हैं। इसलिए गाल्टन और कट्टर वंशानुक्रमवादियों द्वारा वंशानुक्रम से मिली शक्तियों को ध्यान में रख कर दी जाने वाली यह चेतावनी कि-"तू इतनी दूर ही जा सकता है और आगे नहीं।" ("Thus far thou salt go and no further.") उचित नहीं जान पड़ती। अगर थोड़ी देर के लिए इसे मान लिया जाए तो क्या इतनी दूर भी 'जाना' बिना वातावरण का सहयोग प्राप्त किए सम्भव हो सकता है ?


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