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Constructivism and Constructivist Learning(रचनात्मकतावाद एवं रचनात्मकतावादी अधिगम
Sep 07, 2022   Ritu Suhag

Constructivism and Constructivist Learning(रचनात्मकतावाद एवं रचनात्मकतावादी अधिगम

Constructivism and Constructivist Learning(रचनात्मकतावाद एवं रचनात्मकतावादी अधिगम)

शिक्षा और मनोविज्ञान के क्षेत्र में अवतरित रचनात्मकतावाद अपेक्षाकृत काफी आधुनिक दृष्टिकोण तथा एक नयी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है।एक बालक कैसे सीखता है तथा बौद्धिक रूप से किस तरह विकसित होता है इससे सम्बंधित हमारी सोच तथा समझ को एक अलग नया रूप देने में इस विचारधारा ने काफी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।रचनात्मकतावादी दर्शन या विचारधारा ने अधिगम के क्षेत्र में एक नये प्रकार के अधिगम को भी,जिसे रचनात्मकतावादी अधिगम कहा जाता है,जन्म दिया है।देखा जाये तो हमारी शिक्षा और शिक्षा प्रक्रिया में जहाँ पहले व्यवहारवाद(behaviourism) का बोलबाला था वहाँ संज्ञानात्मकतावाद(Cognitivism) को लाकर वास्तव में देखा जाये तो रचनात्मकतावाद ने शिक्षा और उसकी प्रक्रिया के मायने ही बदल दिये हैं।जो कुछ हमें अपनी परम्परागत शिक्षा प्रणाली,अनुदेशन तथा अधिगम में नज़र आता है उसे बहुत कुछ सीमा तक व्यवहारवाद और व्यवहारवादी अधिगम सिद्धान्तों की ही देन कहा जा सकता है।इस प्रणाली में व्याख्या या प्रदर्शन के माध्यम से हम पहले से ज्ञात सूचनाओं,ज्ञान तथा कौशलों को बालकों के मस्तिष्क में सीधे ही भरने या ठूसने की कोशिश करते रहते हैं।विद्यार्थियों से इस दौरान मूक दर्शक और निष्क्रिय श्रोता बने रहकर जो कुछ कहा या दिखाया जाये उसे चुपचाप सुनने और देखने तथा जब भी आवश्यकता हो उसका ज्यों की त्यों पुनः उत्पादन या प्रस्तुतीकरण करने की अपेक्षा की जाती है।इस प्रणाली में विद्यार्थी को यह जानने,समझने या चिन्ता करने की जरूरत नहीं होती कि उसे जो सूचनायें तथा ज्ञान दिया जा रहा है वह कहाँ से आया है अथवा उसका सृजन या रचना कैसे हुई है।उसका कार्य तो जो कुछ उसे अध्ययन द्वारा दिया जा रहा है उसको ग्रहण करने,उसकी पुनरावृत्ति एवं अभ्यास कर अपनी स्मृति में धारण किये रहने तथा उसे अपने द्वारा ग्रहित स्वरूप में ही ज्यों की त्यों पुनः प्रस्तुत कर देना होता है।रचनात्मकतावाद अपनी विचारधारा और अधिगम सिद्धान्तों दोनों ही बातों में व्यवहारवाद द्वारा प्रतिपादित इस परम्परागत शिक्षा तथा अधिगम व्यवस्था का घोर विरोधी है।इसका मानना है कि विद्यार्थियों को अपने पूर्व अनुभवों तथा वर्तमान में अपने परिवेश के साथ होने वाली अंतः क्रिया के माध्यम से अपने लिये वांछित ज्ञान की रचना करते हुये अपने अधिगम अर्जन तथा संज्ञानात्मक विकास में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिये।इस तरह एक सीखने वाला तभी सीख सकता है जब वह वांछित ज्ञान का अकेले या समूह में स्वयं अपने प्रयत्नों द्वारा अर्जन या सृजन करे इस प्रकार की अपनी धारणा में अटूट विश्वास रखना ही रचनात्मकतावादी दर्शन की मुख्य और केन्द्रीय बात कही जा सकती है।

रचनात्मकतावाद की प्रकृति एवं मान्यतायें (Nature and Assumptions underlying Constructivism)

1.रचनात्मकतावाद में स्वयं के प्रयत्नों से ज्ञान प्राप्त करने या ज्ञान की स्व-रचना करने सम्बंधी प्रक्रिया पर ही सारा ध्यान केन्द्रित रहता है जबकि व्यवहारवाद पर आधारित परम्परागत कक्षा शिक्षण में ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया के बजाय उससे प्राप्त परिणामों को सीधे ही विद्यार्थी के मस्तिष्क में भरने की कोशिश की जाती है।

2.रचनात्मकतावाद यह अपेक्षा करता है कि विद्यार्थीगण ज्ञान प्राप्ति की इस प्रक्रिया में मात्र निष्क्रिय श्रोता तथा मूक दर्शक बनने के स्थान पर अपनी सक्रिय भागीदारी निभायें।एक तरह से रचनात्मकतावाद एक ऐसे शिक्षण अधिगम वातावरण की सृष्टि करने के पक्ष में है जहां ज्ञान प्राप्ति में विद्यार्थियों की ही केन्द्रीय भूमिका हो, अध्यापक तो बस उन्हें आवश्यकं सुविधायें जुटाने तथा परिस्थिति अनुसार परामर्श या सहायता देने वाले की ही भूमिका में नज़र आये।

3.एक सक्रिय अन्वेषक या खोजी के रूप में अपेक्षित ज्ञान की प्राप्ति की दिशा में विद्यार्थियों को अपने कक्षा कक्ष या सामाजिक वातावरण में समुचित अनुक्रियायें करते हुये अपने ही निजी प्रयासों से वांछित ज्ञान के अर्जन एवं सृजन के लिये सभी प्रकार के संभव प्रयास करने चाहियें। 

4.रचनात्मकतावाद का इस धारणा में अटूट विश्वास है कि सीखने वाला तभी अच्छी तरह सीखता है जब उस पर विश्वास करते हुये उसे इस बात की आजादी दी जाती है कि वह परिस्थिति विशेष में अपेक्षित ज्ञान का स्वयं ही अर्जन या सृजन करें।

5.एक शिक्षण-अधिगम परिस्थिति में विद्यार्थी वांछित ज्ञान की प्राप्ति, उसकी सृष्टि तथा वस्तुओं और घटनाओं के अपने-अपने अर्थ लगाने हेतु अपने पूर्व ज्ञान तथा अनुभवों को एक आवश्यक साधक के रूप में इस्तेमाल करते हैं।यहाँ यह स्वाभाविक है कि बालको के उनके पूर्व ज्ञान एवं अनुभवों तथा इनके उपयोग को लेकर वैयक्तिक विभिन्नतायें तो होंगी ही।फलस्वरूप अगर वे अपने-अपने अर्थ लगाने तथा नये ज्ञान की सृष्टि करने में यहाँ भिन्नतायें दिखाते हैं तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है।

6.रचनात्मकतावाद यद्यपि खोज अधिगम (discovery learning),पूछताछ विधि,सामाजिक अन्वेषण आदि उपागमों को सामने लाकर बालक के स्वयं के प्रयत्नों द्वारा नये ज्ञान की उपलब्धि या रचना पर आवश्यक जोर देता है परन्तु ऐसा करने में उसके द्वारा यह कभी नहीं कहा जाता कि अधिगम लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु बालक को वांछित सहायता या पथ प्रदर्शन में सामाजिक अन्तः क्रिया तथा आवश्यक सांस्कृतिक साधनों जैसें भाषा, बड़ों के द्वारा प्रदत्त सहायता एवं मार्गदर्शन के महत्त्व को कम करके आँका जाना चाहिये।

7.रचनात्मकतावाद निर्देशित खोज (guided discovery)का उपयोग बालकों के द्वारा अपने लिये वांछित ज्ञान की सृष्टि स्वयं अपने प्रयासों से करने पर इसलिये तो जोर देता ही है कि इससे उन्हें अधिगम के सही रास्ते पर देखने तथा अपने पूर्व ज्ञान एवं अनुभवों का उचित ढंग से प्रयोग में लाने के लिये उचित उदाहरण मार्गदर्शन एवं सहायता प्राप्त हो जायेगी परन्तु वह ऐसा इसलिये भी करता है कि इससे बालकों को अपने स्वयं के प्रयासों द्वारा संभावित गलत तथा त्रुटिपूर्ण निष्कर्ष निकालने या दोषपूर्ण विचार प्रक्रिया को अपनाने के खतरों से भी भलीभांति बचाया जा सकेगा।

8.रचनात्मकतावाद शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में शिक्षक केन्द्रित या विषय केन्द्रित उपागम के प्रयोग का विरोध करता है।इसके स्थान पर वह उन सभी विधियों तथा तकनीकों के प्रयोग को बढ़ावा देता हुआ नजर आता है जो विद्यार्थी केन्द्रित हो तथा उनके द्वारा शिक्षण अधिगम को स्मृति स्तर की बजाय बोध स्तर और यहां भी अपेक्षाकृत चिन्तन स्तर(reflective level) पर संपादित करने में उचित सहायता मिल सके।यह विद्यार्थियों के द्वारा अपने स्वयं के प्रयासों से समस्याओं को हल करने तथा स्वतन्त्र रूप से चिन्तन करते हुये नवीन ज्ञान की खोज या सृजन करने में पर विशेष जोर देता है।यही कारण है कि रचनात्मकतावाद को प्रायः उसी की विचारधारा तथा मान्यताओं को व्यावहारिक रूप देने वाली विधियों एवं उपागम जैसे खोज अधिगम,पूछताछ उपागम,सहकारी अधिगम,रचनात्मकतावादी अधिगम तथा चर्चा,गोष्ठी और मस्तिष्क उद्वेलन जैसी तकनीकों को प्रतिपादित करते हुये पाया जाता है।

रचनात्मकतावाद की प्रकृति, अर्थ एवं विशेषताओं से सम्बंधी उपरोक्त चर्चा के आधार पर हम रचनात्मकतावाद को एक ऐसी शिक्षण-अधिगम उपागम या विचारधारा के रूप में मान्यता दे सकते हैं। जिसमें विद्यार्थियों के ऊपर जिम्मेदारी डाल कर उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे वैयक्तिक या सामाजिक स्तर पर बिल्कुल स्वतन्त्र रूप से अथवा अपने शिक्षक और गुरुजनों से अपेक्षित समयानुकूल सहायता या मार्गदर्शन प्राप्त करते हुये वर्तमान में उपलब्ध शिक्षण-अधिगम परिस्थितियों से सम्बंधित वस्तुओं और घटनाओं का अपने-अपने ढंग से अर्थ लगाते हुये नवीन ज्ञान की रचना या सृजन में अपना अमूल्य योगदान दे सकें।

रचनात्मकतावाद में अधिगम अनुभवों का नियोजन एवं विकास(Planning and Development of Learning Experiences in constructivism)

रचनात्मकतावाद, जैसा कि हमने अभी तक चर्चा की है,मुख्य रूप से ज्ञान की खोज या उसकी रचना अथवा सृजन से सम्बंधित रहता है और इस कार्य में विद्यार्थी से यह अपेक्षा करता है कि वे स्वतन्त्र रूप से अथवा शिक्षक, अन्य गुरुजन और यहाँ तक कि अपने से योग्य सहपाठियों का सहयोग और परामर्श प्राप्त करते हुये नवीन ज्ञान की खोज या रचना में अपेक्षित रूप से रत रहने की चेष्टा करेंगे।इसके लिये यहाँ अब वह यह पुरजोर सिफारिश करता है कि शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का नियोजन तथा संगठन विशेष रूप से इस रूप में या इस ढंग से किया जाये कि वह पूरी तरह से अध्ययन केन्द्रित न होकर विद्यार्थी केन्द्रित हो तथा उसका संचालन एवं क्रियान्वयन स्मृति स्तर पर न होकर बोध या चिन्तन स्तर पर किया जाये।प्रश्न उठता है कि विद्यार्थी को अपने वांछित ज्ञान की उपलब्धि या खोज अपनी तरह से करने समुचित सहायता प्रदान करने के लिये किस प्रकार के अधिगम अनुभव उसे प्रदान किये जायें?इस सम्बंध में किसी एक शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में अपनाये जाने वाले रचनात्मकतावादी उपागम में विद्यार्थियों को प्रदत्त अधिगम अनुभवों के नियोजन तथा विकास हेतु जो कुछ समुचित रूप से अपेक्षित है उसे संक्षेम निम्नप्रकार व्यक्त किया जा सकता है।

1.रचनात्मकतावादी उपागम में अधिगम अनुभवों के नियोजन और विकास का उत्तरदायित्व परम्परागत अध्यापक संचालित एवं विषय केन्द्रित कक्षा शिक्षण की तरह - तरह से कक्षा अध्यापक के कंधों पर नहीं डाला जाता।

2.रचनात्मकतावादी उपागम में,जैसा कि वुलफोक ने संकेत दिया है,अधिगम अनुभवों में नियोजन तथा विकास सम्बंधी कार्य में आपसी भागीदारी भी रहती है तथा इसमें एक दूसरे का ख्याल भी रखा जाता है।अध्यापक और विद्यार्थी संयुक्त रूप से यह निर्णय लेते हैं कि कक्षाकक्ष अथवा कक्षा से बाहर अन्य अधिगम परिस्थितियों में शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया के संपादन हेतु किस प्रकार की विषय सामग्री,क्रियाकलापों तथा शिक्षण अधिगम उपागमों का प्रयोग किया जाये।

3.विद्यार्थियों द्वारा स्वयं उनके प्रयत्नों से नये तथ्यों की खोज तथा नवीन ज्ञान के सृजन को व्यावहारिक रूप देने हेतु उन्हें स्व-अध्ययन तथा अपने ढंग से कार्य करने के लिये आवश्यक स्वतन्त्रता प्रदान करना रचनात्मकतावादी उपागम में जरूरी ही होता है।परिणामस्वरूप रचनात्मकतावादी विचारधारा को अपनाने में विषयवस्तु तथा अन्य क्रियाओं के चयन तथा अधिगम अनुभवों के विकास सम्बंधी कार्य में पर्याप्त लचीलापन रखना भी अनिवार्य बन जाता है।यही कारण है कि रचनात्मकतावादी उपागम के पाठ्यक्रम या सिलेबस के स्थायित्व तथा समुचित निर्धारीकरण पर कभी भी जोर नहीं दिया जाता बल्कि इसमें परिस्थिति अनुसार परिवर्तन लाने हेतु इसे पर्याप्त लचीला बनाये रखने की ही बात कही जाती है।व्यवहारवादी मनोविज्ञान पर आधारित परम्परागत कक्षा शिक्षण में जहाँ शिक्षण-अधिगम उद्देश्यों के पूर्व निर्धारण तथा उन्हें अधिक से अधिक निश्चित बनाकर और उनकी व्यवहारजन्य शब्दावली में व्यक्त करने पर जोर दिया जाता है वहाँ संज्ञानात्मक मनोविज्ञान पर आधारित रचनात्मकतावादी उपागम में इस प्रकार उद्देश्यों की निश्चितता पर बल नहीं दिया जाता।यहाँ तो शिक्षकों से यह अपेक्षा की जाती है कि शिक्षण अधिगम उद्देश्य हेतु व्यापक लक्ष्य और प्रयोजनों को तय कर लें ताकि उसे एक ऐसे आधार और मार्गदर्शन के रूप में काम में लाया जा सके जो रचनात्मकतावादी विचाराधारा के अनुरूप काफी लचीलापन दिखाते हुये उचित अधिगम अनुभवों के नियोजन तथा विकास में समुचित रूप से सहायक सिद्ध हो सके।

5.रचनात्मकतावादी उपागम में विभिन्न प्रकार के अधिगम अनुभवों और क्रियाकलापों को किसी भी आयु, वर्ग, स्तर तथा श्रेणी विशेष के पाठ्यक्रम या सिलेबस के विकास के लिये इस तरह नियोजित एवं संगठित किया जाता है कि उसे प्रयोग में लाने हेतु विद्यार्थियों को अपनी-अपनी तरह से स्वयं के प्रयास करते हुये वांछित ज्ञान की खोज या रचना में समुचित मदद मिल सके।

6.रचनात्मकतावाद अपने सामाजिक रचनात्मकतावादी स्वरूप में इस बात पर जोर देता है कि बालकों को स्वयं के प्रयासों से ज्ञान की खोज, सृष्टि, रचना या सृजन सम्बंधी कार्य में सामाजिक अन्तः क्रियायें तथा सांस्कृतिक साधन जैसे भाषा तथा विभिन्न प्रकार की सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्रियायें काफी महत्त्वपूर्ण सहयोग प्रदान कर सकती है।इस दिशा में शिक्षकों,ज्ञानवान सहपाठियों तथा गुरुजनों द्वारा प्रदत्त सहयोग,मार्गदर्शन तथा पर्यवेक्षण भी बालकों की समय की मांग के अनुसार उचित सहायता कर सकता है।फलस्वरूप रचनात्मकतावाद की यह मांग रहती है उचित नियोजन और विकास के संदर्भ में अधिगम अनुभवों को उनके निम्न प्रारूपों में प्रस्तुत किया जाये :(i)अध्यापकों, अन्य गुरुजनों तथा सहपाठियों के साथ होने वाली वार्ताओं तथा वार्तालाप के रूप(ii)समूह अन्तः क्रिया तथा समूह चर्चा के रूप में

(iii)समूह प्रोजेक्टों के संपादन के रूप में

(iv)सामाजिक,सांस्कृतिक तथा सामुदायिक क्रिया-कलापों के संपादन के रूप में 

7.रचनात्मकतावादी विचारधारा को अपनाने में विद्यार्थियों को अपने लिये आवश्यक और वांछित ज्ञान की स्वयं ही रचना या सृष्टि करनी होती है।इस उद्देश्य से रचनात्मकतावाद यह कहता हुआ नजर आता है कि अधिगम अनुभवों का नियोजन इस तरह किया जाये कि जिससे बालकों के मस्तिष्क में आवश्यक हलचल तथा असंतुलनीकरण(disequilibration) की स्थिति पैदा हो जाये और वे अपने आप इसका कुछ न कुछ हल तलाशने के लिये हाथ पैर मारते नजर आयें।इस दृष्टि से उन्हें अधिगम अनुभवों के नियोजन द्वारा वह विषय सामग्री या क्रियायें मिलनी चाहिये जो अपेक्षाकृत कुछ नयी कठिन, पेचीदा तथा सूक्ष्म प्रकृति के हों और जिन्हें वे अपने पूर्व ज्ञान तथा अनुभवों के आधार पर आनन-फानन में ही नहीं कर सकते हों।इस प्रकार की समस्यात्मक और चुनौतीपूर्ण स्थिति प्राप्त होने पर ही वे अपनी संज्ञानात्मक क्षमताओं का अच्छे से अच्छा उपयोग करने के लिये आगे आ सकते हैं।इसी के फलस्वरूप उन्हें अब वस्तुओं तथा घटनाओं के नवीन अर्थ तलाश करने तथा नवीन ज्ञान की खोज या सृजन में उचित सहायता मिल सकती है।

8.रचनात्मकतावादी उपागम को अपनाने के अधिगम अनुभव तथा क्रियाओं को इस तरह नियोजित एवं विकसित किया जाता है कि उससे रचनात्मकतावादी विचारधारा से मेल खाती हुई शिक्षण अधिगम विधियों तथा तकनीकों जैसे खोज विधि,पूछताछ प्रशिक्षण,संप्रत्यय उपलब्धि प्रतिमान,अन्वेषण विधि,समस्या समाधान विधि,प्रोजेक्ट विधि अधिन्यास(assignment) विधि,चर्चा या गोष्ठी विधि,वार्तालाप या वाद विवाद विधि, संबाद विदि(सुकरात द्वारा प्रयुक्त विधि) मस्तिष्क उद्वेलन,सहकारी तथा रचनात्मकतावादी अधिगम आदि को प्रयोग में लाने हेतु समुचित सहायता मिल सके।

9.बालकों द्वारा अपने स्वयं के प्रयास से नये ज्ञान की प्राप्ति या रचना करने में उनके द्वारा अर्जित पूर्व ज्ञान तथा अनुभवों की काफी बड़ी भूमिका रहती है इसलिये रचनात्मकतावादी उपागम की अनुपालना के संदर्भ में जब अधिगम अनुभवों के नियोजन तथा विकास का प्रश्न खड़ा होता है तो यहां स्पष्ट रूप से इसी बात पर जोर दिया जाता है कि बालकों को दिये जाने वाले अधिगम अनुभवों की कड़ी उनके पूर्व ज्ञान तथा अनुभवों से समुचित रूप से जुड़ी होनी चाहिये।ऐसा करने में जो एक बात और यहाँ ध्यान में रखी जानी चाहिये वह यह है कि पाठ्यक्रम में शामिल इन नये अधिगम अनुभवों का कठिनाई स्तर उन्हें पहले की कक्षाओं में दिये गये अथवा उनके द्वारा स्वयं अपने परिवेश से अर्जित अधिगम अनुभवों से अपेक्षाकृत कुछ ऊँचा ही रहे ताकि विद्यार्थियों के सामने अपने पूर्वज्ञान तथा अनुभवों की पुनर्रचना तथा परिमार्जन का प्रश्न आवश्यक रूप से खड़ा हो जाये और फिर वे इस नये ज्ञान की प्राप्ति तथा सृष्टि हेतु वैयक्तिक अथवा सामूहिक रूप से प्रयास करते नज़र आये।

 

रचनात्मकतावादी अधिगम(Constructivism Learning)

सीधे साधे शब्दों में रचनात्मकतावादी अधिगम से अभिप्रायः ऐसे अधिगम से होता है जो रचनात्मकतावादी दर्शन या विचारधारा पर आधारित हो।अभी तक हमारी कक्षा शिक्षण व्यवस्था में परम्परागत रूप से जो भी अधिगम होता है और विशेषकर उन शिक्षण अधिगम परिस्थितियों में जो अध्यापक तथा विषय केन्द्रित ही ज्यादा पाई जाती हैं,उसका संपूर्ण नियोजन तथा क्रियान्वयन व्यवहारवादी मनोविज्ञान के सिद्धान्तों तथा उनसे निकली शिक्षण अधिगम विधियों पर ही आधारित होता है।अपने आविर्भाष के साथ ही संज्ञानात्मक मनोविज्ञान ने व्यवहारात्मक मनोविज्ञान की विचारधारा के विरुद्ध बिगुल बजाते ही यह घोषणा कर दी थी कि मानव मशीन नहीं है,उसके व्यवहार को मशीनों की तरह क्रिया-अनुक्रिया या उद्दीपन-अनुक्रिया के रूप में संचालित होते नहीं देखा जा सकता है।वह मशीनों से आगे भी कुछ कर सकता है क्योंकि उसके पास विकसित संज्ञानात्मक क्षमतायें हैं।संज्ञानात्मकवादी मनोवैज्ञानिक ने व्यवहारदारी मनोवैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित अधिगम विधियों(जैसे भूल एवं प्रयास विधि, शास्त्रीय तथा क्रियाप्रसूत अनुबन्धन आदि) के स्थान पर इन विधियों को जन्म दिया जिनमें मानव मस्तिष्क तथा उसकी बौद्धिक क्षमताओं की सहायता से नये ज्ञान की रचना तथा सृष्टि करने तथा नये ज्ञान को अच्छी तरह से समझने के बाद ही उसे अपनी संज्ञानात्मक संरचना में आत्मसात करने इत्यादि बातों पर जोर दिया जाता था। रचनात्मकतावादी दर्शन के प्रणेता मनोवैज्ञानिकों ने (जिनमें से अधिकांश स्वयं ही प्रसिद्ध संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिक रहे है) अपनी शिक्षण-अधिगम सम्बंधी अवधारणाओं तथा कार्यप्रणाली को विकसित करने में संज्ञानात्मक मनोविज्ञान का ही सहारा लिया क्योंकि यह बात उनके अपने दर्शन तथा कार्यशैली से काफ़ी मेल खाती थी और एक तरह से यह कहने और मानने में भी कोई कठिनाई नहीं होनी चाहियें कि आज जिसे हम रचनात्मकतावादी अधिगम के नाम से जानते हैं उसकी प्रणेता तथा आधारभूमि संज्ञानात्मक मनोविज्ञान तथा संज्ञानात्मकतावादी अधिगम विधियाँ तथा उपागम ही रहे हैं। इस प्रकार की अधिगम विधियों तथा उपागमों के उदाहरण रूप में हम गेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित अन्तः दृष्टि विधि (Insightful Learning) तथा पियाजे एवं ब्रूनर जैसे संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित विधियों एवं उपागम जैसे खोज विधि, संप्रत्यय उपलब्धि प्रतिमान, पूछताछ आधारित अन्वेषण आदि का उल्लेख कर सकते हैं। गेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों तथा पियाजे, ब्रूनर आदि संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिकों के अतिरिक्त कुछ अन्य विद्वानों तथा मनोवैज्ञानिकों जैसे जोहन डेवी (जिसने ज्ञान की रचना में अनुभवों की भूमिका पर जोर दिया) व्यगोत्स्की तथा वोन ग्लेजरफील्ड आदि ने भी (जैसी कि हमने इस अध्याय में चर्चा की है) रचनात्मकतावादी अधिगम को प्रकाश में लाने हेतु अपना विशेष योगदान दिया।

रचनात्मकतावादी अधिगम की परिभाषा (Constructivism Learning defined)

रचनात्मकतावादी दर्शन की उपज रचनात्मकतावादी अधिगम को संज्ञानात्मक अधिगम(Cognitive learning) की तुलना में उससे एक कदम आगे का ऐसा अधिगम कहा जा सकता है कि जिसमें सब तरह से इस बात पर जोर दिया जाता है कि अधिगम कर्ता द्वारा स्वयं ही अपने ज्ञान की रचना या सृष्टि की जाती है और इस प्रकार की ज्ञान रचना या सृष्टि सम्बंधी कार्य वह स्वतन्त्रतापूर्वक अकेले या समूह में अपने पूर्ण अनुभवों तथा ज्ञान के आधार पर अपने वातावरण के साथ अन्तः क्रिया करते हुये बिना किसी दूसरे की सहायता अथवा अपने अध्यापकों, माता-पिता, अन्य गुरुजन अथवा सामर्थ्यवान सहपाठियों का सहयोग निर्देशन या परामर्श प्राप्त करते हुये करता है।

मान्यतायें एवं विशेषतायें(Assumptions and Characteristics)

रचनात्मकतावादी अधिगम में निहित मान्यताओं तथा विशेषताओं की संक्षेप में निम्न प्रकार चर्चा की जा सकती है :

1.रचनात्मकतावादी अधिगम सिद्धान्त व्यवहारवादी अधिगम सिद्धान्तों (Behaviouristic theories of learning)से इस बात में अलग नज़र आते हैं कि इनके न तो अधिगम को मशीनी उद्दीपन-अनुक्रिया प्रक्रिया माना जाता है और न अधिगम कर्ता को बिना सोचे समझे ऊल-जलूल क्रियायें करके अपनी गल्तियों से सबक लेकर सीखता हुआ दिखाया जाता है।इसके अतिरिक्त रचनात्मकतावादी अधिगम सिद्धान्त अपनी आधारभूमि और प्रणेता संज्ञानात्मक अधिगम सिद्धान्तों से भी यहां अब एक कदम आगे बढ़े हुये पाये जाते हैं।संज्ञानात्मक सिद्धान्त यह तो कहते हैं कि अध्यापक के द्वारा बालक के सामने जो विषय सामग्री प्रस्तुत की जाती है,वह अपने आप में क्या है उसका ऐसा अर्थ निकालने या उसको ठीक तरह से समझने में बालक का मस्तिष्क यानी उसकी बौद्धिक शक्तियां उसे पूरी-पूरी सहायता देती है परन्तु ऐसा करते हुये भी वे यह मानकर चलते हैं कि बालक की भूमिका यहाँ अध्यापक द्वारा जो प्रस्तुत किया जाता है।उसका भलीभाँति आत्मसातीकरण करने तक ही सीमित रहती है।यानी वह अपनी ओर से इसमें कुछ रचना या सृष्टि करने की भूमिका नहीं निभाता संज्ञानात्मक बाद के इस अधूरे कार्य को पूरा करने का ही बीड़ा अब रचनात्मकतावादी अधिगम में उठाया जाता है।यहाँ विद्यार्थी पूरी तरह से सक्रिय रहकर अपने लिये वांछित नये ज्ञान की प्राप्ति तथा रचना स्वयं अपने प्रयासों से करता है। वह अध्यापक द्वारा या किसी और स्त्रोत द्वारा प्राप्त ज्ञान का हू-बहू आत्मसातीकरण तथा प्रस्तुतीकरण करता हुआ नजर नहीं आता।

2.रचनात्मकतावादी अधिगम अपने विस्तृत एवं व्यापक रूप में ऐसे सभी प्रकार के अधिगम एवं उपागमों का प्रतिनिधित्व करता है जो किसी विद्यार्थी को अपने स्वयं के प्रयासों से अपने लिए आवश्यक ज्ञान से सम्बन्धित बातों की खोज,रचना एवं सृजन करने में सहायता करता है।वह यह काम अकेले भी,बिना दूसरों की सहायता लिए हुये अपने वातावरण के साथ अन्तः क्रिया करता हुआ अथवा प्रस्तुत विषय सामग्री का अपने ढंग से अर्थापन करता हुआ कर सकता है।इसके अतिरिक्त ज्ञान की रचना और सृष्टि का यह कार्य उसके द्वारा वैयक्तिक तौर पर अकेले रह कर ही न किया जाकर सामाजिक परिवेश में समूह के अन्तर्गत भी किया जा सकता है।और ऐसा करने में उसे अध्यापक एवं अन्य गुरुजनों तथा सामर्थ्यवान सहपाठियों का भी सहयोग और मार्गदर्शन प्राप्त हो सकता है।परिणामस्वरूप रचनात्मकतावादी अधिगम में उन सभी अधिगम विधियों, तकनीकों और उपागमों का समावेश किया जा सकता है जिन्हें हम खोज अधिगम,पूछताछ उपागम पर आधारित अधिगम,समस्या समाधान तथा अन्वेषणात्मक विधियों पर आधारित अधिगम(वैयक्तिक रचनात्मकतावाद से जुड़ा हुआ अधिगम) और इसके अतिरिक्त चर्चा,वार्तालाप,गोष्ठियों तथा बड़ों के साथ संवाद पर आधारित अधिगम,प्रोजेक्ट अथवा कार्य केन्द्रित अधिगम,सहकारी अधिगम आदि(सामाजिक रचना से जुड़ा हुआ अधिगम के नाम से जानते हैं।

3.रचनात्मकतावादी अधिगम को अपने नियोजन एवं संगठन के सन्दर्भ में रचनात्मकतावादी दर्शन से अनुप्रेरित कुछ निम्न मान्यताओं को अपनाते हुए भी पाया जाता है :(i)विद्यार्थी स्वयं ही ज्ञान की भौतिक रूप में अपने सक्रिय प्रयासों से सृष्टि या रचना करते हैं।(जैसे बैटरी का स्विच दबाने से उसके बल्ब द्वारा रोशनी हो जाती है।)(ii)विद्यार्थी अपने स्वयं के अभिव्यक्ति के ढंग को काम में लाते हुए ज्ञान का संकेतात्मक रूप से सृजन करते हैं।(iii)ज्ञान का विद्यार्थियों के द्वारा सामाजिक रूप से सृष्टि की जाती है ताकि वह अपने द्वारा रचित ज्ञान के बारे में दूसरों को समझा सके। जैसे-(बैटरी में क्या करने से रोशनी हो जाती है।(iv)ज्ञान की विद्यार्थियों द्वारा सैद्धान्तिक रूप में रचना या सृष्टि की जाती है जिससे कि वे दूसरों को, अपने ज्ञान से सम्बन्धित उन बातों को भी ठीक प्रकार समझा दें, जिन्हें अन्य लोग अच्छी प्रकार से नहीं समझ पा रहे हों(स्विच दबाने से बैटरी का बल्ब क्यों जल जाता है और रोशनी कैसे हो जाती है)

4.रचनात्मकतावाद पर आधारित ज्ञान रचना अथवा सृष्टि का कार्य रचनात्मकतावादी अधिगम में काफी कुछ एक व्यक्तिगत जिम्मेदारी ही होती है क्योंकि इसमें व्यक्ति विशेष को ही अपने ज्ञान की रचना अथवा सृजन के लिए आगे आना होता है।उसी के द्वारा किसी शिक्षण अधिगम परिस्थिति अथवा वातावरण में जो बातें या विषय सामग्री उपलब्ध रहती है,उसके अपने तरह से अर्थ निकालकर नवीन ज्ञान को ग्रहण करने या सृजन करने का काम किया जाता है।स्पष्ट है कि ऐसा करने में विद्यार्थियों के वैयक्तिक भेद अवश्य सामने आएंगे।उदाहरण के लिए अगर हम कक्षा में कोई विषय सामगी प्रस्तुत करें अथवा किन्हीं क्रियाओं का प्रदर्शन करें और फिर देखें कि बच्चों ने इनसे क्या कुछ देखा और सीखा है तो हम यह पाएंगे कि बच्चों ने अपनी-अपनी तरह से इनके मतलब समझे हैं और अलग-अलग तरह से ज्ञान की सृष्टि की है यद्यपि उनको एक जैसी विषय सामग्री का प्रस्तुतीकरण तथा क्रियाओं का प्रदर्शन किया गया था फिर भी उन्होंने अपने पूर्व ज्ञान, अनुभवों तथा बौद्धिक संरचना के आधार पर अपने-अपने तरह से ज्ञान की सृष्टि करने का कार्य किया।

5.रचनात्मकतावादी अधिगम सिद्धान्त का यह गहरा विश्वास और मान्यता हैं कि विद्यार्थी तब ही अच्छी तरह सीखते हैं जब कि उनके द्वारा वांछित ज्ञान की वे स्वयं अपने प्रयासों से रचना या सृजन करें बजाय इसके कि उनको पहले से ही सृजित ज्ञान सीधे ही अध्यापकों द्वारा अपने अनुदेशन के रूप में प्रदान कर दिया जाए। रचनात्मकतावादी अधिगम के इस विश्वास और मान्यता की पुष्टि निम्न उदाहरण द्वारा अच्छी तरह हो सकती है'आप उस समय की कल्पना कीजिए जब आप एक विद्यार्थी थे और आपको कोई प्रकरण "व्याख्यान युक्त कक्षा-कक्ष परिस्थिति में पढ़ाया गया था।अब उस स्थिति की कल्पना करो जब आप स्वयं एक अध्यापक हैं और उसी प्रकरण को आप अपने विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए तैयारी कर रहे हो।इससे आपको अच्छी तरह से मालूम हो जाएगा कि उस प्रकरण से सम्बन्धित तैयारी करने के दौरान आपने उस प्रकरण के बारे में उससे अच्छी तरह समझा और जाना है,जिस तरह आपने अपने अध्यापक के शिक्षण से जाना और सीखा था।"ऐसा इसलिए होता है कि दूसरी परिस्थिति में आपने उस प्रकरण से सम्बन्धित विषय सामग्री का अर्थ अपने ही तरीके से निकाल कर उसे जाना और समझा है।यानी दूसरे शब्दों में जिस ज्ञान की आपको जरूरत है उसकी सृष्टि और रचना आपने स्वयं अपने प्रयासों से की है।

6.रचनात्मकतावादी अधिगम किसी समस्या के एक मात्र हल और उसके लिए एक ही तरह की प्रक्रिया अपनाने के लिए नहीं कहता क्योंकि यह स्पष्ट है कि इस प्रकार की निश्चितता और अड़ियल रुख विद्यार्थियों को उस समस्या विशेष के हल हेतु अपनी-अपनी तरह से समाधान ढूंढने में काफी बाधक सिद्ध होगा।इसलिए इस प्रकार के अधिगम में यह अपेक्षा की जाती है कि विद्यार्थियों का पाठ्यक्रम काफी लचीला हो,अध्यापक और विद्यार्थियों के मध्य अन्तःक्रिया में काफी विविधता रहे तथा विद्यार्थियों को अपनी-अपनी तरह से सीखने तथा कार्य करने की समुचित स्वतन्त्रता मिले।

7.रचनात्मकतावादी अधिगम सिद्धान्त अध्यापकों से यह अपेक्षा करता है कि वे विद्यार्थियों को वे सारी सुविधाएं और परिस्थितियाँ उपलब्ध कराने में सहायता करें जिनसे वे अपने प्रयासों से आवश्यक ज्ञान की रचना और सृष्टि कर सकें।इस कार्य हेतु पहले तो उसे जिस बात को पढ़ाया या सिखाया जा रहा है उससे सम्बन्धित विद्यार्थी विशेष के प्रविष्टि व्यवहार की जाँच करनी चाहिए।इसके पश्चात् उसे बुद्धिमतापूर्ण ढंग से विद्यार्थी को अधिगम प्रक्रिया में इस प्रकार की सहायता और मार्गदर्शन प्रदान करना चाहिए जिससे जो कुछ ज्ञान उसे इस लिपि में प्राप्त करना अभीष्ट था उसकी प्राप्ति स्वयं अपने प्रयासों से उसकी अपने ढंग से रचना या सृजन के द्वारा कर सके।

शैक्षिक निहितार्थ(Educational Implications)

रचनात्मकतावादी अधिगम से जुड़े हुये विचारों तथा उसके व्यावहारिक रूप से सम्बंधित शैक्षिक निहितार्थो को संक्षेप में निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है:

1.विद्यार्थी को अपने अधिगम के लिये पूरी तरह उत्तरदायी बनाया जाना चाहिये। हमें उस पर अपना पूरा विश्वास रखते हुये इतनी स्वतन्त्रता अवश्य देनी चाहिये कि वह स्वयं अपने प्रयत्नों से नये जान की प्राप्ति, रचना तथा सृजन के लिये आगे आये तथा परिस्थिति अनुसार अपनी अधिगम जरूरतों को अपने आप ही पूरा करने की क्षमता प्रकट करे।ज्ञान की प्राप्ति कर आगे विकास को प्राप्त होना यह बालक के अपने ही हित में है तथा यह वह स्वयं ही है जिसके द्वारा अधिगम किया जाना है।इस तरह सभी प्रकार से उसमें स्व-अधिगम के प्रति रुचि और उत्साह भरने की ही कोशिश अध्यापकों तथा माता-पिता द्वारा की जानी चाहिये।

2.रचनात्मकतावादी अधिगम सिद्धान्त यह बताता है कि अध्यापक का कार्य पूर्व रचित तथा सृजित अधिगम सामग्री को बालकों के मस्तिष्क में ढूंढना नहीं है और न विद्यार्थी का कार्य इस प्रकार से प्रदत्त सामग्री को ग्रहण कर उसका वैसे ही पुनः प्रस्तुतीकरण है।इस प्रकार का अधिगम कराना और करना दोनों ही निरर्थक है क्योंकि इससे विद्यार्थी के पल्ले कुछ खास नहीं पड़ता।कोरे ज्ञान की प्राप्ति से उस ज्ञान की प्राप्ति का ढंग सीखना सभी दृष्टि से बेहतर है और इसलिये शिक्षण का प्रयोजन बालकों को अपने स्वयं के प्रयासों से ज्ञान प्राप्ति की राह पर अग्रसर करना ही होना चाहिये। इस दृष्टि से अध्यापकों

का यह परम कर्त्तव्य बन जाता है कि वे अपनी तरफ से विद्यार्थियों पर ज्ञान की बौछार करने से बाज आये।और विद्यार्थियों को वह सभी अवसर और सुविधायें उपलब्ध कराते हुये पर्याप्त रूप से इस प्रकार प्रोत्साहित करें कि वे स्वयं ही अपने लिये आवश्यक ज्ञान की रचना एवं सृष्टि कर सकें।

3.जब भी किसी प्रकरण या संप्रत्यय विशेष का शिक्षण शिक्षक के द्वारा प्रारम्भ करना हो तो उसे सबसे पहले इसके बारे में बच्चों के पूर्व ज्ञान तथा अनुभवों से परिचित होने का प्रयत्न करना चाहिए ताकि विद्यार्थियों के द्वारा इससे सम्बन्धित नवीन ज्ञान की प्राप्ति तथा सृजन का कार्य आगे बढ़ सके।इस दिशा में भी अब इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि पहले उस प्रकरण या सम्प्रत्यय से सम्बन्धित बात को विद्यार्थी अपने पूर्व ज्ञान और अनुभवों के माध्यम से आत्मसात करने की कोशिश करे।इसलिए प्रकरण विशेष के विषय से सम्बन्धित सरल बातों को ही बालकों के सम्मुख रखा जाना चाहिए।इसके बाद प्रकरण से सम्बन्धित कठिन और आगे की नवीन ज्ञान की प्राप्ति को बातें विद्यार्थी के सामने एक चुनौती के रूप में पेश की जानी चाहिए।उन्हें इसके बारे में जानने और समझने के लिए आवश्यक साधन और सुविधाएं भी उपलब्ध कराई जानी चाहिए परन्तु यहाँ यह ध्यान रहे कि अध्यापक को कभी भी इस नए ज्ञान से सम्बन्धित बातों को स्वयं बताने की जल्दबाजी कभी भी नहीं करनी चाहिए,चाहे विद्यार्थी विशेष स्वतन्त्र रूप से अकेले प्रयास करे अथवा समूहगत अध्ययन के रूप में सम्मिलित प्रयास किए जाएं,सभी दृष्टि से विद्यार्थियों को अपने आप स्वयं ही नवीन ज्ञान की प्राप्ति और उसकी रचना या सृष्टि के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।

4.किसी भी सम्प्रत्यय या प्रकरण विशेष से सम्बन्धित नई बातों को सीखने,कठिन और जटिल समस्याओं को हल करने अथवा नए सम्प्रत्ययों और सिद्धान्तों का निर्माण करने के कार्य में विद्यार्थियों को इस ओर प्रेरित करने के लिए अध्यापक के लिए यह बात काफी महत्वपूर्ण सिद्ध होती है कि वह

विद्यार्थियों के सामने ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करे जिनमें वे वहीं अनुभव करें कि नई बात को सीखने में उनके पुराने ज्ञान और अनुभवों से काम नहीं चल रहा और अब उन्हें स्वयं अपने प्रयासों से किसी और तरह से इस ज्ञान की उपलब्धि,खोज या रचना करनी होगी।यही बात उनको आगे अपना अधिगम मार्ग स्वयं चुनने तथा उस पर स्वतन्त्र रूप से या बड़ों के पथप्रदर्शन में आगे बढ़ने में सहायक सिद्ध हो सकती है।

5.जब भी अपने विद्यार्थियों से अध्यापक,उन्हें उनके निजी प्रयासों द्वारा नवीन ज्ञान की प्राप्ति या सृष्टि के लिए अन्तःक्रिया कर रहा हो तो उसे पर्याप्त संयम एवं धैर्य से कार्य लेना चाहिए।अपने विद्यार्थियों पर पूरा विश्वास कर उन्हें इस तरह अभिप्रेरित और प्रोत्साहित करना चाहिए वे ज्ञान प्राप्ति के लिए एक सक्रिय और आत्मनिर्भर खोजी अथवा अन्वेषक की भूमिका में दिखाई दें।इसके लिए यह जरूरी है कि(i)जब विषय वस्तु सम्बन्धी कुछ बातें विद्यार्थियों के सामने रखी जाएं या कुछ क्रियाओं का प्रदर्शन किया जाए तो उसके बाद यह जानने के लिए कि बालक ने क्या कुछ ग्रहण किया है,इस बारे में बालक से तुरन्त ही प्रश्न न कर,इतना इन्तज़ार अवश्य ही किया जाना चाहिए कि वह इस सबका अपनी तरह से मतलब समझ कर अध्यापक को यह सम्प्रेषित कर सके कि उसके द्वारा किस प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति या रचना हुई है।(ii)जब अध्यापक किसी विषय वस्तु या क्रिया को अपनी ओर से बालकों के सामने प्रस्तुत नहीं कर रहा हो,और बालकों के सामने नवीन ज्ञान की प्राप्ति और समस्या विशेष को हल करने सम्बन्धी चुनौती रखी जा रही हो तो विद्यार्थी को इससे सम्बन्धित समय,सुविधाएँ तथा समयानुसार आवश्यक सहायता देने की बात अध्यापक को अवश्य अपने सामने रखनी चाहिए ताकि वह विद्यार्थियों द्वारा स्वयं नवीन ज्ञान की प्राप्ति या सृष्टि के कार्य में अपना समुचित योगदान दे सके।

6.विद्यार्थियों के द्वारा नए ज्ञान के बारे में अपने स्वयं की समझ विकसित करने के लिए अथवा अपने स्वयं के प्रयासों से उसकी खोज,रचना या सृष्टि करने के लिए यह जरूरी होता है कि पाठ्यक्रम या पाठ्यचर्या के रूप में जो भी अधिगम अनुभव उनके सामने रखे जाएं,उनमें पर्याप्त लचीलापन होना चाहिए।इस दृष्टि से रचनात्मकतावादी अधिगम उसी अवस्था में अच्छी तरह सम्पन्न हो सकता है जब उसमें एक निर्धारित पाठ्यक्रम का विधिवत विकास करके,उसके अक्षरशः पालन करने पर जोर न दिया जाए।

7.रचनात्मकतावादी अधिगम अध्यापकों से यह अपेक्षा करता है कि वह अपने विद्यार्थियों को अधिगम पथ पर आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त रूप से प्रोत्साहन तथा मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए जो कुछ भी विषय सामग्री विद्यार्थियों को दी जा रही है उसके तथ्यों और सिद्धान्तों के बीच पारस्परिक कड़ियों को भलीभांति जोड़ता रहे ताकि विद्यार्थियों में इस प्रकार के नवीन ज्ञान को अच्छी तरह समझने की सामर्थ्य विकसित हो सके।इस सम्बन्ध में उसे नए ज्ञान को सहसम्बन्ध के सिद्धान्त का अनुसरण करके विद्यार्थियों के सामने रखना चाहिए।उसे अपने शिक्षण को शिक्षक केन्द्रित न बनाकर शिक्षार्थी केन्द्रित बनाना चाहिए तथा विद्यार्थियों को एक निष्क्रिय श्रोता और मूकदर्शक बनाने के बजाय शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में सक्रिय साझेदारी निभाने के लिए ही केवल तैयार नहीं करना चाहिए बल्कि अपने अधिगम की बागडोर स्वयं अपने हाथों में लेने के लिए उन्हें पर्याप्त रूप से तैयार और प्रोत्साहित करना चाहिए।इस दृष्टि से अध्यापकों का यह कर्त्तव्य बन जाता है कि वे शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को पर्याप्त रूप से लोकतन्त्रात्मक बनाएं।जब भी कभी किसी प्रकरण विशेष से सम्बन्धित नवीन सामग्री बालकों के सामने रखें तो इस बारे में विद्यार्थियों की उपलब्धि का पता लगाने के लिए ऐसे प्रश्न पूछे जिनसे विद्यार्थियों को कुछ सोचकर उत्तर देने का समय मिले और जिनमें एक ही तरह के उत्तर या अनुक्रिया की अपेक्षा न की जाती हो।दूसरी शिक्षण अधिगम की परिस्थितियाँ ऐसी होनी चाहिए जिनमें अध्यापक और विद्यार्थियों के बीच सम्प्रेषण के अधिक से अधिक अवसर प्राप्त हों तथा विद्यार्थी अपनी स्वयं की गति से वांछित ज्ञान की प्राप्ति,रचना या सृष्टि अपने आप करते रहे और इसके लिए उन्हें अध्यापक की समयानुसार सहायता एवं मार्गदर्शन प्राप्त होता रहे।

8.रचनात्मकतावादी अधिगम के परिणामों का मूल्यांकन परम्परागत मूल्यांकन प्रणाली से नहीं हो सकता क्योंकि रचनात्मकतावादी अधिगम में विद्यार्थियों से पूर्व सृजित ज्ञान को ग्रहण कर अपनी स्मृति में बसाकर ज्यों की त्यों प्रस्तुत करने की अपेक्षा नहीं की जाती बल्कि उन्हें अपने स्वयं के प्रयत्नों द्वारा नये ज्ञान को अपनी तरह से समझने अथवा उसकी स्वयं खोज,रचना तथा सृष्टि करने का उत्तरदायित्व निभाया जाता है।यहाँ अधिगम स्मृति पर नहीं बल्कि बोध तथा चिन्तन स्तर पर सम्पन्न होता है।अतःरटे रटाये ज्ञान की पुनः प्रस्तुति की समीक्षा करने सम्बंधी तकनीकों एवं उपागमों से रचनात्मकतावादी अधिगम का मूल्यांकन नहीं किया जाता।इस तरह यहाँ रचनात्मकतावादी अधिगम के स्वरूप,कार्यप्रणाली तथा परिणामों के संदर्भ में ही उचित मूल्यांकन तकनीकों तथा उपागमों का प्रयोग किया जाना चाहियें।दूसरी बात यह है कि अधिगम कार्य क्योंकि विद्यार्थियों के द्वारा स्वयं अपने प्रयत्नों द्वारा किया जा रहा है तो इससे सम्बन्धित प्रतिपुष्टिं भी उन्हें सतत एवं समग्र रूप में मिलनी चाहिये।अतः रचनात्मकतावादी अधिगम ने मूल्यांकन में सततता एवं समग्रता बनाये रखना अत्यंत आवश्यक है।दूसरे इस प्रकार के मूल्यांकन कार्य को मात्र उनकी अधिगम मात्रा को मापने, उनकी निष्पत्ति की तुलना करने तथा उन्हें ग्रेड या प्रमोशन देने के लिये ही काम में लाकर उन्हें अपने अधिगम प्रयासों के परिप्रेक्ष्य में अधिक प्रोत्साहन देने तथा ज्ञान की उचित एवं सतत खोज या सृजन करने के लिये काम में लाया जाना चाहिये।इस तरह से रचनात्मकतावादी अधिगम ग्रेड प्रणाली तथा मानकीकृत परीक्षण पद्धति को तिलाजंली देने की बात करता है।यह विद्यार्थियों के रचनात्मक तथा सृजनात्मक उत्पादन एवं निष्पत्ति को एक लचीली,व्यापक तथा सतत मूल्यांकन प्रणाली देने की बात करता है ताकि उससे विद्यार्थियों को अपने प्रयासों द्वारा ज्ञान की खोज,रचना तथा सृष्टि के लिये उचित रूप से प्रेरित,पुनर्बलित एवं अभिप्रेरित किया जा सके।

Reference -Uma mangal &s.k.mangal


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