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Guidance and Counselling ( मार्गदर्शन एवं परामर्श )
Oct 08, 2022   Ritu Suhag

Guidance and Counselling ( मार्गदर्शन एवं परामर्श )

Guidance and Counselling ( मार्गदर्शन एवं परामर्श )

After reading this article you will be able to answer the following questions-

# मार्गदर्शन का अर्थ एवं परिभाषाएं ( What is the Meaning and Definition of Guidance) 

# विद्यालय में मार्गदर्शन की आवश्यकता ( What is the Need of Guidance in the School)

# परामर्श - अर्थ एवं परिभाषा (Counselling - it's Meaning and Definition)

# मार्गदर्शन एवं परामर्श में सम्बन्ध (Relationship between Guidance and Counselling) 

# शैक्षिक मार्गदर्शन ( What is Educational Guidance)

# व्यावसायिक मार्गदर्शन ( What is Vocational Guidance)

# व्यक्तिगत मार्गदर्शन ( What is  Personal Guidance)

# परामर्श के प्रकार (Types of Counselling) 

# परामर्श के उपागम (Approaches of Counselling)

मार्गदर्शन अंग्रेजी शब्द गाइडैन्स का हिन्दी रूपान्तर है जिसका अर्थ होता है मार्ग दिखाना या मार्गदर्शन। इसे कुछ लोगों द्वारा निर्देशन भी कहा जाता है परन्तु निर्देशन शब्द अंग्रेजी शब्द डाइरेक्शन (Direction) के लिये ही बहुधा काम में लाया जाता है।

मार्गदर्शन का अर्थ एवं परिभाषाएं (Meaning and Definitions of the term Guidance)

मानव जीवन में समस्याएं ही समस्याएं होती हैं। एक ओर मनुष्य की आवश्यकताओं एवं योग्यताओं का प्राप्त साधनों से संघर्ष चलता है और दूसरी ओर मनुष्य को अपने वातावरण सम्बन्धी स्थितियों के साथ संघर्ष करना पड़ता है। यह संघर्ष जीवन के आरम्भिक वर्षों से लेकर मृत्यु पर्यन्त चलता ही रहता है। व्यक्ति अपनी कठिनाइयों को दूर करने तथा वातावरण के अनुकूल अपने आप को ढालने के बहुत यत्न करता है। इस उद्देश्य के लिए वह अपनी योग्यताओं तथा क्षमताओं का विकास करता है या योजनायें बनाता है। परन्तु कभी ऐसा समय भी आ जाता है जब उसे अनुभव होता है कि उसे साफ़ मार्ग दिखाई नहीं दे रहा। वह अपने प्रयासों से वांछित उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर सकता। तब उसे ऐसे व्यक्ति की आश्यकता अनुभव होती है जो उसको मार्ग दिखाए और उस की योग्यताओं के विकास में उस की सहायता करे। इस प्रकार 'मार्गदर्शन' एक व्यक्ति द्वारा किसी व्यक्ति को सहायता या परामर्श प्रदान करने की प्रक्रिया का नाम है, यह मार्गदर्शन' का सामान्य अर्थ है। और अधिक गम्भीरता से इस का अर्थ जानने के लिए निम्नलिखित परिभाषाओं पर विचार करना उपयुक्त होगा:

1. क्रो एण्ड क्रो (Crow and Crow ) — " मार्गदर्शन पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित एवं विशेषज्ञता प्राप्त पुरुषों तथा महिलाओं द्वारा किसी भी आयु के व्यक्ति को सहायता प्रदान करना है ताकि वह अपने जीवन की प्रक्रियाओं को व्यवस्थित कर सके, अपने निजी दृष्टिकोण विकसित कर सके, अपने आप अपने निर्णय ले सके और अपने जीवन का बोझ उठा सके।" ("Guidance is assistance made available by qualified and adequately trained men or women to an individual of any age to help manage his own life activities, develop his points of view, make his own decisions and carry his own burden."

इन परिभाषाओं के विश्लेषण से मार्गदर्शन सम्बन्धी निम्नलिखित तथ्य स्पष्ट होते हैं

(i) मार्गदर्शन व्यक्तिगत सहायता है। भले ही यह व्यक्तिगत रूप से दी जाए या सामूहिक रूप से, इसका उद्देश्य व्यक्तिगत सहायता प्रदान करना है।

(ii) मार्गदर्शन प्रदान करना प्रत्येक व्यक्ति का काम नहीं। यह अत्यन्त कुशल, परिपक्व एवं योग्य व्यक्तियों का काम है। मनोविज्ञान के क्षेत्र में 'मार्गदर्शन' एक तकनीकी कार्य है जिसके लिए प्रशिक्षित मार्ग-दर्शकों, कैरियर मास्टरों (Career Masters), मनोवैज्ञानिकों तथा परामर्शदाताओं की आवश्यकता होती है।

(iii) मार्गदर्शन किसी भी आयु के ऐसे व्यक्ति को दिया जा सकता है जिसे इसकी आवश्यकता हो। इस प्रकार मार्गदर्शन का क्षेत्र विस्तृत हो जाता है इसमें विभिन्न आयु, विभिन्न रुचियों तथा विभिन्न स्वभावों के व्यक्तियों को लिया जा सकता है।

(iv) 'मार्गदर्शन 'व्यक्ति में आत्म-निर्देशन की योग्यता को विकसित करता है। यह उसे अपनी समस्याओं के समाधान करने तथा अपने जीवन के बोझ उठाने के लिए स्वतन्त्रता तथा आत्म-निर्भर बनाता है। अत: इसे 'निर्देशन' (Direction) का समानार्थक नहीं समझना चाहिए। क्रो एण्ड क्रो (Crow and Crow) ने निम्नलिखित शब्दों में इस तथ्य को स्पष्ट किया है:

"मार्गदर्शन 'निर्देशन' देना नहीं। यह अपने दृष्टिकोण को दूसरे पर थोपना नहीं। वे निर्णय जिन्हें व्यक्ति स्वयं ले सकता है उन निर्णयों को उस व्यक्ति को देना भी मार्गदर्शन नहीं। यह दूसरे के जीवन का बोझ उठाना नहीं।" ("Guidance is not giving directions. It is not the imposition of one person's point of view upon another person. It is not making decisions for an individual which he should make for himself. It is not carrying the burden of another's life.") इस प्रकार जो व्यक्ति जिस को मार्गदर्शन प्रदान करता है वह उसे अपने पर निर्भर नहीं बना लेता और न ही उस पर अपनी इच्छा थोपता है। जिस व्यक्ति का मार्गदर्शन किया जाता है. वह व्यक्ति मार्गदर्शक की राय को लेने या न लेने के लिए स्वतन्त्र होता है।

(v) मार्गदर्शन व्यक्ति को अपने प्रति, दूसरों के प्रति तथा अपने विशिष्ट वातावरण के प्रति समायोजित होने में सहायता करता है। यह समायोजन समस्याओं (Adjustment Problems) में सहायता प्रदान करने की एक प्रक्रिया है।

(vi) मार्गदर्शन व्यक्ति को उस के भावी जीवन के लिए तैयार करता है। वह उसे उन कार्यों के लिए आवश्यक योग्यताओं को प्राप्त करने में सहायता देता है जो उसे भविष्य में सम्पन्न करते हैं। वह उसे भविष्य में व्यवसाय चुनने में सहायता देता है और समाज में अपनी भूमिका सफलतापूर्वक निभाने में सहायता प्रदान करता है।

इस प्रकार मार्गदर्शन का व्यक्तिगत एवं सामाजिक महत्व है। यह व्यक्ति को अपने प्रति तथा अपने वातावरण के प्रति समायोजित होने में सहायता प्रदान करता है। यह व्यक्तिगत एवं सामाजिक कुशलता प्राप्ति के लिए व्यक्ति की आवश्यक योग्यताओं तथा शक्तियों के विकास में सहायता प्रदान करता है। यह व्यक्ति को समाज में उचित स्थान प्राप्त करने में सहायता देकर मानवीय शक्ति तथा भौतिक साधनों के अपव्यय को रोकता है। अतः मार्गदर्शन का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। मानव जीवन की प्रत्येक समस्या इसकी परिधि में आ जाती है और यह किसी भी आयु के किसी भी व्यक्ति के साथ सम्बन्धित है। परन्तु जहां तक विद्यालयों में मार्गदर्शन देने का सम्बन्ध है, यहाँ हमें केवल विद्यार्थी समुदाय के कल्याण की ओर ध्यान देना है। अतः यहां हम अपने आप को 'मार्गदर्शन' के उस रूप तक सीमित रखेंगे जो स्कूल स्थितियों में विद्यार्थियों के कल्याण तथा उनकी प्रगति के लिए आवश्यक है। इस दृष्टिकोण से 'मार्गदर्शन' की व्यवहारात्मक परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है-मार्गदर्शन उचित रूप से प्रशिक्षित अध्यापकों, कैरियर मास्टरों या विशेषज्ञ मार्गदर्शकों द्वारा विद्यार्थियों को सहायता प्रदान करने की प्रक्रिया है ताकि वे अपने भविष्य की योजना बुद्धिमानी से बना सकें, उन में अपने वर्तमान तथा भविष्य की समस्याओं के समाधान के लिए योग्यताओं तथा शक्तियों का अधिकतमः । विकास हो सके, वे व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन सफलतापूर्वक गुजार सकें । (Guidance is referred to as a process of assisting or helping the students by properly rained teachers, career masters or special guidance personnel in planning their own future wisely and in developing their potentialities and propensities to the maximum to help them to solve their immediate or future problems and to lead a sucessful personal and social life.)

विद्यालयों में मार्गदर्शन की आवश्यकता (Need of Guidance in the Schools)

मार्गदर्शन व्यक्ति को अपने प्रति तथा अपने वातावरण के प्रति समायोजित करने में सहायता प्रदान करता है। यह उसे अपनी समस्याओं के समाधान तथा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायता प्रदान करता है। यदि हम विद्यार्थियों की समस्याओं का विश्लेषण करें तो हम इन्हें इन वर्गों में बांट सकते हैं- शिक्षा समस्याएँ, व्यावहारिक समस्याएं और व्यक्तिगत एवं मनोवैज्ञानिक समस्याएं। सभी विद्यार्थी अपनी इन समस्याओं के समाधान के लिए तथा अपने विकास एवं समायोजन के लिए मार्गदर्शन चाहते हैं। अतः संक्षेप रूप से विद्यालयों में मार्गदर्शन निम्नलिखित बातों के लिए आवश्यक है

1. शिक्षा सम्बन्धी आवश्यकता (Educational Need)- शिक्षा प्राप्त करते समय विद्यार्थियों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जैसे विषयों या कोसों को चुनना,. उचित पुस्तकों को चुनना, रोचक कार्यों (Hobbies) तथा पाठ्य सहायक क्रियाओं को चुनना। अपने लेख, उच्चारण तथा अध्ययन आदतों को सुधारने के लिए भी उन्हें मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। सीखने की प्रक्रिया में तथा विशिष्ट ज्ञान एवं कौशल की प्राप्ति में भी उन्हें सहायता की आवश्यकता होती है। अतः उनकी शिक्षा सम्बन्धी आवश्यकता विकासात्मक भी है, और समायोजनात्मक भी। अतः उन्हें शिक्षा के क्षेत्र में उचित रूप से समायोजित (Adjust) होने के लिए एवं प्रगति करने के लिए मार्ग दर्शन चाहिए।

2. व्यावसायिक आवश्यकता (Vocational Needs) - शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य बच्चों को भविष्य में अपनी रोशी कमाने के योग्य बनाना है। उनके द्वारा भविष्य में कई व्यवसाय को अपनाया जा सकता है। इन व्यवसायों तथा अवसरों की जानकारी व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय साधनों की अधिकतम उपयोगिता के लिए अत्यन्त आवश्यक है। मार्गदर्शन व्यावसायिक सूचना प्रदान करके हमारी इस दिशा में बहुत सहायता करता है। प्रत्येक व्यक्ति हर प्रकार का काम नहीं कर सकता। उसे अपनी योग्यताओं तथा शक्तियों के अनुकूल काम चुनने के लिए उचित मार्गदर्शन मिलना चाहिए। जीवन की • सफलता तथा राष्ट्रीय संवृद्धि के लिए व्यावसायिक समायोजन अत्यन्त आवश्यक है और यह तब हो सकता है जब सुयोग्य व्यक्तियों द्वारा प्रत्येक व्यक्ति की छोटी आयु में ही अपनी योग्यताओं, रुचियों तथा अभिरुचियों के अनुसार व्यवसाय चुनने का मार्ग दर्शन किया जाए।

3. व्यक्तिगत एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकता (Prosonal and Psychological Needs)— बच्चों के व्यक्तिगत एवम् मनोवैज्ञानिक समायोजन के लिए भी मार्गदर्शन अत्यन्त आवश्यक है। उनके उचित विकास तथा जीवन में उनकी सफलता के लिए उनका भावात्मक एवं सामाजिक समायोजन अत्यन्त आवश्यक है। कुसमायोजन (Maladjustment) से कई गम्भीर समस्याएं पैदा होती हैं। इससे बच्चों में कई प्रकार के मानसिक विकार उत्पन्न हो सकते हैं। अतः, बच्चों को मानसिक उलझनों, तनावों तथा चिन्ताओं से मुक्त करने के लिए मार्गदर्शन की आवश्यकता है। इस प्रकार यदि हम बच्चों को आत्म-समायोजन तथा सामाजिक समायोजन में सहायता प्रदान करना चाहते हैं और उन्हें विकास मार्ग पर अग्रसर करना चाहते हैं तो उनको मार्ग-दर्शन प्रदान करना होगा। भारत जैसे देश के लिए जहां अधिकांश माता-पिता अनपढ़ या अर्ध शिक्षित हैं तो मार्गदर्शन और अधिक आवश्यक है। अतः, अध्यापकों को मार्गदर्शन की आवश्यकता का अनुभव करना चाहिए और स्कूलों में मार्गदर्शन की व्यवस्था करनी चाहिए।

परामर्श अर्थ एवं परिभाषा (Counselling-Meaning and Definitions)

परामर्श और इसके अंग्रेजी पर्यायवाची शब्द काउंसेलिंग का शाब्दिक अर्थ होता है राय मशविरा तथा सुझाव लेना या देना आम जिन्दगी में इस शब्द का प्रयोग हम इसी अर्थ में करते रहते हैं। जब भी कोई व्यक्तिगत, निजी या पारिवारिक समस्या हमारे सामने आती है हम किसी बुर्जुग, तथा समझदार व्यक्ति से इस बारे में परामर्श लेने उसके पास जाते हैं। शादी की बात हो या नौकरी की, बच्चे की पढ़ाई के लिए स्कूल तथा कोर्सों के चुनाव की हो या जमीन जायदाद के झगड़े की ऐसे सभी कार्यों तथा अवसरों पर हम जहाँ हमें विश्वास होता है उससे परामर्श अवश्य ही करते हैं। ऐसे लोगों को परामर्श देने में विशेषज्ञ तथा प्रशिक्षित होना भी जरूरी नहीं होता। परामर्श देना उनका व्यवसाय भी नहीं होता। हाँ, कुछ लोगों का पेशा या व्यवसाय ऐसा होता है कि जिसमें उनके पास लोग अपनी-अपनी समस्याएं लेकर आते रहते हैं। वकील, जमीन या सम्पत्ति के दलाल, बीमा कम्पनी के ऐजेन्ट, डॉक्टर, ऑडीटर, शेयर दलाल या ब्रोकर आदि इसी तरह के व्यक्ति हैं जो अपने-अपने व्यवसाय या क्षेत्र से सम्बन्धित समस्याओं को सुलझाने हेतु अपने मुवक्किलों, ग्राहकों तथा रोगियों को परामर्श देते रहते हैं। परन्तु जहां तक शिक्षा या मनोविज्ञान का सम्बन्ध है वहाँ परामर्श देने या लेने का इस प्रकार के आम प्रचलित अर्थों में प्रयुक्त नहीं किया जाता। इसका सहज अनुमान हमें प्रसिद्ध विद्वानों तथा मनोवैज्ञानिकों द्वारा दी गई कुछ निम्न परिभाषाओं के आधार पर भली भाँति हो सकता है।

1. रोजर्स " परामर्श किसी व्यक्ति के साथ लगातार प्रत्यक्ष संपर्क की वह कड़ी है जिसका उद्देश्य व्यक्ति को उसकी अभिवृत्तियों तथा व्यवहार में परिवर्तन लाने में सहायता प्रदान करना है।" (Counselling may be defined as a series of direct contacts with the individual which aims to offer him assistance in changing his attitudes and behaviour. Rogers, 1942)

2. शोस्ट्रोम एवं ब्रेमर परामर्श को स्व-समायोजन की ऐसी प्रक्रिया माना जा सकता है जिसमें परामर्श लेने वाले की इस तरह सहायता की जा सके कि वह पहले से अधिक स्व-निर्देशित एवं स्व उत्तरदायी बन सके। (Guidance is self adjustive process which helps the client become more self directive and self responsible. -Shostrom and Brammer, 1952)

इन परिभाषाओं के आधार पर हम परामर्श के अर्थ एवं प्रकृति का बहुत कुछ अनुमान लगाने में समर्थ हो सकते हैं। इस प्रकार के हमारे कुछ निष्कर्षों का निम्न रूप हो सकता है।

1. परामर्श एक ऐसी व्यवहारगत प्रक्रिया है जिसमें कम से कम दो व्यक्ति परामर्श लेने वाला (Counsellee) तथा परामर्श देने वाला (Counsellor) अवश्य शामिल होते हैं।

2. इन दोनों व्यक्तियों के बीच आपस में ऐसे मधुर सम्बन्ध होने अत्यंत आवश्यक हैं जिनकी डोर आपसी विश्वास, समझ, स्पष्टवादिता तथा एक दूसरे के प्रति वचन बद्धता एवं निष्ठा के धागों से बँधी हो ।

3. परामर्श लेने वाले को ऐसा वातावरण तथा सुविधाएं मिलनी चाहिए कि वह अपनी समस्या को खुलकर परामर्श देने वाले के सामने रख सके अथवा उसका इस तरह का प्रत्यक्ष संपर्क होना चाहिए कि परामर्श देने वाला अपनी ओर से ही उसके कल्याण हेतु परामर्श सेवाएं देने के लिये उत्सुक हो जाये।

4. परामर्श देने और लेने के लिये लगातार प्रत्यक्ष संपर्क में आना अति आवश्यक है।

5. परामर्श देने का कार्य परामर्श लेने वाले की परेशानियां या सम्स्याओं को तुरन्त ही अपने आप निपटाना नहीं होता और न उसकी समस्याओं के बोझ को अपने आप ढोते रहना होता है। इसका असली प्रयोजन तो उसे सलाह या मशविरे के रूप में ऐसी वैचारिक सहायता तथा भावनात्मक सहारा देना होता है जिस पर चल कर वह स्वयं ही अपनी समस्याओं को हल कर सके तथा अपनी कठिनाइयों से लड़कर उन पर विजय प्राप्त कर सके।

6. परामर्श का मुख्य प्रयोजन इस तरह व्यक्ति को अपने आप अपने समायोजित होने के प्रयत्नों में लगाना है न कि उसके आगे 'पकी पकाई खीर' की तरह मन चाही चीजें पेश करके उसे अपने ऊपर निर्भर बनाना। धीरे-धीरे अपने निर्णय स्वयं लेने तथा अपनी राह स्वंय चुनने में उसे समर्थ बना कर पूरी तरह आत्म निर्भर बनाने की ही बात परामर्श सेवाओं में परामर्शदाताओं द्वारा सोची जाती है।

7. परामर्श की प्रक्रिया द्वारा परामर्श लेने वाले व्यक्ति की अभिवृत्तियों, रुचियों, तथा व्यवहार में इस प्रकार के अनुकूल परिवर्तन लाने के उपाय किये जाते हैं कि व्यक्ति अपनी स्वयं की शक्तियों का उचित विकास कर अपनी समस्याओं का हल स्वयं ढूंढ सके, अपना रास्ता स्वयं चुन सके तथा इस पर मजबूती से चलकर अपना तथा समाज का कल्याण कर सके। अंतः सारांश रूप में परामर्श को एक ऐसी रचनात्मक एवं निर्माणात्मक प्रक्रिया के रूप में जाना जा सकता है, जिसमें परामर्शदाता, परामर्श लेने वाले से मधुर एवं विश्वसनीय सम्बन्ध स्थापित करके उसकी अभिवृत्तियों एवं व्यवहार में इस प्रकार के वांछनीय परिवर्तन लाने के प्रयत्न करता है ताकि वह अपनी समस्याओं के निराकारण, तथा अपनी प्रगति की उचित यह चुनने तथा उस पर मजबूत इरादों से चलने में अपने आपको आत्मनिर्भर बना सके।

मार्गदर्शन एवं परामर्श में सम्बन्ध (Relationship between guidance and counselling)

मार्गदर्शन और परामर्श दोनों एक ही बड़े प्रयोजन की सिद्धि करते हैं और वह है मार्गदर्शन या परामर्श के इच्छुक व्यक्ति का इस प्रकार सहायता करना जिसके द्वारा उसका तथा समाज का अधिक से अधिक अच्छी तरह हित चिन्तन हो सके। दोनों ही यह नहीं चाहते कि व्यक्ति की सहायता इस प्रकार की जाए कि वह सहायता देने वाले के ऊपर निर्भर बना रहे। बल्कि उसके सामने ऐसे तर्क युक्त विचार, दृष्टिकोण तथा सही विकल्प आदि रखना चाहते हैं जिनका मंथन कर वह अपनी शक्ति तथा योग्यताओं के अनुरूप अपना रास्ता स्त्रयं खोज सके, अपनी समस्यायें स्वयं सुलझा सके तथा अपनी वृद्धि और विकास की ऊंचाइयों पर स्वयं चढ़ सके। प्रश्न उठता है कि फिर इन दो अलग-अलग पदों (Terms) मार्गदर्शन तथा परामर्श के प्रयोग में लाने की क्या आवश्यकता है। अगर ये पर्यायवाची हैं तो किसी एक का ही प्रयोग करना ठीक रहता। उत्तर यही होगा कि ये पर्यायवाची नहीं है, एक जैसे उद्देश्यों की पूर्ति करते हुये भी इनकी प्रक्रिया तथा आधार प्रणाली में अन्तर है।

मार्गदर्शन से कुछ ऐसा आभास होता है कि कोई किसी व्यक्ति को जो मार्ग भटक गया है, या संशय और परेशानी में पड़ गया है उसे सही मार्ग दिखाने तथा उपयुक्त सूचना या ज्ञान प्रदान करने का कार्य कर रहा है। इससे उस व्यक्ति को अपनी व्यक्तिगत (Personal) व्यावसायिक (Vocational) तथा शैक्षिक (Educational) समस्याओं के समाधान के लिए उचित सहायता मिल जाती है। यह उंगुली पकड़कर रास्ता दिखाने वाली बात नहीं वरन् उसे रास्ते की ओर मात्र इशारा भर करना है। जिस पर चलकर कोई अपनी मंजिल तक पहुँच सकता है। इस प्रकार का मार्गदर्शन किसी को भी व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से दिया जा सकता है। विद्यालयों में इसके लिये मार्गदर्शन सेवाओं (Guidance Services) का आयोजन किया जा सकता है जहाँ विद्यार्थियों को विभिन्न प्रकार की सूचनाएं तथा उनकी समस्याओं के समाधान के लिये उपयुक्त मार्गदर्शन प्रदान किया जा सकता है। इस प्रकार की सहायता प्रदान करने में मार्गदर्शक और मार्गदर्शन प्राप्त करने वालों के बीच में मधुर सम्बन्ध, घनिष्टता तथा तादात्मीयकरण (Rapport) आवश्यक नहीं है। उनके बीच गोपनीयता, आपसी विश्वास तथा निष्ठा आदि बंधनों का होना भी जरूरी नहीं है। परामर्श, मार्गदर्शन की तुलना में कई अधिक बातों की अपेक्षा करता है।

(i) एक तो यह कि यह पूर्णतया वैयक्तिक (Individual) स्तर पर ही सम्पन्न हो सकता है, सामूहिक तौर पर नहीं। परामर्श लेने वाला जब तक खुलकर अपनी समस्या को सामने नहीं रखेगा तो उसे उपयुक्त सलाह या मशविरा दिया ही कैसे जा सकता है? किसी के सामने कोई तभी खुलेगा जब कि वह उसे विश्वसनीय तथा अपनी समस्या के समाधान के योग्य समझेगा। अतः इसमें दोनों के बीच अपेक्षित. निकटता तथा आपसी विश्वास का होना जरूरी ही है। दूसरे जो कुछ उनके बीच चल रहा है उन बातों का गोपनीय रहना भी जरूरी है।

(ii) परामर्श में परामर्शदाता तथा परामर्श लेने वाले, दोनों का आमने-सामना होना (Face to face relationship) जरूरी है। जब तक प्रत्यक्ष संपर्क की इस कड़ी में निरन्तरता नहीं बनी रहेगी तब तक परामर्श से वांछित लाभ प्राप्त नहीं हो सकेगा।

(iii) परामर्श प्रदान करने वाले (Counsellor) को मार्गदर्शन प्रदान करने वाले (Guidance workers) से अधिक कुशल, निष्ठावान तथा परामर्श देने की कला में प्रशिक्षित होना आवश्यक है। उसे मानवीय सम्बन्धों की अधिक जानकारी आवश्यक है ताकि वह परामर्श लेने वाले को मनोवैज्ञानिक ढंग से अच्छी तरह समझ कर उसकी उचित सहायता इस प्रकार कर सके कि किसी अवस्था में भी परामर्श लेने वाला उस पर बोझ न बने बल्कि उसकी शक्ति तथा योग्यताओं का इस तरह विकास हो कि वह अपने आप निर्णय लेने तथा अपनी प्रगति की राह चुनकर आगे बढ़ने में समर्थ हो सके। इस तरह बारीकी से छानबीन करने पर मार्गदर्शन तथा परामर्श में कुछ अंतर देखने को मिल जाते हैं परन्तु जहाँ तक व्यावहारिकता की बात है इन दोनों में कोई विशेष भेद कर, नहीं चला जाता। मार्गदर्शन को जब सीमित अर्थों में न लेकर विस्तृत अर्थ में लिया जाता है तो उसकी प्रक्रिया और क्षेत्र में परामर्श सेवाओं का भी समावेश हो जाता है। इसी तरह परामर्श देने में भी परामर्शदाता को निर्देशन (Direction), मार्गदर्शन (Guidance), तथा सलाह देना (Advising) आदि सभी प्रक्रियाओं की आवश्यकतानुसार सहायता लेनी ही पड़ती है। परामर्श प्रक्रिया में बस एक विशेष बात परामर्शदाता तथा परामर्श लेने वाले के बीच अधिक आत्मीयता, आपसी विश्वास, गोपनीयता तथा आपसी समझ को लेकर है जो किसी और सहायता प्रक्रिया में नहीं दिखाई देती। 'जहाँ तक इन दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध की बात है, तो इन्हें एक दूसरे का पूरक माना जाना चाहिए। कहीं शुरूआत परामर्श से होती हैं और उसका विस्तार मार्गदर्शन में होता है या मार्गदर्शन की प्रक्रिया को सहायक के रूप में प्रयुक्त किया जाता है, तो कहीं मार्गदर्शन से शुरूआत करके उसका अन्त वांछित परामर्श सेवाओं में होता है। विद्यालयों में सामान्य रूप से शुरूआत सामूहिक मार्गदर्शन (Group Guidance) द्वारा की जाती है। सामान्य जानकारी देने, स्रोतों से परिचित कराने, निवारण तथा उपचार सम्बन्धी शिक्षा देने, व्यावसायिक तथा शैक्षिक मार्गदर्शन प्रदान करने आदि जैसे कार्य सामूहिक या व्यक्तिगत मार्गदर्शन द्वारा किए जा सकते हैं। इसके पश्चात् जैसे-जैसे बालकों की विभिन्न समस्याएं ऐसी हों जिनमें बिना व्यक्तिगत संपर्क तथा व्यक्तिगत अध्ययन के पार पाना सम्भव न हो तो फिर परामर्श सेवाओं की सहायता ली जाती है। बालकों से किसी प्रकार की कोई ग़लती, चयन, शिक्षा प्रणाली, तथा व्यवहारगत बातों को लेकर हो गई है या वे किसी भी तरह कुसमायोजित हो कर व्यवहार समस्याओं से घिर गये हों तो ऐसे हालात में अपेक्षित सुधार तथा उपचार हेतु परामर्श सेवाएं ही अधिक उपयोगी सिद्ध होती है। अतः, मार्गदर्शन तथा परामर्श सेवाओं को विद्यार्थियों के हित संपादन की दृष्टि से एक दूसरे के पूरक तथा मित्रों की भाँति हो प्रयोग में लाने के प्रयत्न होते रहने चाहिएं।

मार्गदर्शन के क्षेत्र (Spheres of Guldance)

मार्गदर्शन किसे दिया जाएं तथा किन-किन क्षेत्रों में दिया जाएं ? यह एक विचारणीय प्रश्न हो सकता है। मार्गदर्शन सभी को (आयु, जाति, लिंग, शिक्षा तथा आर्थिक स्तर आदि किसी रूप में भेद भाव किये बिना) व्यक्तिगत तथा सामूहिक दोनों रूपों में दिया जा सकता है। सभी की जरूरतों और समस्याओं के भी विभिन्न रूप होते हैं । अतः इसके क्षेत्र को विशेष सीमा रेखाओं में बाँधना भी मुश्किल है। परन्तु आपका और हमारा विशेष सम्बन्ध एक शिक्षार्थी तथा मनोविज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते मार्गदर्शन की उस परिधि तक ही सीमित रहना है जिसमें विद्यालयों में विद्यार्थियों के कल्याण हेतु मार्गदर्शन सेवाओं की व्यवस्था की जाती है। इस सम्बन्ध में शिक्षा एवं व्यावसायिक मार्गदर्शन ब्यूरो (Bureau of Education and Vocational Guidance) ने विद्यालयों में प्रदत्त मार्गदर्शन के कार्य को तीन विभिन्न क्षेत्रों में बाँधने का सुझाव दिया है।

(i) शैक्षणिक मार्ग दर्शन

(ii) व्यावसायिक मार्ग दर्शन तथा

(iii) व्यक्तिगत मार्गदर्शन |

शैक्षिक या शिक्षा सम्बन्धी मार्गदर्शन (Educational Guidance)

शिक्षा सम्बन्धी मार्गदशन क्या है ? (What is Educational Guidance ?)

शिक्षा-सम्बन्धी, मार्गदर्शन की कुछ परिभाषाएं निम्नलिखित हैं

1. जोन्स (Jones)- "विद्यार्थियों को स्कूल, पाठ्यक्रम, कोर्स आदि चुनने तथा स्कूली जीवन में समायोजित होने में दी जाने वाली सहायता शिक्षा सम्बन्धी मार्गदर्शन कहलाती है। ("Educational Guidance is concerned with assistance given to pupils in their choices and adjustment with relation to schools, curriculum, course and school life. " Janes)

इन परिभाषाओं से शैक्षिक मार्गदर्शन के सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्य स्पष्ट होते हैं (i) यह मार्गदर्शन केवल विद्यार्थी समुदाय को प्रदान किया जाता है।

(ii) यह विद्यार्थियों को विभिन्न शिक्षा कार्यक्रमों तथा स्थितियों में से ठीक प्रकार का बुद्धिमत्तापूर्ण चुनाव करने में सहायता प्रदान करता है। कई ऐसी स्थितियां होती हैं जिनके सम्बन्ध में उचित निर्णय लेने में विद्यार्थियों को कठिनाई अनुभव होती है। किस प्रकार के स्कूल या कॉलेज में दाखिला लिया जाए ? किन विषयों या किस अध्ययन कोर्स को चुना जाए ? आदि। इस प्रकार शिक्षा सम्बन्धी मार्गदर्शन विद्यार्थियों को विभिन्न क्षेत्रों के सम्बन्ध में अपनी योग्यताओं के अनुसार निर्णय लेने में सहायता प्रदान करता है।

(iii) शैक्षिक मार्गदर्शन केवल शिक्षा सम्बन्धी निर्णय लेने में ही विद्यार्थियों की सहायता नहीं करता बल्कि उन्हें अपनी योग्यताओं के अनुसार शिक्षा के क्षेत्र में अधिक से अधिक प्रगति करने में भी सहायता प्रदान करता है।

(iv) शैक्षिक मार्गदर्शन का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थियों को शिक्षा क्षेत्र में समायोजन सम्बन्धी सहायता प्रदान करना है। शैक्षणिक वातावरण में विद्यार्थियों को कई प्रकार की नई स्थितियों तथा समस्याओं का सामना करना पड़ता है जिनके लिए विशिष्ट प्रकार के समायोजन की आवश्यकता होती है। पब्लिक स्कूल में पढ़े हुए व्यक्ति के लिए साधारण स्कूल में अपने आपको समायोजित करना कठिन हो जाता है। इस प्रकार कालेज में दाखिल हुए नये विद्यार्थी के लिए 'व्याख्यान विधि' के अनुकूल अपने आपको ढालने तथा तेजी से नोट्स लेने में कठिनाई हो सकती है। इसी प्रकार की विभिन्न स्थितियों में विद्यार्थियों को मार्गदर्शन सेवा द्वारा सक्रिय सहायता की आवश्यकता पड़ती है।

शैक्षणिक मार्गदर्शन की प्रकृति तथा उसके अर्थ के उपर्युक्त विवेचन से अब उसकी परिभाषा करना आसान है। हम कह सकते हैं-शैक्षणिक मार्गदर्शन विद्यार्थियों को उनके शिक्षात्मक विकास तथा समायोजन में सहायता प्रदान करने की प्रक्रिया है।

(Educational Guidance is a process of rendering help to the students in their proper educational development and adjustment.)

शैक्षणिक मार्गदर्शन की आवश्यकता (Nood of Educational Guidance)—विद्यार्थियों का मार्गदर्शन क्यों करना चाहिए ? इस प्रश्न का उत्तर उपर्युक्त विवेचन के आधार पर दिया जा सकता है, परन्तु फिर भी अधिक स्पष्टीकरण के लिए शैक्षणिक मार्गदर्शन की आवश्यकता के निम्नलिखित कारण हैं

1. शिक्षा में अपव्यय तथा अवरोध को रोकने की आवश्यकता (Need of Checking the wastage and stagnation in education ) - हम देखते हैं कि शिक्षा में बहुत अपव्यय तथा अवरोधन होता है। बहुत से विद्यार्थी कई-कई बार फेल हो कर कई वर्ष तक एक कक्षा में रहते हैं। उन्हें किसी ज्ञान या कौशल को प्राप्त करने में कठिनाई होती है। इससे मानवीय तथा राष्ट्रीय साधनों का अपव्यय होता है। शैक्षणिक मार्गदर्शन के उचित कार्यक्रम से इस व्यापक अपव्यय को रोका जा सकता है।

2. शिक्षा के उद्देश्य एवं लक्ष्य प्राप्ति की आवश्यकता (Need of realizing aims and objectives of Education)- शिक्षा केवल कुछ विषयों के शिक्षण तक सीमित नहीं। इसका आधार बहुत व्यापक है। शैक्षणिक मार्गदर्शन के सुगठित कार्यक्रम द्वारा ही व्यक्ति की समस्त योग्यताओं तथा शक्तियों का सन्तुलित एवं प्रगतिशील विकास सम्भव हो सकता है।

3. शिक्षा-सम्बन्धी ठीक चुनाव की आवश्यकता (The need of making right educational choices)- शिक्षा सम्बन्धी ठीक चुनावों के लिए शिक्षा सम्बन्धी मार्गदर्शन अत्यन्त आवश्यक है। शिक्षा के क्षेत्र में आजकल विभिन्न कोर्सों की व्यवस्था है और विद्यार्थियों को उनमें उपयोगी कोर्स या क्रियाओं के चुनाव में कठिनाई होती है। किसी क्रिया या कोर्स के गलत चुनाव से उनका भविष्य तबाह हो सकता है। अतः विद्यार्थियों को शैक्षणिक मार्गदर्शन द्वारा अध्ययन-कोसों, पाठ्य सहगामी क्रियाओं, सीखने की विधियों, पुस्तकों आदि के चुनाव में सहायता प्रदान की जानी चाहिए।

4. उचित शैक्षणिक समायोजन की आवश्यकता (The need of proper Educational [adjustment)- बच्चों के शिक्षा सम्बन्धी विकास के लिए उनका शिक्षा सम्बन्धी वातावरण में समायोजित होना अत्यन्त आवश्यक है। बच्चा जब घर से स्कूल के औपचारिक वातावरण में प्रवेश करता है तो उसे कई नवीन तथा विचित्र अनुभव प्राप्त होते हैं। उसे अपने आपको नवीन वातावरण में ढालने की आवश्यकता होती है। उसे शिक्षण प्रक्रिया में लिखना, पढ़ना, बोलना तथा कई प्रकार की विभिन्न क्रियाओं में भाग लेना पड़ता है। उसे नियमित रूप से समय की पाबन्दी के साथ काम करना पड़ता है। उसे वांछित परीक्षाओं तथा उनके मूल्यांकन के लिए तैयार रहना पड़ता है। इस प्रकार बच्चे को समायोजन सम्बन्धी कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। अतः उसे उचित मार्गदर्शन की आवश्यकता है।

विद्यार्थियों को उचित शैक्षणिक मार्गदर्शन कैसे प्रदान किया जाए ? (How to impart Educational Guidance to Pupils ? )

शैक्षणिक मार्गदर्शन की प्रक्रिया में सामान्य मार्गदर्शन के समान, तीन महत्त्वपूर्ण अवस्थाएं होती हैं

(a) सूचना या प्रदत्त, एकत्रित करना (Collecting information or data) (b) उसी सूचना के आधार पर मार्गदर्शन प्रदान करना (Rendering guidance)

(c) अनुसरणात्मक कार्यक्रम (Follow-up programme)

(a) सूचना या प्रदत्त एकत्रित करना (Collecting information or data)— पहली अवस्था में विद्यार्थी के सम्बन्ध में सम्पूर्ण सूचना या प्रदत्त एकत्रित करने की आवश्यकता होती है। इस उद्देश्य के लिए निम्न प्रकार की सूचनाएं एकत्रित करनी चाहिएं

1. उसके स्वास्थ्य एवं शरीर रचना के सम्बन्ध में।

2. उसकी बुद्धि तथा अन्य ज्ञानात्मक योग्यताओं के सम्बन्ध में।

3. उसकी शैक्षणिक उपलब्धियों के सम्बन्ध में।

4. उसकी रुचियां तथा व्यक्तित्व सम्बन्धी अन्य विशेषताएं।

5. पारिवारिक इतिहास एवं पृष्ठभूमि

6. उसके सामाजिक एवं भावात्मक विकास के सम्बन्ध में।

7. उसके पिछले स्कूल की विस्तृत जानकारी।

8. उसकी संगति तथा मित्रताओं के सम्बन्ध में

इन सूचनाओं को एकत्रित करने के लिए विभिन्न साधनों जैसे व्यक्तित्व परीक्षा, उपलब्धि परीक्षा, बुद्धि परीक्षा, अभिरुचि परीक्षा, साक्षात्कार, प्रश्नावली, निरीक्षण आदि का प्रयोग किया जा सकता है। मार्गदर्शक के लिए केवल उपर्युक्त सूचनाएं प्राप्त करना ही पर्याप्त नहीं, बल्कि उसे शिक्षा सम्बन्धी निम्नलिखित सूचनाओं को भी प्राप्त करना होगा

(i) स्कूल में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम एवं विषय ।

(ii) स्कूल में प्रचलित पाठ्य सहगामी क्रियाएं।

(iii) भावी अध्ययन कोर्सों तथा व्यवसायों की सूचना ।

(iv) विशिष्ट संस्थाओं में दाखिले तथा व्यवसायों की सूचना

(v) योग्य विद्यार्थियों को मिलने वाली छात्रवृत्तियों, निःशुल्क शिक्षा तथा अन्य आर्थिक अनुदान सम्बन्धी सूचना ।

(vi) सीखने की विभिन्न विधियां तथा शैलियों से सम्बन्धित सूचना

(vii) विद्यार्थियों को शिक्षा सम्बन्धी समस्याओं के समाधान में सहायता प्रदान करने के लिए आवश्यक साधनों से युक्त होना ।

(b) मार्गदर्शन प्रदान करना (Rendering guidance ) — दूसरी अवस्था वास्तविक रूप से मार्गदर्शन प्रदान करने की हैं। यह अपेक्षाकृत कठिन काम है। इसके लिए एकत्रित सूचना का अच्छी प्रकार से विश्लेषण करने की आवश्यकता होती है। इसी के आधार पर ही उसके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में कुछ निष्कर्ष निकाले जाते हैं। फिर इन्हीं निष्कर्षो के आधार पर ही मार्गदर्शन की प्रकृति का निर्णय किया जाता है, अर्थात् उसे वह कोर्स या सीखने की विधि अपनाने को कहा जाता है जो उसके व्यक्तित्व तथा उसके विशिष्ट वातावरण के अनुकूल होती है।

(c) अनुसरणात्मक कार्यक्रम (Follow up programme ) - मार्गदर्शन प्रदान करने से ही मार्गदर्शन का काम समाप्त नहीं हो जाता, बल्कि उसे कुछ अनुसरणात्मक कार्यक्रम अपनाने के भी प्रयास करने पड़ते हैं। इस कार्यक्रम के अधीन मार्गदर्शन के फलस्वरूप बच्चे द्वारा की गई। प्रगति का मूल्यांकन किया जाता है। उसी के आधार पर आवश्यकता के अनुसार बच्चे को और अधिक मार्गदर्शन प्रदान करने या पिछले मार्गदर्शन में संशोधन करने का प्रवास किया जाता है। मार्गदर्शन की सफलता इसी में है कि बच्चा अपनी विकासात्मक तथा समायोजन सम्बन्धी समस्याओं को हल कर सके।

व्यावसायिक मार्गदर्शन (Vocational Guidance)

व्यावसायिक मार्गदर्शन क्या है ? (What is Vocational Guidance ?)

व्यावसायिक मार्गदर्शन का अर्थ समझने के लिए व्यावसायिक मार्गदर्शन सम्बन्धी कुछ परिभाषाओं को जानना जरूरी है

1. राष्ट्रीय व्यावसायिक मार्गदर्शन ऐसोसिएशन (यू. एस. ए.) (National Vocational Guidance Association) (US. A. ) - " सन् 1937 में इस संस्था ने व्यावसायिक मार्गदर्शन की यह परिभाषा स्वीकार की, "किसी व्यक्ति को व्यवसाय चुनने, उसके लिए तैयार करने, उसमें प्रवेश करने तथा प्रगति करने में सहायता प्रदान करने की प्रक्रिया व्यावसायिक मार्गदर्शन है।" ("Vocational guidance is the process of assisting the individual to choose an occupation, prepare for it, enter upon and progress in it."-Myro)

2. अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन समिति (Committee of the International Labour Organisation)— इस संस्था द्वारा सन् 1954 में स्वीकृत परिभाषा के अनुसार, "व्यावसायिक मार्गदर्शन एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को उसकी विशिष्टताओं तथा विशेष योग्यताओं के अनुसार अपने व्यवसाय सम्बन्धी चुनाव तथा प्रगति की समस्याओं के समाधान में सहायता प्रदान करना है।" ("Vocational Guidance is the assistance rendered by an individual to another in the latter's solving of problems related to his progress and vocational selection,keeping in mind the individual's peculiarities or special abilities and their relation with his occupational opportunity.")

3. मेयर्स (Myers ) — "बुनियादी तौर पर व्यावसायिक मार्गदर्शन नवयुवकों की अमूल्य मौलिक योग्यताओं तथा स्कूलों में दिए जाने वाले प्रशिक्षण के संरक्षण का प्रयास है। मानवीय साधनों की इन संवृद्धियों के संरक्षण के लिए यह व्यक्ति को इन्हें इस प्रकार प्रयोग करने में सहायता प्रदान करता है। जिससे उसे अत्यधिक संतुष्टि तथा सफलता प्राप्त हो और समाज को भी अत्यधिक लाभ पहुंचे।" ("Vocational Guidance is fundamentally an effort to conserve the priceless native capacities of youth and the costly training provided for youth in school It seeks to conserve richest of all human resources by aiding the individual to invest and use them where they will bring greatest satisfaction and success to himself and greatest benefit to society.")

4. सुपर (Super) — "व्यावसायिक निर्देश व्यक्ति को सहायता प्रदान करने की वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा वह अपनी योग्यता और शक्तियों की जानकारी लेकर अपने बारे में तथा काम करने की दुनिया में, अपने स्थान के बारे में, स्पष्ट धारणा बना सकता है। इस धारणा को वास्तविक धरातल पर परख सकता है और उसे वास्तविकता में इस प्रकार बदल सकता है कि इससे अपनी संतुष्टि होने के साथ-साथ समाज का कल्याण भी हो सके।" ("Vocational guidance is a process of helping the person to develop and accept an integrated and adequate picture of himself and of his role in the world of work, to test this concept against reality and and to convert it into reality with satisfaction to himself and benefit to society.")

इस प्रकार व्यावसायिक मार्गदर्शन व्यक्ति की व्यावसायिक आवश्यकताओं तथा समस्याओं के साथ सम्बन्धित है। मनोवैज्ञानिक तथा शैक्षणिक दृष्टिकोण से हम इसकी परिभाषा इस प्रकार कर सकते हैं- व्यावसायिक मार्गदर्शन विद्यार्थी को सहायता प्रदान की जाने वाली ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा वह अपने आस-पास के व्यवसायों की सूचना प्राप्त करता है, अपने भावी व्यवसाय का उचित चुनाव करके उसके लिए पर्याप्त प्रशिक्षण प्राप्त करता है, उस व्यवसाय में प्रवेश करता है और उस में अधिकतम सफलता एवं सन्तुष्टि प्राप्त करता है। ("Vocational guidance is a process of helping a student to get adequate information regarding the world of work around him, make a proper choice for his future vocation, get adequate training or preparation for it, get entry into it, and achieve maximum success and satisfaction in it.")

व्यावसयिक मार्गदर्शन की प्रकृति तथा उसके उद्देश्य (The Nature and Purposes of Vocational Guidance)— व्यावसायिक मार्गदर्शन की परिभाषाओं तथा उसके अर्थ से हम उसके उद्देश्यों के सम्बन्ध में निम्नलिखित निष्कर्ष निकाल सकते हैं

1. व्यावसायिक मार्गदर्शन एक प्रकार की सहायता है जो किसी व्यक्ति को सुयोग्य व्यक्ति द्वारा दी जाती है।

2. व्यावसायिक मार्गदर्शन से व्यक्ति व्यावसायिक संसार की सूचना प्राप्त करता है।

3. मार्गदर्शन व्यक्ति को अपनी योग्यताओं तथा शक्तियों को पहचानने में सहायता देता है ताकि वह अपने सम्बन्ध में ठीक धारणा बना सके और व्यावसायिक संसार में अपनी भूमिका को पहचान सके।

4. यह व्यक्ति को अपने व्यवसाय के सम्बन्ध में उचित निर्णय लेने में सहायता देता है।

5. यह उसे वांछित व्यवसाय में प्रवेश करने की तैयारी में सहायता प्रदान करता है।

6. इसके पश्चात् व्यावसायिक मार्गदर्शन व्यक्ति को वांछित व्यवसाय में लगने में सहायता करता है। उसे उस व्यवसाय सम्बन्धी अवसरों का लाभ उठाने, ठीक प्रकार से कार्य करने की विधियों से परिचित कराता है। इस प्रकार वह अपनी व्यवसाय सम्बन्धी चिर-संचित आकांक्षाओं को पूरा करने का अवसर प्राप्त कर सकता है।

7. वांछित व्यवसाय में प्रवेश करने के पश्चात् व्यावसायिक मार्गदर्शन उसे व्यावसायिक समायोजन में सहायता प्रदान करता है। उसे अपने व्यवसाय में संतोषजनक प्रगति करने में सहायता दी जाती है जिससे उसे भी सन्तुष्टि मिलती है और राष्ट्र को लाभ होता है।

8. व्यावसायिक मार्गदर्शन का लक्ष्य व्यक्तियों को तथा राष्ट्र को आर्थिक संवृद्धि प्रदान करता है।

9. राष्ट्र के सभी प्राप्त प्राकृतिक साधनों का पूरी तरह उपयोग करना इसका उद्देश्य है। इस उद्देश्य के लिए वह व्यक्ति को ऐसे तमाम साधनों का परिचय प्राप्त करने में सहायता प्रदान करता है।

10. यह समय, धन तथा श्रम के उस अपव्यय को रोकता है जो अयोग्य व्यक्तियों को अनुपयुक्त व्यवसायों के प्रशिक्षण से होता है। इस प्रकार यह ठीक व्यक्ति को ठीक स्थान प्राप्त करने में सहायता प्रदान करके मानवीय तथा राष्ट्रीय साधनों का संरक्षण करता है।

विद्यार्थियों को व्यावसायिक मार्गदर्शन की आवश्यकता (Need of Vocational Guidance to students)— वैसे तो व्यावसायिक मार्गदर्शन के उद्देश्य तथा उसकी प्रकृति से ही उसकी आवश्यकता स्पष्ट हो जाती है। परन्तु फिर भी अधिक स्पष्टीकरण के लिए इसकी आवश्यकता के विषय में निम्न कुछ कहा जा सकता है।

1. आजकल व्यवसाय पीढ़ी दर पीढ़ी नहीं चलते। फिर वैज्ञानिक एवं तकनीकी ज्ञान द्वारा जीवन में नए व्यवसाय पैदा हो चुके हैं जिन्हें नवयुवकों तथा नवयुवकों द्वारा अपनाया जाना बहुत जरूरी है। अतः, इन तमाम व्यवसायों तथा उनसे सम्बन्धित अवसरों की जानकारी प्रदान करने के लिए व्यावसायिक मार्गदर्शन अत्यन्त आवश्यक है।

2. यह देखकर बड़ी हैरानी होती है कि बहुत से इन्जीनियर तथा पोस्टग्रेज्यूएट बेकार हैं। देश की बेकारी की समस्या के लिए हम राष्ट्रीय योजनाओं या प्रान्तीय सरकारों को दोष देते हैं। इसमें कुछ तो सच्चाई हो सकती है, परन्तु इसका मुख्य कारण उचित व्यावसायिक मार्गदर्शन का अभाव है। माता पिता तथा नवयुवकों का विभिन्न व्यावसायों के सम्बन्ध में ज्ञान बहुत सीमित होता है। कुछ एक व्यवसायों को सम्पन्न समझा जाता है जबकि दूसरों की उपेक्षा कर दी जाती है। परिणामस्वरूप उन व्यवसायों के लिए अनावश्यक भीड़ सी इकट्ठी हो जाती है। अतः, यह जरूरी है कि विद्यार्थियों का विभिन्न क्षेत्रों में बेकारी तथा विभिन्न व्यवसायों में उपस्थित रोजगार के अवसरों से परिचय कराया जाए ताकि भविष्य में उन्हें अनावश्यक निराशा का सामना न करना पड़े।

3. व्यावसायिक कुसमायोजन भी एक कटु समस्या है जो व्यक्ति और समाज दोनों के लिए हानिकारक है। वे व्यक्ति जिनमें डाक्टर बनने की न तो क्षमता है और न ही रुचि, डाक्टर बने हुए हैं। इसी प्रकार कई इन्जीनियर न चाहते हुए भी इन्जीनियरिंग कर रहे हैं- यह वास्तव में माता पिताओं की आकांक्षाओं का परिणाम है। कभी-कभी युवक तथा युवतियां किसी व्यवसाय को इसलिए चुन लेते हैं क्योंकि उन्हें अपनी रुचि के काम नहीं मिलता। इसका परिणाम गोल छेदों में वर्गाकार खूंटियाँ लगाने के सम्मान ही हो सकता है। अतः विद्यार्थियों को अपनी योग्यताओं, शक्तियों तथा जीवन की विशिष्ट परिस्थितियों के अनुसार व्यवसाय के चुनाव में सहायता देने के लिए व्यावसायिक मार्गदर्शन अत्यन्त आवश्यक है। हमारे स्कूलों तथा अध्यापकों को विद्यार्थियों तथा राष्ट्र के हित के लिए व्यावसायिक मार्गदर्शन सम्बन्धी सेवाओं को प्रदान करना अवश्य ही प्रारम्भ कर देना चाहिए।

विद्यार्थियों को व्यावसायिक मार्गदर्शन कैसे प्रदान किया जाए ? (How to impart Vocational Guidance to the students)

शैक्षणिक मार्गदर्शन के समान व्यावसायिक मार्गदर्शन को भी तीन अवस्थाओं में बांटा जा सकता है- (i) सूचना तथा प्रदत्त सामग्री (data) एकत्रित करना (ii) एकत्रित सूचना के आधार पर मार्गदर्शन प्रदान करना और (iii) अनुसरणात्मक कार्यक्रम। सबसे पहले बच्चे की प्रकृति, रुचियों, अभिरुचियों, योग्यताओं, विशिष्टताओं तथा उसके जीवन की परिस्थितियों के सम्बन्ध में सावधानी के साथ पूर्ण सूचना एकत्रित करनी चाहिए। इसके साथ ही मार्गदर्शक को विभिन्न व्यवसायों तथा व्यवसाय-अवसरों के सम्बन्ध में भी सूचना प्राप्त करनी चाहिए। नवीनतम प्रकाशनों तथा व्यक्तिगत सम्पर्क द्वारा वह इस प्रकार की सभी सूचनाएं प्राप्त कर सकता है। उसे रोजगार ब्यूरो तथा केन्द्रीय एवं प्रान्तीय मार्गदर्शन एवं परामर्श ब्यूरो के साथ सम्पर्क स्थापित रखना चाहिए तथा उसे रोजगार की नवीन प्रकृतियों का ज्ञान होना चाहिए। ये तमाम सूचनाएं प्राप्त करने के पश्चात् उसे मार्गदर्शन का वास्तविक कार्य आरम्भ करना चाहिए। इसके लिए वह व्यक्तिगत मार्गदर्शन और सामूहिक मार्गदर्शन (Group Guidance) दोनों विधियों का प्रयोग कर सकता है। विद्यार्थियों को भाषण द्वारा, साहित्य एवं पैम्फलेटों द्वारा या पुस्तकालयों द्वारा विभिन्न व्यवसाय तथा उनके अवसरों के सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी दी जा सकती है। उसके पश्चात् उन्हें अपनी योग्यताओं के अनुसार व्यवसाय चुनने में सहायता दी जानी चाहिए। कई बार उन्हें किसी विशिष्ट व्यवसाय की तैयारी के लिए किसी विशिष्ट कोर्स में दाखिल होने के लिए सहायता प्रदान की जाती है। रोजगार संस्थाओं के साथ सम्पर्क स्थापित करके मार्गदर्शक विद्यार्थियों को अपनी रुचि के व्यवसायों में प्रवेश करने की सहायता दे सकता है। कई बार व्यावसायिक मार्गदर्शन व्यक्ति को अपना निजी व्यवसाय स्थापित करने में भी सहायता करता है। ये सब काम व्यावसायिक मार्गदर्शन के सक्रिय कार्यक्रम से ही सम्भव हो सकते हैं। दिए हुए मार्गदर्शन की उपयोगिता एवं अनुपयोगिता जानने के लिए तथा व्यक्ति को आगे सहायता पहुंचाने के लिए दिये गये व्यावसायिक मार्गदर्शन का मूल्यांकन भी होना चाहिए। इसके लिए अनुसरणात्मक कार्यक्रम (Follow up Programme) बनाने चाहिएं। इन कार्यक्रमों से व्यक्ति को अपने व्यवसाय में और अधिक समायोजन करने में सहायता मिलती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि विद्यार्थियों को व्यावसायिक मार्गदर्शन प्रदान करने का काम बहुत व्यापक एवं कठिन है। यह केवल कैरियर मास्टरों तथा मार्गदर्शकों पर नहीं छोड़ा जा सकता। माता पिता, अध्यापकों, मुख्याध्यापकों सभी को व्यावसायिक मार्गदर्शन में अपनी-अपनी भूमिका निभानी चाहिए। स्कूलों में मार्गदर्शन सेवा उचित रूप से आयोजित की जानी चाहिए और इस सेवा से अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए सभी आवश्यक साधनों का सहयोग प्राप्त करना चाहिए। 

व्यक्तिगत मार्गदर्शन (Personal Guldance)

व्यक्तिगत मार्गदर्शन का अर्थ और प्रकृति (Nature and Meaning of Personal Guidance)

जैसा कि नाम से स्पष्ट है, व्यक्तिगत मार्गदर्शन व्यक्ति की अपनी समस्याओं के समाधान के साथ सम्बन्धित है। व्यक्तिगत समस्याओं की गिनती करना मुश्किल है। संघर्ष एवं प्रतियोगिता के इस युग में व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए निरन्तर संघर्ष करना पड़ता है। कई बार उसे अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि में कठिनाई अनुभव होती है और कई बार उसे अपने प्रति, दूसरों के प्रति तथा अपने वातावरण के प्रति समायोजित होने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार उसे अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि हेतु सहायता की काफ़ी आवश्यकता होती है। इन तमाम तथ्यों को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि व्यक्तिगत मार्गदर्शन उन तमाम समस्याओं तथा पक्षों को अपनी कार्य परिधि में ले लेता है जिनका सम्बन्ध व्यक्ति के विकास तथा समायोजन के साथ है। क्रो तथा क्रो (Crow and Crow) के कथानुसार, "व्यक्तिगत मागर्दशन वह सहायता है जो व्यक्ति के जीवन के सभी क्षेत्रों से सम्बन्धित एवं व्यवहार के विकास में बेहतर समायोजन के लिए प्रदान की जाती है।" ("Personal guidance refers to help given to an individual towards a better adjustment in the development of attitudes and behaviour in all areas of life.) अतः व्यापक रूप से व्यक्तिगत मार्गदर्शन में वे सभी मार्गदर्शन सम्मिलित हैं जो व्यक्ति को प्रदान किए जाते हैं। हम पहले कह चुके हैं कि व्यक्तिगत मार्गदर्शन, सम्पूर्ण मार्गदर्शन कार्यक्रम के तीन भागों में से एक भाग है। अन्य दो शैक्षणिक मार्गदर्शन तथा व्यावसायिक मार्गदर्शन हैं। वास्तव में देखा जाये तो ये दोनों भी व्यक्तिगत समस्याओं के साथ ही सम्बन्धित हैं। इस आधार पर व्यक्तिगत मार्गदर्शन के अन्दर उन दोनों प्रकार के मार्गदर्शन को भी शामिल किया जा सकता है। परन्तु शिक्षात्मक मार्गदर्शन या व्यावसायिक मार्गदर्शन से इसका भेद स्पष्ट करने के लिए या तो इसे अपने सम्बन्धित अर्थ में प्रयोग में लाना चाहिए अथवा इसे किसी एक विशिष्ट परिधि में बांधते हुए इसे कोई उचित संज्ञा भी देनी चाहिए जैसे मनोवैज्ञानिक मार्गदर्शन या भावात्मक एवं सामाजिक समायोजन सम्बन्धी मार्गदर्शन द्वारा सम्बोधित किया जाना चाहिए। इस रूप में यह मनुष्य की भावात्मक एवं सामाजिक आवश्यकताओं के साथ सम्बन्धित रहेगा और व्यक्ति को भावात्मक एवं सामाजिक समायोजन में सहायता प्रदान करेगा। यह विद्यार्थियों की मानसिक उलझनों एवं चिन्ताओं को दूर करने में महत्त्वपूर्ण सहायता प्रदान कर सकता है और उनमें भावात्मक स्थिरता को उत्पन्न करने में सहायक सिद्ध हो सकता है। इसी की सहायता से सामाजिक रूप से वांछित व्यक्तियों का निर्माण किया जा सकता है। प्रतिभा सम्पन्न बच्चों के विकास में यह सहायता प्रदान कर सकता है तथा असामान्य एवं कुसमायोजित विद्यार्थियों के उपचार के लिए भी यह उपयोगी सिद्ध हो सकता है।

व्यक्तिगत या मनोवैज्ञानिक मार्गदर्शन कैसे किया जाए ? (How to Render Personal or Psychological Guidance ?)

व्यक्तिगत मार्गदर्शन कार्यक्रम में निम्नलिखित कदम उठाए जाने चाहिएं

1. सूचना या आंकड़े एकत्रित करना (Collection of information or data) — सब से पहले उस व्यक्ति के सम्बन्ध में आवश्यक सूचनायें एकत्रित करनी चाहिएं जो मनोवैज्ञानिक मार्गदर्शन चाहता है। यह सूचना उसके शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक एवं भावात्मक विकास के सम्बन्ध में, उसकी शैक्षणिक उपलब्धियों, उसकी परिस्थितियों तथा उसकी रुचियों, अभिरुचियों तथा उसके व्यक्तित्व की अन्य विशेषताओं के सम्बन्ध में हो सकती है। अतः व्यक्ति की समस्याओं के समाधान के लिए उसकी मानसिक स्थिति तथा उसकी पृष्ठभूमि की पूरी जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए।

2. समस्याओं के कारणों का निदान (Diagnosis of the causes of the problems)- एकत्रित प्रदत सामग्री के आधार पर व्यक्ति की समस्याओं का विश्लेषण किया जाना चाहिए। व्यक्ति या उसके वातावरण से सम्बन्धित कारणों को ढूंढा जाना चाहिए। ठीक निदान के लिए व्यक्ति का इन्टरव्यू लिया जाना चाहिए या अन्य कई विधियों को अपनाना चाहिए और यदि आवश्यकता पड़े तो काम के बारे में और अधिक सूचना प्राप्त करनी चाहिए।

3. उपचार सम्बन्धी उपाय सोचना (Thinking about the remedial measures) - सम्भव कारणों की खोज कर लेने पर उपचार सम्बन्धी उपायों पर विचार करना चाहिए। मार्गदर्शक को अब सोचना चाहिए कि व्यक्ति को उसकी समस्याओं से छुटकारा दिलाने के लिए किस तरह का मार्गदर्शन प्रदान किया जाए।

4. व्यक्तिगत मार्गदर्शन प्रदान करना (Rendering personal guidance ) — सम्बन्धित व्यक्ति के साथ उचित सम्पर्क स्थापित करके मार्गदर्शक को उसे अपनी समस्याओं के कारणों का अनुभव कराना चाहिए। उसे अपने व्यवहार या दृष्टिकोण में किये जाने वाले परिवर्तन की आवश्यकता भी अनुभव करानी चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कई विधियां अपनाई जा सकती हैं जैसे सुझाव, अनुकरण, सहानुभूतिपूर्ण स्नेहात्मक परामर्श, उदात्तीकरण, मनोविश्लेषण आदि। इस मार्गदर्शन का एकमात्र उद्देश्य यही है कि व्यक्ति को उसके व्यवहार में परिवर्तन या उसके वातावरण में परिवर्तन करा के उसकी समस्याओं से छुटकारा दिलाया जाये।

5. अनुसरणात्मक सेवा (Follow-up Service ) — किसी व्यक्ति को व्यक्तिगत मार्गदर्शन प्रदान करने के पश्चात् व्यक्तिगत इन्टरव्यू, व्यक्तिगत सम्पर्क या किसी अन्य उचित विधि से उस मार्गदर्शन की प्रगति या उसके परिणाम का मूल्यांकन अवश्य करना चाहिए। इसी अनुसरणात्मक कार्यक्रम से ही प्रदत्त मार्गदर्शन की शक्ति या कमजोरी का पता चलता है। इसीसे ही और अधिक मार्गदर्शन प्रदान करने या पिछले मार्गदर्शन में तबदीली करने की आवश्यकता का ज्ञान होता है। व्यक्तिगत मार्गदर्शन के लिए केवल विशिष्ट मार्गदर्शक की नियुक्ति हो पर्याप्त नहीं बल्कि मुख्याध्यापक तथा अध्यापकों को भी इसका परिचय प्राप्त होना चाहिए। अध्यापक विद्यार्थियों के साथ निकटतम सम्बन्ध स्थापित करके उनकी कठिनाइयों के वास्तविक कारण को समझ सकते हैं। अतः, इस दिशा में विद्यालयों को पूर्ण रूप से अपनी अपनी भूमिका निभानी चाहिए। प्रत्येक विद्यालय में मुख्याध्यापक को अपने कर्मचारियों, माता-पिताओं तथा राजकीय मार्गदर्शन सेवाओं के सहयोग से व्यक्तिगत मार्गदर्शन कार्यक्रम आयोजित करने के प्रयत्न करने चाहिएं।

परामर्श के रूप या प्रकार (Types of Counselling)

अध्यापकों तथा प्रशिक्षित परामर्शदाताओं द्वारा विद्यालयों में विद्यार्थियों को उनके कल्याण हेतु कई प्रकार का परामर्श उनकी समस्याओं, आवश्यकताओं तथा परिस्थिति विशेष के संदर्भ में दिया जाता रहता। है। मुख्य रूप से इस प्रकार के परामर्श के निम्न चार रूप या प्रकार हो सकते हैं।

1. आपातकालीन परामर्श (Emergency counselling)- इसे संकटकालीन (Counselling at the time of crises) परामर्श का नाम भी दिया जाता है। इस प्रकार का परामर्श, परामर्शदाता द्वारा परामर्शग्राही को उस समय दिया जाता है जब वह किसी संकट या विपत्ति से घिरा हुआ हो। इस प्रकार के संकट की घड़ियाँ सभी की जिन्दगी में आती ही रहती हैं। विद्यार्थियों के घर परिवार में कोई हादसा हो सकता है, किसी भी प्रकार की आकस्मिक विपत्ति आ सकती है, रोग घेर सकते हैं, दुर्घटनाएं हो. सकती हैं, झगड़ा फसाद हो सकता है, उनके द्वारा कोई गहरी गलती या गंभीर अपराध हो सकता है, परीक्षा या पढ़ाई सम्बन्धी कोई संकट आ सकता है, उन्हें किसी कार्य में गहरी असफलता का सामना करना पड़ सकता है, आदि-आदि। इस प्रकार की संकट की घड़ियों में उनका आत्मविश्वास डगमगा जाता है और उनके व्यवहार में असामान्यता आने लगती है; इसी समय उन्हें किसी योग्य एवं प्रशिक्षित परामर्शदाता से परामर्श लेने की काफ़ी जरूरत होती है जो उन्हें संकट की घड़ी से उबारकर उनमें परिस्थितियों से संघर्ष करने की पर्याप्त क्षमता विकसित करे। इन हालातों में दिया गया वांछित परामर्श ही आपातकालीन या संकटकालीन परामर्श कहलाता है जो बड़ी समझदारी से तुरन्त ही बिना समय बरबाद किये हुये संकट की प्रकृति तथा परिस्थितियों के अनुसार प्रदान किया जाता है।

2. समस्या समाधानात्मक या उपचारात्मक परामर्श (Problem solving or curative counselling)— कई बार विद्यार्थियों के सामने कई तरह की समस्याएं-शिक्षणात्मक, व्यावसायिक या व्यक्तिगत खड़ी हो जाती हैं जिनके समाधान में अपने प्रयासों से उन्हें सफलता नहीं मिल रही होती है। उस अवस्था में उन्हें उचित सुझाव तथा परामर्श की आवश्यकता होती हैं ताकि वे अपने प्रयासों में सुधार लाकर सही समाधान तक पहुँच सकें। इसके अतिरिक्त कई बार उनसे अपने कार्यों में या व्यवहार में ऐसी गलतियाँ या भूलें हो जाती है, जिससे या तो उन्हें असफलता ही असफलता मिलती रहती है अथवा कई तरह से हानि उठाने का ख़तरा सामने आ जाता है अथवा उन्हें समायोजन सम्बन्धी या व्यवहारजन्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है। उन्हें अपने ग़लत या समस्यात्मक व्यवहार को सुधारने हेतु अब किसी उपयुक्त परामर्शदाता के सहारे की आवश्यकता पड़ती है जिससे उन्हें अपनी समस्या के निवारण तथा व्यवहार के सुधार में अपेक्षित परामर्श मिल सके। ऐसी परिस्थितियों में प्रदान किये जाने वाले परामर्श को ही समस्या समाधानात्मक, उपचारात्मक या समायोजनात्मक परामर्श का नाम दिया जाता है।

3. निवारक परामर्श (Preventive Counselling)- यह कहा जाता है कि समस्या या रोग की रोकथाम या निवारण उससे ग्रस्त हो जाने पर उसका समाधान खोजने या उपचार करने से अधिक उपयुक्त एवं लाभप्रद होता है। इसी दृष्टि से निवारक परामर्श, समस्या समाधानात्मक, उपचारात्मक या संकटकालीन परामर्श से ज्यादा कीमती एवं लाभदायक होता है। इस प्रकार के परामर्श द्वारा परामर्शदाता पहले से ही ऐसे प्रयत्न करता है कि परामर्श ग्राहियों को संभावित कठिनाइयों या परेशानियों से बचे रहने में सक्षम बनाया जा सके। विद्यार्थियों का स्वास्थ्य ठीक रहे, वे नीरोग तथा बलशाली बने रहें, उनकी शिक्षा या प्रशिक्षण ठीक प्रकार चलता रहे, वे ठीक व्यवसाय का चुनाव करके अपने व्यवसाय में कामयाबी प्राप्त करें, उनका अपने आप से तथा अपने वातावरण से ठीक प्रकार समायोजन रहे, इस संदर्भ में जितनी भी सावधानियाँ बरती जा सकती है जितने भी अच्छे नियमों का पालन तथा आदर्शों का अनुकरण किया जा सकता है, वैसा सभी प्रकार का परामर्श देना ही निवारक परामर्श के अन्तर्गत आता है। इस प्रकार के परामर्श से ही बालकों को बुरी संगत, बुरी आदतों तथा व्यवहारगत समस्याओं या व्यक्तित्व विकारों से ग्रस्त होने से बचाया जा सकता है।

4. विकासात्मक या रचनात्मक परामर्श (Development or formative counselling)— इस प्रकार के परामर्श की दिशा पूरी तरह रचनात्मक एवं सकारात्मक होती है। इसमें विद्यार्थी को अपनी योग्यता तथा शक्तियों के अधिक से अधिक विकास हेतु उचित सहायता दी जाती है तथा उनकी रचनात्मक तथा सृजनात्मक शक्तियों के पोषण एवं पल्लवन हेतु उनमें विशेष प्रकार की समझ तथा सोच विकसित करने का प्रयत्न किया जाता है। स्वास्थ्य शिक्षा, मूल्य शिक्षा, व्यक्तित्व शिक्षा, सौन्दर्य परख क्षमता, ललित कलाओं, रुचि तथा अभिरुचियों की पूर्ति हेतु दी जाने वाली शिक्षा से जुड़ी हुई जितनी बाते हैं उन्हें विकासात्मक या रचनात्मक परामर्श में भलीभाँति शामिल किया जा सकता है।

परामर्श उपागम (Approaches of Counselling)

परामर्श देने या लेने के अपने-अपने ढंग तथा तरीके होते हैं तथा इस प्रक्रिया में परामर्श दाता तथा परामर्श लेने वाले की अलग-अलग स्थितियाँ तथा भूमिकाएं होती हैं तथा उनका अपना-अपना योगदान रहता है। इन्हीं को परामर्श उपागमों की संज्ञा दी जाती है। मुख्य रूप से ऐसे उपागमों में तीन का विशेष रूप से उल्लेख होता है, वे हैं

1. निदेशात्मक परामर्श (Directive Counselling)

2. अनिदेशात्मक परामर्श (Non-directive Counselling)

3. समन्वित या विभिन्न मतावलम्बी परामर्श (Eclectic Counselling)

निदेशात्मक परामर्श (Directive Counselling)

जैसा कि नाम से ही विदित होता है, इस प्रकार के परामर्श में परामर्शदाता द्वारा परामर्श लेने वाले को उसकी समस्याओं को सुलझाने, उसका विकास करने तथा व्यवहार में सुधार लाने जैसी बातों को लेकर उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं, ऐसे निदेश दिये जाते हैं। इस प्रकार का परामर्श पूरी तरह से परामर्शदाता केन्द्रित (Counsellor Centered) ही होता है। इसकी प्रमुख मान्यताओं, विशेषताओं तथा कार्यप्रणाली को संक्षेप में निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है।

मूलभूत धारणा (Basic assumption ) - इस प्रकार के परामर्श में यह मूलभूत धारणा (Basic assumption) कार्य करती है कि परामर्शदाता परामर्श लेने वाले की तुलना में बहुत अधिक ज्ञानवान, जानकार तथा सुलझा हुआ व्यक्ति होता है। उसे इस तरह का अनुभव और प्रशिक्षण प्राप्त रहता है कि वह परामर्श लेने वालों की समस्या की तह तक आसानी से पहुँच जाए, समस्या के समाधान हेतु उपाय या उपचार तलाश कर सके तथा इन उपायों की व्यवहारात्मक रूप देने के बढ़िया से बढ़िया तरीके परामर्श लेने वाले को बता सके।

कार्यप्रणाली (Procedure ) — इसी धारणा पर चलते हुए परामर्शदाता के पास जब कोई परामर्श लेने आता है तो वह सब कुछ अपने हाथ में ले लेता है। पहले वह उसकी समस्या पर अपना सारा ध्यान केन्द्रित करता है, समस्या का विश्लेषण कर यह जानने का प्रयत्न करता है कि उसकी यह समस्या वास्तव में है क्या, किन व्यवहारगत या परिवेशगत लक्षणों द्वारा इसका स्पष्टीकरण हो रहा है, यह कितनी सामान्य या गंभीर है। इसके पश्चात् वह अपने ज्ञान तथा अनुभव के आधार पर उसके समाधान की योजना तैयार करता है और फिर इस योजना के आधार पर परामर्शदाता को अपने तय किये हुए रास्ते पर चलने को तत्पर करता है, देखता है कि उसकी समस्या के समाधान में इस प्रकार का समाधान कितना सहायक सिद्ध हो रहा है, रास्ते की अड़चनों के बारे में भी सोचता रहता है तथा उसे समय-समय पर उपयुक्त निदेशन देने का कार्य तब तक नहीं समाप्त करता जब तक परामर्शदाता अपनी समस्या से राहत न पा ले तथा अपने आपको समायोजित न अनुभव करे। निर्देशन देते समय परामर्शदाता यह बात अवश्य ध्यान में रखता है कि परामर्श लेने वाले को किसी भी अवस्था में बाध्य नहीं किया जाए और न उसे अपने ऊपर पूरी तरह निर्भर बनाया जाये। हाँ, दिशा खोजना तथा उपाय बताना अवश्य वह अपने हाथ में रखता है।

विशेषताएं तथा कमियाँ (Advantages and Limitations)

इस प्रकार के परामर्श में निम्न विशेषताएं तथा कमियाँ नज़र आ सकती है।

1. परामर्शदाता द्वारा अपने संपूर्ण ज्ञान तथा अनुभव का प्रतिफल परामर्श लेने वाले को तुरन्त ही प्रदान किया जाता है। इससे उसे अपनी समस्याओं के हल तथा व्यवहार के सुधारने में बहुत मदद मिलती है तथा उल्टे सीधे परीक्षणों या प्रयत्नों में जो उसकी शक्ति, समय तथा धन बरबाद होता, वह बच जाता है।

2. परामर्शदाता को इस प्रकार के परामर्श देने में बहुत ही अधिक सक्रिय और सजग रहना पड़ता है। परामर्श ऐसे ही नहीं प्रदान किया जा सकता। इसके लिए सभी तरह से भरपूर ज्ञान, अनुभव तथा परामर्श प्रदान करने के तरीकों का प्रशिक्षण आवश्यक होता है। इस प्रकार के कुशल तथा अनुभवी परामर्शदाताओं के अभाव में परामर्श के उल्टे ही परिणाम निकल सकते हैं।

3. इस परामर्श में परामर्श लेने वाले की इच्छा-अनिच्छा, रुचि अरुचि तथा शक्ति या योग्यता आदि का ध्यान रखकर परामर्श सम्बन्धी योजनाएं तैयार नहीं की जातीं। परामर्श लेने वाला उन सुझावों तथा कार्यों को व्यावहारात्मक रूप देने में समर्थ है या नहीं अथवा वह ऐसा चाहता भी है या नहीं यह ध्यान न रखने से कई बार परामर्श प्रक्रिया पूरी तरह विफल हो जाती है।" सीख दीनी बाँदरा घर बया का जाय । इस उक्ति की तरह परामर्श से उल्टे हानि की भी संभावना हो सकती है।

4. परामर्शदाता ही सभी प्रकार के निर्णय तथा व्यवहार दिशाएं तय करता है और इनका कितना अनुपालन परामर्श लेने वाले द्वारा किया जा रहा है इसका भी समय-समय पर वह पता लगाता है। परन्तु यह कार्य वह अधिकतर साक्षात्कार एवं प्रश्नावली के माध्यम से ही करता है जिससे परामर्श लेने वाले की भावनात्मक अनुक्रियाओं तथा प्रतिक्रियाओं का उसको पता नहीं चल सकता। परामर्श लेने वाले में कितना उत्साह या आत्मविश्वास आया है, उसकी अभिवृत्तियों तथा व्यवहार में कितना अंतर आया है, इसका मूल्यांकन करते हुए निर्देशन देने का प्रयत्न इसीलिए परामर्शदाता द्वारा नहीं किया जाता है और जब तक इस तरह का भावनात्मक सम्बन्ध न बने, अच्छे और उपयोगी परामर्श की कल्पना नहीं की जा सकती। इसीलिए निदेशित परामर्श सूचना या ज्ञान प्रयत्न करने की दृष्टि से या सलाह मशविरा देने तक तो उत्तम सिद्ध हो सकता है परन्तु परामर्श लेने वाले के व्यवहार का उचित परिमार्जन या उसमें अपनी समस्याओं के समाधान के प्रति उचित समझ तथा स्व-समायोजन की क्षमता आदि विकसित करना इस प्रकार के परामर्श द्वारा ज्यादा संभव नहीं है।

अनिदेशात्मक परामर्श (Non-directive Counselling)

इस प्रकार के परामर्श का उद्देश्य निदेशात्मक परामर्श की तरह परामर्शदाता की ओर से परामर्श लेने वाले को निदेश जारी करके उन पर अमल कराना नहीं होता बल्कि ऐसी परिस्थितियों का निर्माण तथा तकनीकों का प्रयोग करना है जिनसे परामर्शदाता को अपनी यह चुनने, उस पर चलने तथा अपनी समस्याओं के निवारण में अधिक से अधिक आत्म निर्भरता प्राप्त हो सके। यहाँ इस प्रकार का परामर्श अब परामर्शदाता केन्द्रित नहीं रहता बल्कि परामर्शग्राही (Counsellee) केन्द्रित बन जाता है। इसकी मूलभूत धारणाओं, विशेषताओं तथा कार्यप्रणाली को संक्षेप में निम्न प्रकार से उल्लेख किया जा सकता 

मूलभूत धारणायें (Basic Assumptions ) – इस परामर्श की मूल धारणायें निम्न प्रकार हैं।

(i) परामर्श तभी अच्छी तरह से सफल हो सकता है जबकि वह परामर्श लेने वाले की आवश्यकताओं, रुचियों, शक्तियों तथा योग्यताओं को ध्यान में रखकर नियोजित एवं कार्यान्वित किया गया हो।

(ii) परामर्श लेने और देने वाले के बीच में सक्रिय अंतः क्रिया होनी अति आवश्यक है। दोनों को ही पर्याप्त रूप से सक्रिय रहना चाहिए, परन्तु मुख्य भूमिका परामर्श लेने वाले के द्वारा ही निभायी जानी चाहिए क्योंकि उसकी तत्परता तथा आत्मनिर्भरता बहुत आवश्यक है।

(iii) परामर्शग्राही की समस्याओं के समाधान तथा व्यवहार परिमार्जन में उसके भूत की जगह वर्तमान पर ही अधिक बल देना चाहिए। परामर्शदाता को समस्या की तह तक जाने या छानबीन करके अपना समय बरबाद न करके उसके वर्तमान व्यवहार, आवश्यकताओं तथा भावनाओं पर ही ज्यादा ध्यान केन्द्रित करना चाहिए ताकि परामर्श लेनेवाले से तादात्मीयकरण (Identification) करके उसे परामर्श प्रक्रिया में सक्रिय अगुआ (Active initiator) बनाया जा सके।

(iv) प्रत्येक व्यक्ति में अच्छाइयों तथा शक्तियों का खजाना छुपा होता है तथा प्रत्येक अपने आप में अद्वितीय होता है, आवश्यकता इस बात की है कि हम उसकी सोई हुई शक्तियों को जगाएं, उसे अच्छा होने का आभास दिलाएं। अगर ऐसा कर दिया जाये तो वह स्वयं ही अपने विकास की मंज़िलें तय करने की ओर बढ़ता रह सकता है।

(v) परामर्श द्वारा किये जाने वाले कार्यों के स्थान पर परामर्श लेने वाले के द्वारा जो योगदान परामर्श प्रक्रिया में दिया जाता है उसका महत्त्व सदैव ही अधिक माना जाना चाहिए। कार्यप्रणाली (Procedure)- इस प्रकार के परामर्श में परामर्श प्रक्रिया निम्न प्रकार आगे बढ़ सकती है। परामर्श देने वाले परामर्श लेने वाले को निर्देशन या किसी तरह की शिक्षा सूचना या सलाह देने के स्थान पर शुरूआत इस तरह करता है कि परामर्श लेने वाले को कुछ बोलने या कहने का अवसर पहले मिले। इसके लिए वह परिस्थितियों तथा परिवेश का इस प्रकार व्यवस्थापन करता है कि परामर्श लेने वाले की शंका, झिझक और डर समाप्त हो जाए तथा वह परामर्शदाता पर वांछित विश्वास कायम कर सके। इसके पश्चात् परामर्श लेने वाले को अपनी समस्या को खुलकर व्यक्त करने को कहा जाता है। वह स्वयं भी उससे जुड़ी हुई सभी बातों को परामर्शदाता के सामने ला देता है। इस स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के माध्यम से वहअपने संवेगों, दमित भावनाओं, इच्छा - अनिच्छा, आदि को बाहर निकाल कर काफ़ी तनाव मुक्ति एवं शांति अनुभव करने लग जाता है। दूसरे शब्दों में वह अब इस योग्य हो जाता है कि वह स्वयं अपने आपको तथा अपनी समस्या को निरपेक्ष ढंग से परख सके तथा उसकी जड़ पर प्रहार करने हेतु किसी उचित कार्ययोजना का निर्माण कर सके। धीरे-धीरे उसकी इसी आत्म चेतना, समस्या से छुटकारा पाने की अदम्य इच्छा तथा समस्या सम्बन्धी वस्तुगत सूझबूझ को आगे बढ़ाने का कार्य परामर्शदाता द्वारा किया जाता है। वह अब उसमें नवीन स्फूर्ति तथा अभिप्रेरणा का संचार करके उसे इस योग्य बनाने का प्रयत्न करता है कि वह स्वयं अपनी समस्या के उचित समाधान की ओर बढ़ सके, अपने व्यवहार एवं अभिवृत्तियों में अपेक्षित सुधार ला सके, अपने लक्ष्यों को इस प्रकार संगठित कर सके कि उसे अपनी शक्तियों के अन्तर्गत ही उनकी भलीभाँति प्राप्ति हो जायें।

विशेषतायें तथा कमियाँ (Advantages and Limitations)- इस प्रकार के परामर्श में निम्न विशेषतायें तथा कमियाँ देखने को मिल सकती हैं । 

1. इस प्रकार के परामर्श द्वारा परामर्श लेने वाले को सक्रिय भूमिका निभाने का पर्याप्त अवसर मिलता है। उसे अपनी समस्या तथा अपने स्वयं के अंदर झाँकने का मौका मिलता है। स्वयं अपने आप अपनी समस्या के समाधान हेतु वह पूरी तत्परता से आगे बढ़ता है और यही तत्परता उसे जल्दी ही समस्या मुक्त होने में सहायता करती है।

2. इस प्रकार का परामर्श व्यक्ति को आत्मनिर्भरता, स्व-निदेशन तथा आत्म चेतना और विकास के उपयुक्त मार्ग पर चलाना सिखाता है।

3. इस प्रकार के परामर्श में परामर्शदाता को परामर्शग्राही का उपयुक्त सहयोग मिलता है। दोनों एक दूसरे को समझते हैं, निकट आते हैं और यह आपसी विश्वास परामर्श प्रक्रिया के लिये उपयुक्त वातावरण के निर्माण में सहयोगी होता है।

4. इसमें परामर्श लेने वालों को अपने आपको खुल कर अभिव्यक्त करने का अवसर मिलता है । इससे उन्हें तनाव तथा दुश्चिन्ता मुक्त होने तथा संवेगात्मक संतुलन बनाए रखने में मदद मिलती है।

5. व्यक्तिगत समस्याओं के समाधान तथा व्यवहार सम्बन्धी बुराइयों से पीछा छुड़ाने में इस प्रकार का परामर्श बहुत अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है।

6. इस प्रकार का परामर्श लम्बा चलता है क्योंकि इसे निदेशात्मक परामर्श की तरह आनन-फानन में परामर्शदाता द्वारा संक्षिप्त शब्दों में नहीं दिया जा सकता। इसकी रफ्तार परामर्श लेने वाले के ऊपर ही अधिक निर्भर करती है।

7. इसमें निर्णय तथा मार्गों का चुनाव परामर्शदाता द्वारा नहीं किया जाता। स्वयं अपनी रुचि, आवश्यकता तथा योग्यता के हिसाब से परामर्श लेने वाले यह कार्य करते हैं। उनमें शैक्षिक तथा व्यावसायिक चुनाव करने तथा निर्णय लेने की शक्ति एवं योग्यता विकसित होती है, अपनी समस्याओं को सुलझाने की समझ आती है और यही बातें उन्हें आगे के जीवन में बहुत उपयोगी सिद्ध होती है।

समन्वित दृष्टिकोण या विभिन्न मतावलम्बी परामर्श (Electic Counselling)

जैसा कि निदेशात्मक एवं अनिदेशात्मक परामर्श की प्रक्रिया, विशेषताओं तथा कमियों से विदित होता है कि स्पष्ट रूप से किसी एक प्रकार की परामर्श प्रक्रिया का अनुपालन करना सभी तरह की स्थितियों में हर समय उपयुक्त नहीं रह सकता। पूरी तरह से परामर्शदाता केन्द्रित या परामर्श ग्रही केन्द्रित बनाकर परामर्श प्रक्रिया को संगठित करना, इस दृष्टि से कभी भी उपयुक्त नहीं ठहराया जा सकता। आवश्यकता इस बात की है कि किसी भी एक दृष्टिकोण, मत या दार्शनिक धारणा से बंध कर न रहा जाए बल्कि जिसमें जो बातें अच्छी लगें उन्हें ग्रहण करते हुए एक ऐसा समन्वयकारी रास्ता या उपागम काम में लाया जाए जिससे परामर्श प्रक्रिया में अधिक से अधिक अच्छे परिणामों की प्राप्ति हो सके । इसी प्रकार के उपागम को ही समन्वित दृष्टिकोण या विभिन्न मतावलम्बी उपागम के नाम से जाना जाता है। आइए देखें इस उपागम का प्रयोग परामर्श देने हेतु कैसे किया जाता है

मूल धारणायें (Basic assumptions ) - यह उपागम निम्न मूलभूत धारणाओं पर आधारित है।

(i) परामर्श लेने वाले व्यक्तियों में वैयक्तिक विभिन्नताएं होती हैं। उनकी समस्याएं भी अलग अलग तरह की होती हैं, न तो उन्हें एक जैसा परामर्श ही उपयुक्त रहता है और न वे एक जैसी परामर्श प्रणाली से लाभान्वित ही हो सकते हैं। उन्हें उनकी आवश्यकतानुसार तथा परिस्थिति अनुसार परामर्श चाहिए । इस दृष्टि से कभी भी किसी परामर्श प्रणाली या मत पर टिकना ठीक नहीं है।

(ii) व्यक्ति स्वयं ही जीवन के लक्ष्य और साधन चुनने के प्रति उत्तरदायी है। सभी में अपनी तरह से ऐसी मोग्मता और शक्ति भी है कि वह अपनी जीवन समस्याओं के लिए समाधान ढूंढ सकें इसलिए कोशिश यही होनी चाहिये कि परामर्शग्राही को ही इस दिशा में शुरुआत करने दी जाए।

(iii) परामर्शदाता में परामर्शादी की तुलना में ज्यादा समझ सूझ-बूझ तथा व्यावसायिक योग्यता होती है, उसे परामर्श देने सम्बन्धी प्रशिक्षण भी मिला होता है। अतः ऐसे समय तथा परिस्थितियों में जब व्यक्तियों को अपनी समस्याओं से निकलने का रास्ता ही नहीं सूझे तब बेकार में समय और शक्ति का अपव्यय करना ठीक नहीं। ऐसी अवस्था में परामर्शदाता के हाथ में ही बागडोर आनी चाहिए और परामर्श को यथानुकूल परामर्शदाता केन्द्रित बनने दिया जाना चाहिए।

(iv) परामर्श देने की प्रक्रिया में परामर्शदाता के प्रयत्नों को तभी अच्छे परिणाम आ सकते हैं जबकि उसे परिवेश सम्बन्धी अन्य बातों या व्यक्तियों से उचित सहयोग प्राप्त होता रहे।।

(v) व्यक्ति की समस्याओं के समाधान, उसके व्यवहार के परिमार्जन तथा उसके उचित समायोजन में भूत और वर्तमान दोनों का ही समान महत्त्व होता है। अतः समस्याओं की तह तक पहुँचने हेतु जो भी सूचनायें व्यक्ति के बारे में प्राप्त हों, चाहे वे पूछ-ताछ से हों या संचित अभिलेखों (Cumulative records) से, अथवा उन्हें साक्षात्कार, प्रश्नावली, निरीक्षण, तथा विभिन्न परीक्षणों जैसे रुचि परीक्षण, बुद्धि परीक्षण, व्यक्तित्व परीक्षण, किसी से भी प्राप्त किया जाए, प्राप्त करने के प्रयत्न किए जाने चाहिए।

(vi) परिस्थितियाँ तथा साधन बदलते रहते हैं। इसीलिये परामर्श देने की प्रक्रिया जहाँ जैसा भी परिवर्तन चाहती है उसी के अनुरूप उसे लचीला तथा परिवर्तनशील बनाते रहना चाहिए। जैसे कभी उनकी बातें सुननी चाहिए तो कभी अपने विचार आगे रखने चाहिए, कभी निदेशन देने चाहिए तो कभी उनके द्वारा पकड़े मार्ग की निगरानी रखनी चाहिए, आदि ।

कार्यप्रणाली (Procedure)- इस प्रकार के परामर्श में निम्न प्रकार से आगे बढ़ा जाता है।

(i) परामर्श लेने वाले की समस्या का गहराई से विश्लेषण किया जाता है। इसके लिये व्यक्ति के भूत तथा वर्तमान सम्बन्धी सभी प्रकार की सूचनायें एकत्रित की जाती हैं तथा विभिन्न प्रकार के परीक्षणों की भी मदद ली जाती है। साथ ही व्यक्ति को पूरा अवसर दिया जाता है कि वह अपने समस्या के बारे में खुलकर सभी बातें सामने रखे।

(ii) अपने आपको तथा अपनी समस्या को निष्पक्ष ढंग से विश्लेषित करने का पूरा-पूरा अवसर व्यक्ति को प्रदान किया जाता है। इसे सभी प्रकार से ऐसी अनुकूल परिस्थितियाँ प्रदान की जाती हैं कि उसे अपनी समस्या को हल करने या व्यवहार में अपेक्षित सुधार लाने से सम्बन्धित योजना बनाने में पहल करने का मौका मिले।

(iii) उसकी विचार प्रक्रिया तथा भावात्मक व्यवहार दोनों को ही साथ लेकर चलने का प्रयत्न किया जाता है, परामर्श की दिशा और उसका अनुपात उसी के अनुरूप घटाते बढ़ाते रहना पड़ता है। पहल उसी की होती है, कार्य योजनायें भी उसे बनानी होती हैं, इन पैर अमल भी उसी को करना होता है परन्तु ऐसा करते हुये भी वास्तविक बागडोर परामर्शदाता अपने पास रखता है। जैसी भी आवश्यकता हो उसी के अनुरूप अब परामर्श की प्रक्रिया परामर्शग्राही या परामर्शदाता केन्द्रित बना दी जाती है।

(iv) व्यक्ति के बारे में जिस प्रकार की सूचनाएं तथा जानकारी पहले एकत्रित कर रखी होती हैं। अथवा समस्या के संदर्भ में जो बातें अब मालूम हुई हैं उन सभी को समन्वित करके समस्या समधान सम्बन्धी निर्णय लिए जाते हैं। इस कार्य में अब वह भलीभाँति अभिप्रेरित रहे, उसे अपनी समस्या से छुटकारा पाने के प्रयत्नों में पूरी रुचि तथा तल्लीनता रहे, वह परामर्शदाता पर विश्वास रखे तथा दोनों मिलकर समस्या का हल ढूंढे, योजना बनाए तथा उस पर ईमानदारी से क्रियान्वयन हो, इस बात का ध्यान परामर्श प्रक्रिया में बराबर रखा जाता है। परामर्शग्राही को इस दिशा में आत्मनिर्भर बनाने के प्रयत्न भी किए जाते हैं परन्तु जहाँ जैसी भी आवश्यकता हो उसे परामर्श तथा व्यवहारात्मक सुझाव देकर उसकी सहायता अवश्य ही की जाती रहती है तथा उसकी प्रगति पर भी बराबर नजर रखी जाती है।

(v) परामर्श देने के कार्य में जहाँ भी आवश्यक हो किसी अन्य स्रोत, व्यक्ति या संगठन से सहायता ले ली जाती है। अपनी पूर्व योजना में समय, साधन और परिस्थिति अनुसार परिवर्तन भी लाए जाते हैं रहते हैं। यह बात परामर्श प्राप्त करने वाले के क्रिया-कलापों का समस्या मुक्ति के संदर्भ में मूल्यांकन करके ही अच्छी तरह निर्धारित की जाती है कि किस प्रकार के परिवर्तन परामर्श प्रणाली में लाए जाएं तथा किस समय किस की सहायता किस रूप में ली जाए।

(vi) अंत में यह जानकर कि व्यक्ति अपनी समस्या के समाधान में भलीभाँति आत्मनिर्भर हो गया है या उसके व्यवहार में अपेक्षित सुधार आ गया है, परामर्श प्रक्रिया को विराम दे देना चाहिए तथा इसे ऐसा मोड़ दे देना चाहिए कि व्यक्ति पुनः ऐसी या अन्य परेशानियों में फिर न पड़े तथा वह अपने विकास के प्रति पूरी तरह सचेत होकर सही रास्तों पर चलता रहे।

विशेषताएं तथा कमियाँ (Advantages and Limitations) - इस प्रकार के परामर्श में निम्न विशेषताएं तथा कमियाँ परिलक्षित हो सकती हैं।

1. परामर्शदाता तथा परामर्शग्राही दोनों को ही आवश्यकतानुसार समान महत्त्व देने के कारण इसमें दोनों के ही सक्रिय रहने तथा मिलजुलकर परामर्श से लाभ उठाने की संभावनाएं अन्य उपागमों की तुलना में कुछ अधिक ही होती हैं।

2. जैसी भी परिस्थितियाँ हों तथा जैसी भी आवश्यकताएं सामने आ जाएं उसी के अनुरूप कार्य प्रणाली में परिवर्तन लाने से किसी भी तरह का अनावश्यक गतिरोध नहीं हो पाता।

3. परामर्श सेवाओं में सभी का यानी, साथी अध्यापकों, अधिकारियों, समाज सेवियों, घर परिवार तथा समुदाय के अन्य संगठनों आदि का अपेक्षित सहयोग इसमें प्राप्त हो जाने से परामर्शग्राही के हित चिन्तन की संभावना बहुत अधिक बढ़ जाती है।

4. न तो परामर्शदाता पर ही परामर्श प्रक्रिया के संगठन का सारा बोझ आता है और न परामर्शग्राही की शक्ति और समय का (उसे कोई भी निदेशन न देने के अभाव में) बेकार ही अपव्यय होता है। दोनों मिलकर अन्य सहयोगी स्रोतों तथा परिस्थितियों की मदद से परामर्श प्रक्रिया की सफलता की ओर बढ़ते रहते हैं।

5. इस प्रकार के परामर्श को किसी भी तरह के परामर्श सम्बन्धी कार्यों में सुविधानुसार प्रयुक्त किया जा सकता है। शैक्षिक एवं व्यावसायिक क्षेत्र में हो या व्यक्तिगत क्षेत्र में, सभी तरह का परामर्श सुविधानुसार इसके द्वारा दिया जा सकता है।

Reference -Uma Mangal and SK Mangal 


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