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Evolution of Constructivism and its Types(रचनात्मकतावाद का उद्भव एवं उसके प्रकार)
Sep 08, 2022   Ritu Suhag

Evolution of Constructivism and its Types(रचनात्मकतावाद का उद्भव एवं उसके प्रकार)

Evolution of Constructivism and its Types(रचनात्मकतावाद का उद्भव एवं उसके प्रकार)

मानव अधिगम के एक विशेष दर्शन या विचारधारा के रूप में रचनात्मकतावाद को जन्म देंने का श्रेय अठाहरवी शताब्दी के एक दार्शनिक जिआम्बा हिस्टा विको (Giamba Hista Vico) को जाता है। जिसने पहली बार यह बताने की कोशिश की हम मनुष्य किसी बात को तभी अच्छी तरह समझ पाते है जब वह बात हमारे स्वयं के द्वारा ही अस्तित्व में आती है (उसकी रचना सृजन या हमारे हाथों से ही होता है।) या स्वयं ही उसने अपने प्रयत्नों से अधिगम किया हो। इसके बाद प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री एवं दार्शनिक जोहन डेवी (John Dewey) ने अनुभव (experience) को शिक्षा और उसकी प्रक्रिया का केन्द्रीय तत्त्व करार देते हुये स्वयं अपने अनुभवों के द्वारा ही ज्ञान प्राप्ति पर बल दिया। शिक्षा की परिभाषा देते हुये डेवी ने लिखा कि "शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसमें अनुभवों की पुनर्रचना तथा पुनर्गठन (reconstruction and reorganization of experiences) का कार्य निरन्तर चलता रहता है।" डेवी की बालक के विकास हेतु उसके अपने अनुभवों की इस प्रकार की सतत पुनर्रचना तथा पुनर्गठन की आवश्यकता सम्बंधी अवधारणा ने ही वह मार्ग प्रदान किया जिस पर आगे चलकर प्रसिद्ध संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिक जीन पियाजे ने अपनी कुछ अनूठी अवधारणाओं जैसे संज्ञानात्मक संरचना, आत्मसातीकरण, समायोजीकरण तथा संतुलनीकरण को प्रस्तुत करते हुये अपने जग प्रसिद्ध संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त तथा रचनात्मकतावादी अधिगम को हमारे सामने रखा। पियाजे के पश्चात् तो रचनात्मकतावाद को प्रोत्साहन देने तथा इससे सम्बंधित सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाले मनोवैज्ञानिकों तथा विद्वानों की मानो लाइन सी लग गई। इस संदर्भ में जिन्होंने अपने बिल्कुल अलग ही विचार रखते हुये उल्लेखनीय योगदान दिया उनमें प्रमुख रूप से लेव व्यगोत्सकी (प्रसिद्ध रूसी मनोवैज्ञानिक), जीरोम ब्रूनर (प्रसिद्ध अमेरिकन संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिक) तथा अरनेस्ट वोन ग्लेजरफील्ड (प्रसिद्ध जर्मन मनोवैज्ञानिक) का नाम लिया जाता है। इन तीनों ने अपनी दार्शनिक विचारधारा और अपने-अपने अनुसंधान कार्यों द्वारा अलग-अलग प्रकार की रचनात्मकतावादी विचारधारा, अधिगम / अनुदेशन तथा विकास के सिद्धान्तों को जन्म दिया। रचनात्मकतावाद के ऐतिहासिक उद्भव की दृष्टि से इन तीनों के द्वारा प्रतिपादित रचनात्मकतावाद को ठीक प्रकार से समझना अति आवश्यक है। अतः हम आगे के पृष्ठों में ऐसा ही करने का प्रयत्न करेंगे।

जीन पियाजे का वैयक्तिक रचनात्मकतावाद(Jean Plaget's Individual Constructivism) 

पियाजे बालकों को सीधे ही पहले से ही वर्तमान या दूसरों के द्वारा सृजित या रचित ज्ञान देने के पक्ष में नहीं था।उसके विचार में सही ज्ञान वह होता है जिसकी प्राप्त करने वाले द्वारा स्वयं रचना की जाती है,जिसे स्वयं उसके द्वारा ढूंढा जाता है अथवा जिसका स्वयं उसके द्वारा अपने अनुभवों के द्वारा अर्जन किया जाता है।पियाजे से पहले कुछ संज्ञानात्मकतावादी मनोवैज्ञानिकों ने अपनी रचनात्मकतावादी विचारधारा को प्रस्तुत करने हेतु सूचना प्रक्रियाकरण उपागम(Information processing approach)का उपयोग करते हुये अपनी यह धारणा व्यक्त की थी कि ज्ञान रचना का कार्य हमारे मस्तिष्क में सूचनाओं या ज्ञान की इन्द्रियजनित अनुभूति से प्रारम्भ होता है।इन्द्रियजनित अनुभूति के रूप में प्राप्त इस इनपुट(Input)का फिर सूचना प्रक्रियाकरण तन्त्र(Information Processing System)के रूप में कार्य कर रहे हमारे मस्तिष्क द्वारा प्रक्रियाकरण (Processing)किया जाता है।इस प्रक्रियाकरण में इन्द्रियजनित अनुभूतियों को पहले चिन्ह संरचनाओं(मान्यताओं, प्रतिमाओं या शीमाज आदि) में बदला जाता है और फिर इन चिन्ह संरचनाओं का प्रक्रियाकरण(पुनरावृत्ति,अभ्यास,विस्तारीकरण आदि) किया जाता है ताकि प्राप्त सूचनाओं या ज्ञान को स्मृति में धारण कर उसका पुनः उत्पादन किया जा सके।इस प्रकार से सूचना प्रक्रियाकरणवादी मनोवैज्ञानिकों के अनुसार "व्यक्ति विशेष अपने मस्तिष्क में हू बहू चित्र बनाते हुये वाह्य वास्तविकता की पुनर्रचना करने का प्रयत्न करता है" (Individual tries to reconstruct outside reality by building accurate mental representations with in his mind).पियाजे ने रचनात्मकतावाद के इस अरचनात्मक तथा असृजनात्मक स्वरूप के विरुद्ध आवाज़ उठाते हुये कहा " ज्ञान वास्तविकता की प्रतिलिपि नहीं है।किसी वस्तु के बारे में जानना या किसी घटना के बारे में जानना उसे देखकर केवल उसकी मानसिक प्रतिलिपि या प्रतिभा कायम करना नहीं है।किसी वस्तु के बारे में जानने हेतु उसके साथ कुछ करना होता है।उसे जानना उसमें कुछ संशोधन करना है,उसको बदलना है तथा इस बदलाव की प्रक्रिया को समझना है और फिर परिणामस्वरूप यह समझना है कि वस्तु की रचना कैसे की गई है।"(Knowledge is not a copy of reality.To know an object, to know an event,is not simply to look at it and make a mental copy or image of it.To know an object is to act on it.To know is to modify,to transform the object and to understand the process of transformation and as a consequence to understand the way the object is constructed -piaget 2003 p.5.)

इस प्रकार से पियाजे ने यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया कि ज्ञान की प्राप्ति स्वयं अपने द्वारा ज्ञान की रचना किये जाने से ही होती है।परन्तु यह कार्य इतना सरल नहीं जितना कि सूचना प्रक्रियाकरणवादी मनोवैज्ञानिकों द्वारा दिखाने की चेष्टा की है।यह सही है कि ज्ञान की रचना का कार्य हमारे मस्तिष्क द्वारा ही किया जाता है परन्तु इसमें सूचना या ज्ञान की हमारी इन्द्रियों द्वारा इस तरह की निष्क्रिय और ऑटोमेटिक उपलब्धि नहीं होती बल्कि हम वस्तुओं,घटनाओं तथा विचारों से सक्रिय अंतः क्रिया कर उन्हें आगे की प्रक्रियाकरण के लिये एक जीवन्त इनपुट(Input) के रूप में अपने ही वैयक्तिक प्रयासों से प्राप्त करते हैं।पियाजे के अनुसार हमारे द्वारा संपादित यह सक्रिय अन्तः क्रिया एक तरह से हमारा अपने परिवेश के साथ ठीक तरह से समायोजित बने रहने का ही प्रयास होता है जिसमें हमारी तीन विभिन्न मानसिक प्रक्रियाओं-आत्मासातीकरण (assimilation),समायोजीकरण (accommodation)तथा संतुलनीकरण (equilibration) की सहायता ली जाती है।किसी नयी वस्तु को समझने के लिये पहले तो बालक अपने विगत अनुभवों के सहारे इसे जानने की कोशिश करता है (आत्मसातीकरण)।परन्तु जब वह इसमें सफल नहीं होता तो यह मस्तिष्क में बैचेनी (असंतुलनीकरण) को जन्म देती है। परिणामस्वरूप वह इसे जानने और समझने के लिये कोई नया तरीका ढूंढने की कोशिश करता है (समायोजीकरण) इसमें सफलता मिलते ही असंतुलन संतुलन में बदल जाता है और वह इस प्रकार आत्मसातीकरण,समायोजीकरण तथा संतुलनीकरण आदि संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं के माध्यम से अपने स्वयं के प्रयत्नों द्वारा ज्ञान की रचना या सृजन कर नयी चीज़ों को समझने या नये कार्यों को करने का ढंग सीखकर अपने परिवेश के साथ समायोजित रहने में सफल हो जाता है।

पियाजे के अनुसार इस प्रकार हमारा अधिगम उस ज्ञान रचना प्रक्रिया का प्रतिफल होता है जिसे हमारे मस्तिष्क में संतुलनीकरण प्रक्रिया की सहायता से हमारे स्वयं और वातावरण के बीच होने वाली गत्यात्मक अन्तः क्रिया के रूप में संपन्न किया जाता है।ज्ञान की रचना इस तरह व्यक्ति विशेष को परिस्थिति विशेष में आवश्यक संतुलन ग्रहण कर अपने वातावरण के प्रति समायोजित रहने में वांछित सहायता प्रदान करती है।यहाँ अब यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिये कि पियाजे द्वारा प्रतिपादित रचनात्मकतावाद में यहाँ पियाजे का उद्देश्य व्यक्ति विशेष को अपने प्रयत्नों द्वारा प्राप्त ज्ञान के आधार पर समायोजित होने में सफलता प्राप्त करने से ही है,उसकी इस बात में कोई रुचि नहीं है कि व्यक्ति के द्वारा प्राप्त या सृजित ज्ञान अपने आप में कितना वास्तविक और सत्य की कसौटी पर खरा उतरने वाला है।इस बात को और स्पष्ट करने के लिये यहाँ वूलफोक(2004, पृष्ठ 222) द्वारा प्रदत एक उदाहरण को प्रस्तुत करना चाहेंगे।"चेलसा नाम की एक छोटी बच्ची एक होस्पीटल के बाल विभाग में एक रोगी बिस्तर पर थी।उसे इससे पहली किसी होस्पीटल का कोई अनुभव नहीं था।नर्स ने निचली मंजिल से इन्टरकोम से फोन किया तो चेला को बिस्तर के ऊपर से आवास आई, 'हे चेलसा तुम कैसी हो ?तुम्हें कुछ चाहिये ?'वेलसा आवाज सुनकर भौचक्की सी रह गई और कोई जवाब उससे नहीं बन पड़ा। नर्स ने दोबारा यही बात दोहरायी परन्तु फिर भी कोई उत्तर नहीं आया।अंत में नर्स ने जोर डाल कर पूछा, "चेलसा क्या तुम वहाँ हो ? कुछ बोलो ?" चेलसा ने धीरे से कहा "हेलो दीवार में यहाँ हूँ।"इस उदाहरण में,जैसी कि वूलफोक ने टिप्पणी की है,छोटी बच्ची चेलसा का एक नयी चकित करने वाली परिस्थिति से सामना होता है और वह है 'बात करती हुई दीवार'। उसे पहले इस तरह का कोई अनुभव नहीं है और इस अवस्था में जो संज्ञानात्मक संरचना (Cognitive Structure) उसके पास है उससे उसे वास्तविकता का सही अंदाज लगाने में कोई मदद नहीं मिलती।इसलिये उसे अपने प्रयत्नों से अपनी वर्तमान संज्ञानात्मक संरचना तथा अपने पूर्व ज्ञान की सहायता लेते हुये अपने लिये आवश्यक ज्ञान की रचना या सृष्टि करनी पड़ती है।आवास किसी एक तरफ से आ रही है और वहाँ कुछ नहीं बल्कि एक दीवार है इस बात का ठीक तरह से निश्चय करने के बाद ही चेलसा इस परिणाम पर पहुँचती है कि वह दीवार ही है जो उससे बात कर रही है।इस प्रकार से चेलसा जो कुछ वह जानती है तथा जो भी परिस्थिति विशेष में उसे सुलभ है उसका उपयोग करते हुये अपने लिये आवश्यक ज्ञान की रचना तथा सृजन करके इस नई परिस्थिति से निपटने का प्रयत्न करती है।और वह इस कार्य में सफल भी रहती है चाहे उसके द्वारा सृजित ज्ञान वास्तविकता से कितना भी दूर क्यों न हो ?इस प्रकार से पियाजे द्वारा प्रतिपादित रचनात्मकतावाद में व्यक्ति विशेष के द्वारा ज्ञान की रचना या सृजन अपने विचारों तथा उपलब्ध परिस्थितियों के समन्वयन,मनन तथा चिन्तन से की जाती है,बाह्य वास्तविकता से इसका कोई लेना देना नहीं होता।इसके अतिरिक्त पियाजे के रचनात्मकतावाद में वैयक्तिक ज्ञान,व्यक्तिगत विश्वास,आत्मबोध और पहचान पर विशेष ध्यान दिया जाता है इसी कारण इसे वैयक्तिक रचनात्मकतावाद की संज्ञा दी जाती है।यहाँ व्यक्ति के द्वारा वांछित ज्ञान की रचना या सृजन सम्बन्धी कार्य अपने स्वयं के प्रत्यक्षीकरण तथा पूर्व ज्ञान के आधार पर अपने स्वयं के प्रयत्नों से अकेले ही बिना किसी वाह्य सहायता के (जैसा कि यहाँ चेलसा द्वारा किया गया था) किया जाता है।इस प्रकार के रचनात्मकतावाद को कभी-कभी मनोवैज्ञानिक रचनात्मकतावाद का भी नाम दिया जाता है।इसके पीछे शायद यही सोच है कि ज्ञान की रचना या उसका सृजन बहुत कुछ मायनों में व्यक्ति विशेष के मन तथा मनोवैज्ञानिक जिन्दगी से ही प्रभावित रहता है।व्यक्ति विशेष में निहित उसकी संज्ञानात्मक संरचना तथा उसकी मानसिक एवं संवेगात्मक अवस्था ही व्यक्ति विशेष को परिस्थिति अनुसार आवश्यक ज्ञान के सृजन में यहाँ सहायक बनती है।पियाजे के द्वारा प्रतिपादित रचनात्मकतावाद को वैयक्तिक रचनात्मकतावाद तथा मनोवैज्ञानिक रचनात्मकतावाद किसी भी रूप में संबोधित किया जाये,एक बात सर्वविदित है कि पियाजे ही सही अर्थों में वह पहला मनोवैज्ञानिक था जिसने रचनात्मकतावाद तथा रचनात्मकतावादी अधिगम की नींव रखी।

व्यगोत्स्की का सामाजिक रचनात्मकतावाद(Vygotsky's Social Constructivism) 

रूस के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक लेव व्यगोत्सकी (1896-1934) ने अपने अनुसंधानात्मक प्रयासों द्वारा पियाजे द्वारा प्रतिपादित वैयक्तिक रचनात्मकतावाद से काफी अलग हट कर एक नये प्रकार के रचनात्मकतावाद को जन्म दिया जिसे हम सामाजिक रचनात्मकतावाद के नाम से जानते हैं।पियाजे द्वारा प्रतिपादित वैयक्तिक रचनात्मकतावाद में ज्ञान की रचना या सृजन का कार्य व्यक्ति विशेष द्वारा अपने स्वयं के प्रयासों से अकेले ही बिना दूसरों की सहायता के लिये किये जाने की बात की जाती है।अतः यहाँ इस प्रकार की रचना या सृजन का कार्य पूर्णतया व्यक्ति विशेष का ही अपना घरेलू या आन्तरिक मामला होता है।किसी ओर की न तो इसमें दखलन्दाजी होती है और न व्यक्ति विशेष इसके लिये किसी तरह की सामाजिक अंतः क्रिया के पचड़े में पड़ता है।इसके ठीक विपरीत व्यगोत्स्की ने रचनात्मकता को वैयक्तिक प्रक्रिया न बनाकर एक स्वस्थ सामाजिक प्रक्रिया के रूप में देखने का सुझाव दिया।उसने इस बात पर जोर दिया कि व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है,समाज में ही रहकर,पारस्परिक वैचारिक अन्तः क्रिया तथा अन्तः सम्बंधों से ही वह बहुत कुछ सीखता है तथा यही बात उसके क्रमिक विकास का कारण बनती है।व्यक्ति से वैयक्तिकता से आगे निकल कर सामाजिकता को उसके रचनात्मक या सृजनात्मक कार्यों का आधार बताने सम्बंधी उसके विचारों ने ही व्यगोत्स्की द्वारा प्रतिपादित रचनात्मकतावाद को सामाजिक रचनात्मकतावाद की संज्ञा प्रदान की है।पियाजे के बाद रचनात्मकतावाद में दूसरे प्रकार की विचारधारा को प्रवाहित करने के कारण उसके रचनात्मकतावाद को “रचनात्मकतावाद की दूसरी लहर(Second wave of constructivism) की भी संज्ञा दी जा जाती है।"रचनात्मकतावाद के इस दूसरे दौर में व्यगोत्स्की (Vygotsky) द्वारा प्रतिपादित सामाजिक रचनात्मकतावाद में ज्ञान सृष्टि का कार्य एक विशुद्ध सामाजिक धरातल पर संपन्न किया जाता है।यहाँ इस बात पर विशेष बल दिया जाता है कि अधिगम एक सामाजिक प्रक्रिया है और व्यक्ति विशेष द्वारा ज्ञान की प्राप्ति या सृष्टि सम्बंधी कार्य उस अवस्था में ही अच्छी तरह संपन्न होता है जहाँ वह कुछ उपयोगी सामाजिक अन्तः क्रिया साधनों जैसे भाषा तथा सामाजिक भाईचारे का प्रयोग करके दूसरों के साथ समूहगत अन्तः क्रिया करने अथवा अपने बड़ों या साथियों का इस दिशा में सहयोग प्राप्त करने में सफल रहता है।अपने इन विचारों को व्यवहारात्मक रूप देने हेतु व्यगोत्स्की ने इस बात का प्रतिपादन किया कि ज्ञानरचना या सृष्टि का कार्य उसके दो प्रमुख चरणों में पूरा किया जाता है।इन्हें हम (i) सरल और प्रारम्भिक चरण तथा (ii) जटिल एवं अनुवर्ती चरण के नाम से जान सकते हैं। अपने प्रथम चरण में व्यक्ति द्वारा कुछ आवश्यक सरल एवं सामान्य अवधारणाओं से युक्त ज्ञान की सृष्टि करने का प्रयत्न किया जाता है।व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला यह ज्ञान की रचना करने सम्बंधी कार्य अपने स्वयं के दिन प्रतिदिन के अनुभवों से लाभ उठाते हुये ही किया जाता है अतः यह सभी तरह से अपनी दुनिया को समझने का व्यक्ति का अपना वैयक्तिक प्रयास ही होता है।अपने दूसरे चरण में ज्ञान रचना या सृष्टि का कार्य अपेक्षाकृत कुछ अधिक ऊँचे स्तर पर संपन्न किया जाता है।वांछित ज्ञान से सम्बंधित सरल एवं सामान्य अवधारणाओं को प्रथम चरण में अर्जित करने के बाद यहाँ अब कुछ अधिक कठिन एवं विशिष्ट अवधारणाओं को ग्रहण करने का प्रयास किया जाता है।प्रथम चरण की तरह यहाँ अब ज्ञान सृष्टि का कार्य विशुद्ध वैयक्तिक तौर पर नहीं किया जाता बल्कि इसे किसी अपने से बड़े,कुशल तथा अनुभवी व्यक्ति या ज्यादा जानकार अपने किसी साथी से आवश्यक सहायता तथा मार्ग निर्देशन प्राप्त करते हुये संपन्न करने के प्रयत्न किये जाते हैं।व्यगोत्स्की इस तरह व्यक्ति विशेष द्वारा अपने सभी प्रकार के संभावित निजी प्रयास करते हुये विशुद्ध वैयक्तिक रूप में अपने आप स्वतन्त्र रूप से ज्ञान की रचना या सृष्टि करने के विरुद्ध नहीं था।हाँ इस सम्बंध में उसकी यह स्पष्ट राय थी कि वांछित ज्ञान से सम्बंधित सरल और सामान्य बातों का जहाँ बालक के द्वारा स्वयं अपने प्रयासों द्वारा अर्जन और सृजन किया जाना चाहिये वहाँ उससे सम्बंधित कठिन और विशिष्ट बातों का अर्जन और सृजन जिनकी उसे अपने विकास की मंजिले तय करने में बेहद जरुरत होती है, प्रथम चरण के वैयक्तिक रचनात्मकतावाद से नहीं बल्कि इस दूसरे चरण के सामाजिक रचनात्मकतावाद को अपनाने से ही अच्छी तरह संभव हो सकता है।दूसरे शब्दों में बालक अपने आप वांछित ज्ञान से सम्बंधित सारी बातें स्वयं के प्रयासों से अर्जित या सृजित नहीं कर सकता,बड़ों या साधी योग्य बालकों से अन्तः क्रिया करने तथा उनके द्वारा प्रदत्त अनुदेशन,सहयोग तथा परामर्श से प्राप्त करके ही वह इस सम्बंध में पूर्णता को प्राप्त कर सकता है।बालक की ज्ञान प्राप्ति या सृष्टि के इस कार्य में सामाजिक अन्तः क्रिया,सांस्कृतिक परिवेश तथा बड़ों से प्राप्त परामर्श की भूमिका का चित्रण करने हेतु व्यगोत्स्की ने एक नये पद की सृष्टि की जिसे उसने "जोन ऑफ प्रोक्सीमल डैबलपमेंट" या जैड पी डी (Zone of Proximal Development or ZPD) की संज्ञा दी। इसकी परिभाषा उसने बालक को मिलने वाले कुछ ऐसे अवसर,सुविधाओं तथा परिस्थितियों के रूप में दी जहाँ वह किसी वयस्क या अपने से अधिक योग्य साथी की सहायता(Scaffolding)से अपनी समस्या को हल कर सकता है।प्रोक्सीमल (Proximal) का मतलब होता है 'अगला' (Next) इसके दो अभिप्राय है एक तो यह कि ज्ञान सृष्टि के कार्य में रत बालक के लिये ज्ञान और अनुभव में अपने से आगे (Superior) के व्यक्ति द्वारा काफी सहायता मिल सकती है।वह उनके पर्यवेक्षण,मार्गदर्शन या साथ मिलकर कार्य करने से काफी अधिक सीख सकता है।संस्कृति और संस्कार जन्य अनुभव तथा वयस्कों एवं साथियों द्वारा प्रयुक्त अन्य परिवेश जन्य साधन जैसे भाषा,मानचित्र कम्पयूटर्स,दृश्य-श्रव्य सहायक सामग्री बालक को ज्ञान की रचना कर अधिगम पथ पर आगे बढ़ने में काफी सहयोगी सिद्ध होते हैं।अपने दूसरे अर्थ में प्रोक्सीमल पद से अभिप्रायः विद्यार्थियों को ज्ञान की सृष्टि हेतु तत्पर करने की कुंजी हम बड़ों के द्वारा हमारे इस पूर्वाभास से होती है कि हमारे जैंड पीडी (ZPD) यानी आगे ऐसी कौन सी चीज उपलब्ध है जिसकी मदद से विद्यार्थी विशेष को ज्ञान सृष्टि के कार्य में उचित रूप से मदद की जा सके।इस प्रकार से व्यगोत्स्की ने अपने सामाजिक रचनात्मकतावाद को प्रतिपादित करते हुये यह स्पष्ट किया कि ज्ञान रचना या सृष्टि की एक ऐसी सजीव प्रक्रिया है जिसमें विद्यार्थी अपने सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश में निहित विविध प्रकार के अनुभवों का अपने इस कार्य हेतु वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही स्तरों पर भलीभांति उपयोग में लाते हुये पाये जाते हैं और विद्यार्थी उसी अवस्था में ज्यादा अच्छी तरह से सीख सकते हैं।जबकि वे बड़ों या अपने साथियों के संपर्क में रहकर उनसे वांछित सहायता और परामर्श प्राप्त करते हुये अपने स्वयं के प्रयासों से वस्तु या प्रक्रियाओं से सम्बंधित ज्ञान की प्राप्ति या सृष्टि कर सकें।

वोन ग्लेजरफील्ड का क्रान्तिकारी रचनात्मकतावाद(Von Glaserfeld's Radical Constructivism)

वोन ग्लेजरफील्ड का जन्म 1917 में जर्मनी के म्यूनिख शहर में हुआ तथा वे फिर अमेरिका में जाकर बस गये।इन्हें एक विशेष प्रकार के रचनात्मकतावाद का प्रणेता माना जाता है जिसे हम क्रान्तिकारी या अधिक सक्रिय रचनात्मकतावाद(Radical constructivism)के नाम से जानते हैं। वोन ग्लेजरफील्ड ने स्वयं ही अपने इस पद रेडीकल कन्सट्रकटिविष्य(Radical Constructivism)का 1974 में प्रचलन आरम्भ किया था। उसने इसे "कोई समझौता न करने" (uncompromising) तथा "जड़ों तक पहुँचने" (going to roots) के अर्थों में प्रयुक्त करने का प्रयास किया।उसके अनुसार उसके द्वारा प्रतिपादित रचनात्मकतावाद एक ऐसे रचनात्मकतावाद का प्रतिनिधित्व करता था जिसका किसी अन्य प्रकार के रचनात्मकतावाद से कोई मेल नहीं खाता तथा इसमें जो विचारधारा प्रस्तुत की जा रही है।वह दूसरों से अलग ही रहेगी इस बारे में कोई समझौता नहीं किया जाता क्योंकि यह रचनात्मकतावाद की जड़ में जाकर उसके वास्तविक तथा व्यावहारिक पक्ष को समुचित ढंग से प्रस्तुत करती है।अपने द्वारा प्रतिपादित रचनात्मकतावादी विचारधारा के प्रस्तुतीकरण में वोन ग्लेजरफील्ड स्विटरलैन्ड निवासी मनोवैज्ञानिक जीन पियाजे से ज्यादा प्रभावित नजर आ सकते हैं।उन्होंने पियाजे को रचनात्मकतावाद का असली जन्मदाता बताया है तथा उसके द्वारा प्रतिपादित संतुलनीकरण(equilibration) की अवधारणा (जिसमें आत्मसातीकरण तथा समायोजीकरण की प्रक्रियाओं का समावेश रहता है)की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है क्योंकि यह बालक को अपने ढंग से अपने परिवेश को जानने और समझने हेतु ज्ञान की रचना तथा सृष्टि करने का पूरा-पूरा अवसर प्रदान करती है।अपने इस रचनात्मकतावाद के प्रतिपादन हेतु उसने पहले हमारे सामने अपने ऐसे सशक्त विचारों तथा अटूट मान्यताओं को पेश किया जिनके सम्बंध में वह अपने समय में वर्तमान अन्य रचनात्मकतावादी विचारधाराओं से कोई समझौता करने के लिये तैयार नहीं था।इसलिये उसने अपने द्वारा प्रतिपादित रचनात्मकतावाद को सबसे बिल्कुल अलग तथा वर्तमान में मौजूद रचनात्मकतावाद के स्वरूप में परिवर्तन लाने वाला एक क्रान्तिकारी रचनात्मकतावाद(Radical Constructivism) कहा।अपने विचारों को प्रस्तुत करते हुये ग्लेजरफील्ड ने कहा कि वह विद्यार्थियों के द्वारा ज्ञान रचना या सृष्टि के लिये काम में लाये जाने वाले वर्तमान उपागमों से संतुष्ट नहीं है और खासकर 'वास्तविकतावादी उपागम' से तो बिल्कुल भी नहीं।इस उपागम में विद्यार्थी के सामने विषय सामग्री को अध्ययन या अन्य बड़ो द्वारा प्रस्तुत कर उससे यह अपेक्षा की जाती थी कि वह उसे ग्रहण करके(समझने सीखने के द्वारा),तथा फिर उसका प्रक्रिया करण करके (अपनी तरह से उसकी पुर्नरचना करने के द्वारा) उसी रूप में पुन: उत्पादन करे जिस रूप में उसे यह सामग्री प्रदान की गई थी।वोन ग्लेजरफील्ड ने इस पर टिप्पणी करते हुये कहा कि यह कुछ नहीं बल्कि जो कुछ बालक ने ग्रहण किया है उसी का पुनः प्रस्तुतीकरण मात्र ही है।इस प्रकार की शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में बालक द्वारा निभाई जाने वाली सक्रिय भागीदारी या कुछ ऐसा जिसमें बालक को ज्ञान की रचना या सृष्टि का अवसर मिल सके पूरी तरह अनुपस्थित ही है।अगर वास्तव में सही तरीके से बालकों को ज्ञान की स्वयं प्राप्ति तथा स्व रचना की ओर उन्मुख करना है तो कुछ और ही करना पड़ेगा।इस सम्बंध में अपने रचनात्मकतावाद की विचारधारा को सामने लाते हुए उसने उसके सम्बंध में निम्न प्रकार की आधारभूत धारणाओं को हमारे सामने रखा।

1.शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में बालक द्वारा निष्क्रिय रहकर ज्ञान की प्राप्ति तथा उसका पुनः प्रस्तुतीकरण किया जाना ठीक नहीं है उसके द्वारा ज्ञान की रचना और सृष्टि पूरी तरह सक्रिय रहकर की जानी चाहिये।

2.बालक को ज्ञान की रचना या सृष्टि करने के लिये अपने अनुभवों को उचित रूप से संगठित कर उनसे अधिक फायदा उठाने की कोशिश करनी चाहिये।इस कार्य हेतु उसे वांछित अनुकूलन तथा संतुलनीकरण में सहायक अपनी संज्ञानात्मक योग्यताओं एवं क्षमताओं(जैसा कि पियाजे ने भी कहा है) का यथोचित उपयोग करना चाहिये।

3.किसी भी बालक या व्यक्ति का "जड़ों तक पहुँचना(going to the roots)" नये ज्ञान की सृष्टि या नये संप्रत्यय के अधिगम में बहुत हितकारी सिद्ध हो सकता है।अतः यह बात स्पष्ट है कि बालक किसी विषय विशेष से सम्बंधित जो भी ज्ञान एवं विचार इस समय रखता है उससे उसके उस विषय से सम्बंधित आगामी ज्ञान की प्राप्ति विशेष रूप से प्रभावित होती है।अतः जब भी किसी विषय विशेष में नवीन ज्ञान की सृष्टि एवं सृजन बालकों द्वारा की जाये उसे पहले से ही अपने में निहित उससे सम्बंधित ज्ञान की तह तक जरूर जाना चाहिये ताकि वह उसका उचित लाभ इस समय किये जाने वाले कार्य में उठा सके।

4.बालक अपने परिवेश में स्थित वस्तुओं और घटनाओं के बारे में जो धारणायें या विचार रखता है उनका वह अपने स्वयं के प्रयत्नों/अनुभवों से ही सृजन तथा अधिगम करता है।इन्हें वह इस प्रकार ग्रहण नहीं करता जैसे किसी ने पकी पकाई खीर परोस दी हो।इस प्रकार से देखा जाये तो ग्लेजरफील्ड ने अपने रचनात्मकतावादी दर्शन द्वारा यह बताने की चेष्टा की कि ज्ञान रचना या सृष्टि का कार्य वैयक्तिक है।व्यक्ति विशेष इस कार्य हेतु अपनी अनुभवजन्य दुनिया के साथ अन्तः क्रिया करता है और परिणामस्वरूप अपनी इस दुनिया की चारदीवारी में अपनी संज्ञानात्मक क्षमताओं के सहारे ज्ञान की सृष्टि करता है।भाषा तथा सामाजिक वातावरण द्वारा ज्ञान सृष्टि में निभाई जाने वाली भूमिका के बारे में ग्लेजरफील्ड ने स्पष्ट किया कि कोई भी भाषा तथा सामाजिक वातावरण बालक को तस्तरी(प्लेट) में परोसकर नहीं दिये जा सकते इनका उसके द्वारा(नवीन ज्ञान की तरह) स्वयं ही अर्जन तथा सृजन होता है। हाँ इस बात में अवश्य सच्चाई है कि सामाजिक प्राणी होने के नाते हमारा अधिगम सामाजिक वातावरण में अधिक अच्छी तरह से सम्पन्न होता है और यही कारण है कि समूहगत कक्षा शिक्षण में बालक को शिक्षा-दीक्षा और विकास का कार्य अकेले घर या अन्य ट्यूटोरियल प्रणालियों की तुलना में बहुत अधिक प्रभाणपूर्ण सिद्ध होता है।सामाजिक वातावरण की ऐसी प्रभावशीलता में विश्वास रखने के ही कारण ग्लेजर फील्ड द्वारा प्रतिपादित रचनात्मकतावाद में व्यगोत्स्की द्वारा प्रतिपादित सामाजिक रचनात्मकतावाद के भी कुछ तत्त्वों की झलक दिखाई दे जाती है परन्तु उसका यह रचनात्मकतावाद न तो पियाजे द्वारा प्रतिपादित वैयक्तिक रचनात्मकतावाद का पर्याय ठहराया जा सकता है और न व्यगोत्स्की द्वारा प्रतिपादित सामाजिक रचनात्मकतावाद का।यहाँ उसने अपना एक अलग ही रास्ता बनाया है जो उसके समय में प्रचलित रचनात्मकतावादी विचारधाराओं से साम्य,नहीं रखता था।उसकी इस भिन्नता के दर्शन हमें उसके द्वारा प्रकट किये गये निम्न विचारों में हो सकते हैं-बालक कक्षा के सामाजिक वातावरण में उसे प्रदत्त अनुभवों के माध्यम से सीख सकता है परन्तु इस कार्य को बेहतर अंजाम देने के लिये उसके मस्तिष्क में विषयवस्तु (पूर्व रचित या सृजित ज्ञान) को ठूंसने के बजाय उसकी इस बात में सहायता की जानी चाहिये कि वह स्वयं के प्रयासों द्वारा ज्ञान की सृष्टि करके या नवीन विचारों को ग्रहण करके विषय वस्तु से सम्बंधित नयी बातों को अच्छी तरह से समझ सके।

ब्रूनर का संज्ञानात्मक रचनात्मकतावाद(Bruner's Cognitive Constructivism)

प्रसिद्ध संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिक जेरोम ब्रूनर संज्ञानात्मक विकास,अनुदेशन तथा अधिगम में अपने बहुचर्चित योगदान के अतिरिक्त अपनी रचनात्मकतावादी विचारधारा के लिये काफी जाना जाता है।उसका रचनात्मकतावादी दर्शन एक समन्यवादी दर्शन था जिसमें वैयक्तिता तथा सामाजिक दोनों प्रकार के रचनात्मकतावादी विचारधाराओं का अनूठा संगम नजर आ सकता है।आइये इस बात को उसके द्वारा प्रतिपादित रचनात्मकतावादी सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में परखने का प्रयत्न किया जाये।

1.अपने रचनात्मकतावाद को प्रतिपादित करते हुये ब्रूनर ने कहा कि एक बालक उपयोगी ज्ञान की प्राप्ति तभी कर सकता है जब उसे ऐसी सभी वांछित सुविधायें तथा अवसर प्रदान किये जाये जिनमें वह स्वयं अपने प्रयत्नों से स्वतन्त्र रूप में अथवा बड़ों की देखरेख,मार्गदर्शन तथा निर्देशन में अपने वातावरण के साथ अन्तः क्रिया करके वांछित ज्ञान की सृष्टि अथवा सृजन कर सके।ब्रूनर ने इस प्रकार के अधिगम को खोज अधिगम(Discovery learning)कहा।ब्रूनर ने आगे यह स्पष्ट किया कि इस प्रकार की ज्ञान रचना प्रक्रिया या स्व-अधिगम में अधिगम कर्ता का सक्रिय रहना नितान्त आवश्यक है।उसे विषय से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण अवधारणाओं तथा सिद्धान्तों से अवगत होने के लिये एक अच्छे आत्मनिर्भर अन्वेषण कर्ता तथा खोजी की भूमिका निभानी चाहिये।उसे कभी भी वह ज्ञान जो दूसरो के द्वारा(अध्यापक या अन्य गुरुजन) कहकर,दिखाकर या वर्णन करके उसे दिया जा रहा है तब तक स्वीकार नहीं कर लेना चाहिये जब तक वह स्वयं उसकी सत्यता तथा वास्तविकता से ठीक प्रकार आश्वस्त न हो जाये।

2.ज्ञान की सृष्टि और खोज सम्बंधी कार्य में यद्यपि ब्रूनर ने एक विद्यार्थी को उचित स्वतन्त्रता प्रदान कर केन्द्रीय भूमिका निभाने के लिये आमंत्रित किया परन्तु यहाँ उसने विद्यार्थी विशेष को उसके उद्देश्य के पूर्ति में समुचित सहायता प्रदान किये जाने के संदर्भ में माता पिता,अध्यापकों तथा अन्य गुरुजनों की भूमिका को भी नहीं भुलाया।इस सम्बंध में उसने कहा कि विद्यार्थी अपनी ज्ञान सृष्टि या खोज के कार्य में सदैव अकेला ही लगा रहे यह बात नही है।जो ज्ञानवान है उनके द्वारा उसे अपने इस कार्य में उपयोगी सहायता तथा मार्ग-दर्शन प्रदान किया जा सकता है।फलस्वरूप अपने द्वारा प्रतिपादित 'खोज अधिगम'(discovery learning) तथा संप्रत्यय उपलब्धि प्रतिमान(Concept Attainment Model) में ब्रूनर ने यह प्रावधान रखा कि शिक्षक द्वारा अपने संप्रत्यय अनुदेशन में विद्यार्थी के सामने कुछ उदाहरण रखे जाये और विद्यार्थी उन उदाहरणों के प्रति अपनी सक्रिय अनुक्रिया व्यक्त करते हुये अपने स्वयं के प्रयत्नों से संप्रत्यय विशेष के बारे में उपयुक्त तथ्यों का ज्ञान प्राप्त कर सकें या उचित निष्कर्ष निकाल सकें।ब्रूनर ने इस सम्बंध में यह भी कहा कि ज्ञान सृष्टि या खोज के अपने इस कार्य में विद्यार्थी दो तरह से आगे बढ़ सकते हैं।एक में वे पूरी तरह आत्मनिर्भर रहते हुये अपने वातावरण के साथ अन्तः क्रिया करते हुए और सम्बंधित क्रियाओं को अपने ही ढंग से संपादित करते हुये नजर आ सकते हैं तो दूसरे में,जिसे ब्रूनर ने निर्देशित खोज(guided discovery) का नाम दिया,बालक को उसके उद्देश्य पूर्ति में अध्यापक तथा अन्य गुरुजनों से भी समुचित सहायता एवं मार्गदर्शन प्राप्त हो सकता है।इस तरह ब्रूनर ने अपने समकालीन दोनों ही प्रकार की — वैयक्तिक तथा सामाजिक (individualistic and social) विचार-धाराओं को अपने रचनात्मकतावाद में स्थान देने का प्रयत्न किया।प्रश्न उठता है कि ब्रूनर जो बालक को अपने ज्ञानार्जन में एक पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर,स्वतन्त्र तथा सक्रिय अनुसंधान कर्त्ता,पूछताछ करने वाला या खोजी के रूप में देखना चाहता था आखिर उसने इस कार्य में फिर अध्यापक तथा अन्य गुरुजनों से सहायता या मार्गदर्शन प्राप्त करने की बात पर क्यों जोर दिया ?

इस सम्बंध में पहली बात तो यह थी कि खोज अधिगम(ज्ञान सृष्टि या खोज की प्रक्रिया) से सम्बंधित अपने अनुसंधान कार्य करते हुये ब्रूनर ने यह देखा कि बालकों को अपने इस स्व-खोज(self discovery) पथ पर चलते हुये नवीन ज्ञान की सृष्टि या खोज में काफी व्यावहारिक अड़चने तथा कठिनाइयाँ आती है विशेषकर तब,जब खोज किये जाने वाले विषय सम्बंधी तथ्य,संप्रत्यय तथा सिद्धान्त एक दम नये,कठिन तथा पेचीदा हों।दूसरी ओर (पियाजे से अलग चलते हुये) उसने यह पाया कि बालकों द्वारा अपने प्रयत्नों से होने वाली ज्ञान सृष्टि या खोज प्रक्रिया में सामाजिक अन्तः क्रियाओं तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक अनुभवों द्वारा काफी प्रभावकारी भूमिका निभाई जा सकती है।अपने इस प्रकार के अध्ययन परिणामों पर प्रकाश डालते हुये उसने अपनी पुस्तक 'दी कल्चर ऑफ एजूकेशन'(The Culture of Education) में लिखा है कि "संस्कृति हमारे मन का निरुपण करती है और यह हमें ऐसा उपकरण बॉक्स (Toolkit) देती है जिससे हम केवल अपनी दुनिया की ही रचना नहीं करते बल्कि हमें स्वयं अपने बारे में धारणायें बनाने तथा शक्तियों को प्राप्त करने में इससे सहायता मिलती है।"(Culture shapes the mind and it provides us with a toolkit by which we construct not only our worlds, but our very conceptions of ourselves and our powers).अधिगम या ज्ञान सृष्टि प्रक्रिया में संस्कृति और सांस्कृतिक अनुभवों के इस प्रकार में योगदान सम्बंधी ब्रूनर के विश्वास को एक ठोस आधार फिर तब प्राप्त हुआ जब उसने यह पाया कि मानव मस्तिष्क का सूचना प्रक्रियाकरण सम्बंधी दृष्टिकोण यह स्पष्ट करने में असमर्थ रहता है कि इस संदर्भ में हमारा मस्तिष्क किस प्रकार से ज्ञान की रचना या सृष्टि करता है।फलस्वरूप ब्रूनर ने मस्तिष्क की प्रकृति और कार्यप्रणाली को सामाजिक एवं सांस्कृतिक अनुभवों के परिप्रेक्ष्य में देखने व प्रयत्न करते हुये इस बात पर जोर दिया कि यद्यपि वस्तुओं और घटनाओं के अर्थ (उनसे सम्बंधित ज्ञान)हमारे मस्तिष्क में ही रहते हुए दिखाई देते है परन्तु वास्तव में उनका स्त्रोत तथा उनसे सम्बंधित ज्ञान व्यक्ति विशेष की अपनी संस्कृति और सामाजिक अनुभवों में छुपे रहते हैं।यहाँ अब यह अच्छी तरह समझा जा सकता है कि ब्रूनर द्वारा व्यक्त इस प्रकार के विचार किस तरह से यह कहते हुये नजर आते हैं कि ब्रूनर का रचनात्मकतावाद अपने में सामाजिक रचनात्मकतावाद को किस तरह आत्मसात किये हुये हैं।इस प्रकार से पियाजे,व्यगोत्स्की,वोन ग्लेजरफील्ड तथा ब्रूनर ने अपनी-अपनी तरह से रचनात्मकतावाद की व्याख्या करके यह बताने की चेष्टा की कि बालक वैयक्तिक या समूह गत अधिगम परिस्थितियों में ज्ञान की सृष्टि या खोज करके आवश्यक अधिगम कैसे ग्रहण करते रहते हैं।देखने में ऐसा लग सकता है कि इन चारों के द्वारा प्रतिपादित रचनात्मकतावादी विचारधाराओं में बहुत अन्तर है।परन्तु वास्तविकता यह नहीं है।सबका उद्देश्य एक ही है कि किस प्रकार बालक को इस रूप में देखा जाये कि वह ज्ञान की प्राप्ति स्वयं अपने प्रयत्नों से कर सके।जैसा ज्ञान किसी परिस्थिति विशेष में उसे चाहिये उसका रचनाकार या सृजनकार वह स्वयं हो अब यह बात अलग है कि वह इस कार्य में बिना किसी सहायता के सफल हो जाये अथवा उसे अपना कार्य करने के लिये माता पिता, अध्यापक, सहपाठी या अन्य गुरुजन(जो उसे सहायता देने के योग्य हों) की सहायता,निर्देशन या परामर्श की जरूरत भी पड़ जाये।सीखने वाला कैसा है तथा जो कुछ सीखा जा रहा है उसकी प्रकृति कैसी है इन दोनों पर ही यह निर्भर करता है कि सीखने वाले के द्वारा अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु कोई सहायता किस रूप में ली जाये।जब अपने प्रयत्नों से किसी अधिगम के अर्जन(ज्ञान की रचना या सृजन) में अड़चन कठिनाई अनुभव हो रही हो तो इस बात में ही समझदारी है कि दूसरों से आवश्यक सहायता या मार्गदर्शन प्राप्त कर लिया जाये।हाँ इस प्रकार की सहायता या मार्गदर्शन देने वाले और प्राप्त करने वालों के लिये यहाँ अब यह जरूरी हो जाता है कि वह अब इस बात का ध्यान रखें कि जितनी जरूरत हो उसी मात्रा में इस प्रकार की सहायता या मार्गदर्शन से अपनी सार्थक भूमिका निभाई जाये ताकि रचनात्मकताबाद के असली उद्देश्य को पलीता न लग जाये।निष्कर्ष रूप में इस तरह यही कहा जा सकता है कि रचनात्मकतावाद तभी अच्छी तरह के व्यावहारिक और उपयोगी सिद्ध हो सकता है जब उसके वैयक्तिक रचनात्मकतावाद तथा सामाजिक रचनात्मकतावाद से सम्बंधित दार्शनिक विचारधाराओं का सुन्दर व्यावहारिक समन्वय देखने को मिले।दूसरे शब्दों में ज्ञान प्राप्ति हेतु रचनात्मकतावादी विचारधारा को अपनाते हुये हमें यह देखना चाहिये कि हम सामाजिक तथा सांस्कृतिक वातावरणजन्य परिस्थितियों का इस तरह नियोजन एवं संगठन करें कि इनसे बालकों को ऐसी आवश्यक सहायता प्राप्त हो सके जिसका अच्छे से अच्छा उपयोग कर वे अपनी योग्यताओं और क्षमताओं के अनुरूप प्रयत्न करते हुये वांछित ज्ञान की रचना या सृष्टि सम्बंधी प्रयासों में रत रहकर अपने स्वयं के तथा समाज के विकास में भरसक योगदान कर सकें।

Reference -Uma Mangal&SK Mangal


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