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Directive Principles of State Policy, Article 41, 45 and 46 (राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत, अनुच्छेद 41, 45 एवं 46
Sep 18, 2022   Ritu Suhag

Directive Principles of State Policy,Article 41,45 and 46(राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत,अनुच्छेद 41,45 एवं 46

After reading this article you will be able to answer the following questions-

-what are directive principles?

-what is article 41,article 45 and article 46?

-what is the difference between directive principles of state policy vs fundamental rights?

Directive Principles of State Policy,Article 41,45 and 46(राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत,अनुच्छेद 41,45 एवं 46)

भूमिका(Introduction)

वास्तव में किसी भी कार्य की सफलता उन सिद्धांतों पर निर्भर करती है जिनको आधार मानकर वह कार्य किया जाता है। हम अपने कार्यों में कितना सफल होते हैं यह उन सिद्धांतों पर निर्भर होता है जो हमारे द्वारा बनाए गए हैं। ठीक इसी प्रकार राज्य भी अपने शासन को कुछ सिद्धातों के आधार पर व्यवस्थित करने (रखने) का प्रयास करता है तथा इन्हीं सिद्धांतों को वह अपने शासन की आधारशिला मानता है। राज्य की सफलता एवं असफलता का उत्तरदायित्व इन्हीं सिद्धातों पर निर्भर रहता है। राज्य के इन्हीं सिद्धांतों को नीति-निर्देशक सिद्धांत कहा जाता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि राज्य जिन सिद्धांतों को अपनी शासन नीति का आधार बनता है अथवा सफल संचालन के रूप में अनुप्रयोग में लाता है;तो वे सिद्धांत ही राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत कहे जाते हैं।

राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत(Directive Principles of State Policy)

भारत न केवल सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य है अपितु एक कल्याणकारी राज्य भी है।लोककल्याणकारी राज्य होने के नाते उसका प्रथम कर्तव्य देश की जनता के हितों की रक्षा करना और उसके लिए कल्याणकारी योजनाएं तैयार करना है। भारतीय राज्य का लक्ष्य 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' है।संविधान में यह व्यवस्था की गई है कि राज्य यथासंभव जन साधारण की आशाओं और आकांक्षाओं को साकार करने का प्रयास करेगा।इन्हीं आशाओं और आकांक्षाओं को हमने 'राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के नाम से संबोधित किया है।भारतीय संविधान में राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों का व्यापक वर्णन किया गया है।इस दिशा में संविधान निर्माताओं ने आयरलैंड के विधान का अनुसरण किया है।

भारतीय संविधान के चतुर्थ भाग में अनुच्छेद-36 से लेकर 51 तक में न्य नीति-निर्देशक तत्त्वों का उल्लेख किया गया है जिनके आधार पर राज्य कि विधियों का निर्माण करेगा तथा जनता के हितों की सुरक्षा करेगा।इस संदर्भ डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा है कि- "राज्य नीति-निर्देशक सिद्धांतों का प्रमुख उद्देश्य जनता के कल्याण को बढ़ावा देने वाली सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना है। लेकिन इन सिद्धांतों के पीछे कोई कानूनी बाध्यता (सत्ता) नहीं है,यह पूर्ण रूप राज्य की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह इनका पालन करे या न करे।फिर यह राज्य का नैतिक कर्तव्य है कि वह इनका पालन करें; अतः संक्षेप रुप में यह कहा जा सकता है कि ये नीति-निर्देशक सिद्धांत वास्तव में राज्य के प्रशासन के पथ-प्रदर्शक हैं इनके अन्तर्गत उन आदेशों एवं निर्देशों का समावेश है जो संविधान द्वारा भारत राज्य तथा विभिन्न राज्यों को अपनी सामाजिक एवं आर्थिक नीति निर्धारित करने के लिए प्रदान किए गए हैं।

भारतीय संविधान के भाग-4 (Part-IV) में राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों का प्रतिपादन इस प्रकार किया गया है

1.राज्य की परिभाषा-इसमें सम्मिलित हैं

(i) भारत सरकार

(ii) संसद

(iii) राज्य सरकार

(iv) राज्यों के विधानमंडल

(v) भारत राज्य के क्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के नियन्त्रण के अधीन सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकारी। (अनुच्छेद-36)

2. नीति-निर्देशक तत्त्व देश के शासन के मूलभूत है और विधि बनाने में इनको लागू करना राज्य का कर्त्तव्य है।(अनुच्छेद-37) 3.राज्य का यह प्रथम कर्त्तव्य है कि वह प्रत्येक नागरिक के लिए सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय को सुनिश्चित करे। (अनुच्छेद-38)

4.समाजवादी समाज की रचना एवं 'राम राज्य' की कल्पना को साकार रुप देने वाला यह एक महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद है।यह अनुच्छेद(i)सभी नागरिकों के लिए जीविका के पर्याप्त साधनों की उपलब्धि;(ii)भौतिक सम्पदा के स्वामित्व और नियंत्रण का सामूहिक हित में वितरण;

(iii) धन और उत्पादन के साधनों का विकेन्द्रीकरण; (iv) पुरुषों एवं स्त्रियों को समान कार्य के लिए समान वेतन व्यवस्था;

(v)पुरुषों,स्त्रियों एवं बालकों की शोषण से रक्षा आदि का उपबंध करता है।(अनुच्छेद-39)

5.ग्राम पंचायतों का संगठन (अनुच्छेद-40)

6.काम, शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार (अनुच्छेद-41)

7.काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशायें सुनिश्चित करना (अनुच्छेद-42)

8.कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी आदि की व्यवस्था करना (अनुच्छेद-43)

9.एक समान सिविल संहिता की व्यवस्था ( अनुच्छेद 44 )

10.बालकों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा (अनुच्छेद-45)

11.अनुसूचित जातियों, जन जातियों एवं पिछड़े वर्गों के हितों में अभिवृद्धि के प्रयास करना ( अनुच्छेद-46)

12.लोक स्वास्थ्य में सुधार आदि करने का राज्य का कर्त्तव्य (अनुच्छेद-47)

13.कृषि और पशुपालन का संगठन (अनुच्छेद-48)

14.राष्ट्रीय स्मारकों आदि का संरक्षण (अनुच्छेद-49)

15.कार्यपालिका एवं न्यायपालिका का पृथक्करण (अनुच्छेद-50)

16.अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि (अनुच्छेद-51)

अनुच्छेद - 41,45,46 के संदर्भ में राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों की विस्तृत व्याख्या(Detailed Explanation of Directive Principles of State Policy in Reference of Articles-41,45,46)

अनुच्छेद- 41 काम, शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार(Right to Work, to Education and to Public Assistance in Certain Cases) अनुच्छेद 41 सामाजिक सुरक्षा को आश्वस्त करता है। यह राज्य का कर्त्तव्य है कि वह

1. सभी को काम दें:

2. शिक्षा दे; और

3. बेकारी, बुढ़ापा अथवा बीमारी आदि में लोक सहायता दे।वस्तुत: यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रावधान है अर्थात यह सम्पूर्ण जीवन की धुरी है और सम्पूर्ण जीवन दर्शन इसमें समाहित है। सारी सांसारिक व्यवस्था काम. शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा आदि पर ही आधारित होती है। यदि प्रत्येक व्यक्ति को काम मिल जाता है, यथोचित शिक्षा मिल जाती है। बेकारी, बुढ़ापे और बीमारी में लोक-सहायता मिल जाती है तो फिर मनुष्य के लिए कुछ भी शेष नहीं रह जाता है।पा. चरीयाकया बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामलों में केरल उच्च न्यायलय ने यहाँ तक कह दिया कि शिक्षा का अधिकार प्राण और दैहिक स्वतन्त्रता में ही सम्मिलित है।राज्य का यह कर्त्तव्य है कि वह इसी परिप्रेक्ष्य में शिक्षा का समुचित

प्रबंध करे।अतः उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अनुच्छेद-41 के अनुसार यह प्रबंध किया गया है कि राज्य अपनी आर्थिक सीमा के अंदर ऐसी व्यवस्था करे जिससे कि सभी व्यक्तियों को योग्यतानुसार काम और शिक्षा मिल सके तथा वृद्धावस्था एवं बीमारी के समय राज्य उनकी सहायता कर सके।

अनुच्छेद 45 बालकों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था(Provision for Free and Compulsory Education for Children)

शिक्षा एक जीवनभर चलने वाली प्रक्रिया है और शिक्षा के द्वारा ही व्यक्तित्व का उचित विकास होता है।लेकिन दुःख की बात यह है कि अभी भी भारत की अधिकांश जनता अशिक्षित है।इसका प्रमुख कारण लम्बे समय तक की दासता एवं निर्धनता माना जाता है;अतः संविधान में चौदह वर्ष तक के बालकों के लिए राज्य की ओर से निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था का प्रावधान किया गया है। (अनुच्छेद-45)लेकिन इस व्यवस्था में अब संविधान के 86 वें संशोधन 2002 द्वारा परिवर्तन कर दिया गया है।अब अनुच्छेद 45 का मूल पाठ इस प्रकार है-" राज्य 6 वर्ष की आयु के सभी बालकों के पूर्व बाल्यकाल की देख-रेख और शिक्षा के लिए अवसर प्रदान करने के लिए उपबन्ध करेगा।"संविधान का यह संशोधन अनुच्छेद 21 (क) के अन्तर्गत 6 वर्ष से 14 वर्ष तक के बालकों की निःशुल्क शिक्षा को मूल अधिकार बना दिए जाने के कारण करना पड़ा है।उल्लेखनीय है कि यूनीकृष्णन बनाम स्टेट ऑफ़ आंध्रप्रदेश के मामले में उच्चतम न्यायलय ने 14 वर्ष तक के बालकों में लिए निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य का दायित्त्व माना है।

अनुच्छेद 46 अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों एवं पिछड़े वर्गों के हितों में अभिवृद्धि के प्रयास करना(Promotion of Educational and Economic Interests of Scheduled Castes,Scheduled Tribes and Other Weaker Sections)

यह सर्वविहित् सत्य है कि भारत में अनुसूचित जातियों,अनुसूचित जनजातियों एवं पिछड़े वर्गों की दशा अत्यन्त सोचनीय है। ये लोग सभी दृष्टियों से पिछड़े हुए हैं तथा तन एवं मन दोनों से ही से जर्जर है; अतः इनका सर्वांगीण विकास करना राज्य का प्रथम कर्त्तव्य है। राज्य इनकी शिक्षा एवं अर्थ संबंधी हितों के सरंक्षण के लिए विशेष सहायता कर सकता है (अनुच्छेद- 46 ) । यद्यपि एक बार उच्चतम न्यायालय ने इसे अनुच्छेद-29 (2) के अन्तर्गत प्रतिभूत मूल अधिकार का अतिक्रमण करने वाला मानते हुए अंसवैधानिक घोषित कर दिया था। लेकिन संसद ने संविधान के पहले (प्रथम) संशोधन द्वारा इस समस्या को दूर कर दिया और अनुच्छेद-15 में एक नया खंड जोड़कर राज्य को अनुसूचित जातियों,अनुसूचित जनजातियों एवं सामाजिक तथा शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के लिए विशेष उपबंध करने की छूट दे दी।इस संबंध में 'अनुसूचित जाति और अनुसूचित (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989' एक अच्छा उदाहरण हैं। यह अधिनियम इस वर्ग के व्यक्तियों (लोगों) पर होने वाले अत्याचार एवं शोषण का प्रभावी ढंग से निवारण करता है।यह अधिनियम इस वर्ग के उत्थान के लिए बनाया गया है।जो संविधान की भावना के अनुरूप है।वास्तव में इस अनुच्छेद का मुख्य उद्देश्य अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों एवं पिछड़े वर्गों के हितों में अभिवृद्धि करना तथा समाज में उन्हें विशेष स्थान दिलाना है।

नीति-निर्देशक सिद्धांत बनाम मूल (मौलिक अधिकार(Directive Principles of State Policy vs. Fundatmental Rights)

संविधान के भाग तीन में मूल अधिकारों एवं भाग-चार में नीति-निर्देशक सिद्धांतों का उल्लेख किया गया है। इन दोनों का उद्देश्य 'लोक-कल्याण' है। उद्देश्य एक होते हुए भी दोनों में पर्याप्त अंतर है। यह अंतर लक्ष्य का नहीं बल्कि क्रियान्वयन का है; अर्थात् मूल अधिकारों को प्रवर्तन न्यायालय के माध्यम से लागू करवाया जा सकता है, लेकिन नीति-निर्देशक तत्त्वों को नहीं। इस संदर्भ में न्यायधीश एस. आर. दास ने अपने एक निर्णय में स्पष्ट किया है कि- "नीति-निर्देशक तत्त्वों का पद मौलिक अधिकारों से निम्न है और यदि मौलिक अधिकार और नीति-निर्देशक तत्त्वों में किसी प्रकार का विरोध होता है तो मौलिक अधिकार ही प्रभावी होंगे।"मौलिक अधिकार नागरिकों को संविधान द्वारा प्रदान किए गए हैं जिनकी प्रतिरक्षा के लिए नागरिक न्यायालयों के समक्ष आवेदन कर सकता है तथा न्यायालय उस व्यक्ति को समुचित सुरक्षा प्रदान करता है; वहीं नीति-निर्देशक सिद्धांत संविधान राज्य को दिए गए निर्देश हैं जिनकी पूर्ति का लक्ष्य रखना राज्य का नैतिक कर्त्तव्य है। लेकिन इन सिद्धांतों की प्रतिरक्षा के लिए कोई नागरिक न्यायालय के सम्मुख आवेदन पत्र (याचिका) प्रस्तुत नहीं कर सकता क्योंकि ये वैद्य अधिकार नहीं हैं जिनका पालने करने के लिए कोई न्यायालय राज्य को बाध्य कर सके; अतः इन नीति-निर्देशक सिद्धांतों को राज्य के कर्त्तव्यों का संकल्प मात्र कहा जा सकता है।

Reference-Dr Naresh Kumar Yadav 


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