Concept of Teaching and Learning(शिक्षण एवं अधिगम की अवधारणा)
After reading this article you will be able to answer the following questions-
1.what is the meaning and definition of teaching?
2.Explain the nature and characteristics of teaching?
3.what are the various variables of teaching and their functions?
4.what is the meaning and definition of learning?
5.explain the relationship between teaching and learning?
6.what is the difference between conditioning,training, instruction and Indoctrination?
शिक्षण की अवधारणा(Concept of Teaching)
शिक्षण की अवधारणा काफी व्यापक एवं विस्तृत है। इसे अच्छी तरह जानने और समझने हेतु हमें इस पर निम्न दृष्टिकोणों से विचार करना होगा :
-शिक्षण का अर्थ एवं परिभाषायें
-शिक्षण की प्रकृति एवं विशेषतायें
-शिक्षण का अन्य समरूप संप्रत्ययों से सम्बन्ध
-शिक्षण संप्रत्यय का विश्लेषणात्मक स्वरूप
-शिक्षण के चर तथा उनके कार्य
आइये इन सभी बातों पर एक एक करके विचार किया जाये।
# शिक्षण का अर्थ एवं परिभाषायें(Meaning and Definitions of Teaching)
साधारण अर्थों में शिक्षण का अर्थ अध्यापक वर्ग द्वारा अपनाये गये व्यवसाय अथवा किसी व्यक्ति विशेष को कुछ सिखाने या कुछ विशेष ज्ञान, कौशल, रुचियों और अभिवृत्ति आदि को अर्जित करने में दी जाने वाली सहायता से लिया जाता है।परन्तु ध्यान से सोचा जाए तो शिक्षण को न तो इतने सरल शब्दों में परिभाषित ही किया जा सकता है और न उसका इस तरह कोई प्रयोजन ही आँका जा सकता है। शिक्षण सामाजिक और सांस्कृतिक परिपेक्ष्य में घटने वाली एक बहुत ही जटिल सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक प्रक्रिया है जिसका स्वरूप और संगठन समाज के सामाजिक और सांस्कृतिक रूप के अनुसार बदलता रहता है। शिक्षण का यह बदलता स्वरूप शिक्षण शब्द की पारिभाषिक शब्दावली में लगातार परिवर्तन लाता रहा है।इसका अनुमान शिक्षण की कुछ निम्न परिभाषाओं के आधार पर भलीभाँति लगाया जा सकता है 1.एच. सी. मौरीसन (H.C. Morrison, 1934): "शिक्षण एक अधिक परिपक्य (Mature) व्यक्तित्व और कम परिपक्व व्यक्तित्व के बीच वह घनिष्ट सम्पर्क है जिसके द्वारा कम परिपक्व व्यक्तित्व को शिक्षा की दिशा में और आगे बढ़ाया जा सकता है।"(Teaching is an intimate contact between a more mature personality and a less mature one which is designed to further the education of the latter).
2. जॉन खूबेकर (John Brubacher, 1939): "शिक्षण से तात्पर्य किसी ऐसी परिस्थिति के आयोजन और परिचालन से है जिसमें कुछ अधूरापन या अवरोध रहते हैं, जिन्हें कोई व्यक्ति पूरा करने अथवा उन पर विजय पाने का प्रयास करता है तथा परिणामस्वरूप कुछ सीखता है।"(Teaching is an arrangement and manipulation of a situation in which there are gaps and obstructions which an individual will seek to overcome and from which he will learn in the course of doing so.
3. बी. ओ. स्मिथ (B.O. Smith, 1960): "शिक्षण सीखने हेतु सम्पन्न की जाने वाली क्रियाओं की एक प्रणाली हैं।(Teaching is a system of actions intended to produce learning).
4.एन.एल. गेज (N.L. Gage, 1962): "शिक्षण से तात्पर्य उस व्यक्तिगत पारस्परिक प्रभाव से है जिसे किसी दूसरे व्यक्ति की व्यावहारिक क्षमताओं में परिवर्तन लाने के लिए डाला जाता है।"(Teaching is a form of inter-personal influence aimed at changing the behaviour potential of another person.)
5. बी.ओ. स्मिथ(B.O. Smith, 1963): "शिक्षण क्रियाओं की वह प्रणाली है जिसमें किसी एजेन्ट, निर्दिष्ट लक्ष्य और एक ऐसी परिस्थिति का समावेश होता है जिसके कुछ घटकों (जैसे कक्षा में विद्यार्थियों की संख्या, कक्षा-कक्ष का आकार, विद्यार्थियों का स्वभाव एवं विशेषताएँ आदि) पर एजेन्ट का कोई नियन्त्रण नहीं होता, परन्तु वह उनमें (अनुदेशन सम्बन्धी उचित प्रश्नों और सूचना अथवा विचारों को संप्रेषित करने वाले विशेष तरीकों द्वारा) अपेक्षित परिवर्तन या सुधार ला सकता है।"("Teaching is a system of actions involving an agent, an end in view, and a situation including two sets of factors those over which the agent has no control (class-size, size of classroom, physical characteristics of pupils etc.) and those that he can modify (ways of asking questions about instructions and ways of structuring information or ideas gleaned). "
6.एडमण्ड एमीडन (Edmund Amidon, 1967): "शिक्षण को एक अन्त:प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें मुख्यतया उस कक्षा-वार्ता का समावेश हो जो अध्यापक और विद्यार्थी के बीच कुछ निश्चित और स्पष्ट क्रियाओं के माध्यम से घटित होती है।"(Teaching is defined as an interactive process, primarly involving class-room talk which takes place between teacher and pupil and occurs during certain definable activities)
7.क्लार्क (Clark, 1970): "शिक्षण से तात्पर्य उन क्रियाओं से है जिनकी संरचना और जिनका परिचालन विद्यार्थी के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए किया जाता है।"(Teaching refers to activities that are designed and performed to produce change in student behaviour).
8.थोमस एफ. ग्रीन (Thomas R. Green, 1971 ): "शिक्षण शिक्षक का वह कार्य है जिसे बालक के विकास के लिए किया जाता है।"(Teaching is the task of teacher which is performed for the development of a child).
आइए अब इन परिभाषाओं का मनन किया जाए। मोरीसन (Morrison, 1934) द्वारा दी गई। परिभाषा शिक्षण को एक ऐसी अनुशासित और नियन्त्रित सामाजिक प्रक्रिया मानती है जिसमें अध्यापक अपनी गुरुता, ज्ञान और अनुभव के सहारे अपने से कम अनुभवी और परिपक्व विद्यार्थी के ऊपर उचित प्रभाव डालकर उसे समाज अथवा शासन के आदर्शों के अनुरूप ढालने का प्रयत्न करता है। निस्संदेह इस प्रकार के शिक्षण में अध्यापक की ही केन्द्रीय भूमिका रहती है। जो कुछ उसके द्वारा प्रदान किया जाता है और जैसा किसी विद्यार्थी को बनाने का प्रयत्न किया जाता है, वैसे ही परिणामों की आशा की जा सकती है। ऐसे शिक्षण में अध्यापक और विद्यार्थी के बीच उपयोगी और सक्रिय आदान-प्रदान का अभाव रहता है और विद्यार्थी मूक दर्शक और निष्क्रिय श्रोता के रूप में शिक्षा ग्रहण करते हैं।बेकर (Brubacher, 1939) द्वारा दी गई परिभाषा शिक्षण प्रक्रिया में विद्यार्थी की भूमिका को बहुत अधिक महत्त्व देती है। यहाँ अध्यापक का कार्य तो सीखने सम्बन्धी उचित परिस्थितियों के सृजन और संगठन तक ही सीमित रहता है। विद्यार्थी को स्वयं यह तय करना होता है कि उसे क्या करना है तथा कैसे करना है। बाधाएँ आने या समस्याओं का सामना करने पर उन पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा करनी होती है। अपने इन्हीं प्रयत्नों से ही वह सीखता है और आगे बढ़ता है। इस प्रकार का शिक्षण विद्यार्थियों को आत्मनिर्भर बनाकर उन्हें स्वयं अपने प्रत्यनों द्वारा सीखने और समस्या का समाधान करने की दिशा में आगे बढ़ा सकता है।स्मिथ ( Smith, 1960) द्वारा दी गई परिभाषा शिक्षण को ऐसी विशिष्ट क्रियाओं की एक संगठित प्रणाली मानती है जिनके द्वारा एक विद्यार्थी को कुछ सीखने में सहायता मिलती है। इस प्रकार के शिक्षण में अध्यापक की उपस्थिति अनिवार्य नहीं मानी जाती। प्रकृति (Nature), पुस्तकें, शिक्षण मशीन, टेप रिकार्डर, टेलीविजन, रेडियो आदि कोई भी साधन शिक्षक का रूप ले सकता है। इन साधनों द्वारा प्रतिपादित क्रियाओं के उचित संगठन से किसी भी विद्यार्थी को उसके सीखने सम्बन्धी कार्यों में पूरी पूरी सहायता मिल सकती है। इस प्रकार से स्मिथ द्वारा दी गई परिभाषा शिक्षण को एक ऐसे यांत्रिकी ढाँचे में बदलने का प्रयत्न करती है जिसमें विद्यार्थी और अध्यापक के व्यक्तिगत सम्बन्धों, पारस्परिक अन्तःक्रिया और प्रभाव का कोई मूल्य नहीं रह जाता। शिक्षण प्रक्रिया के लिए आवश्यक सभी तत्त्वों जैसे अध्यापक, विद्यार्थी और सीखने सम्बन्धी अनुभव एवं परिस्थितियों की चर्चा न करने के कारण यह परिभाषा अपने आप में काफी एकांगी और अपूर्ण जान पड़ती है।पीछे लिखित कमियों को दूर करने हेतु स्मिथ (Smith) ने 1963 में अपनी शिक्षण की परिभाषा पर पुनर्विचार करने की चेष्टा की और परिणामस्वरूप शिक्षण को ऐसी त्रिध्रुवीय प्रक्रिया (Tripglar process) की संज्ञा दी जिस में निम्न तत्त्वों का समावेश होता हैं.
(1) एक कार्यवाहक (Agent)
(ii) लक्ष्य अथवा उद्देश्य (A goal or target) : इससे तात्पर्य उन परिणामों से है जिनकी प्राप्ति के लिए शिक्षण का आयोजन किया जाता है
(iii)मध्यस्थ चर (Intervening Variables):इनसे तात्पर्य उन तत्त्वों, सामग्री या परिस्थितियों से है जो सीखने और सिखाने में सहायक होती हैं,जैसे कक्षा का वातावरण और सहायक सामग्री परन्तु स्मिथ की यह परिभाषा भी अधूरी ही रही क्योंकि यहाँ उसने निहित तत्त्वों से प्रेरित क्रियाओं की प्रणाली की बात तो कहीं, परन्तु प्रणाली में इन तत्त्वों के प्रारूप और भूमिका की बात खुलकर सामने नहीं रखी।
गेज (Gage, 1962) ने शिक्षण को व्यक्तिगत स्तर पर अध्यापक और विद्यार्थी के बीच चल रहे ऐसे पारस्परिक सम्बन्धों के रूप में मान्यता दी जिनके द्वारा विद्यार्थी के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाया जा सकता है। इस परिभाषा में पारस्परिक सम्बन्धों को शिक्षण का आधार ठहराया गया है जो काफी हद तक सही है, परन्तु निम्न कमियाँ इस परिभाषा में भी देखने को मिलती हैं :
#आज के प्रगतिशील वैज्ञानिक और तकनीकी युग में अभिक्रमित अनुदेशन (Programmed Instruction) रेडियो, टेप रिकार्डर, टेलीविजन आदि शिक्षण साधनों जिन में विद्यार्थी - अध्यापक का लगभग अभाव-सा पाया जाता है का समावेश इस परिभाषा में नहीं किया गया है।इसके अतिरिक्त शिक्षण प्रक्रिया में सभी घटकों को भी इसमें शामिल नहीं किया गया है। अतः यह परिभाषा भी एकांगी और अपूर्ण है।
एमीडन (Amidon, 1967) द्वारा दी गई अगली परिभाषा में शिक्षण को विद्यार्थी और अध्यापक दोनों के बीच चलने वाली एक अन्तःप्रक्रिया का रूप दिया गया है।
इस दृष्टि से शिक्षा एक पक्षीय न होकर विद्यार्थी और अध्यापक दोनों के पारस्परिक सहयोग से चलने वाली रुचिकर और उपयोगी क्रिया बन जाती है इससे विद्यार्थी और अध्यापक दोनों पक्ष लाभान्वित होते हैं तथा दोनों की ही प्रगति होती है, परन्तु एमीडन द्वारा दी नई परिभाषा कुछ संकुचित बनकर रह गई है। इसका कारण यह है कि इसमें शिक्षण क्षेत्र में सम्बन्धित बहुत-सी अंतःक्रियाओं में से केवल छात्र और अध्यापक अन्तःक्रिया की ही चर्चा है और उसका भी दायरा कक्षा-कक्ष में आयोजित क्रियाओं तक ही सीमित कर दिया गया है।
क्लार्क (Clark, 1970) ने अपनी परिभाषा द्वारा शिक्षण को कुछ विस्तृत अर्थ प्रदान करने की चेष्टा की है। उसने शिक्षण में ऐसी सभी क्रियाओं का समावेश किया है जिनसे विद्यार्थी के व्यवहार में कुछ अपेक्षित परिवर्तन लाने में सहायता मिलती है, परन्तु यहाँ न तो उन क्रियाओं के बारे में कुछ जानकारी दी गई है और न ही उन तत्त्वों की संरचना के बारे में जिनसे एक शिक्षण प्रक्रिया जुड़ी रहती। है। ग्रीन (Green, 1971) महोदय ने शिक्षण को शिक्षकों के व्यवसाय के रूप में परिभाषित किया है। उनके अनुसार शिक्षण वह सब कुछ है जो एक शिक्षक द्वारा शिक्षण का व्यवसाय अपनाने के नाते अपने विद्यार्थी की प्रगति और विकास के लिए किया जाता है, परन्तु शिक्षण की यह परिभाषा काफी अपूर्ण और भ्रामक है। न तो शिक्षण को केवल अध्यापक समुदाय के व्यावसायिक कार्यों के रूप में ही सीमित किया जा सकता है और न ही शिक्षण के द्वारा यह आशा की जा सकती है कि वह सदैव विद्यार्थी की वांछनीय दिशा में प्रगति होने की गारंटी देगा। वास्तविकता तो यह है कि शिक्षण द्वारा दुःखद और सुखद दोनों ही प्रकार का अन्त सम्भव है। परिणामस्वरूप व्यवहार में वांछित और अवांछित किन्हीं भी दिशाओं में परिवर्तन हो सकते हैं।इस प्रकार हम देखते हैं कि उपरोक्त सभी परिभाषाएं किसी न किसी प्रकार से एकांगी और अपूर्ण हैं।इनसे शिक्षण की मूल प्रकृति, उसमें निहित घटकों, तत्त्वों तथा क्रियाओं और उनके द्वारा सम्पन्न लक्ष्यों आदि की सही जानकारी नहीं मिल पाती है।वास्तव में देखा जाए तो शिक्षण एक ऐसा गतिमान व्यापक सम्प्रत्यय (Dynamic and broad concept) है जिसको शब्दों में बाँधना काफी कठिन कार्य है। फिर भी अगर प्रयत्न किया जाए तो शिक्षण की एक अच्छी परिभाषा में कुछ निम्न बातों की उपस्थिति पर अवश्य ध्यान दिया जाना चाहिए:
1.इस परिभाषा द्वारा यह प्रकट होना चाहिए कि शिक्षण एक प्रक्रिया है अथवा किसी प्रक्रिया का परिणाम।
2.शिक्षण में निहित सभी घटकों, तत्त्वों और क्रियाओं की इसमें चर्चा होनी चाहिए। 3.शिक्षण के लक्ष्य और उद्देश्यों की बात इसमें कही जानी चाहिए। 4. शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए शिक्षण संरचना, संगठन और आयोजन की आवश्यक चर्चा इसमें होनी चाहिए।
"उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए अगर आगे बढ़ा जाए तो शिक्षण की परिभाषा के रूप में कुछ निम्न प्रकार का चित्र उभरकर सामने आता है।
शिक्षण से तात्पर्य एक ऐसे त्रिपक्षीय सम्बन्ध (Tradic relation) अथवा त्रिध्रुवीय प्रक्रिया (Tripolar process) से है जिसमें शिक्षण के स्रोत (मानवीय और भौतिक) विद्यार्थी और विद्यार्थी के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए आवश्यक सभी क्रियाओं के प्रारूप और आयोजन पर ध्यान दिया जाता है।
शिक्षण की प्रकृति एवं विशेषताएँ(Nature and Characteristics of Teaching)
इस सम्बन्ध में व्याप्त धारणाओं और मान्यताओं के संदर्भ में संक्षेप में निम्न बातें रखी जा सकती हैं:
1.शिक्षण एक जटिल सामाजिक प्रक्रिया है (Teaching is a Complex Social process) : शिक्षण समाज के भीतर, समाज के लिए और समाज द्वारा संचालित और संगठित प्रक्रिया है। समाज और शामिल सदस्यों के विचार, उद्देश्य, कार्य प्रणाली और संगठन में विविधता और निरन्तर परिवर्तनशीलता शिक्षण को कोई सरल, सार्वभौमिक और स्थिर रूप प्रदान नहीं कर सकती।
2.शिक्षण कला और विज्ञान दोनों ही है(Teaching is both Art as well as Science) : शिक्षण की प्रकृति कलात्मक और विज्ञानमयी दोनों ही है। इस सम्बन्ध में चर्चा करते हुए सिल्वरमैन (Silverman, 1966) महोदय लिखते हैं "निस्संदेह शिक्षण औषधि-विज्ञान के प्रक्रिया क्ष (व्यवहारात्मक उपयोग) की तरह एक कला है, क्योंकि इसमें प्रतिभा और सृजनात्मकता का उपयोग किया जाता है, परन्तु औषधि-विज्ञान की ही तरह यह एक विज्ञान भी है, क्योंकि इसमें ऐसी तकनीक, तरीकों और कौशलों का समावेश होता है जिनका क्रमबद्ध रूप में अध्ययन करना, वर्णन करना और उनमें सुधार लाना सम्भव होता है। यह महान् चिकित्सक की भाँति एक अच्छा अध्यापक वह है जो उपलब्ध साधनों एवं परिस्थितियों का यथोचित उपयोग ही नहीं करता बल्कि उनमें अपनी सृजनात्मकता और प्रेरणा का भी समावेश कर देता है।"
3.शिक्षण एक व्यावसायिक क्रिया है(Teaching is a professional activity) : शिक्षण को ऐसी व्यावसायिक क्रियाओं से सम्बन्धित किया जाता है जिनके द्वारा एक अध्यापक को अपने विद्यार्थियों की प्रगति और विकास में सहायता मिलती है।
4.शिक्षण अध्यापक के परिश्रम का परिणाम है(Teaching is the output emanating from the teacher): विद्यार्थी कुछ सीख सकें, इसके लिए एक अध्यापक जो परिश्रम करता है, शिक्षण उसी का परिणाम कहा जा सकता है।
5.शिक्षण विभिन्न प्रकार की क्रियाओं की एक संगठित प्रणाली है(Teaching is an organised system of varied actions):शिक्षण के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार की क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं। इन सारी क्रियाओं का इस प्रकार संगठन और आयोजन किया जाता है कि उपस्थित भौतिक और सामाजिक वातावरण में उपयुक्त पाठ्य सामग्री, पाठ्य-विधियों और शिक्षण साधनों के द्वारा विद्यार्थियों के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाया जा सके।
6.शिक्षण का वैज्ञानिक ढंग से अवलोकन और विश्लेषण किया जा सकता है(Teaching is amenable to scientific observation and analysis):अध्यापक व्यवहार, विद्यार्थी अध्यापक अन्तःक्रिया और विद्यार्थियों के व्यवहार में आए हुए अपेक्षित परिवर्तनों के माध्यम से शिक्षण में क्या कुछ हो रहा है और उसका क्या प्रतिफल है, इसका विश्लेषण और मूल्यांकन वैज्ञानिक ढंग से किया जा सकता है। इस प्रकार से किया हुआ विश्लेषण और मूल्यांकन शिक्षण प्रक्रिया परिवर्तन एवं सुधार लाने के लिए पर्याप्त प्रतिपुष्टि (Feedback) प्रदान कर सकता है।
7.शिक्षण में संप्रेषण कौशल का आधिपत्य रहता है(Teaching is highly dominated by the communication skill) : ज्ञान, कर्म और भावनाओं का सफलतापूर्वक संप्रेषण करना एक अच्छे शिक्षक की प्रमुख विशेषता मानी जा सकती है। यह संप्रेषण-क्रिया शिक्षण के अन्य स्रोतों, विद्यार्थी और शिक्षण क्रियाओं के मध्य बराबर चलती रहती है।
8.शिक्षण एक पारस्परिक अन्तःप्रक्रिया है (Teaching is an interactive process) : शिक्षण विद्यार्थी और शिक्षण स्रोतों के मध्य चलने वाली एक ऐसी अन्तःप्रक्रिया है जिसका परिचालन विद्यार्थी के मार्गदर्शन और प्रगति के लिए किया जाता है।
9.शिक्षण विविध रूपों में सम्पन्न हो सकता है(Teaching may be carried out in its various forms and styles) : कक्षा के किन्हीं निश्चित पीरियड़ों में सीखने एवं सिखाने के लिए सम्पादित क्रियाओं का नाम ही शिक्षण नहीं है। औपचारिक और अनौपचारिक शिक्षा, निदेशात्मक और अनुदेशात्मक प्रशिक्षण, सुधारात्मक शिक्षण (Remedial Teaching) अनुबंधन (Conditioning) और प्रतिपादन (Indoctrination), वर्णन, निरीक्षण, प्रयोग, प्रदर्शन आदि शिक्षण के ऐसे कई रूप और प्रकार हो सकते हैं जिनके द्वारा शिक्षण उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है।
10.शिक्षण विभिन्न शिक्षण कौशलों से युक्त एक विशिष्ट कार्य है(Teaching is a specialized task comprising of different teaching skills) : जंगीरा और अजीत सिंह (Jangira and Azit Singh, 1982) के अनुसार शिक्षण एक अति विशिष्ट कार्य है जिसके अन्दर विभिन्न प्रकार के ऐसे शिक्षण कौशलों का प्रयोग किया जाता है जिनके आधार पर निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति सम्भव हो सके।
शिक्षण संप्रत्यय(Concept of Teaching)
किसी वस्तु व्यक्ति या विचार विशेष के प्रति जो हमारी आम धारणा बन जाती है उसे ही हम उसके संप्रत्यय के रूप में जानते हैं। इस धारणा के पीछे वह सब कुछ छिपा रहता है जिसका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष किसी भी तरह से हमें ज्ञान है। शिक्षण के संप्रत्यय पर भी यही बात पूरी तरह से लागू होती है।इस प्रकार शिक्षण संप्रत्यय से तात्पर्य उस आम धारणा और छवि से है जो शिक्षण शब्द का नाम लेते ही हमारे मानस पटल पर उभर जाती है। इस छवि के दिग्दर्शन हेतु निम्न बातों को लेकर आगे बढ़ा जा सकता है या दूसरे शब्दों में निम्न बिन्दुओं पर विचार करके ही हम शिक्षण के संप्रत्यय और उस धारणा से पूरी तरह परिचित हो सकते हैं :
•शिक्षण के अर्थ से भलीभाँति परिचित होना। शिक्षण की प्रकृति और विशेषताओं से परिचित होना।
•शिक्षण की इससे मिलते-जुलते अन्य संप्रत्ययों से तुलना करना।
•शिक्षण और अधिगम के पारस्परिक सम्बन्धों के बारे में सोचना ।
•शिक्षण के विश्लेषणात्मक स्वरूप (Analytical Concept) की चर्चा करना।
•शिक्षण का उसके विभिन्न चरों के रूप में व्याख्या करना। इस अध्याय में हम पहले दो बिन्दुओं पर पहले ही प्रकाश डाल चुके हैं। शेष अन्य बिन्दुओं पर हम अब आगे की पंक्तियों में चर्चा करना चाहेंगे।
शिक्षण का अन्य समरूप संप्रत्ययों से तुलना(Comparing of Teaching with other Similar or Related Concepts)
शिक्षा की दुनिया में शिक्षण के अंतिरिक्त हम कुछ ऐसे ही संप्रत्ययों जैसे अनुबंधन (Conditioning), प्रशिक्षण (Training). अनुदेशन (Instruction) और प्रतिपादन (Indoctrination) का प्रयोग भी करते हैं। इन्हें शिक्षण का पर्यायवाची मानने की भूल भी कभी-कभी हो जाती है। आइए,देखा जाए कि शिक्षण से इनका क्या सम्बन्ध है ?
वास्तव में ये सभी संप्रत्यय किसी न किसी प्रकार के शिक्षण को ही प्रकट करते हैं और शिक्षण के विभिन्न उद्देश्यों को अपनी-अपनी तरह से पूरा करते हैं। शिक्षण संप्रत्ययों की विशालता में इन सभी संप्रत्ययों का अस्तित्व विलीन हो जाता है। मूल रूप से सभी प्रकार के शिक्षण का उद्देश्य विद्यार्थियों के व्यवहार में परिवर्तन लाना है। परिवर्तन का यह कार्य निम्न दो प्रकार से हो सकता है :
(1)विद्यार्थियों को यह शिक्षा दी जाए कि किसी कार्य को कैसे किया जाता है अथवा किसी परिस्थिति अथवा उद्दीपन (Stimulus) के प्रति कैसी अनुक्रिया (Response) की जानी चाहिए।
(ii)विद्यार्थियों को उन बातों की शिक्षा दी जाए जिनसे उनके ज्ञान में वृद्धि हो और कुछ निश्चित प्रकार की मान्यताओं और विश्वासों का निर्माण हो सके।
पहले प्रकार के परिवर्तन जिनका सम्बन्ध चरित्र अथवा व्यवहार को वांछित रूप देने से है, अनुबंधन या प्रशिक्षण संप्रत्ययों के अन्तर्गत आते हैं जबकि दूसरे प्रकार के परिवर्तन जिनसे ज्ञान प्राप्ति और निश्चित प्रकार के विश्वास निर्माण में सहायता मिलती है, अनुदेशन अथवा प्रतिपादन जैसे संप्रत्ययों से अपना सम्बन्ध रखते हैं।
इस प्रकार से अनुबंधन, प्रशिक्षण, अनुदेशन और प्रतिपादन आदि सभी संप्रत्यय अपनी अपनी सीमाओं के अन्तर्गत शिक्षण के लक्ष्य (विद्यार्थी के व्यवहार में परिवर्तन) को पूरा करने का प्रयत्न करते हैं। अपने-अपने सम्पादित कार्य के हिसाब से इन सभी संप्रत्ययों का स्तर एक जैसा नहीं है। कुछ के द्वारा अधिक ऊँचे स्तर का शिक्षण सम्पन्न होता है जबकि कुछ निम्न स्तर के शिक्षण की भूमिका निभाते हैं।यहाँ हमने ऊँचे स्तर और नीचे स्तर के शिक्षण की बात कही है। प्रश्न यह उठता है कि इस प्रकार के शिक्षण का स्तरों में विभाजन करने का प्रयोजन क्या है? मानव को अन्य जीवधारियों से श्रेष्ठ समझा जाता है। जहाँ तक जीवनयापन और सीखने का सम्बन्ध है, यह कार्य पशु-पक्षियों द्वारा भी किया जाता है। मानसिक शक्तियों का विकास तथा वृद्धि और विवेक ही कुछ ऐसी बातें हैं जो उन्हें इन पशु-पक्षियों से श्रेष्ठ बनाती हैं और वह कार्य शिक्षा द्वारा ही सम्पादित होता है। अतः मानसिक स्तर (बुद्धि और विवेक के विकास) के मूल्यांकन को शिक्षण स्तर का मापदण्ड बनाया जा सकता है।जिस प्रकार का शिक्षण जितना अधिक मानसिक स्तर को ऊँचा उठायेगा अथवा बुद्धि और विवेक का उपयोग करने में व्यक्ति को जितना अधिक सक्षम बनाएगा उसे उतने ही ऊँचे स्तर का शिक्षण माना जाएगा। आइए, अब इस कसौटी का उपयोग करके देखा जाए।
- अनुबन्धन(Conditioning) : जब किसी कुत्ते या बिल्ली को किसी आदेश, जैसे घंटी की आवाज़ आदि की वांछित अनुक्रिया जैसे पंजा उठाना आदि के लिए शिक्षा दी जाती है तो इस प्रकार के शिक्षण को अनुबन्धन का नाम दिया जाता है। इसी रूप में अनुबन्धन के द्वारा पशु-पक्षियों और मनुष्यों को विभिन्न चेतावनी, संकेत और आदेशों का पालन करने की शिक्षा दी जा सकती है। हमारी बहुत-सी अच्छी-बुरी आदतों और वांछित अथवा अवांछित व्यवहारों के मूल में अनुबन्धन द्वारा प्राप्त इस प्रकार का शिक्षण ही होता है। अधिकतर इसका सम्बन्ध आदतों के निर्माण से होता है और आदतें व्यवहार की कुछ ऐसी यंत्रचालित-सी पुनरावृत्तियों का परिणाम होती हैं जिनमें मानसिक शक्तियों के विकास और उपयोग की सम्भावना बहुत ही कम होती है। यही कारण है कि अनुबंधन को शिक्षण के सबसे निचले "और प्राथमिक स्तर के प्रतिनिधि के रूप में ही मान्यता प्रदान दी जाती है।
प्रशिक्षण (Training)-शिक्षण स्तर की दृष्टि से प्रशिक्षण का स्तर अनुबंधन से ऊँचा माना जाता है प्रशिक्षण के द्वारा विभिन्न कौशलों को अर्जित करने और चरित्र निर्माण अथवा व्यवहार को वांछनीय बनाने में सहायता मिलती है। किसी व्यक्ति को उपयुक्त कौशलों का प्रशिक्षण प्रदान करके किसी विशेष कार्य को करने के लिए बढ़िया मिस्त्री या कारीगर बनाया जा सकता है।परिणामस्वरूप वह कारखाने की
मशीनों को बहुत ही कुशलता से चलाने में सक्षम हो सकता है। यहाँ ऐसा करने में उसके लिए यह आवश्यक नहीं कि उसे मशीनों की आंतरिक रचना, उनके सिद्धान्त तथा उनके द्वारा उत्पादित सामान की उपयोगिता और क्रय-विक्रय आदि का ज्ञान हो। इसी प्रकार विभिन्न सरकस कम्पनियां अपने-अपने सरकसों के लिए तरह-तरह के जानवरों को बहुत कठिन, दिलचस्प और जोखिम भरे खेल-तमाशे दिखाने के लिए प्रशिक्षित करती हैं। यहाँ अब सरकस के ये जानवर और कारखाने का वह मिस्त्री दोनों ही शिक्षण की दृष्टि से समान समझे जाते हैं। दोनों को कुछ सिखाने में शिक्षण के जिस रूप का प्रयोग होता है उसे प्रशिक्षण कहा जाता है। उन्हें शिक्षित किया जा रहा है, यह कभी नहीं कहा जाता। हर अवस्था में इस प्रकार के सीखने या शिक्षण स्तर को प्रशिक्षण नाम ही दिया जाता है। पशु-पक्षियों को सिखाने अथवा शिक्षा देने का स्तर अनुबन्धन से शुरू होकर प्रशिक्षण पर जाकर समाप्त हो जाता है। इन्हें किसी भी अवस्था में शिक्षण के आगे के स्तरों, अनुदेशन अथवा प्रतिपादन पर नहीं ले जाया जा सकता। इसके विपरीत मनुष्यों को शिक्षण के ऊँचे से ऊँचे स्तर पर बिताकर शिक्षित किया जा सकता है। उपरोक्त मिस्त्री की ही बात ले लीजिए। हम उसे मशीन की संरचना और कार्यप्रणाली की जानकारी दे सकते हैं, उसमें अपने कार्य के प्रति रुचि और निष्ठा पैदा कर सकते हैं, उसे अपने द्वारा किए गए उत्पादन का उपयोग और देशहित में उसके योगदान की बात समझाकर देशभक्ति के बीज बो सकते हैं और इस प्रकार उसके व्यक्तित्व, विचार और विश्वासों को एक नई दिशा प्रदान की जा सकती है।कौशलों के अर्जन और अन्य इसी प्रकार के सीखे हुए व्यवहार में यह देखने के लिए कि कौन सा परिवर्तन प्रशिक्षण का परिणाम है और कौन-सा शिक्षण का, हमें उस व्यवहार के द्वारा प्रदर्शित बुद्धि और विवेक के स्तर का मूल्यांकन करना होगा। अगर यह स्तर ऊंचा है तो व्यवहार को शिक्षण का परिणाम कहा जाएगा अन्यथा इसे प्रशिक्षण की उपज माना जाएगा। जिन व्यवहारों में अपेक्षाकृत कम बुद्धि और विवेक की आवश्यकता होती है, उनका अर्जन प्रशिक्षण द्वारा भलीभाँति हो सकता है जबकि अधिक बुद्धि और विवेक पर टिके हुए जटिल व्यवहारों के लिए प्रशिक्षण से आगे के स्तर पर बढ़ आवश्यक होता है।
अनुदेशन (Instruction) :अनुदेशन का सम्बन्ध किसी व्यक्ति में किसी वस्तु, प्रक्रिया अथवा प्रणाली के बारे में अपेक्षित ज्ञान और समझ पैदा करने से है। ज्ञान और समझ (Knowledge and Understanding) पैदा करना शिक्षण के विभिन्न उद्देश्यों में से केवल मात्र एक उद्देश्य का प्रतिनिधित्व करता है। ऐसी स्थिति में अनुदेशन को शिक्षण का पर्यायवाची या समानार्थी कैसे माना जा सकता है।शिक्षण हर अवस्था में एक बड़ा संप्रत्यय है और अनुदेशन उसका एक छोटा-सा हिस्सा है। अनुदेशन जहाँ व्यवहार के ज्ञानात्मक पक्ष से ही अपना सम्बन्ध रखता है वहाँ शिक्षण व्यवहार के ज्ञानात्मक पक्ष तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि कर्म और भावनापक्ष को भी साथ लेकर व्यक्तित्व के सामंजस्यपूर्ण विकास पर अपनी दृष्टि रखता है।शिक्षण और अनुदेशन का अन्तर उनमें निहित प्रक्रियाओं के आधार पर भी समझा जा सकता है। शिक्षण में शिक्षक की उपस्थिति, अध्यापक और विद्यार्थी के मध्य चल रहे पारस्परिक आदान-प्रदान और व्यक्तित्व सम्बन्धी प्रभाव को बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता है, जबकि अनुदेशन में शिक्षक की उपस्थिति और शिक्षक-विद्यार्थी अन्तःक्रिया आवश्यक नहीं होती। शिक्षण मशीन, टेप, रिकार्डर, रेडियो, टेलीविजन, अधिक्रमित अनुदेशन, सहायक सामग्री आदि शिक्षण साधनों द्वारा अनुदेशन की क्रिया सम्पन्न हो सकती है। एक अध्यापक अपने शिक्षण में भी इन सभी शिक्षण साधनों का आवश्यकतानुसार प्रयोग करता हुआ देखा जा सकता है। अतएव अनुदेशन से सम्बन्धित सभी बातों का तो शिक्षण में समावेश हो सकता है, परन्तु अनुदेशन कभी भी शिक्षण की ऊँचाइयों को नहीं छू सकता।
प्रतिपादन(Indoctrination) :अनुबन्धन शिक्षण स्तर का जहाँ पहला चरण है वहाँ प्रतिपादन उसका सर्वोत्तम शिखर है। प्रतिपादन की सहायता से व्यक्ति के व्यक्तित्व में आदर्श और मूल्यों की स्थापना की जा सकती है तथा उसमें मान्यताओं, विचारों एवं विश्वासों की गहरी जड़ें जमाई जा सकती हैं। शिक्षण के इस स्तर पर व्यक्ति से अन्य स्तरों की तुलना में अधिक ऊँचे स्तर की बुद्धि और विवेक की अपेक्षा की जाती है, परिणामस्वरूप प्रतिपादन व्यक्ति के ज्ञानात्मक और भावात्मक दोनों ही प्रकार के व्यवहार सम्बन्धी पक्षों में अधिक स्थायी परिवर्तन लाने की भूमिका निभाता है। धर्माधिकारी और महान पुरुष, सफल राजनीतिज्ञ और शासनाधिकारी तथा स्वेच्छाचारी एवं गिरोहों के सरगने प्रतिपादन का सहारा लेकर व्यक्तियों को अपनी विचारधारा, चिन्तन, मान्यताओं, विश्वास और कार्यशैली के रंग में रंगने में समर्थ हो जाते हैं। आवश्यकता पड़ने पर कोई भी शिक्षक प्रतिपादन को अपनी शिक्षण शैली में शामिल कर सकता है। इस तरह प्रतिपादन शिक्षण का एक अंग तो बन सकता है परन्तु पर्याय नहीं। कोई भी अध्यापक प्रतिपादन के बिना भी शिक्षण प्रदान कर सकता है जबकि प्रतिपादन की शिक्षण प्रक्रिया, शिक्षण साधनों और शिक्षण उद्देश्यों के बिना कोई अस्तित्व ही सम्भव नहीं है।सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि अनुबंधन, प्रशिक्षण, अनुदेशन और प्रतिपादन शिक्षण के विभिन्न स्तरों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्हें शिक्षण का अंग तो माना जा सकता है पर पर्याय नहीं। एक दूसरे से प्रकृति और कार्यप्रणाली में पृथकता रखते हुए भी ये सभी अंग अपने-अपने ढंग से शैक्षणिक उद्देश्यों की प्राप्ति में संघर्षरत रहते हैं। शिक्षण प्रक्रिया में इनमें से किसी को भी शिक्षण शैली के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। अतएव शिक्षण के ये सभी रूप विविधता में एकता का उदाहरण प्रस्तुतं करते हुए शिक्षण के वृहत रूप की सृष्टि और हित चिन्तन करते हुए दिखलाई पड़ते हैं।
शिक्षण संप्रत्यय का विश्लेषणात्मक स्वरूप(Analytical Concept of Teaching)
विश्लेषण से अभिप्राय उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा किसी भी वस्तु के तत्त्वों अथवा अवयवों को अलग-अलग किया जा सके। अतएव शिक्षण का विश्लेषणात्मक स्वरूप प्राप्त करने के लिए हमें शिक्षण कार्य अथवा प्रक्रिया में शामिल विभिन्न घटकों और अवयवों को इस प्रकार अलग-अलग रूप में सामने लाना होगा ताकि यह स्पष्ट किया जा सके कि शिक्षण कार्य में किस-किस प्रकार की क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं तथा इन क्रियाओं द्वारा कौन-कौन से शैक्षणिक उद्देश्यों की पूर्ति की जाती है। शिक्षण के इस प्रकार के विश्लेषणात्मक स्वरूप को प्राप्त करने के लिए विद्वानों द्वारा काफी कुछ प्रयत्न किए गए हैं। इनमें से कुछ प्रयत्नों को संक्षिप्त रूप में नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है
1.1966 में कोमीसार (Komisar) ने शिक्षण का अनेक विशिष्ट क्रियाओं (जैसे प्रस्तावित करना,प्रदर्शन करना, वर्णन करना, परिभाषित करना, व्याख्या करना, बढ़ाकर प्रस्तुत करना, प्रश्न पूछना, पहचानना, पुष्टि करना आदि) के रूप में विश्लेषण करने का प्रयत्न किया।
2.1982 में एन. के. जंगीरा (N. K. Jangira) और अजीत सिंह (Azit Singh) ने अपने अध्ययन के आधार पर शिक्षण का विश्लेषण करते हुए निम्न विचार प्रस्तुत किए
(1)शिक्षण का शिक्षण व्यवहार के रूप में विश्लेषण किया जा सकता है। इस व्यवहार में कम से कम तीन स्तर होते हैं। ये हैं
(1) शिक्षण कौशल अवयव (Component teaching skills)
(ii) शिक्षण कौशल अवयव से जुड़े हुए शिक्षण व्यवहार अवयव(Component teaching behaviours, comprising the component skills),और
(iii) अति सूक्ष्म शिक्षण व्यवहार (Atomistic teaching behaviours).
शिक्षण के विश्लेषण के संदर्भ में उपरोक्त चर्चा के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है। कि शिक्षण की जटिल प्रक्रिया का कुछ सीमित परन्तु स्पष्ट अवयवों (जिन्हें 'शिक्षण कौशलों' अथवा 'तकनीकी कौशलों' का नाम दिया जाता है) के रूप में विश्लेषण किया जा सकता है। एशियन इन्स्टीट्यूट फॉर टीचर एजूकेशन (1982) ने इस प्रकार के विश्लेषित सभी कौशलों को ऐसी विशिष्ट शिक्षण क्रियाएँ माना है जिनके द्वारा विद्यार्थियों के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाने में भरपूर सहायता मिलती है।
अतः इस स्थिति में निष्कर्ष रूप में यह कहना उचित होगा कि शिक्षण, शिक्षण कौशलों के रूप में पुकारे जाने वाले विविध कौशलों का एक संगठन है और किसी भी शिक्षण कौशल को विद्यार्थी के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाने के लिए जाने वाले विभिन्न शिक्षण कार्यों अथवा व्यवहारों के समूह अथवा संगठन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।शिक्षण को कुछ विशिष्ट शिक्षण कौशलों और उनसे सम्बन्धित शिक्षण कार्यों अथवा व्यवहारों के रूप में विश्लेषित करने के उपरोक्त दृष्टिकोण को व्यापक रूप से आलोचना का भी शिकार होना पड़ा है।परिणामस्वरूप अब यह माना जाने लगा है कि शिक्षण को कुछ शिक्षण कौशलों का समूह अथवा संगठन मात्र नहीं माना जा सकता। एक ओर यद्यपि इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि विभिन्न शिक्षण कौशलों का अर्जन एक शिक्षक के कार्य में सहायक होता है परन्तु दूसरी ओर शिक्षण कौशलों का अर्जन ही अपने आप में वह सब कुछ नहीं है जो एक अच्छे अध्यापक बनने के प्रयत्नों में उसे सफलता दिलाए।शिक्षण कौशलों के अलावा भी उसे बहुत कुछ चाहिए। एक कारीगर और मिस्त्री की भाँति घिसे-पिटे तरीकों (शिक्षण कौशलों) का अपने शिक्षण कार्य में उपयोग करके उसे अपने लक्ष्यों की प्राप्ति नहीं हो सकती है। यहाँ उसका सामना निर्जीव वस्तुओं, मशीनों और उपकरणों से नहीं बल्कि सजीव विद्यार्थियों और उनकी गतिशील सजीव आवश्यकताओं से होता है। अध्यापक के व्यक्तित्व, इच्छाओं, अभिवृत्तियों और उनके परिणामों का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। अतः शिक्षण को शिक्षण कौशलों का एक संगठन और समूह मात्र मानकर विश्लेषण करने और इन कौशलों को अर्जित कर इनके उपयोग मात्र से अध्यापक को अपने लक्ष्यों की प्राप्ति नहीं हो सकती। उसे किसी भी हालत में इन कौशलों के मशीनी उपयोग का साधन नहीं बनाया जा सकता। एक अच्छा अध्यापक बनने के लिए इन कौशलों के अर्जन के साथ उसे इनका समुचित उपयोग करने की कला भी अपनानी चाहिए और उसे अपने को एक मशीनी मिस्त्री मानने की बजाय एक ऐसे सजीव आदर्श के रूप में देखना चाहिए जिस के व्यक्तित्व और क्रियाकलापों तथा विद्यार्थियों के साथ बनाए गए सम्बन्धों की छाप विद्यार्थियों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करने के लिए आवश्यक होती है।
अधिगम का अर्थ(Meaning of the term Learning)
अधिगम या सीखना एक बहुत ही सामान्य और आम प्रचलित प्रक्रिया है। जन्म के तुरन्त बाद से ही व्यक्ति सीखना प्रारम्भ कर देता है और फिर जीवन पर्यन्त जाने-अनजाने कुछ-न-कुछ सीखता ही रहता है। एक बच्चा जलती हुई दियासलाई की तीली या लैम्प की लौ को छूने से जल जाता है। उसके लिये यह पहला कटु अनुभव होता है। दूसरी बार कभी भी जलती हुई तीली, लैम्प की लौ और यहाँ तक कि किसी भी जलती हुई वस्तु की ओर हाथ बढ़ाने का दुःसाहस वह नहीं करता। इस तरह का अनुभव उसे जलती हुई वस्तुओं अर्थात् आग से दूर रहना सिखा देता है। दूसरे शब्दों में, हम यह कह सकते हैं कि बच्चा यह सीख जाता है कि अगर किसी गर्म वस्तु या लौ को हाथ लगाया जायेगा तो अवश्य ही जलने की पीड़ा उठानी होगी।इस प्रकार से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष अनुभवों के माध्यम से एक व्यक्ति के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन होते रहते हैं। अनुभवों द्वारा व्यवहार में होने वाले इन परिवर्तनों को साधारण रूप में सीखने की संज्ञा दे दी जाती है। सीखने की प्रक्रिया की यह एक बहुत ही सरल व्याख्या है। इसका विस्तृत अर्थ समझने के लिये कुछ अधिक स्पष्टीकरण एवं पारिभाषिक शब्दावली की आवश्यकता है। इसी सन्दर्भ में कुछ जानी पहचानी परिभाषायें नीचे दी जा रही हैं :
1.गार्डनर मरफी (Gardner Murphy): "सीखने या अधिगम शब्द में वातावरण सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये व्यवहार में होने वाले सभी प्रकार के परिवर्तन सम्मिलित हैं।" ("The term learning covers every modification in behaviour to meet environmental requirements." 1968 p. 205)
2.गेट्स व अन्य (Gates and others) : " अनुभव के द्वारा व्यवहार में होने वाले परिवर्तन को सीखना या अधिगम कहते हैं।"(“Learning is the modification of behaviour through experience.", 1946, p. 318)
अधिगम या सीखने की प्रकृति एवं विशेषतायें(Nature and Characteristics of Learning)
अधिगम या सीखने की जिन परिभाषाओं को हमने अभी तक उपरोक्त पंक्तियों में उद्धृत किया है, उनके आधार पर सीखने की प्रकृति और विशेषताओं के सम्बन्ध में निम्न निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं:
1. सीखना एक प्रक्रिया है, प्रक्रिया का परिणाम नहीं।
2. सीखने में जीवन से मृत्युपर्यन्त उन सभी अनुभवों और प्रशिक्षणों का समावेश होता है जिनके द्वारा व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन लाने की भूमिका निभाई जाती है।
3. सीखने के द्वारा व्यवहार में परिवर्तन लाने की भूमिका निभाई जाती है, उसका यह अर्थ नहीं है कि इन परिवर्तनों के द्वारा सदैव विकास के सही रास्ते पर ही व्यक्ति चलता है। व्यक्ति भला और बुरा दोनों प्रकार के व्यवहारों को सीखने के द्वारा अर्जित कर सकता है और इस तरह अपने व्यक्तित्व को उत्थान और पतन किसी भी रास्ते पर डाल सकता है।
4. सीखने के द्वारा व्यक्ति को समायोजन और अनुकूलन करने के कार्य में सहायता मिलती है।
5. सभी प्रकार का सीखना प्रयोजनपूर्ण एवं उद्देश्ययुक्त होता है। जहाँ कोई प्रयोजन नहीं होता है, वहाँ सीखने की कोई बात नहीं उठती।
6. सीखना उद्देश्यपूर्ण होने के साथ-साथ लक्ष्य निर्देशित (Goal Directed) भी होता है।
7.सीखने को वातावरण एवं क्रियाशीलता (Activity and Environment) की उपज माना जाता है।इसमें वंशक्रम से उपहारस्वरूप कुछ नहीं मिलता बल्कि वातावरण के साथ घर्षण करके इसे अर्जित किया जाता है।
8. सीखने के द्वारा व्यवहार के सभी क्षेत्रों ज्ञानात्मक, क्रियात्मक एवं भावात्मक में आवश्यक परिवर्तन लाये जा सकते हैं।
9.सीखना एक सार्वभौमिक (Universal) एवं सतत (Continuous) प्रक्रिया है। सभी प्राणी चाहे वे किसी लिंग एवं वर्ग से सम्बन्धित हों, सीखते हैं। सीखना किसी एक जाति, वर्ण, धर्म, आयु और लिंग की विरासत नहीं, सभी इन सब भेदों को परे हटाकर सीखने की क्षमता रखते हैं तथा सीखने की यह प्रक्रिया उनमें गर्भाधान से लेकर मृत्युपर्यन्त अपने सतत रूप में चलती ही रहती है।
10. सीखने के अन्तर्गत हम उन व्यवहारजन्य परिवर्तनों को शामिल नहीं कर सकते जो कि परिपक्वन (Maturation), थकान (Fatigue), बीमारी अथवा नशीले और उत्तेजक पदार्थों के सेवन के परिणामस्वरूप प्राप्त होते हैं।
सीखने सम्बन्धी अन्तिम विशेषता हमें किसी विशेष बात की ओर आकृष्ट करती है। यह बताती है कि व्यवहार में होने वाले परिवर्तनों को यद्यपि हम सीखने की प्रक्रिया से जोड़ते हैं, परन्तु व्यवहार से होने वाले कुछ परिवर्तन ऐसे भी हैं जिन्हें सीखना नहीं कहा जा सकता। व्यवहार में वे परिवर्तन अनुभव और प्रशिक्षण के अतिरिक्त किन्हीं अन्य कारकों अथवा प्रभावों के कारण भी उत्पन्न होते हैं।इस प्रकार के परिवर्तनों में एक तो वे परिवर्तन आते हैं, जिन्हें या तो नशीले और उत्तेजक पदार्थों के सेवन का परिणाम कहा जा सकता है अथवा व्यक्ति शारीरिक या मानसिक रूप से अधिक थकान अनुभव करता है, किसी लम्बी बीमारी का शिकार हो जाता है अथवा किसी अन्य कारण से शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता का अनुभव करता है तो इस अवस्था में उसके व्यवहार में परिवर्तन आ जाते हैं। रोगी और थका हुआ व्यक्ति चिड़चिड़ा और झगड़ालू अथवा शंकाशील बन सकता है। नशे की अवस्था में वह एक बिल्कुल अलग प्रकार के व्यवहार का प्रदर्शन कर सकता है, परन्तु व्यवहार में अचानक आ जाने वाले ये परिवर्तन बहुत ही अस्थायी प्रकृति के होते हैं। ये तभी तक रहते हैं जब तक कि जिन कारणों द्वारा ये पैदा होते हैं, वे कारण विद्यमान रहते हैं। कारणों की समाप्ति पर ये स्वयं भी समाप्त हो जाते हैं। नशा उतरने पर व्यक्ति फिर वैसा ही अपना स्वाभाविक व्यवहार करने लगता है। थकान उतरने या बीमारी ठीक होने पर उसका व्यवहार पहले जैसा ही संयत हो जाता है। इस प्रकार के परिवर्तनों की तुलना तुम विज्ञान विषय में पढ़े जाने वाले भौतिक परिवर्तनों जैसे बिजली के बल्ब का जलना, भार से लोह स्प्रिंग का दवना इत्यादि परिवर्तनों से कर सकते हो।दूसरे प्रकार के परिवर्तनों का स्रोत परिपक्वन की प्रक्रिया है। वह प्रक्रिया सभी प्राणीमात्र में देखने को मिलती है और बिल्कुल स्वाभाविक रूप से व्यवहारजन्य परिवर्तनों को जन्म देती है। बीज से अंकुर फूटना, चिड़िया के बच्चों का अण्डे से बाहर निकल कर फुदकना, हिरण के बच्चे का जन्म के तुरन्त बाद ही कुलाचें भरना, हम सब का किशोरावस्था में पदार्पण करते ही यौन आकर्षण अनुभव करना, ये इस प्रकार के व्यवहार परिवर्तन के उदाहरण हैं जो परिपक्वन यानी आयु के साथ स्वाभाविक रूप से व्यवहार में आने वाले परिवर्तनों के रूप में देखे जा सकते हैं। ये परिवर्तन बहुत ही स्थायी प्रकृति के होते हैं। जिनकी तुलना तुम विज्ञान में पढ़े रासायनिक परिवर्तनों जैसे लकड़ी के जलने के बाद राख बनने की परिवर्तन प्रक्रिया से कर सकते हो।निस्संदेह अब तुम्हें इस परिणाम पर पहुंचने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिये कि अनुभव और प्रशिक्षण के द्वारा होने वाले व्यवहारजन्य परिवर्तन न तो परिपक्वन की प्रक्रिया द्वारा लाये जाने वाले परिवर्तनों की भाँति अचल एवं स्थायी होते हैं और न बीमारी, थकान, क्रोध और नशे के द्वारा लाये जाने वाले परिवर्तनों की भाँति क्षणिक और अस्थायी ही। इस प्रकार के परिवर्तन इन दोनों स्थायी और अस्थायी के बीच की भूमिका निभाते हैं और इसलिये इन्हें अपेक्षाकृत स्थायी परिवर्तनों(Relatively Permanent or Enduring: Changes) की संज्ञा दी जाती है। ये स्थायी तो होते हैं, परन्तु ऐसे स्थायी भी नहीं कि किसी भी तरह इन्हें फिर बदला नहीं जा सकता हो। उदाहरण के लिये, जो आदतें सीखने के द्वारा बन जाती हैं, उन्हें फिर भुलांकर प्रयास द्वारा नई आदतें डाली जा सकती हैं।निष्कर्ष रूप में सीखने का अर्थ लगाते हुये हम यह कह सकते हैं कि सीखना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें अनुभव और प्रशिक्षण के फलस्वरूप किसी सीखने वाले के व्यवहार में अपेक्षाकृत स्थायीपरिवर्तन लाये जा सकते हैं।(Learning is a process that brings relatively permanent changes in the behaviour of the learner through experience and training.)
शिक्षण और अधिगम किस रूप में सम्बन्धित हैं ?(How Teaching and Learning are Related?)
शिक्षण क्या है, उसकी क्या प्रकृति और विशेषताएँ हैं तथा अधिगम क्या है और वह किन तत्त्वों से प्रभावित होता है वह जानने के पश्चात् आइए अब इन दोनों के पारस्परिक सम्बन्धों पर दृष्टि डालने का प्रयत्न किया जाए।अधिगम अथवा सीखने को व्यवहार में लाए गए ऐसे परिवर्तनों के रूप में परिभाषित किया जाता है जो अपेक्षाकृत कुछ अधिक स्थायी प्रकृति के हों। शिक्षण का आयोजन भी व्यवहार में इसी प्रकार के परिवर्तन लाने के लिए किया जाता है। इसका अनुमान इस अध्याय के प्रारम्भिक पृष्ठों में दी गई शिक्षण शब्द की परिभाषाओं से भलीभाँति लगाया जा सकता है। उदाहरण के रूप में क्लार्क (Clarke, 1970) ने शिक्षण का सम्बन्ध उन सभी क्रियाओं से जोड़ा है जिनकी संरचना और आयोजन विद्यार्थी के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए किया जाता है। इस तरह अधिगम और शिक्षण दोनों ही, जहाँ तक लक्ष्य और उद्देश्यों का प्रश्न है एक-दूसरे से काफी नजदीक माने जा सकते हैं। शिक्षण की परिणति व्यवहार परिवर्तन में होती है और व्यवहार परिवर्तन को ही सीखना (अधिगम) कहा जाता है। अतः यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि शिक्षण से अर्थ उन सभी कार्यकलापों अथवा क्रियाओं की प्रणाली से है। जिनका आयोजन कुछ सीखने (Learning) के लिए किया जाता है।यहाँ यह प्रश्न उठता है कि क्या यह आवश्यक है कि सभी प्रकार के शिक्षण की परिणति अधिगम में हो अर्थात् उसके परिणामस्वरूप हर अवस्था में कुछ न कुछ सीखा जाए। इसी प्रकार क्या यह आवश्यक है कि सभी प्रकार के अधिगम अर्थात् सीखने के लिए किसी न किसी प्रकार के शिक्षण का आयोजन करना पड़े। स्पष्ट रूप से कहना होगा कि शिक्षण और अधिगम में इस प्रकार का सम्बन्ध नहीं है। न तो शिक्षण की परिणति अधिगम में होनी आवश्यक है और न ही अधिगम के लिए शिक्षण प्रक्रिया की सभी औपचारिकताओं को निभाना आवश्यक है। प्रत्येक अध्यापक अपने कक्षा शिक्षण के द्वारा विद्यार्थियों के व्यवहार में अपेक्षित स्थायी परिवर्तन लाकर उन्हें वांछित अधिगम की ओर ले जाना चाहता है। परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि वह जैसा चाहता है, सदैव वैसा ही हो। यह बात लगभग उसी प्रकार की है। जैसा कि एक डॉक्टर और मरीज के बीच घटित होता है। डॉक्टर अपने मरीजों के इलाज के लिए बढ़िया से बढ़िया दवाई और सुझाव देता है और इस प्रकार उन्हें रोगमुक्त कर स्वस्थ बनाना चाहता है, परन्तु आवश्यक नहीं कि डॉक्टर द्वारा किए गए इलाज से उस का हर मरीज ठीक हो जाए। ठीक इसी प्रकार एक अध्यापक अपने एक विद्यार्थी अथवा पूरी कक्षा के व्यवहार में जो परिवर्तन लाना चाहता है। उसका होना आवश्यक नहीं है। अपनी तरफ से एक डॉक्टर की तरह वह सभी विद्यार्थियों को समान शिक्षण सुविधाएं देने का प्रयत्न करता है परन्तु सभी विद्यार्थी समान रूप से प्रगति नहीं करते।इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति कुछ सीखना चाहता है तो उसके लिए शिक्षण की उपस्थिति अथवा शिक्षण की औपचारिकताओं के दायरे में बँधना आवश्यक नहीं है। वह अनुभव के द्वारा सीख सकता है। स्वयं अपने प्रयत्न और स्वाध्याय भी उसे अपना लक्ष्य पूरा करने में सहायता कर सकते हैं। जहाँ शिक्षण के लिए शिक्षण स्रोत (अध्यापक) और विद्यार्थी में पारस्परिक अन्तःक्रिया का होना आवश्यक है वहाँ अधिगम बिना किसी ऐसी अन्तःक्रिया की परवाह किए बिना एक तरफा भी सम्पन्न हो सकता है।
बी.ओ. स्मिथ (B.O. Smith, 1961) इस प्रकार की परिस्थिति में शिक्षण-अधिगम सम्बन्धों के बारे में अपना निष्कर्ष निकालते हुए लिखते हैं, "अधिगम, आवश्यक रूप से शिक्षण की उपज नहीं है, शिक्षण एक चीज है और अधिगम बिल्कुल अलग दूसरी।" (Learning does not necessarily issue from teaching—Here teaching is one thing and learning is quite another).इस प्रकार यह कहना और मानना कि अधिगम और शिक्षण का एक-दूसरे के बिना कोई अस्तित्व ही नहीं और जिस अनुपात में एक उपस्थित होगा, दूसरा भी उसी अनुपात में होगा, सत्य नहीं है। शिक्षण और अधिगम इस प्रकार का सम्बन्ध न रखते हुए स्वतन्त्र रूप से अपना अस्तित्व बनाए रख सकते हैं।स्मिथ द्वारा निकाले गए परोक्त निष्कर्ष से यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि अधिगम और शिक्षण को अलग-अलग रखने में ही लाभ है। अधिगम और शिक्षण- दोनों का लक्ष्य बालक के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाकर उसके व्यक्तित्व का सर्वागीण विकास करना है। अतः उन्हें अलग अलग रखना और आपस में प्रतिस्पर्धा कराना मूर्खता ही होगी। समझदारी इसी में है कि दोनों को एक ही प्रक्रिया (शिक्षण-अधिगम) में बराबर का साझीदार बनाया जाए। शिक्षण का आयोजन इस प्रकार से हो कि उससे अधिक से अधिक अधिगम सम्भव हो सके, शिक्षण में जुटे हुए साधनों की शक्ति का कम से कम अपव्यय हो और शिक्षण उद्देश्यों की पूर्ति अधिक से अधिक अच्छे ढंग से हो सके।दूसरी ओर अधिगम प्रक्रिया, अधिगम सामग्री और अधिगम में परि गामों को इस तरह व्यवस्थित और संतुलित किया जाना चाहिए कि शिक्षण की प्रक्रिया अच्छे से अच्छे ढंग से चलायी जाए ताकि शिक्षार्थी का अधिक से अधिक हित चिन्तन हो सके। अत: जैसा कि गेज (Gage, 1969) ने स्पष्ट किया है, "शिक्षण और अधिगम की प्रक्रियाओं को एक-दूसरे में विलीन करके एक ऐसी मिश्रित प्रक्रिया का निर्माण किया जाना चाहिए ताकि उसके द्वारा अच्छे से अच्छे परिणामों की प्राप्ति सम्भव हो सके।"(The process of teaching and learning must be adapted to each other so as to make whatever combination of procedures pay off best).किसी भी अवस्था में, जैसा कि स्टोन्स और मोरिस (Stones and Morris, 1972) का मत है. "हमें अधिगम को एक ऐसी अपरिवर्तनशील, जड़ और निश्चित प्रक्रिया के रूप में नहीं समझना चाहिए जिसके हित चिन्तन के लिए शिक्षक को हर समय संघर्षरत रहना पड़े। इसके स्थान पर हमें शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को लाना चाहिए जिसके दोनों पक्षों (शिक्षण क्रियाओं और अधिगम प्रक्रिया) में अधिगम को अधिक प्रभावशाली बनाने की दृष्टि से यचानुकूल परिवर्तन किए जा सकें।"(We need not consider learning to be immutable, fixed, given process to which teaching must be adopted. Instead we should concern of a teaching-learning process, both of whose parts (teaching activities as well as learning process) can be changed to make learning more effective.)अतः सारांश रूप में यह कहना सर्वथा उचित होगा कि जहाँ शिक्षण को शिक्षा की प्रक्रिया और अध्ययन-अध्यापन योजना का केन्द्र बनाना उचित होगा, वहाँ सभी प्रकार के शिक्षण को अधिगम केन्द्रित बना कर ही शिक्षार्थी का अधिक से अधिक हित चिन्तन किया जा सकेगा।
Reference -Uma Mangal and SK Mangal