Existentialism(अस्तित्ववाद)
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि(Historical Background)
अस्तित्व का प्रश्न प्रत्येक युग में रहा है एवं अस्तित्व को बनाए रखने से संबंधित आत्मसंघर्ष की प्रवृत्ति लगभग सभी युगों में समान रुप से देखने को मिलती है। जैसे-जैसे युग बदलता है,दार्शनिक चिंतन की धाराएँ भी न्यूनाधिक रुप में बदलती रहती हैं।दार्शनिक भविष्य द्रष्टा होते हैं और उनमें युग परिवर्तन की क्षमता होती है।अस्तित्ववादियों का मत है कि मनुष्य की जो भी स्थिति हो उसे इस मूल प्रश्न का सामना करना पड़ता है कि वह क्या है?वह कौन है?वे इस बात में विश्वास रखते हैं कि निज के अस्तित्व की प्रमाणिकता इसमें है कि व्यक्ति(मनुष्य) साहसपूर्ण निर्णय के उत्तरदायित्व का सामना करे क्योंकि अस्तित्व का प्रश्न एक ऐसा खुला प्रश्न है जिसके उत्तर पर ही मनुष्य की विश्वसनीयता निर्भर है।अस्तित्ववादी चिंतन ने इस बात की घोषणा की कि दर्शन मानव विज्ञान है और अपनी सभी पूर्ण सीमाओं के बावजूद भी वह व्यक्ति के अस्तित्व की ही सम्पूर्ण व्याख्या करता है।इस चिंतन के कारण रुढ़िवादी मान्यताएँ समाप्त हुईं और नए नैतिक मूल्यों का जन्म हुआ तथा साथ ही यह भी स्पष्ट हुआ कि सुदृढ़ प्रयासों और विचारशील चयन से ही कर्म का निर्माण किया जा सकता है।अस्तित्ववादी दर्शन को मूल रुप से आधुनिक युग की देन माना जाता है।19वीं शताब्दी में यूरोप में फैली नास्तिकता,भौतिकता और संवेदनहीनता के कारण ईश्वर एवं उससे संबंधित धारणाएँ बड़े वेग से मनुष्य जीवन से लुप्त होने लगीं।परिणामस्वरुप तत्कालीन यूरोपीय मानव के जीवन में अकेलापन,आत्मनिर्वासन एवं अस्तित्व संकट की भावना घर करने लगी।स्पेन के विख्यात चितंक आर्तेग्रागासे के अनुसार- "मनुष्य एक ऐसी स्थिति में आ गया है जिसकी उपमा उस यात्री से की जा सकती है,जो वाहन की यान्त्रिकता से परिचित न होने पर भी पूरे वेग से वाहन चला रहा है। संसार की गतिविधियाँ बड़े वेग से चल रही हैं;किंतु उन पर कोई नियंत्रण नहीं है।”यद्यपि लोग एक-दूसरे से मिल रहे हैं, वार्तालाप कर रहे हैं,सभाएँ एवं गोष्ठियाँ कर रहे हैं;किंतु वे नहीं जानते कि कब कौन-सी विसंगति उत्पन्न हो जाए और उनके अस्तित्व को खतरा पैदा हो जाए और ऐसा न हो कि व्यक्ति मानव और मानवेत्तर के बीच खुदी खाई को अपनी स्वभावगत शक्तियों के प्रयोग द्वारा भरने का अथक प्रयास करता ही न रह जाए।अस्तित्ववादियों का विचार है कि हर व्यक्ति वैशिष्ट्य सम्पन्न है।भीड़ अथवा समुदाय में उसका वैशिष्ट्य समाप्त हो जाता है।इस वैशिष्ट्य के लिए चयन की आवश्यकता है।यदि किसी व्यक्ति के जीवन में इसका अभाव है तो वह पशु के जैसा भी नहीं जो निश्चित गति से चलता-फिरता है।ऐसा व्यक्ति अधिकृत जीवन यापन नहीं कर सकता।अस्तित्ववादी चितंन ने व्यक्ति और दर्शन की समस्याओं में सामंजस्य स्थापित करते हुए मनुष्य के अधिकृत सांसारिक अस्तित्व को महत्त्व दिया।अस्तित्ववाद एक दर्शन है अथवा चिंतन की एक प्रवृति मात्र ?इस विषय में विद्वानों में व्यापक मतभेद हैं।कुछ विद्वान अस्तित्ववाद को मात्र चिंतन की एक प्रवृत्ति मानते हैं; तो वहीं दूसरी ओर कुछ विद्वान इसे एक दर्शन के रूप में मान्यता प्रदान करते हैं।अस्तित्ववाद का अभिप्राय है-मनुष्य को सजीव बनाए रखना।दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अस्तित्ववाद का मुख्य ध्येय अर्थात् केन्द्र बिन्दु मानव के अस्तित्व एवं उसके रचनात्मक स्वतन्त्र पक्ष को उभारने से संबंधित है।अस्तित्ववाद का प्रारम्भ सोरेन किर्कगार्द की रचनाओं से माना जा सकता है।वर्तमान समय में अस्तित्ववाद को शैक्षिक जगत में उतनी मान्यता अथवा महत्त्व नहीं प्रदान किया गया है जितना कि उसको दिया जाना चाहिए था लेकिन फिर भी धीरे-धीरे इसका महत्त्व बढ़ रहा है और इसके समर्थकों एवं इसकी महत्ता को स्वीकार करने वालों में निरन्तर वृद्धि हो रही है।सोरेन किर्कगार्द को अस्तित्ववाद का जन्मदाता कहा जाता है।उनके अनुसार व्यक्ति की आन्तरिकता ही यथार्थ सत्य है। इस संदर्भ में उन्होने कहा है कि-"मेरा अस्तित्व है,क्योंकि मैं ऐसा सोचता हूँ। इसलिए मैं सोचता हूँ कि मेरा अस्तित्व है।" अस्तित्ववाद की मूल अवधारणा यह है कि-'अस्तित्व तत्त्व का पूर्वगामी है।'अस्तित्ववाद की इस मूल अवधारणा को इस प्रकार समझा एवं स्पष्ट किया जा सकता है
अस्तित्व- अस्तित्व से अभिप्राय है वह कार्य जिसमें किसी वस्तु का निर्माण होता है अथवा जिसके कारण वह होती है।
तत्त्व तत्त्व से अभिप्राय उस वस्तु विशेष से होता है जिसके द्वारा अथवा जिससे किसी वस्तु विशेष का वास्तविक रुप में निर्माण होता है।प्रत्येक वस्तु मे विभिन्न तत्त्वों का समावेश होता है और प्रत्येक वस्तु के तत्त्वों का वर्णन किया जा सकता है।
अस्तित्ववाद का अर्थ(Meaning of Existentialism)
'अस्तित्ववाद' शब्द का क्या अर्थ है? इस संदर्भ में अनेक दार्शनिकों ने इस नवीन दर्शन का अनुसरण किया है; परन्तु उनकी चिंतना अस्तित्ववाद को उसके समग्र रुप में परिभाषित न कर सकी। विभिन्न प्रकार के मतों की उत्पत्ति के कारण इस शब्द (अस्तित्ववाद) का अर्थ ही भ्रामक हो गया है। इस संदर्भ में सार्त्र ने तो यहाँ तक कह दिया है कि "अस्तित्ववाद शब्द का प्रयोग वस्तु के लिए इतने मुक्त रुप में हो रहा है कि अब इसका कुछ भी अर्थ नहीं रहा।" वहीं इस संदर्भ में महावीर दाधीघ का कथन है कि “वस्तुतः अस्तित्ववाद को परिभाषित करना एक कठिन-सा कार्य है; क्योंकि अस्तित्ववाद स्वयं किसी परिभाषा में विश्वास नहीं करता।";अतः अस्तित्ववाद का ऐसा रूप स्थिर नहीं किया जा सकता जो परिभाषा से संबंधित नियमों द्वारा अनुशासित हो,जिसका भूत,वर्तमान और भविष्य उस परिभाषा में सीमित हो जाए।
अस्तित्ववाद केवल एक व्यक्ति की बात नहीं करता,जो समाज निरपेक्ष होकर एकांत में किसी जंगल में जाकर साधना करता है;अपितु उस व्यक्ति की बात करता है जो दूसरे व्यक्तियों के साथ रहता है एवं उन व्यक्तियों से वह भावात्मक और विचारात्मक रुप से संबंद्ध होता है।इस तरह व्यक्ति अपने संसार का निर्माण करता है।यह अपना संसार वास्तव में उसकी आत्मा अथवा चेतना का संसार है।इस संदर्भ में महावीर दाधीच का विचार है कि अस्तित्ववाद का अर्थ है-मानवीय होना।वह मनुष्यता के क्षेत्र से अलग नहीं जाता,वह किसी भी प्रकार की दैवीय शक्ति पर विश्वास नहीं करता और न ही किसी विचारात्मक स्तर पर जीवन यापन करने की चेष्टा करता है।वह तो जैसा मनुष्य है,जिस रूप में मनुष्य अपने आपको बनाना चाहता है उस रूप का वर्णन करना पंसद करता है।वर्णन इसलिए कि उसके अनुसार अस्तित्व का वर्णन ही किया जा सकता है।वर्णन की ही ऐसी पद्धति है जिसमें परिभाषा का निर्माण नहीं होता,जो सारोन्मुख नहीं है।अस्तित्ववाद के मूल में व्यक्ति है और यह(अस्तित्ववाद) इस बात को स्वीकार करके चलता है कि व्यक्ति की समुचित परिभाषा नहीं दी जा सकती।
क्योंकि वह अस्पष्ट ही नहीं वरन् स्वतन्त्र और सक्रिय भी है।अस्तित्ववाद विभिषिकाओं तथा अव्यवस्था का एक ऐतिहासिक नक्शा भर नहीं है,बल्कि यह जीवन परिस्थितियों के बदलते पहलुओं की तार्किक मीमांसा भी प्रस्तुत करता है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अस्तित्ववाद एक ऐसी वैचारिक प्रक्रिया है ।जिसके द्वारा व्यक्ति वास्तविकता की ओर अग्रसर होता है।
अस्तित्ववाद के अर्थ से संबंधित कुछ विचारकों/दार्शनिकों का दृष्टिकोण
निम्नलिखित है किर्कगार्द की दृष्टि में-अस्तित्ववाद समस्त विशुद्ध अमूर्त चिंतन एवं विशुद्ध तार्किक अथवा वैज्ञानिक दर्शन का अस्वीकरण है।
डॉ. अजित कुमार सिन्हा की दृष्टि में अस्तित्ववाद कोई विशिष्ट दर्शन नहीं है और न ही कोई वैचारिक स्कूल अपितु यह नाम ब्रिटिश अनुभववाद और दार्शनिक आदर्शवाद से स्पष्ट रूप से अलगाने वाली परम्परा के लिए सुविधाजनक लेबल है।मूलरूप से अस्तित्ववाद मानव अस्तित्व विशेषकर मनुष्य के आत्यंतिक अनुभवों-मृत्यु,व्यथा,व्याकुलता,नैराश्य और पापबोध से जुड़ा है।
जीन पॉल सार्त्र की दृष्टि में अस्तित्ववाद वह याद है जो मानवीय जीवन को संभव बनाता है।यह वाद इस बात की भी पुष्टि करता है कि परिवेश और मानवीय आत्मपरकता प्रत्येक क्रिया और प्रत्येक सच्चाई में अन्तर्निहित है।
डॉ. लालचंद गुप्त की दृष्टि में अस्तित्ववाद मानवीय जिजीविषा,सत्ता,स्वतन्त्रता और महत्ता का दर्शन है जिसने विश्व के समकालीन दर्शन,साहित्य एवं कला को गहराई से प्रभावित किया है।
कार्ल जास्पर्स के अनुसार अस्तित्ववादी दर्शन विचार की वह पद्धति है जो समूचे भौतिक विज्ञान और उसके अतिक्रमण का प्रयत्न करती है,ताकि मनुष्य पुनः अपनी अपनीयता को पा सके।
अस्तित्ववाद का अर्थ केवल अस्तित्व विशेष से संबंधित नहीं है।अस्तित्ववादियों अनुसार अस्तित्व से अभिप्राय केवल व्यक्ति का जीना अर्थात् जिन्दा रहना मात्र के नहीं है अपितु इसका अर्थ है कि-व्यक्ति के जीवन को आत्म चेतना से युक्त, पूर्ण शक्तिशाली,उत्तरदायी एवं प्रगतिशील बनाए रखना।
अस्तित्ववाद का अर्थ है कि आत्मनिष्ठ अनुभूति पर बल देना एवं आत्मसम्मान बनाए रखना।
अस्तित्ववाद के प्रमुख प्रवर्तक एवं समर्थक(Main Propounders and Supporter of Existentialism)
अस्तित्ववाद के प्रमुख प्रवर्तक एवं समर्थकों के नाम निम्न वर्णित हैं सोरेन किर्कगार्द(Soren Kierkegaard 1813-1855),कार्ल जास्पर्स(Karl Jaspers 1883-1973),मार्टिन हेडेगर(Martin Heidegger 1889-1975),गेब्रियल मार्शल(Gabriel Marcel),जीन पाल सार्त्र(Jean Paul Sartre),ऐबाग्नामो(Abbagnamo), बर्डयाव(Bardyaev),अल्बर्ट कॉमस(Albert Camus),नीबुर,हार्पर,बुबेर (Beauvoir),ऑलपोर्ट,फ्रैड्रिक नीत्शे(Friedrich Nietzsche) आदि।
अस्तित्ववाद से संबंधित कुछ पद/शब्द(Some Terms/Words Related to Existentialism) अस्तित्ववाद से संबंधित(जुड़े) कुछ पदों/शब्दों की विवेचना निम्नलिखित है
1.मृत्युबोध-मानव अस्तित्व की अनिवार्य सीमा मृत्यु है।मृत्यु की महत्ता स्वीकार करने वालों में किर्कगार्द का नाम सबसे पहले आता है।किर्कगार्द के अनुसार "हमारा भाव मृत्यु की ओर उन्मुख एक अस्तित्व है।यह एक बीमारी है जो मृत्यु की ओर ले जाकर ही रहेगी।"अस्तित्ववादियों का मानना है कि मृत्यु को भूलकर व्यक्ति अप्रामाणिक जीवन जीता है क्योंकि जीवन को प्रामाणिकता देने वाली एकमात्र धारणा मृत्यु ही है तो व्यक्ति मृत्यु को कैसे भूल सकता है;अतः व्यक्ति के पास बहुत ही साफ मृत्यु धारणा होनी चाहिए।किसी का भी जीवन मृत्युहीन नहीं हो सकता क्योंकि व्यक्ति जीवन की डगर पर चलकर ही मौत की मंजिल तक पहुँचता है।व्यक्ति की किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है और जीवन की सारी व्यवस्था को निरर्थक कर सकती है इसलिए लोगों के मन में मृत्यु के प्रति भय पैदा होता है और यही भय संवेदनाओं के धरातल पर व्यक्ति के जीवन में घुटन,संत्रास और निराशा उत्पन्न करता है।
2.संत्रास (Dread)-इस दर्शन में 'संत्रास' (Dread/ड्रेड) का विचार हेडेगर के साथ जोड़ा गया है।हेडेगर के अनुसार 'सत्रांस' मनुष्य की आधारभूत अनुभूति है कि मनुष्य उस जगत से संबंधित नहीं है जिसमें वह है,जिससे वह जगत में व्याकुलावस्था में रहता है और इस अनुभूति से पलायन के लिए तथा उसका परिहार करने के लिए जब मनुष्य प्रयास करता है तो संत्रास उसका पीछा करता है अर्थात् संत्रास किसी स्रोत से उत्पन्न नहीं होता और न ही इसका कोई निश्चित विशिष्टीकरण होता है।हेडेगर की धारणा है कि इस जगत में जीवन के नाम पर मनुष्य और प्रकृति में जो घात-प्रतिघात चला करता है उसका फल मूलतः संत्रास ही हुआ करता है।प्रत्येक मनुष्य जन्म लेने के रुप में भय और संत्रास का ही वरण करता है क्योंकि जन्म लेने का अर्थ है अपने आप को विपत्तियों के भंवर में डाल देना।
3.अलगाव/अकेलापन और अजनबीपन- वैसे तो अलगाव की अनुभूति पहले भी लोगों को होती रही है लेकिन अस्तित्ववादी चिंतन में अलगाव पर विशेष ढंग से सोचा गया है।प्रत्येक व्यक्ति में जीवन में बहुत ऐसे क्षण आते हैं जिनमें अलगाव की अनुभूति स्वतः ही होने लगती है।परिवेश के प्रति जब अनाशक्ति का भाव उद्दीप्त होता है तब अलगाव व्यक्ति के लिए नियति बन जाता है।इस संदर्भ में अस्तित्ववादियों ने इस ओर भी संकेत किया हैं कि व्यक्ति के अस्तित्व में कुछ ऐसी दरारें पैदा हो जाती है जिनके कारण व्यक्ति अलगाव का अनुभव करने लगता है।अलगाव और अजनबीपन एक ऐसी स्थिति है जहाँ मनुष्य को न सिर्फ समाज से काट दिया जाता है बल्कि वह स्वयं से भी कटने के लिए भी विवश हो जाता है।अलगाव मनुष्य और मनुष्य का,मनुष्य के बाहरी और भीतरी अस्तित्व का,उसके भौतिक एवं आध्यात्मिक अंशों का,दैनिक जीवन की परिस्थितियों और तर्कबुद्धि का क्योंकि औसत व्यक्ति मशीनी सभ्यता का दास बन गया है।जीवन में एक ऐसा एकरस विद्रूप तत्त्व उत्पन्न हो गया है जिसे हम तकनीकी अलगाव कह सकते हैं।अलगाव और अजनबीपन से उत्पन्न अकेलापन आज के जीवन में इस कदर गहराता चला गया है कि व्यक्ति अपने एकाकीपन को प्रतिष्ठित करने के प्रति सचेत है।अकेलेपन की यह समस्या किसी एक देश की न होकर विश्वभर की समस्या है।वर्तमान समय की सबसे बड़ी बीमारी कैंसर या एड्स नहीं है अपितु समाज में व्याप्त अकेलापन है।लोग मुस्कराना और स्नेह करना भूल चुके हैं।
4.विसंगति और व्यर्थता बोध- अल्बेयर कामू के एब्सर्ड (Absurd) दर्शन को हिन्दी साहित्य में 'विसंगति अथवा निरर्थकता बोध के अर्थ में ग्रहण किया।विसंगति वह स्थिति है जिसमें हम चाहते कुछ और हैं और कर कुछ और बैठते हैं और इसी के अन्दर हम जीने के लिए विवश है।विसंगति का अर्थ यह नहीं कि जीवन जीने के योग्य नहीं,अपितु हमें जीवित रहना है अपने उत्तरदायित्व को ढोते हुए और होने के लिए।कामू जीवन की निरर्थकता को जानने के बावजूद भी मानव को जिंदा रहने के लिए बाध्य करता है।उसके अनुसार जीवन की अर्थहीनता को जान लेने के बाद आदमी एक दूसरे प्रकार का जीवन जीता है लल्पहीन योजनाहीन,भविष्यहीन और आशाहीन ।
चला गया है कि व्यक्ति अपने एकाकीपन को प्रतिष्ठित करने के प्रति सचेत है। अकेलेपन की यह समस्या किसी एक देश की न होकर विश्वभर की समस्या है। वर्तमान समय की सबसे बड़ी बीमारी कैंसर या एड्स नहीं है अपितु समाज में व्याप्त अकेलापन है। लोग मुस्कराना और स्नेह करना भूल चुके हैं।
4.विसंगति और व्यर्थता बोध-अल्बेयर कामू के एब्सर्ड (Absurd) दर्शन को हिन्दी साहित्य में 'विसंगति अथवा निरर्थकता बोध के अर्थ में ग्रहण किया। विसंगति वह स्थिति है जिसमें हम चाहते कुछ और हैं और कर कुछ और बैठते हैं और इसी के अन्दर हम जीने के लिए विवश है।विसंगति का अर्थ यह नहीं कि जीवन जीने के योग्य नहीं,अपितु हमें जीवित रहना है अपने उत्तरदायित्व को ढोते हुए और होने के लिए।कामू जीवन की निरर्थकता को जानने के बावजूद भी मानव को जिंदा रहने के लिए बाध्य करता है। उसके अनुसार जीवन की अर्थहीनता को जान लेने के बाद आदमी एक दूसरे प्रकार का जीवन जीता है लल्पहीन योजनाहीन,भविष्यहीन और आशाहीन ।
5.क्षण-अस्तित्ववादी विचारधारा में क्षण एक व्यापक और गहन अर्थ रखता है। किर्कगार्द के अनुसार-"क्षण यद्यपि छोटा और नश्वर होता है किन्तु यह महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि यह अन्ततः शाश्वतता से जुडा है।"अतः अस्तित्ववादी मनुष्य जीवित मनुष्य है।वह क्षण-क्षण में रहता है,वह प्रत्येक क्षण का स्वतन्त्र चयन करता है और अपने अस्तित्व को अर्थ प्रदान करता है तथा प्रत्येक क्षण में वह स्वयं को पुनः सर्जित करता है।इसलिए अस्तित्ववाद में बुनियादी महत्त्व 'क्षण' का है एवं काल की व्यापकता इन्हीं क्षणों की धारा है।डॉ. रामस्वरुप चतुर्वेदी के अनुसार-"वह (अस्तित्ववाद) जीवन को निरुपाय,अवश तथा निरर्थक समझकर उसे एक मानवीय अर्थ तथा मूल्य देने की चेष्टा करता है इसलिए अस्तित्ववादी दृष्टि में प्रत्येक क्षण का अतुलनीय महत्त्व है।
6.अस्तित्व संकट (संघर्ष) एवं कर्म-अस्तित्ववाद की यह मान्यता है कि व्यक्ति अपने अतिरिक्त किसी और को नहीं जान सकता और वह औरों को इसलिए जान पाता है क्योंकि वह अपने को जानता है;अतएव सभी मूल्य अन्तर्मुखी होते हैं। उसका प्रत्येक वरण सामान्य कर्म न होकर एक नैतिक कर्म होता है क्योंकि वही उसका निर्माण करता है।इस रूप में अस्तित्ववाद कर्म प्रधान विचारधारा है।यह कर्म किसी परोक्ष सत्ता द्वारा पूर्व निपट कर्म-अस्तित्ववादी विचारधारा में क्षण एक व्यापक और गहन अर्थ रखता है।किर्कगार्द के अनुसार-"क्षण यद्यपि छोटा और नश्वर होता है किन्तु यह महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि यह अन्ततः शाश्वतता से जुडा है।"; अतः अस्तित्ववादी मनुष्य जीवित मनुष्य है।वह क्षण-क्षण में रहता है,वह प्रत्येक क्षण का स्वतन्त्र चयन करता है और अपने अस्तित्व को अर्थ प्रदान करता है तथा प्रत्येक क्षण में वह स्वयं को पुनः सर्जित करता है।इसलिए अस्तित्ववाद में बुनियादी महत्त्व 'क्षण' का है एवं काल की व्यापकता इन्हीं क्षणों की धारा है।डॉ. रामस्वरुप चतुर्वेदी के अनुसार-"वह(अस्तित्ववाद) जीवन को निरुपाय,अवश तथा निरर्थक समझकर उसे एक मानवीय अर्थ तथा मूल्य देने की चेष्टा करता है इसलिए अस्तित्ववादी दृष्टि में प्रत्येक क्षण का अतुलनीय महत्त्व है।न होकर व्यक्ति के वरण से उद्भूत कर्म है उसके प्रत्येक कर्म का प्रभाव केवल उस पर नहीं बल्कि समस्त मानवता पर पड़ता है।गैब्रथिल मार्शल के अनुसार-"मनुष्य कर्म के माध्यम से ही अस्तित्ववानुभूति करता है और उसके चिंतन में प्रवृत्त होता है।" नीत्शे कहते हैं कि-"मैं उन लोगों पर कई बार हँसा हूँ जो यह कहकर कर्म करना छोड़ देते हैं कि उनके पंजे कमजोर हैं।"अल्बेयर कामू का विचार है कि-"जीने के लिए संघर्ष आवश्यक है,परन्तु संघर्ष में अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं होना चाहिए।"
व्यैक्तिकता बोध अथवा व्यैक्तिक स्वातंत्र्य-अस्तित्ववादी विचारधारा का केन्द्र बिंदु 'मनुष्य' है और उनके अनुसार मनुष्य पूर्ण स्वतन्त्र है।जैसे ही मनुष्य का संसार में आगमन होता है वह अपने स्वतन्त्र चयन के द्वारा कार्य करके अपने अस्तित्व को अर्थ प्रदान करता है।व्यैक्तिक स्वातंत्र्य के संबंध में सार्त्र का विचार है कि “प्रत्येक व्यक्ति अपनी स्वतन्त्रता के लिए अभिशप्त है।इसके बिना व्यक्ति का अस्तित्व मूल्यहीन हो जाता है क्योंकि स्वतन्त्रता ही समस्त मूल्यों की जननी है।"जैस्पर्स के अनुसार "हमारी स्वतन्त्रता हमारी अन्तर्दृष्टि की अपेक्षा हमारे कार्य द्वारा सिद्ध होती है।जब तक मनुष्य स्वतन्त्र रहकर चयन नहीं करता और उस चयन के अनुसार कार्य नहीं करता तब तक वह अस्तित्वहीन ही होता है।"अस्तित्ववाद का प्रथम प्रयास यह है कि प्रत्येक मनुष्य को जो कुछ वह है,उसके प्रति सजग किया जाए और उसके अस्तित्व के पूर्ण उत्तरदायित्व को उसी पर स्थिति किया जाए।
पश्चिम में अस्तित्ववाद के उदय के लिए उत्तरदायी परिस्थितियाँ/कारक (Some Causes/Circumstances Responsible for the Rise of Existentialism in West)
1.सामाजिक विघटन अर्थात् समाज तीन वर्गों में विभाजित था- पादरी,अभिजात्य वर्ग और सामान्य जन।प्रथम दो वर्ग सुविधासम्पन्न वर्ग थे;जबकि तीसरा वर्ग सुविधाहीन था तथा सामान्य लोगों के आचार-विचार और रहन-सहन पर भी नियंत्रण था।
2.वेतन का लौह नियम(Iron Law of Wages)अर्थात् ऐसा नियम जिसके द्वारा सामान्य जनता के वेतन को स्थायी रखने पर जोर दिया जाता था।
3.बुर्जुवा शासन का अत्याचार एवं अनाचार व्याप्त होना।
4.समाज में आडम्बर एवं आचारहीनता का होना।
5.निरंकुशता के प्रति क्षोभ के परिणामस्वरुप क्रान्तिकारी लेखकों का अभ्युदय होना
6.विज्ञान एवं औद्योगीकरण के कारण कम-से-कम व्यक्तियों द्वारा अधिक से अधिक काम कराना/उत्पादन कराना।
7.उत्पादन के मशीनीकरण के कारण औद्योगिक क्रान्ति का जन्म हुआ जिसके परिणामस्वरुप कारखानों के मालिक पूंजीपति बन गए और साधारण जनता निर्धनता का शिकार हो गई।
8.आर्थिक शक्ति का संकेन्द्रण थोड़े से व्यक्तियों के हाथ में होना तथा सामाजिक असमानताओं का उत्पन्न होना ।
9.तकनीकी ,सभ्यता के साथ 'वस्तुपरक चिंतन' का विकास होना एवं 'वस्तुपूजा' का भाव उत्पन्न होना।
10.फ्रांसीसी क्रान्ति एवं समूचे यूरोप में समायोजित परिवर्तन का होना।
11.महायुद्ध की विभीषिका अर्थात् प्रथम महायुद्ध के बाद मानवीय जीवन में निराशा,अस्वीकृति एवं यथार्थता का कटु अनुभव होना।
12.धर्म द्वारा प्रतिपादित प्रतीक एवं परम्पराओं का क्षीण होना एवं मनुष्य के मन में उनके प्रति विद्रोह प्रकट होना।
13.व्यक्तियों द्वारा सुरक्षित मूल्यों के स्थान पर जीवन मूल्यों की ओर बढ़ना
14.वैज्ञानिकता का अभिशाप में बदलना जिसके परिणामस्वरुप ध्वंस,पतन एवं विघटन के युग की शुरुआत होना। वैज्ञानिकता के अभिशाप को लक्षित करते हुए एरिक फ्रॉम (Eric Formm) ने कहा है कि- "19वीं शताब्दी में ईश्वर मरा, तो 20वीं शताब्दी में मनुष्य ही मर गया है।"
15.धार्मिक पराभव अर्थात् वैचारिक क्रान्ति के साथ-साथ धार्मिक जीवन में भी उथल-पुथल का मचना/ होना।
16.चर्च का बुर्जुवा एवं नियन्त्रणकारी स्वरुप होना तथा साधारण आदमी के जीवन में अकारण हस्तक्षेप करते हुए उसके अस्तित्व की स्वतंत्रता और विशिष्टता को नष्ट करना।
17.ईसाई धर्म का मात्र कर्मकाण्ड तक ही सीमित रह जाना अर्थात् उसका अमानवीयकरण की ओर अग्रसर होना। 18.अंधविश्वासों का वर्चस्व स्थापित होना एवं निरंकुशता का विस्तार होना।
अस्तित्ववाद के विभिन्न पक्ष(Various Aspect of Existentialism)
मार्टिन हेडेगर ने अस्तित्ववाद के विभिन्न पक्ष बताए हैं
1.जगत एवं व्यक्तियों के सम्पर्क से उत्पन्न स्थितियों में मानव का होना।
2.उसका सोचना एवं काम करना।
3.रुचि एवं धारणा बनाना।
4.संबंध स्थापित करना।
अस्तित्ववाद के स्तर(Levels of Existentialism)
कार्ल जास्पर्स के अनुसार अस्तित्ववाद के चार स्तर होते हैं
1.डेसिन(Dasein)- डेसिन के अन्तर्गत व्यक्ति का अंतर्जगत एवं बाह्यजगत
दोनों ही आ जाते हैं।
2.चेतना-चेतना में उन पदार्थों का समावेश होता है जिनमें चेतना होती हैं एवं इसके अन्तर्गत मूर्त भावनाओं को भी सम्मिलित किया जाता है।
3.मन- मन का आशय हमारे विचारों तथा प्रत्ययों से संबंधित एवं निर्मित है।
4.भावना भावना का आशय है कि हूँ अर्थात् मेरा अस्तित्व है।
विज्ञान के संदर्भ में अस्तित्ववादियों के विचार(Thoughts of Existentialist about Science)
अस्तित्ववादी दर्शन एवं विज्ञान दोनों की ही आलोचना करते हैं।इस संदर्भ में उनका विचार है कि कोई भी दर्शन एवं विज्ञान किसी भी काम के नहीं है यदि वे व्यक्ति को सुखी नहीं बना सकते।विज्ञान व्यक्ति को केवल अन्य पदार्थों की तरह एक पदार्थ समझता है।जिसका प्रयोगशाला में अध्ययन किया जा सकता है;ठीक उसी तरह जिस तरह विज्ञान में कुत्तों, बिल्लियों एवं चूहों आदि पर किया जाता है।विज्ञान मनुष्य को पशु-पक्षियों के समान ही समझता है।
अस्तित्ववाद के मुख्य सिद्धांत/मान्यताएँ(Main Principles/Postulates of Existentialism)
1.अस्तित्ववाद का केन्द्र बिंदु 'मानव का अस्तित्व' है।
2.अस्तित्ववाद दर्शन का मूल मंत्र है-'अपने को जानो'।
3.मनुष्य के लिए पूर्णता को प्राप्त करना एक चुनौती है।
4.अस्तित्ववाद भौतिकवाद के संकट के प्रति जागरुकता पैदा करता है।
5.अस्तित्ववाद ज्ञान को विशेष महत्त्व प्रदान करता है।
6.अस्तित्ववाद के अनुसार मनुष्य अपने आप में पूर्ण नहीं है लेकिन वह पूर्ण बनने के लिए निरंतर प्रयत्नशील है।
7.अस्तित्ववाद अर्न्तज्ञान का बोध कराता है।
8.मनुष्य अपना मार्ग स्वयं निर्धारित करने के लिए स्वतन्त्र है।
9.मानव को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए स्वयं संघर्ष करना पड़ता है।
10.मनुष्य अपने अस्तित्व के कारण/कारणों को ढूंढने के लिए स्वतन्त्र है।
11.अस्तित्ववाद के अनुसार सत्य एवं ज्ञान की खोज आत्मज्ञान द्वारा होती है।
12.अस्तित्ववाद का सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि हर इंसान को अपना आदर्श चुनने की स्वतन्त्रता है।
13.अस्तित्ववाद में स्वयं के प्रति चेतना जागृत की जाती है।
14.अस्तित्ववाद इस बात पर विशेष बल देता है कि प्रत्येक मनुष्य अपने भाग्य का निर्माण करने में स्वतन्त्र एवं सक्षम है।
15.मनुष्य के जीवन का अंतिम लक्ष्य पूर्णता की प्राप्ति है।
16.अस्तित्ववाद में व्यक्तिवाद(Individualism) पर सबसे ज्यादा बल दिया जाता है।
17.अस्तित्ववाद इस सिद्धांत पर बल देता है कि बाह्य जगत एवं आन्तरिक स्थिति में कोई अंतर नहीं है।
18.अस्तित्ववाद भाग्य को नही बल्कि कर्म को महत्त्व प्रदान करता है।
19.व्यक्ति ही सही है और प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक विशिष्ट अस्तित्व है।
20.सही अर्थों में सिर्फ मनुष्य ही अस्तित्वशील है।
21.व्यक्ति को पूरी आजादी एवं हर व्यक्ति की अपनी विशिष्टता होती है।
22.विज्ञान का मुख्य उद्देश्य सिर्फ पदार्थों विशेष का अध्ययन करना है।
23.व्यक्ति के लिए वही शुभ(अच्छा) है जिससे कि व्यक्ति की आत्मकेन्द्रिता बढ़े और वही अशुभ(बुरा) है जिससे कि वह सिर्फ भीड़ का अनुयायी बने।
24.अस्तित्ववाद ऐसे दर्शन एवं ज्ञान को निरर्थक मानता है जिसमें जिन्दगी के लिए कोई संवेदना न हो अथवा जिसमें संवेदनाओं का अभाव हों।
25.शिक्षा का उद्देश्य प्रसन्नता की प्राप्ति नहीं है;क्योंकि प्रसन्नता जैसी कोई चीज़ है ही नहीं।यह तो केवल एक कल्पना है।
26.जीवन का सर्वोत्तम मूल्य है- चयन/चुनने की स्वतन्त्रता
27.अस्तित्ववाद जन-शिक्षण संस्थाओं का विरोधी रहा क्योंकि इस प्रकार की संस्थाएँ व्यक्ति को भीड़ की एक निर्जीव इकाई बना डालती हैं।
28.जनसाधारण को सामूहिक रुप से शिक्षित करने के स्थान पर व्यक्ति को सही रूप से शिक्षित करना।
29.जन-शिक्षा केवल रटने पर आधारित है एवं इसके द्वारा व्यक्ति का समुचित विकास असंभव है अर्थात् अस्तित्ववादी समग्र रूप से आधुनिक शिक्षा को भय की दृष्टि से देखते हैं।
30.मृत्यु एक अटल,सनातन एवं अंतिम वास्तविकता है इसलिए शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति को इस संदर्भ में सोचना सिखाया जाना चाहिए।दूसरे शब्दों(अर्थ) में यह कहा जा सकता है कि मृत्यु को सामने रखकर ही शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए।
31.जब हम मृत्यु की वास्तविकता को मानसिक स्तर पर स्वीकार कर लेते हैं तो हमारे व्यक्तिगत स्वार्थ,बेईमानी एवं शुद्रताएँ आदि स्वयं ही खत्म (समाप्त) हो जाते हैं।
32.हेडेगर ने मृत्यु के दर्शन को विशेष महत्त्व प्रदान किया तथा इस बात का समर्थन किया कि मृत्यु के लिए दी जाने वाली शिक्षा व्यक्ति को उच्चतर एवं श्रेष्ठ जीवन की ओर अग्रसित करती है।
33.अस्तित्ववाद मनुष्य को एक त्रुटि करने वाला,अनिश्चित बुद्धि वाला प्राणी मानने के साथ-साथ एक अनुसंधानकर्ता भी मानता है।
अस्तित्ववाद की विशेषताएँ(Characteristics of Existentialism)
1.स्वयं के प्रति चेतना जागृत करने का प्रयास करना।
2.व्यक्ति को अपना आदर्श चुनने की स्वतन्त्रता प्रदान करना।
3.भाग्यवाद को न मानना एवं कर्म में विश्वास करना।
4.अस्तित्व के लिए व्यक्ति द्वारा स्वयं संघर्ष करना।
5.'अपने को जानें' मूलमंत्र को महत्व प्रदान करना ।
6.अन्तर्ज्ञान का बोध करना।
7.मनुष्य का पूर्ण न होना बल्कि पूर्ण बनने के लिए प्रयत्नशील रहना। यह विचारधारा/वाद निराशावादी प्रवृत्ति की देन है।
8.पूर्णता प्राप्त करना ही व्यक्ति के जीवन का अंतिम लक्ष्य
9.भौतिकवादी संस्कृति के संकट के प्रति जागरुक करना।
10.व्यक्तिवाद(Individualism) को अधिक बल प्रदान करना।
अस्तित्ववाद एवं शिक्षा के उद्देश्य(Aims of Education and Existentialism)
1. मनुष्य को संसार में उसके अस्तित्व का अनुभव करना।
2.व्यक्ति को सम्पूर्ण रुप से शिक्षित करना 3.छात्र के व्यक्तित्त्व का आदर करना
4.'स्व' के ज्ञान पर बल देना।
5.शिक्षा के संदर्भ में छात्रों के लिए जनतांत्रिक वातावरण प्रदान करना।
6.वस्तुनिष्ठ ज्ञान को महत्त्व देना।
7.मानवतावादी विषयों के अध्ययन पर बल देना।
8.छात्रों को सुरक्षा एवं प्रोत्साहन प्रदान करना।
9.वातावरण को शिक्षा का सशक्त साधन मानना
10.छात्रों के विचारों का स्वागत करना।
11.शिक्षा में स्वतन्त्र वातावरण एवं मुक्त अनुशासन पर बल देना।
12.छात्रों में उचित गुणों का विकास करना
13.शिक्षा में तार्किकता पर विशेष बल देना
14.छात्रों को स्वतन्त्र रुप से सोचने के लिए प्रोत्साहित करना
15.शिक्षण विधि में सुकराती विधि को प्राथमिकता देना
16.छात्रों से संबंधित विभिन्न प्रकार के कल्याण कार्यों का संचालन करना।
17.छात्रों में मौलिकता एवं सृजनशक्ति का विकास करना
18.व्यक्ति को अपने आप की ओर आकृष्ट करना।
19.समस्याओं के निदान/हल के लिए वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग न करके भावनात्मक एवं नैतिक उपायों पर बल देना।
20.शिक्षा में अनुभवादी तरीके पर बल देना।
21.स्वयं को समझने की चेष्टा करना
शिक्षा के संदर्भ में अस्तित्ववाद की भूमिका,प्रभाव एवं महत्त्व(Role,३Impact and Importance of Existentialism in Education)
शिक्षा के संदर्भ में अस्तित्ववाद की भूमिका,प्रभाव एवं महत्त्व को निम्न प्रकार विर्णित किया जा सकता है
1.व्यक्ति की प्रकृति के अनुसार शिक्षा प्रदान करना।
2.शिक्षा के लिए उचित वातावरण की स्थापना करना।
3.छात्रों को सुरक्षा एवं प्रोत्साहन देना तथा शिक्षकों को उचित मान्यता प्रदान करना। 4.शिक्षण विधि में सुकराती विधि को प्राथमिकता देना।
5.शिक्षा के द्वारा मनुष्य को यह अनुभव करना कि उसका इस संसार में महत्त्वपूर्ण स्थान है।
6.शिक्षा के संदर्भ में स्वयं के ज्ञान पर बल देना।
7.स्वयं के विकास के लिए शिक्षा के संदर्भ में स्वतन्त्र वातावरण की आवश्यकता पर बल देना।
8.शिक्षा के संदर्भ में मानवतावादी विषयों पर अधिक बल देना।
9.शिक्षा के उचित विकास के लिए स्वानुशासन की अवधारणा पर बल देना।
10.शिक्षा में अध्यापक के द्वारा परामर्शदाता एवं सहायक की भूमिका का निर्वाह करना।
11.छात्रों पर किसी बाहरी विचार, आदर्श एवं दृष्टिकोण आदि को न थोपना।
12.शिक्षा में अध्यापक के द्वारा छात्रों में मौलिकता एवं सृजनात्मक का विकास करना।
13.शिक्षा के माध्यम से छात्रों में उत्तम गुणों का विकास करना।
अस्तित्ववाद एवं शिक्षक(Existentialism and Teacher)
1.शिक्षक द्वारा विषय को इस तरह से पढ़ाया जाना चाहिए जिससे कि उसकी प्रकृति सही तरीके एवं माध्यम से स्पष्ट सके।
2.शिक्षक के द्वारा प्रमाणों के आधार शिक्षा प्रदान की जाए।
3.शिक्षक के द्वारा शिक्षा के माध्यम से छात्रों में एक स्वतन्त्र प्रकार का परिवर्तन लाने का प्रयास किया जाना चाहिए।
4.विचारों को उधार लेने की बजाय विचारों के औचित्य की अनुभूति कराना।
5.शिक्षक द्वारा छात्रों के शिक्षण के विभिन्न संदर्भों में उचित शिक्षा पद्धति को अपनाना चाहिए।
6.छात्र/व्यक्ति को अपनी विशिष्टता जानने के लिए अभिप्रेरित करना चाहिए।
7.एक शिक्षक को सुकरात की तरह होना चाहिए जो छात्रों को स्वयं जानने एवं परखने के लिए सक्रिय कर सके।
अस्तित्ववाद एवं विद्यार्थी(Existentialism and Student)
अस्तित्ववाद इस बात में पूर्ण विश्वास रखते हैं कि बालक के उचित विकास के लिए स्वतन्त्रता आवश्यक है;अतः वे इस संदर्भ में बालक को पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करने पर बल देते हैं।उनके अनुसार बालक को अपने 'स्व' को पहचानना चाहिए एवं उसे अपनी पूर्णता की ओर अग्रसर होना चाहिए।बालक केवल एक व्यक्ति है और इस संसार में वह अकेला है।इस संसार में न तो कोई उसका मित्र है और न ही कोई हितैषी।प्रत्येक बालक अपनी आवश्यकता एवं मूल्यों को समझ सकता है एवं स्वयं में परिवर्तन/बदलाव कर सकता है।जैसे-जैसे बालक अधिगम की ओर बढ़ता है;वैसे-वैसे वह स्वयं मूल्याकन की ओर अग्रसर होता जाता है।जिसके परिणामस्वरुप वह एक विवेकशील एवं परिपक्व व्यक्ति बन जाता है।अस्तित्ववादी यह मानते है कि शिक्षा का अर्थ बालक/व्यक्ति के व्यक्तित्व की रक्षा करना है एवं इस संदर्भ में उसे अपने व्यक्तित्व के उचित विकास/निर्माण के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए।बालक/व्यक्ति को स्वयं के अनुरूप बनना है।न कि समाज के अनुरूप।इस संदर्भ में अस्तित्ववादी इस बात को विशेष महत्व प्रदान करते हैं कि बालक/व्यक्ति के ऊपर किसी भी प्रकार की सामाजिक स्वीकृतियाँ नहीं लादी जाएं अपितु उसे उसके विकास से संबंधित उचित अवसर प्रदान किए जाएं।
अस्तित्ववाद एवं अनुशासन(Existentialism and Discipline)
अस्तित्ववादी अनुशासन के संदर्भ में निम्न बातों पर विशेष बल देते हैं
1.अनुशासन का आशय है- स्वयं को स्वयं के प्रति उत्तरदायी बनाना
2.बालकों के लिए किसी भी प्रकार के नियमों का न होना अर्थात् उनको पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त होना।
3.बालक के किसी भी अपराध के लिए दंड का विरोधी होना।
4.बालक को कार्य करने से संबंधित पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करना।
5.अनुशासन के संदर्भ में सामान्य एवं सर्वमान्य संहिता को अस्वीकार करना।
6.छात्र अनुशासन से संबंधित परम्परागत विधियों की अवहेलना करना।
7.स्वयं के निर्णयों के अनुरुप अनुशासन स्थापित करना ।
8.अनुशासन से संबंधित उद्देश्य की पूर्ति के संदर्भ में पुरस्कार एवं अभिप्रेरणा का विरोध करना/विरोधी होना।
9.अनुशासन के संदर्भ में बालकों को मूल्यों के स्वतन्त्र चुनाव से संबंधित उचित अवसर प्रदान करना।
अस्तित्ववाद एवं विद्यालय(Existentialism and School)
1.विद्यालय में बालक/व्यक्ति के व्यक्तित्व का आदर होना चाहिए।
2.विद्यालय की दिनचर्या में लचीलापन होना चाहिए।
3.विद्यालय में व्यक्तिगत भिन्नताओं का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए एवं उनका आदर होना (करना) चाहिए।
4.विद्यालय आत्म-अनुशासन की अवधारणा पर संचालित होना चाहिए।
5.व्यक्ति अपने आप में शिक्षा का एक अभिकरण है।
6.विद्यालय में छात्रों के लिए मुक्त,स्वस्थ्य एवं स्वतन्त्र वातावरण होना चाहिए होनी चाहिए।
7.विद्यालय की प्रत्येक क्रियाएँ बालक के व्यक्तित्व के विकास से जुड़ी हुई
8.व्यक्ति अपने विकास एवं अस्तित्व के लिए स्वयं ही उत्तरदायी है।
अस्तित्ववाद एवं पाठ्यक्रम(Existentialism and Curriculum)
1.पाठ्यक्रम द्वारा ज्ञानलोक छात्रों के समक्ष रखना।
2.पाठ्यक्रम में कला एवं साहित्य को विशेष महत्त्व प्रदान करना।
3.व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अंश को महत्त्व प्रदान करना।
4.सामाजिक विज्ञानों एवं इतिहास की शिक्षा को विशेष महत्त्व देना।
5.आत्मिक एवं अनात्मिक ज्ञान के पक्षों में सामंजस्य स्थापित करने पर बल देना ।
6.पाठ्यक्रम में खेलकूद एवं व्यायाम को उचित स्थान प्रदान करना।
अस्तित्ववाद एवं शिक्षण विधियाँ(Existentialism and Methods of Teaching)
अस्तित्ववादी मुख्य रुप से निम्न शिक्षण विधियों पर विशेष बल देते हैं-
1.समस्या समाधान विधि
2.व्यक्तिगत विधि
3.प्रश्नोत्तर विधि
4.क्रिया द्वारा सीखना
5.निरीक्षण विधि
6.संवाद विधि।
अस्तित्ववाद एवं परीक्षा पद्धति(Existentialism and Examination System)
अस्तित्ववादी परीक्षा पद्धति को हेय की दृष्टि से देखते हैं एवं इस तरह (वर्तमान की) की परीक्षा पद्धति का पूर्णतया विरोध करते हैं।उनके अनुसार इस तरह की परीक्षा पद्धति का छात्र/व्यक्ति पर अच्छे की बजाय बुरा प्रभाव पड़ता है।इसी संदर्भ में उनका विचार है कि छात्र/व्यक्ति का उचित मूल्यांकन आधुनिक परीक्षा पद्धति के माध्यम से कभी-भी सम्पन्न नहीं किया जा सकता।
अस्तित्ववाद की आलोचना/दोष /सीमाएँ/अवगुण/कमियाँ
(Criticism/Demerits/Limitations/Weaknesses of Existentialism)
1.इस वाद में 'अस्तित्व' शब्द की उचित एवं स्पष्ट व्याख्या का न होना।
2.अस्तित्ववाद के समर्थकों एवं अनुयायियों का एकजुट न होना; जैसे किर्कगार्द ईश्वर में विश्वास करता था।
सार्त्र ईश्वर में विश्वास नहीं करता था।
जास्पर्स को धार्मिक आत्मा कहा जाता है, जबकि मार्टिन धार्मिकता से दूर/परे था।
3.प्रत्येक अस्तित्ववादियों के शब्दों के अर्थ में वैभिन्य पाया जाता है।
4.प्रत्येक अस्तित्ववादी प्रत्येक चीज़ को अपने ढंग से समझता है।
5.यह वाद औद्योगिक समाज के संदर्भ में अनुपयुक्त प्रतीत होता है।
6.अस्तित्ववादियों का विज्ञान पर प्रहार सब दृष्टियों से उचित नहीं है।
7.आत्मकेन्द्रिता का होना अस्तित्ववाद की एक प्रमुख कमी है।
8.यह वाद अविकसित एवं अस्पष्ट है।
9.इस वाद के सिद्धांत अव्यावहारिक जान पड़ते हैं।
10.इस वाद में प्रयुक्त शब्दावली अस्पष्ट एवं अविकसित है।
11.यह वाद पूर्ण रुप से विकसित नहीं है।
12.यह वाद व्यक्ति एवं उसके अस्तित्व तक ही सीमित है।
Reference - Dr Naresh Kumar Yadav