Emotional Development(संवेगात्मक विकास)
After reading this article you will be able to answer the following questions-
*What are emotions?
*What are different types of emotions?
*explain emotional development during different stages of development.
*What are the various factors affecting emotional development?
*What are the different methods of training of emotions?
संवेगात्मक विकास मानव वृद्धि और विकास का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है।प्रेम, क्रोध,भय, घृणा आदि संवेग बच्चे के व्यक्तित्व और विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। व्यक्ति का संवेगात्मक व्यवहार केवल उसके शारीरिक वृद्धि और विकास को ही प्रभावित नहीं करता बल्कि बौद्धिक, सामाजिक, नैतिक और सौन्दर्यबोध के विकास पर भी यथेष्ट प्रभाव डालता है। संवेगों की मानव जीवन में इस बहुमुखी उपयोगिता के कारण उनके बारे में पूरी तरह जानना अति आवश्यक हो जाता है। संवेग क्या हैं? इनका उद्गम (Origin) क्या है ? इनका विकास कैसे होता है ? व्यक्ति को ये किस प्रकार प्रभावित करते हैं। संवेगात्मक विकास को कौन-कौन से महत्त्वपूर्ण कारक प्रभावित करते हैं ? संवेगों को किस प्रकार ठीक तरह प्रशिक्षित किया जा सकता है ? इस प्रकार के कुछ प्रश्नों के उत्तरों के माध्यम से ही हम संवेगात्मक विकास की अवधारणा से परिचित होना चाहेंगे।
संवेग क्या हैं?-संवेग का अर्थ(What arg Emotions?-Meaning of Emotion)
संवेग शब्द अंग्रेजी के इमोशन (Emotion) शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। शब्द व्युत्पत्ति के अनुसार Emotion शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के शब्द Emovere से मानी जाती है जो 'उत्तेजित करने' 'हलचल मचाने' 'उथल-पुथल या क्रान्ति उत्पन्न करने' जैसे अर्थों में प्रयुक्त होता है।
1.वुडवर्थ(Woodworth) ने इन अर्थों से प्रेरणा ग्रहण करके Emotion अर्थात् संवेग को निम्न शब्दों में परिभाषित करने का प्रयत्न किया है "संवेग किसी प्राणी की गतिमान और हलचलपूर्ण अवस्था है। व्यक्ति को यह स्वयं अपनी भावनाओं की उत्तेजनापूर्ण स्थिति प्रतीत होती है। दूसरे व्यक्ति को यह उत्तेजित अथवा अशांत मांस पेशियों और ग्रन्थियों की एक क्रिया के रूप में दिखाई देती है।"
2.क्रो व क्रो (Crow and Crow) ने संवेगों की परिभाषा इस प्रकार से दी है "संवेग वह भावात्मक अनुभूति है जो व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक उत्तेजनापूर्ण अवस्था तथा सामान्यीकृत आंतरिक समायोजन के साथ जुड़ी होती है और जिसकी अभिव्यक्ति ऊपरी के द्वारा होती है।
3.मकडूगल(McDougall) ने मूल प्रवृत्तियों (Instincts) को जन्मजात प्रवृत्तियां मानते हुए उन्हें सभी प्रकार के संवेगों को जन्म देने वाला कहा है। उसके अनुसार मूलप्रवृत्तिजन्य व्यवहार के तीन पक्ष होते हैं
(a.)ज्ञानात्मक पक्ष(Cognitive Aspect) (b)भावात्मक पक्ष( Affective Aspect) (c)क्रियात्मक पक्ष(Conative Aspect)
उदाहरण के रूप में जब बच्चा किसी सांड को अपनी ओर आता हुआ देखता है तब उसके मूलप्रवृत्तिजन्य व्यवहार में उपरोक्त तीनों पक्ष देखने को मिलते हैं। पहले तो वह सांड का प्रत्यक्षीकरण करता है। यह जानकर कि यह सांड है, उसे भय नामक संवेग की अनुभूति होती है। इस अनुभूति के परिणामस्वरूपं वह भाग कर अपनी प्राण-रक्षा करने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार के उदाहरणों के आधार पर मकडूगल ने यह निष्कर्ष निकाला कि मूलप्रवृत्तिजन्य उत्तेजना के समय होनेवाली भावात्मक अनुभूति को ही संवेग कहा जाता है। उसने मुख्य रूप से 14 मूलप्रवृत्तियों की चर्चा की और स्पष्ट रूप
से संवेगों को इन मूलवृत्तियों से विकसित होते हुए दिखाया।उपरोक्त परिभाषाओं और संवेगों की उत्पत्ति सम्बन्धी व्याख्या के माध्यम से हमें संवेगों की विशेषताओं के बारे में कुछ निम्न प्रकार का ज्ञान हो सकता है
1. संवेगात्मक अनुभूतियों के साथ कोई न कोई मूल प्रवृत्ति अथवा मूलभूत आवश्यकता जुड़ी रहती है (The emotional experiences are associated with some instincts or biological drives.)—जब मूलभूत आवश्यकताओं की सन्तुष्टि होती है अथवा उसकी सन्तुष्टि में आधा पड़ती है तो उस समय संवेग अपना-अपना कार्य प्रारम्भ कर देते हैं।
2.सामान्य रूप से संवेग की उत्पत्ति प्रत्यक्षीकरण के माध्यम से ही होती हैं। किसी भी संवेगात्मक अनुभूति के लिए पदार्थ या परिस्थिति के रूप में किसी सशक्त उद्दीपक (Strong Stimulus) की आवश्यकता होती है। शरीर में होने वाले सभी प्रकार के अनुकूल या प्रतिकूल परिवर्तनों द्वारा संवेगों की मात्रा और गति दोनों में ही तीव्रता आती है।
3.किसी भी संवेग के जाग्रत होने के लिए भावनाओं (Feeling) का होना आवश्यक है। भावनाओं का उफान ही उत्तेजनापूर्ण स्थिति पैदा कर के व्यक्ति को कुछ करने के लिए मजबूर करता है। भावनाएं जब इतनी अधिक बलवती हो जाती हैं कि वे व्यक्ति के मस्तिष्क को बेचैन कर उसे तत्काल कार्यवाही करने के लिए पूरी तरह उत्तेजित कर दें तब वे संवेग का रूप धारण कर लेती हैं। इस तरह कुछ न कुछ करने की वेगवती इच्छा संवेगात्मक अनुभवों की एक मुख्य विशेषता मानी जाती है।
4.प्रत्येक संवेगात्मक अनुभूति व्यक्ति में कई प्रकार के शारीरिक और शरीर सम्बन्धी परिवर्तनों को जन्म देती है। इनमें से कुछ को जिनकी अभिव्यक्ति बाह्य व्यवहार के माध्यम से होती है, आसानी से देखा जा सकता है। आंख की पुतलियों का फैलना, उनके डोरे लाल होना, चेहरा लाल होना, आंसू बहना, हृदय और नाड़ी की गति धीमी अथवा तेज होना, गला रूंध जाना, शरीर के रोंगटे खड़े हो जाना, थर-थर कांपना, भागने का प्रयत्न करना अथवा संवेग जाग्रत करने के लिए उत्तरदायी व्यक्तियों या वस्तुओं पर आक्रमण करना आदि सभी इस प्रकार के परिवर्तन हैं। दूसरे प्रकार के वे परिवर्तन हैं जिन्हें आसानी से देखा नहीं जा सकता और शरीर के भीतर घटित होते हैं। रक्त संचार, पाचन, श्वसन आदि संस्थानों और ग्रन्थियों (Glands) की कार्यप्रणाली और क्षमता में अन्तर आ जाना इस प्रकार के परिवर्तनों के कुछ उदाहरण हैं। इस प्रकार के परिवर्तनों के माध्यम से यह पहचानना कि कौन व्यक्ति क्रोधित है, भयभीत है अथवा किसी अन्य संवेग का शिकार है, आसान होता है।
इन विशेषताओं के अतिरिक्त संवेगों के सम्बन्ध में कुछ और महत्त्वपूर्ण बातें कही जा सकती हैं जो निम्न हैं (i) प्रत्येक जीवित प्राणी को संवेगों की अनुभूति होती है।
(ii) व्यक्ति को अपनी वृद्धि और विकास की हर अवस्था में इनकी अनुभूति होती है।
(iii) सभी व्यक्ति संवेगात्मक रूप से एक जैसे नहीं होते। संवेगों की मात्रा और अभिव्यक्ति के ढंग में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है।
(iv)एक ही संवेग विभिन्न प्रकार के उद्दीपन,चेष्टाओं,वस्तुओं और क्रियाओं के द्वारा जाग्रत किया जा सकता है।
(v)संवेग तुरन्त ही जाग्रत हो जाते हैं परन्तु उनका अन्त धीरे-धीरे होता है। कोई भी संवेग एक बार जाग्रत होने पर काफी लम्बे समय तक बना रहता है और जाते-जाते अपना प्रभाव संवेगात्मक 'मूड (Emotional Mood) के रूप में छोड़ जाता है।
(vi) संवेगों में स्थानान्तरणता (Transferability) का गुण भी पाया जाता है।अपने अफ़सर से बिना अपराध झिड़की या डांट फटकार खाने पर उत्पन्न क्रोध घर में बच्चों या पत्नी के साथ बुरा
व्यवहार करने के रूप में अभिव्यक्त होता है।
(vii) एक संवेग अपनी तरह के कई संवेगों को जन्म दे सकता है।
(viii) संवेगों के जागृत होने और बुद्धि में ऋणात्मक सह-सम्बन्ध (Negative Correlation) पाया जाता है। तीक्ष्ण और कुशाग्र बुद्धि संवेगों की आंधी को रोकने का प्रयास करती है तो दूसरी ओर संवेगों का बहाव, बुद्धि सम्बन्धी दीवार को ढहाकर मनुष्य को कर्त्तव्यविमूढ़ तथा विवेकशून्य बना देता है।
संवेगों के प्रकार(Kinds of Emotions)
अगर हम विभिन्न संवेगों द्वारा व्यक्ति विशेष पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण करें तो हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि वे अनुकूल और प्रतिकूल दोनों प्रकार का ही प्रभाव छोड़ सकते हैं। कोई एक संवेग व्यक्ति के लिए कितना लाभदायक अथवा हानिकारक सिद्ध हो सकता है, यह कुछ निम्न बातों पर निर्भर करता है
(i) संवेगात्मक अनुभवों की आवृत्ति (Frequency) और तीव्रता (Intensity) (ii) संवेग जागृत करने वाले उद्दीपन (Stimulus) की प्रकृति और सम्बन्धित परिस्थितियां तथा अवसर।
(iii) संवेगात्मक अनुभव या संवेग विशेष की प्रकृति अथवा प्रकार जैसे घटक का संवेगात्मक अनुभूति की दिशा में काफ़ी महत्त्व है। सभी प्रकार के संवेगों को मोटे तौर पर दो भागों में बांटा जा सकता है। इनमें से एक को सकारात्मक संवेग (Positive Emotions) तथा दूसरे को
नकारात्मक संवेग (Negative Emotions) का नाम दिया जाता है।भय, क्रोध, ईर्ष्या आदि विषादयुक्त संवेग जो व्यक्ति और समाज के लिए अहितकर सिद्ध होते हैं, नकारात्मक संवेग (Negative Emotions) कहलाते हैं जबकि प्रेम, आमोद, सृजनात्मकता आदि मन को आह्लादित करने वाले संवेग जो व्यक्ति और समाज दोनों के लिए हितकर तथा उपयोगी सिद्ध होते हैं, सकारात्मक संवेग (Positive Emotions) कहलाते हैं। दोनों प्रकार के संवेगों के सकारात्मक और नकारात्मक नामकरण से यह नहीं सोच लिया जाना चाहिए कि सकारात्मक संवेग हर अवस्था में अच्छे ही होते हैं और नकारात्मक संवेग बुरे। संवेगों के प्रभाव का मूल्यांकन करते समय उनकी तीव्रता, आवृत्ति, उद्दीपक की प्रकृति और सम्बन्धित परिस्थितियों के ऊपर भी पूरा-पूरा ध्यान देने की आश्यकता है। अति सदैव ही बुरी होती है। संवेग चाहे वे सकारात्मक हों या नकारात्मक, उनकी अधिक तीव्रता अथवा अत्यधिक आवृत्ति अहितकर ही सिद्ध होती है। दूसरी ओर बुरे समझे जाने वाले नकारात्मक संवेग (Negative Emotions) बहुत ही उपयोगी तथा हितकर सिद्ध हो सकते हैं। उदाहरण के तौर पर भय के संवेग द्वारा व्यक्ति अपने आपको आने वाले खतरे का सामना करने के लिए तैयार कर सकता है। एक बच्चा जिसमें भय का संवेग ठीक प्रकार के विकसित नहीं होता, सांप को पकड़ने, कुत्ते के मुंह में अंगुली डालने, छत से छलांग लगाने आदि दुःसाहसपूर्ण कार्यों से अपने जीवन को ख़तरे में डालता रहता है।
विकास की विभिन्न अवस्थाओं में संवेगात्मक विकास(Emotional Development during different Stages of Development)
विकास अपने सामान्य रूप में आयु बढ़ने के साथ-साथ होने वाले परिवर्तनों का ही दूसरा नाम है। इस दृष्टिकोण से संवेगात्मक विकास में निम्न प्रकार के परिवर्तन देखने को मिलते हैं।
(a) जन्म के पश्चात् बच्चे में धीरे-धीरे विभिन्न संवेगों का जन्म होता रहता है।
(b) बचपन में संवेगों को जागृत करने वाले उद्दीपक (Stimulus) की प्रवृत्ति में भी बाद में पर्याप्त अन्तर आता चला जाता है।
(c) संवेगों के अभिव्यक्त करने का ढंग भी परिवर्तित हो जाता है। इन सब परिवर्तनों को ध्यान में रखते हुए विभिन्न अवस्थाओं में होने वाले संवेगात्मक विकास का अग्रलिखित रूप में वर्णन किया जा सकता है।
शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास(Emotional Development during Infancy)
1- अपने जन्म के समय से ही अपनी चीख पुकार और हाथ पैर चलाने के द्वारा बच्चा अपने अन्दर संवेगों की उपस्थिति का आभास देता है। परन्तु इस अवस्था में उसमें कौन-कौन से विशेष संवेग विद्यमान रहते हैं, इस बात के कोई निश्चित प्रमाण नहीं मिलते।
2. वास्तव में अगर देखा जाए तो जैसा कि श्रीमती हरलाक (Hurlock) लिखती हैं-"जन्म के समय और उससे कुछ देर बार संवेगात्मक व्यवहार के प्रथम दर्शन शक्तिशाली उद्दीपकों के प्रति सामान्य उत्तेजना के रूप में होते हैं। इस समय शिशु में कोई ऐसे स्पष्ट निश्चित संवेगात्मक पैटर्न (Emotional) Patterns) का पता नहीं चलता जिन्हें विशेष संवेगात्मक अवस्थाओं के रूप में पहचाना और जाना जा सकता हो।"इस तरह से प्रारम्भिक अवस्था में बच्चा किसी भी उद्दीपक के प्रति बिना उसको जाने पहचाने सामान्य उत्तेजना के रूप में अपनी संवेगात्मक अभिव्यक्ति करता है।
3. सामान्य उत्तेजना व्यक्त करने की यह अन्धावस्था कुछ समय पश्चात् समाप्त हो जाती है। अब शिशु की सामान्य उत्तेजना के द्वारा उसके हर्ष और विषाद का अनुमान लगाया जा सकता है। अचानक होने वाली जोर की आवाज़ और शोरगुल, गीला बिछौना, अधिक ठंडी और गर्म चीजों का स्पर्श, भूख आदि उद्दीपकों के प्रति शिशु की प्रतिक्रिया विषादयुक्त होती है। दूसरी ओर प्यार से थपथपाना, गोदी में ले कर प्यार करना और मां द्वारा स्तन पान कराना आदि उद्दीपकों के प्रति उसकी क्रिया आनन्दमय चेष्टाओं के रूप में प्रकट होती है।
4. स्पिटज (Spitz) के अनुसार सामान्य उत्तेजना की आनन्दायक तथा विषादमय दो प्रकार की अलग-अलग अनुक्रियाओं (Responses) की अभिव्यक्ति निम्न प्रकार से होती है"पहले दो मास में शारीरिक उद्दीपकों द्वारा हर्ष और विषाद की उत्पत्ति होती है। तीसरे माह में बड़ों के हंसने या उनसे खेलने के परिणामस्वरूप वह मुस्कुराने का प्रयास करता है और इस तरह मनोवैज्ञानिक उद्दीपन के परिणामस्वरूप उसमें आनन्दमयी अनुक्रिया (Pleasant Response) होती है। कुछ समय बाद यह देखा जाता है कि अगर शिशु को अकेला छोड़ दिया जाए तो वह बहुत दुखी हो कर रोने लग जाता है और इस तरह से मनोवैज्ञानिक उद्दीपकों के माध्यम से उसमें विषाद की उत्पत्ति होने लगती है।"
5. जैसा कि ऊपर कहा गया है। छः मास की अवस्था तक संवेगात्मक व्यवहार आनन्द और विषादयुक्त अनुक्रियाओं तथा चेष्टाओं के माध्यम से व्यक्त होता है। इस तरह से शिशु में इस अवस्था तक हर्ष और विषाद नामक दो संवेगों का ही अस्तित्व पाया जाता है। जब शिशु छः माह का हो जाता है तब वह नकारात्मक संवेग ग्रहण करता है। फलस्वरूप आने वाले महीनों में भय, घृणा, क्रोध, ईर्ष्या आदि संवेग उसमें अपना घर बना लेते हैं। 10 और 12 माह के शिशु में प्रेम, सहानुभूति, आमोद, आत्म गौरव आदि सकारात्मक संवेग उत्पन्न हो जाते हैं। 2 वर्ष तक शिशु में जैसा कि 1931 में ब्रिज (Bridge) द्वारा किए गए अध्ययन से पता चलता है, प्रायः सभी सकारात्मक और नकारात्मक संवेग अपना घर बना लेते हैं तथा उन्हें अच्छी तरह से पहचाना जा सकता है।
6. शैशवावस्था में संवेगों की अभिव्यक्ति में भी निरन्तर निखार आता रहता है। शुरू-शुरू में मुखमुद्रा और शारीरिक चेष्टाओं के माध्यम से यह पहचान नहीं की जा सकती कि शिशु किस संवेग को अभिव्यक्त कर रहा है। केवल माता ही अपने बच्चे के रोने और चिल्लाने का प्रयोजन समझ सकती है। बाद में धीरे-धीरे बच्चों द्वारा अभिव्यक्त संवेगों को बाह्य लक्षणों से पहचाना जा सकता है। इसके अतिरिक्त शैशवावस्था के प्रारम्भिक महीनों में संवेगात्मक रूप से उत्तेजित करने वाली परिस्थितियों में शिशु अपनी प्रतिक्रिया तेजी से व्यक्त करता है। लेकिन जैसे-जैसे वह बाल्यावस्था की ओर बढ़ता है। उसका चीखना-चिल्लाना और हाथ पैर चलाना कम होता जाता है। धीरे-धीरे आयु के बढ़ने के साथ साथ वह अपने संवेगों की अभिव्यक्ति गत्यात्मक क्रियाओं के माध्यम से न कर भाषा के द्वारा करने है लगता है।
बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास(Emotional Development during Childhood)
जैसा कि ऊपर बताया गया है बाल्यवास्था के प्रारम्भ काल तक बच्चे में प्रायः सभी संवेगों का जन्म हो चुका होता है। अतः बाल्यवास्था में कोई नवीन संवेगों की उत्पत्ति न हो कर संवेग जागृत करने वाली परिस्थितियों और उद्दीपकों की प्रकृति और संवेगों को अभिव्यक्त करने के ढंग में परिवर्तन होते रहते हैं। इस दृष्टिकोण से बाल्यकाल में बच्चे में निम्न परिवर्तन दिखाई देते हैं
1.शैशवावस्था में बच्चा बहुत स्वार्थी होता है। वह अपनी ही हित साधना में लीन रहता है। अतः इस अवस्था में बच्चे के संवेग प्राय: भूख, प्यास, नींद, मां-बाप का स्नेह, खिलौनों की इच्छा आदि तत्काल आवश्यकताओं द्वारा ही संचालित होते हैं। लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ा होता चला जाता है उसकी दुनिया भी बड़ी होती जाती है और अब उसके संवेग अनेक प्रकार के उद्दीपकों और परिस्थितियों द्वारा जागृत होना प्रारम्भ कर देते हैं। बालक के संवेगात्मक व्यवहार को स्कूल या वातावरण, हमजोलियों के साथ उसका सम्बन्ध और अन्य वातावरण सम्बन्धी कारक प्रभावित करते हैं। उसकी रुचियों और अनुभवों का क्षेत्र भी विस्तृत हो जाता है, और इन नवीन रुचियों और अनुभवों से उसके संवेगात्मक व्यवहार को एक नई दिशा मिलती है। एक ओर जहां उसके संवेग नवीन उद्दीपकों से जुड़ जाते हैं वहां दूसरी ओर कुछ पुराने उद्दीपकों द्वारा संवेगों को जागृत करने की क्षमता प्रायः समाप्त हो जाती है। अब वह कपड़े पहनना अथवा स्नान करने में, हाथ-पैर पटकने जैसी चेष्टाएं नहीं करता और न अब उसे अपरिचितों से भय ही लगता है।
2.इस अवस्था में संवेगों की अभिव्यक्ति के ढंग में भी पर्याप्त परिवर्तन दिखाई देता है। शैशवावस्था में संवेगात्मक व्यवहार में आन्धी और तूफ़ान की सी गति होती है और यह प्रायः चीखने चिल्लाने, हाथ-पटकने आदि गत्यात्मक क्रियाओं द्वारा व्यक्त होता है। लेकिन बाल्यावस्था और विशेष रूप से उसके आखिरी वर्षों में बालक अपने संवेगों को अभिव्यक्ति उचित माध्यम से करने का प्रयास करता है। संवेगात्मक रूप से अब उसमें कुछ स्थिरता एवं गम्भीरता आने लगती है। परिवर्तनों के मूल में कई कारण हैं, प्रथम तो बाल्यावस्था में बालक को अपनी भावनाओं के प्रकाशन के लिए भाषा का माध्यम मिल जाता है, दूसरे अब वह अधिक सामाजिक हो जाता है और यह अनुभव करने लगता है कि अब उसे डरना या बात-चीत में रोना अथवा गुस्सा होना शोभा नहीं देता तीसरे, उसमें बुद्धि का पर्याप्त विकास हो जाने के कारण अब वह अपने संवेगात्मक उफान पर नियन्त्रण स्थापित करने में समर्थ बन जाता है।इस प्रकार से बच्चा बाल्यकाल में पदापर्ण करने के साथ संवेगात्मक स्थिरता और परिपक्वता की ओर बढ़ना प्रारम्भ करता है और बाल्यकाल की समाप्ति तक अपने इस ध्येय में बहुत कुछ सफलता प्राप्त कर लेता है।
किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास(Emotional Development during Adolescence)
किशोरावस्था में एक बार फिर संवेगात्मक सन्तुलन बिगड़ जाता है। इस समय संवेगों में आन्धी और तूफ़ान की सी गति और प्रचण्डता होती है ।इसलिए किशोरावस्था को प्रायः तूफ़ान और तनाव का समय माना जाता है। जीवन की किसी अन्य अवस्था में संवेगात्मक शक्ति का प्रवाह इतना भीषण नहीं होता जितना कि इस अवस्था में पाया जाता है। एक किशोर के लिए अपने संवेगों पर नियन्त्रण रखना बहुत कठिन होता है। यौनि-ग्रन्थियों के तेजी से क्रियान्वित होने और शारीरिक शक्ति में पर्याप्त वृद्धि हो जाने के कारण बाल्यावस्था में पाई जाने वाली संवेगात्मक स्थिरता और शान्ति भंग हो जाती है। वे संवेगात्मक दृष्टिकोण से बहुत चंचल और अस्थिर हो जाते हैं। शिशु की तरह किशोर क्षण में रुष्ट और क्षण में तुष्ट दिखाई देते हैं। जरा-जरा सी बात पर बिगड़ पड़ना, उत्तेजित हो जाना, निराश हो कर आत्महत्या पर उतारू हो जाना, प्रथम दृष्टि में एक-दूसरे को दिल दे बैठना आदि किशोरों के संवेगात्मक व्यवहार की सामान्य विशेषताएं हैं।इन सब बातों को देखते हुए इस अवस्था में संवेगों को ठीक प्रकार प्रशिक्षित करने और संवेगात्मक शक्तियों को अनुकूल दिशा में प्रवाहित करने की अत्यन्त आवश्यकता है हैडो रिपोर्ट (Hadow Report) ने इस आवश्यकता को अग्रलिखित शब्दों में व्यक्त करने का प्रयत्न किया है "युवाओं की धमनियों में 11 से 12 वर्ष की अवस्था से ही एक ज्वार उमड़ना प्रारम्भ हो जाता है, इसे किशोरावस्था के नाम से पुकारा जाता है। यह ज्वार बाढ़ का रूप धारण कर सकता है परन्तु अगर इस प्रचण्ड जल प्रवाह को पूरी शक्ति के साथ अनुकूल दिशा में प्रवाहित किया जाए तो यह अपने निश्चित लक्ष्य पर पहुंच सकता हैं।
प्रौढ़ावस्था में संवेगात्मक विकास(Emotional Development During Adulthood)
प्रौढ़ावस्था में संवेगात्मक विकास अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाता है। इस अवस्था में प्रायः सभी व्यक्तियों में संवेगात्मक रूप से परिपक्वता आ जाती है। संवेगात्मक परिपक्वता क्या है, यह जानने का प्रयत्न नीचे किया जा रहा है
संवेगात्मक परिपक्वता का अर्थ(Meaning of Emotional Maturity)
संक्षिप्त रूप में उस व्यक्ति को संवेगात्मक रूप से परिपक्व कहा जा सकता है जो अपने संवेगों पर उचित अंकुश रखते हुए उन्हें भली भान्ति अभिव्यक्त कर सके। ऐसे व्यक्ति में कुछ निम्न विशेषताएं पाई जाती हैं-
(i).उसके व्यवहार में प्रायः सभी संवेगों के दर्शन हो सकते हैं और उनके द्वारा कद किस संवेग की अभिव्यक्ति हो रही है, इसका ज्ञान भी भली भान्ति हो सकता है।
(ii) संवेगों की अभिव्यक्ति में भी पर्याप्त सुधार हो जाता है। अब वह अपने संवेगों की अभिव्यक्ति समाज के नियम और आचरण संहिता का ध्यान रख कर करने लगता है।
(iii) वह अपने संवेगों पर अंकुश रख सकता है। अब वह व्यर्थ में ही नहीं उफन पड़ता। उसमें अपनी भावनाओं को छुपाने और संवेगात्मक उफ़ान को नियन्त्रित करने की क्षमता आ जाती है।
(iv) अब वह कोरी आदर्शवादिता के चक्कर में न पड़ कर अपना दृष्टिकोण अधिक से अधिक यथार्थवादी बनाने का प्रयत्न करता है। अपने स्वप्न संसार में न खो कर अब वह वास्तविक जीवन की कठिनाइयों का सामना करना चाहता है।
(v) भावनाओं और संवेगों के प्रवाह में न वह कर अब वह अपनी बौद्धिक और मानसिक शक्तियों का ठीक प्रयोग करने लगता है।
(vi) अब वह अपने ग़लत व्यवहार पर पर्दा डालने का प्रयत्न नहीं करता। न वह इसके लिए कोई तर्क या जिरह करता है और न दूसरों को इसके लिए उत्तरदायी ठहराना चाहता है।
(vii) उसमें पर्याप्त आत्मसम्मान और स्वाभिमान होता है। वह कोई भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहता जिससे उसके स्वाभिमान को ठेस लगे या आत्म सम्मान पर आंच आए।
(viii) वह मात्र अपने ही हित साधन में संलग्न नहीं रहता। वह दूसरों का ध्यान रखता है और सामाजिक सम्बन्धों को बनाए रखने का प्रयत्न करता है। समाज के नियमों और आचार संहिता के अनुकूल चलने का प्रयास करता है।
(ix) वह अपने संवेगों को समय और स्थिति के अनुरूप ठीक प्रकार से व्यक्त करने में पूरी तरह समर्थ होता है। अगर उसके आत्म-सम्मान पर आंच आती है अथवा किसी निर्दोष व्यक्ति पर अत्याचार होता है तब समय की पुकार सुन कर उसमें क्रोधित होने का सामर्थ्य भी होता है। दूसरी ओर अगर उसे अपनी असावधानी और ग़लती के परिणामस्वरूप अपने से बड़ों से डांट फटकार सुननी पड़ती है तब उस में अपने क्रोध को काबू में रखने की भी यथेष्ट शक्ति पाई जाती है। परिपक्व संवेगात्मक व्यवहार में अधिक से अधिक स्थायीपन पाया जाता है। ऐसा व्यक्ति एक क्षण में कुछ तथा दूसरे क्षण में कुछ इस प्रकार का व्यवहार करता हुआ नहीं पाया जाता।
संवेगात्मक परिपक्वता का और अधिक पूर्ण अर्थ समझने के दृष्टिकोण से मैं यहां अर्थर टी० जरसिल्ड (Arthur T. Jersild) को उद्धृत करना चाहूंगा। उनके अनुसार संवेगात्मक परिपक्वता का अर्थ मात्र प्रतिबन्ध या अंकुश लगाना नहीं है। विस्तृत अर्थ की ओर लक्ष्य करके वे लिखते हैं, "संवेगात्मक परिपक्वता द्वारा शक्तियों के विकास और उनको अच्छी तरह उपयोग में ला सकने की बात कहनी चाहिए। अपने विस्तृत अर्थ में संवेगात्मक परिपक्वता यह संकेत करती है कि किस सीमा तक व्यक्ति ने अच्छी तरह जीने के लिए अपनी शक्तियों और योग्यताओं को पहचान कर उन्हें विभिन्न वस्तुओं का उपभोग कर सकने तथा दूसरों के साथ प्रेम और सहानुभूति दिखाने या सुख दुःख बांटने आदि कार्यों में ठीक प्रकार से प्रयोग में लाना सीखा है। दुःख और विषाद के अवसर पर वह उपयुक्त शोक संवेदना व्यक्त कर सके और बिना किसी झूठमूठ बहाने का आश्रय लिए हुए भयभीत होने के समय अपनी डर की भावना को खुले रूप में व्यक्त कर सके, इस प्रकार की क्षमताओं का विकसित होना संवेगात्मक परिपक्वता का चिन्ह है।"
बालकों और प्रौढ़ों के संवेगात्मक व्यवहार की तुलना(Comparison between the Emotionality of Childhood and Adulthood)
बालकों और प्रौढ़ों के संवेगात्मक व्यवहार में काफ़ी अन्तर पाया जाता है। इस अन्तर को कुछ मुख्य विशेषताओं के आधार पर आगे स्पष्ट किया जाएगा
1.संवेगों की तीव्रता(Intensity of Emotions)
बालकों के संवेगों में आन्धी तूफ़ान की सी तीव्रता पाई जाती है। संवेगात्मक अवस्था में उनकी अपने ऊपर नियन्त्रण नहीं रहता। वे जब रोते हैं तो फूट-फूट कर रोते हैं, तथा जब क्रोधित होते हैं तो पूरी तरह से अपने होश- हवास खो बैठते हैं। बालकों की तुलना में प्रौढ़ों के संवेगात्मक व्यवहार में काफ़ी संयम पाया जाता है। वे ज्वालामुखी पर्वतों की भान्ति अचानक नहीं फट पड़ते।
2.संवेगों की संक्षिप्तता(Briefness of the Emotions)
आन्धी तूफ़ान अकस्मात् जितनी तेजी से आते हैं उतनी ही तेजी से समाप्त भी हो जाते हैं। ठीक यही बात बालकों के संवेगों की है। वे किसी भी संवेग के लम्बे समय तक शिकार नहीं होते हैं। उनके संवेग क्षणिक (Momentary) और संक्षिप्त (Brief) होते हैं। जबकि प्रौढ़ों के संवेग एक बार उनकी अनुभूति होने पर काफ़ी लम्बे समय तक चलते हैं और जाते-जाते भी वे अपना प्रभाव विशेष प्रकार के मूड (Mood) में छोड़ जाते हैं।
3.संवेगों की परिवर्तनशीलता(Transitoriness of Emotions) : बच्चों के संवेग अस्थिर होते हैं और उनमें परिवर्तनशीलता का गुण भी पाया जाता है। उनके व्यवहार का एक प्रकार के संवेगात्मक व्यवहार से दूसरे में परिवर्तित हो जाना बहुत ही स्वाभाविक और सहज बात है। वे एक क्षण में रुष्ट और दूसरे में तुष्ट हो जाते हैं। आंसू बहाते हुए और फूट-फूट कर रोते हुए बच्चे को केवल एक खिलौना देकर अथवा गोदी में लेकर पुचकारने से ही हंसते हुए देखा जा सकता है। थोड़ी देर में ही उनका क्रोध प्रेम में, ईर्ष्या सहयोग या मेल में और हंसी-विषाद या रोने में परिवर्तित हो सकता है। बालकों की तुलना में प्रौढ़ों के संवेगों में पर्याप्त स्थिरता पाई जाती है। उनके संवेगात्मक व्यवहार में इतनी शीघ्रता से परिवर्तन नहीं आते।
4. संवेगों की आवृत्ति (Frequency of Emotion): अगर यह देखा जाए कि एक दिन अतवा एक निश्चित अवधि में बच्चे अथवा प्रौढ़ व्यक्ति कितने प्रकार के संवेगों का शिकार होते हैं अथवा उनमें एक विशेष संवेग की पुनरावृत्ति कितनी बार होती है तो यह आसानी से पता चल सकता है कि अपने संवेगात्मक अस्थिरता, परिवर्तनशीलता और संक्षिप्तता के गुणों के फलस्वरूप बालक अपने व्यवहार में संवेगों की संख्या और उनकी आवृत्ति के दृष्टिकोण से प्रौढ़ों से काफ़ी आगे होते हैं। परन्तु जैसे-जैसे वे बड़े होते हैं वे समायोजन की दिशा में कदम बढ़ाते हैं और उसके व्यवहार में संवेगों की असंयमित बाढ़ कम दिखाई देती है और उनमें अब बात-बात में रोना, झगड़ना, क्रोध करना, किलकारियां भरना आदि कम होता चला जाता है।
5.संवेगात्मक अवस्था का पता लगना (Detection of Emotionality) : बालक भोले और निष्कपट होते हैं। प्रौढ़ों की तरह अपनी भावनाओं और संवेगों को छुपाने का हुनर इन्हें नहीं आता। अतः उनकी चेष्टाओं, मुद्रा तथा हाव-भाव से उनकी संवेगात्मक अवस्था का आसानी से पता लगाया जा सकता है। भीतर से क्रोध में जलते रहने पर भी मुस्कराहट बिखेर लेना, ईयां होने पर भी प्रेम प्रदर्शित करना, रोने पर भी हर्ष व्यक्त करना बालकों की अपेक्षा प्रौदों को ही अधिक आता है। इस तरह प्रौढ़ों की संवेगात्मक अवस्था का पता लगाना टेढ़ी खीर होता है।
6. संवेगात्मक अभिव्यक्ति में अन्तर (The Difference in the Emotional Expression) : जैसा कि पहले बताया जा चुका है एक शिशु को अपने संवेगों के उग्र और भीषण प्रवाह को नियन्त्रित करना बहुत की कठिन होता है। इस अवस्था में प्रायः संवेगों की अभिव्यक्ति चीखने चिल्लाने, वस्तुओं को फेंकने, तोड़फोड़ करने, मारने पीटने भागने आदि गामिक क्रियाओं (Motor activities) के माध्यम से ही होती है। जैसे-जैसे सामाजिक सम्पर्क और प्रशिक्षण से उसका संवेगात्मक व्यवहार सन्तुलित, संयमित और सामाजिक होता चला जाता है। परिपक्वता ग्रहण करने पर संवेगों की अभिव्यक्ति के लिए वह भावनाओं की बाढ़ में न यह कर बुद्धि और अनुभव का सहारा लेना अधिक पसन्द करता है। इसके अतिरिक्त प्रौढ़ अपने संवेगों को नियन्त्रण में रख किसी दूसरे उपयुक्त समय के लिए सुरक्षित भी रख सकते हैं और इस प्रकार से वे बालकों की अपेक्षा अपने संवेगों की ठीक प्रकार से ठीक समय पर व्यक्त करने में अधिक प्रवीण होते हैं।
संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक(Factors Influencing Emotional Development)
बच्चों का संवेगात्मक विकास अनेक कारकों द्वारा प्रभावित होता है। इसमें से कुछ मुख्य कारक आगे दिये जा रहे हैं:
1.स्वास्थ्य एवं शारीरिक विकास (Health and Physical Development): शारीरिक विकास एवं स्वास्थ्य का संवेगात्मक विकास के साथ बहुत गहरा सम्बन्ध है। आन्तरिक और बाह्य दोनों प्रकार की शारीरिक न्यूनताएं कई प्रकार की संवेगात्मक समस्याओं को जन्म दे सकती है। स्वस्थ एवं हृष्ट-पुष्ट बच्चों की अपेक्षा प्रायः कमजोर अथवा बीमार बच्चे संवेगात्मक रूप से अधिक असन्तुलित एवं असमायोजित पाए जाते हैं। सन्तुलित संवेगात्मक विकास के लिए विभिन्न ग्रन्थियों का ठीक प्रकार काम करना अत्यन्त आवश्यक है जो केवल स्वस्थ एवं ठीक ढंग से विकसित होते हुए शरीर में ही सम्भव हो सकता है। इस प्रकार से शारीरिक विकास की दशा और उसके स्वास्थ्य का बच्चे के संवेगात्मक विकास पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
2. बुद्धि (Intelligence) : समायोजन करने की योग्यता के रूप में बालक के संवेगात्मक समायोजन और स्थिरता की दिशा में बुद्धि महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस सम्बन्ध में मेल्टजर (Meltzer) ने अपने विचार प्रगट करते हुए लिखा है-"सामान्य रूप से अपनी ही उम्र के कुशाग्र बालकों की अपेक्षा निम्न बुद्धि स्तर के बालकों में कम संवेगात्मक संयम पाया जाता है। विचार शक्ति, तर्क शक्ति आदि बौद्धिक शक्तियों के सहारे ही व्यक्ति अपने संवेगों पर अंकुश लगा कर उनको अनुकूल दिशा देने में सफल हो सकता है। अतः प्रारम्भ से ही बच्चों की बौद्धिक शक्तियां, बच्चों के संवेगात्मक विकास को दिशा प्रदान करने में लगी रहती है। "S नहीं होना है
3. पारिवारिक वातावरण और आपसी सम्बन्ध (Family atmosphere and relationship) : परिवार के वातावरण और आपसी सम्बन्धों को भी बच्चे के संवेगात्मक विकास के साथ गहरा सम्बन्ध है जो कुछ बड़े करते हैं उसकी छाप बच्चों पर अवश्य पड़ती है।अतः परिवार में बड़ों का जैसा संवेगात्मक व्यवहार होता है बच्चे भी उसी तरह का व्यवहार करना सीख जाते हैं। अशांतिमय कलह, लड़ाई-झगड़े से युक्त पारिवारिक वातावरण, क्रोध, भय, चिन्ता, ईर्ष्या आदि कलुषित संवेगों को ही जन्म दे सकते हैं जबकि प्रेम, दया, सहानुभूति और आत्मसम्मान से भरपूर वातावरण द्वारा बच्चे में उचित और अनुकूल संवेग अपनी जड़ जमाते हैं। माता-पिता तथा अन्य परिजनों के द्वारा उसके साथ किया जाने वाला व्यवहार भी उसके संवेगात्मक विकास को प्रभावित करता है। यहां तक कि परिवार में बच्चों अथवा भाई-बहनों की संख्या, उसकी पहली, दूसरी था आखिरी सन्तान होना, परिवार की सामाजिक और आर्थिक स्थिति, माता-पिता द्वारा उसकी उपेक्षा या आवश्यकता से अधिक देखभाल और लाड दुलार आदि बातें भी बच्चे के संवेगात्मक विकास को बहुत अधिक प्रभावित करती हैं।
4.विद्यालय का वातावरण और अध्यापक (School Atmosphere and Teacher ) — विद्यालय का वातावरण भी बालकों के संवेगात्मक विकास पर पूरा-पूरा प्रभाव डालता है। स्वस्थ और अनुकूल वातावरण के द्वारा बच्चों को अपना संवेगात्मक संतुलन बनाए रखने और अपना उचित समायोजन करने में बहुत आसानी होती है। विद्यालय के वातावरण में व्याप्त सभी बातें जैसे विद्यालय की स्थिति, उसका प्राकृतिक एवं सामाजिक परिवेश, अध्यापन का स्तर, पाठान्तर क्रियाओं और सामाजिक कार्यों की व्यवस्था, मुख्याध्यापक एवं अध्यापकों के पारस्परिक सम्बन्ध और अध्यापकों का स्वयं का संवेगात्मक व्यवहार आदि बालकों के संवेगात्मक विकास को पर्याप्त रूप से प्रभावित करती हैं।
5. सामाजिक विकास और हमजोलियों के साथ सम्बन्ध(Social Development and Peer-group Relationship) — सामाजिक विकास और संवेगात्मक विकास का भी आपस में गहरा सम्बन्ध है। बच्चा जितना अधिक सामाजिक होगा, संवेगात्मक रूप से वह उतना ही परिपक्व और संयमशील बनेगा। सामाजिक रूप से अविकसित अथवा उपेक्षित बच्चों को अपने संवेगात्मक समायोजन में बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। समाजीकरण की प्रक्रिया (Process of Socialization) में बच्चों का ठीक-ठीक संवेगात्मक विकास और संवेगात्मक व्यवहार अपेक्षित है। उसका पोषण बच्चे में उचित सामाजिक गुणों के विकास पर भी निर्भर करता है और इस दृष्टि से सामाजिक विकास संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने में पूरी-पूरी भूमिका निभाता है।
6. पास पड़ोस, समुदाय और समाज (Neighbourhood, the Community and the Society)—परिवार और विद्यालय के अतिरिक्त बच्चों का अपना पड़ोस, समुदाय और समाज जिसमें वह रहता है, उसके संवेगात्मक विकास को बहुत प्रभावित करते हैं। अपने संवेगात्मक व्यवहार से सम्बन्धित सभी अच्छे बुरे संवेग और आदतों को वह इन्हीं सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से ग्रहण करता है। एक साहसी और निर्भय जाति या समुदाय में पैदा होने वाले अथवा ऐसे वातावरण में पलने वाले बच्चों में भी साहस और निर्भयता के गुण आ जाना स्वाभाविक ही है। जिस समाज में बड़े लोग शीघ्र ही उत्तेजित हो कर गाली गलोच और मारपीट करते रहते हैं उनके बच्चे भी अनायास ऐसी ही संवेगात्मक कमजोरियों के शिकार हो जाते हैं। भय, ईर्ष्या, घृणा, क्रोध, प्रेम, सहानुभूति, दया आदि सभी तरह के अच्छे और बुरे संवेगात्मक गुण अच्छे और बुरे सामाजिक परिवेश के ही परिणाम होते हैं।
इस प्रकार के संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारकों को दो मुख्य श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। पहली श्रेणी में शारीरिक, मानसिक और सामाजिक विकास जैसे कारक हैं जिन्हें पूरे तौर से व्यक्तिगत माना जा सकता है। दूसरी श्रेणी में माता-पिता, परिवार, विद्यालय, पास पड़ोस, समुदाय और समाज जैसे महत्त्वपूर्ण सामाजिक कारक आते हैं। व्यक्तिगत और सामाजिक, दोनों ही प्रकार के कारक बच्चे के संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। इसलिए बच्चे के संवेगात्मक विकास को यथाविधि बनाए रखने में माता-पिता और अध्यापकों द्वारा दोनों ही प्रकार के कारकों का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए।
संवेगों को प्रशिक्षित करने की विधियां (Methods for the Training of Emotions)
संवेग बालकों के व्यक्तित्व के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उनका शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा नैतिक, सभी प्रकार का विकास और व्यवहार उनके संवेगों द्वारा प्रभावित होता है। पूर्व अनुभव और प्रशिक्षण के अभाव में संवेग अपने उन्मुक्त रूप में व्यक्ति और समाज, दोनों के लिए अहितकर सिद्ध हो सकते हैं। इन्हें समाज और व्यक्ति दोनों के लिए उपयोगी बनाने के लिए इनको भली-भांति प्रशिक्षित किया जाना आवश्यक है। साधारण तौर पर इस कार्य के लिए कुछ निम्न विधियां अपनाई जाती हैं
1. दमन या निषेध (Repression or Inhibition)- इस विधि में बच्चे के अवांछित संवेगात्मक व्यवहार की रोकथाम और उसमें परिवर्तन लाने के लिए दंड और कठोर नियंत्रण का प्रयोग किया जाता है। संवेगों की असामाजिक और असंयमित अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध लगाए जाते हैं। इन प्रतिबन्धों को तोड़ने पर डांट फटकार, दण्ड और अन्य दमनात्मक तरीकों को काम में लाया जाता है। यह विधि बच्चे को अपनी भावनाओं को दबा कर संवेगात्मक अनुभूति की अनुचित अभिव्यक्ति पर रोक लगाने में समर्थ बनाती है। परन्तु इनका अत्यधिक और अनियंत्रित प्रयोग बच्चों के व्यक्तित्व को ठीक प्रकार से उभरने नहीं देता। अतः, इसका प्रयोग बहुत सोच समझ कर किया जाना चाहिए।
2. परिश्रमशीलता या मानसिक व्यस्तता (Industriousness or Mental Occupation) - खाली दिमाग शैतान का घर माना जाता है। बेकार बैठे हुए, मन, गलत रास्तों पर भटकता है। अतः किसी "उपयोगी कार्य में लगे रह कर शारीरिक या मानसिक रूप से व्यस्त रहना संवेगों को नियंत्रित और संयमित करने का एक अच्छा साधन बन सकता है।इस विधि में इसी बात का ध्यान रख कर बालकों को घर और विद्यालय में रचनात्मक और उपयोगी कार्यों में व्यस्त रखा जाता है।
3. मार्गान्तरीकरण और शोधन (Redirection and Sublimation ) - मार्गान्तरीकरण और शोधन के द्वारा संवेगात्मक शक्ति के प्रबल प्रवाह को अनुकूल दिशा में मोड़ने का प्रशंसनीय कार्य किया जाता है। इन दोनों प्रक्रियाओं में साधारण सा अंतर है। जहां मार्गान्तीकरण में संवेगों की प्रकृति में कोई परिवर्तन नहीं होता, केवल संवेगों की अभिव्यक्ति में ही अन्तर आता है, वहां शोधन द्वारा संवेगों की अपनी प्रकृति और स्वभाव बदल कर नवीन रूप धारण कर लेते हैं और उनकी अभिव्यक्ति की दिशा भी बदल जाती है। तुलसी और कालिदास की कामुकता का भक्तिभाव में परिवर्तित होने की प्रक्रिया शोधन का एक बहुत अच्छा उदाहरण है। संवेगात्मक प्रशिक्षण की सभी विधियों में मार्गान्तरीकरण और शोधन विधि ही सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है क्योंकि इस विधि द्वारा बच्चे के व्यक्तित्व को बिना कोई हानि पहुंचाए उसकी संवेगात्मक शक्तियों को एक उचित रचनात्मक मोड़ प्रदान किया जा सकता है। किसी भी उम्र स्वभाव के उदंड बच्चे की संवेगात्मक शक्ति को कमजोर बच्चों की रक्षक बना कर या समाज और राष्ट्र के शत्रुओं से जूझने के लिए प्रेरित कर एक अनुकूल मोड़ प्रदान किया जा सकता है। इस तरह से भय, ईर्ष्या, कामुकता आदि संवेगात्मक अनुभूतियों को भी उचित रूप में मोड़ा जा सकता है।
4. रेचन (Catharsis) इस विधि में संवेगात्मक शक्ति पर प्रतिबन्ध या अंकुश न लगाकर उसे स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के उपयुक्त अवसर प्रदान किए जाते हैं। जब तक बच्चे को स्वतन्त्र अभिव्यक्ति का अवसर नहीं मिलता उसमें विभिन्न संवेग, घटाओं की भांति उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं। स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के माध्यम से बच्चे अपने संवेगों का प्रकाशन कर अपनी सहज और स्वाभाविक अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं। परिणामस्वरूप उनमें कोई मनोविकार और अनावश्यक मनो-ग्रन्थियां जन्म नहीं लेतीं और वे मानसिक रूप में घटित अनावश्यक तनाव तथा संघर्ष से बच जाते हैं। विद्यालय में की जाने वाली विभिन्न पाठान्तर क्रियाएं तथा उपयोगी रोचक कार्य, त्योहार, सामाजिक उत्सव तथा मेले इस दिशा में काफ़ी मूल्यवान सिद्ध हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त पठन पाठन और अपने कार्यों को करने में बच्चों को पर्याप्त स्वतन्त्रता देकर भी बालकों का संवेगात्मक अभिरेचन किया जा सकता है तथा उनके संवेगों को ठीक मोड़ प्रदान किया जा सकता हैं।
बच्चों के संवेगात्मक विकास के लिए अध्यापक क्या करें ?(What can the Teachers do In Bringing Balanced Emotional Development of Children ?)
संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले व्यक्तिगत और सामाजिक- दोनों प्रकार के कारकों की चर्चा हम पहले कर चुके हैं। अगर इन कारकों का भली-भांति ध्यान रखा जाए तो अध्यापकवर्ग बालकों के सन्तुलित संवेगात्मक विकास में अपनी भूमिका अच्छी तरह निभा सकता है। अध्यापकों द्वारा अपना उत्तरदायित्व कैसे निभाया जाए, इसकी चर्चा निम्न पंक्तियों में की जा रही है
1.संवेगात्मक विकास के लिए जैसा कि पहले कहा जा चुका है, स्वास्थ्य और शारीरिक विकास पर पूरा-पूरा ध्यान देने की आवश्यकता है। स्वस्थ और नीरोग कैसे रहा जाए, इस बात का बच्चों की भली-भांति ज्ञान कराया जाना चाहिए। माता-पिता और राज्याधिकारियों के सहयोग से बच्चों के संतुलित आहार और खान-पान की उचित व्यवस्था की जानी चाहिए। अध्यापकों को अभिभावकों के साथ सम्पर्क स्थापित कर उन्हें उनके बच्चों की शारीरिक कमजोरियों, न्यूनताओं, बीमारियों आदि से अवगत कराना चाहिए तथा उनके निराकरण के लिए घर, विद्यालय और चिकित्सालयों द्वारा उचित प्रबन्ध की व्यवस्था होनी चाहिए।
2.बच्चों के संवेगात्मक विकास पर पारिवारिक वातावरण भी बहुत प्रभाव डालता है। अतः, अध्यापकों को उन्हें अनुकूल पारिवारिक वातावरण प्रदान कराने का पूरा-पूरा प्रयत्न करना चाहिए। बच्चों के अधिक निकट आ कर अध्यापकों को उनके संवेगात्मक व्यवहार को उनके पारिवारिक वातावरण के सन्दर्भ में समझने का प्रयत्न करना चाहिए तथा इसी को ध्यान में रखते हुए उनके माता पिता तथा अभिभावक वर्ग को उनके बच्चों के कल्याण के लिए उचित परामर्श देने का प्रयत्न करना चाहिए तथा अपने स्वयं के व्यवहार के द्वारा भी उन्हें संवेगात्मक संतुलन बनाने में पूरी सहायता देनी चाहिए।
3. विद्यालय के परिवेश और क्रिया कलापों को उचित प्रकार से संगठित कर अध्यापक बच्चों के संवेगात्मक विकास में भरपूर योगदान दे सकते हैं। इसके लिए उसे निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए
(i) बच्चों की संवेगात्मक शक्तियों के उचित प्रकाशन और अभिव्यक्ति के लिए उन्हें पाठान्तर क्रियाओं तथा रोचक क्रियाओं (Hobbies) के माध्यम से उचित अवसर प्रदान किये जाने चाहिएं।
(ii) पाठ्यक्रम और अध्यापन विधियां यथेष्ट रूप में परिवर्तनशील, प्रगतिशील और बाल केन्द्रित होनी चाहिएं।
(iii) बालकों को अपने अध्यापकों से पर्याप्त स्नेह और सहयोग मिलना चाहिए। प्रत्येक अवस्था में बालकों के स्वाभिमान का ध्यान रखा जाना चाहिए तथा भूल कर भी उनका अपमान एवं अवज्ञा नहीं की जानी चाहिए। जहां तक हो सके अध्यापकों को बच्चे की सभी प्रकार की संवेगात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पूरा-पूरा प्रयत्न करना चाहिए।
(iv) बालकों के संवेगों को संयमित एवं प्रशिक्षित करने के लिए अध्यापक द्वारा उपयुक्त विधियों का प्रयोग किया जाना चाहिए। जैसे भी हो बच्चे के संवेगात्मक तनाव को समाप्त करने की चेष्टा की जानी चाहिए तथा उसके अन्दर किसी भी प्रकार की अनावश्यक मानसिक ग्रन्थियों और विकारों को - पनपने का अवसर नहीं दिया जाना चाहिए।
(v) धार्मिक और नैतिक शिक्षा को विद्यालय कार्यक्रम में महत्वपूर्ण स्थान दिया जाना चाहिए। जहां तक हो सके 'सादा जीवन और उच्च विचार' को बच्चों के जीवन का एक मूल-मंत्र बनाया जाना चाहिए।
(vi) अध्यापक बच्चों के लिए आदर्श होते हैं। वे उनके हर आचरण का अनुकरण करने का प्रयत्न करते हैं। अतः, अध्यापक को स्वयं अपना उदाहरण प्रस्तुत कर बालकों को संवेगात्मक रूप से अधिक संतुलित और संयमित बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
(vii) बच्चों के संतुलित सामाजिक विकास की ओर भी पूरा-पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए। उन्हें अपनी मित्र मण्डली, वय-समूह तथा सामाजिक परिवेश में उचित स्थान मिलना चाहिए।
(viii) अध्यापकों द्वारा बालकों का संवेगात्मक व्यवहार सामान्य है या असामान्य है, इस बात का अच्छी तरह से अध्ययन किया जाना चाहिए। अगर उन्हें उसमें कुछ असामान्यता का आभास हो तो समय से पहले योग्य व्यक्तियों की सहायता ले कर उसके निराकरण और रोकथाम के लिए पूरा प्रयत्न करना चाहिए।
(ix) सीखने की प्रक्रिया में संवेगों की रचनात्मक भूमिका की ओर भी अध्यापक का ध्यान रहना आवश्यक है। संतुलित और संयमित संवेगात्मक व्यवहार और भावनाएं न केवल शारीरिक विकास के लिए एक अमूल्य टॉनिक का कार्य करती हैं बल्कि ज्ञान और कौशल अर्जित करने के लिए भी उचित वातावरण का निर्माण करती हैं। अतः अध्यापकों को विद्यार्थियों को शिक्षा ग्रहण कराने में संवेगात्मक रूप से सक्रिय सांझीदार बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
Reference -Uma Mangal and SK Mangal