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Characteristics of Various Stages of Development with Special Reference to Adolescence विकास की विभिन्न अवस्थाओं की विशेषताएं (विशेषकर किशोरावस्था के सन्दर्भ मे )
Oct 04, 2022   Ritu Suhag

Characteristics of Various Stages of Development with Special Reference to Adolescence विकास की विभिन्न अवस्थाओं की विशेषताएं (विशेषकर किशोरावस्था के सन्दर्भ मे )

Characteristics of Various Stages of Development with Special Reference to Adolescence

विकास की विभिन्न अवस्थाओं की विशेषताएं (विशेषकर किशोरावस्था के सन्दर्भ मे )

Introduction :

जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में बालक धीरे-धीरे किस प्रकार विकास के पथ पर अग्रसर होता है, यह सब जानना हमारे लिए बहुत लाभदायक है। इस दृष्टिकोण से आगे के पृष्ठों में विद्यार्थी जीवन से सम्बन्धित अवस्थाओं- शैशवावस्था, बाल्यावस्था और किशोरावस्था में बालक के विकास से सम्बन्धित कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्यों की चर्चा की जाएगी।

शैशवावस्था और शिशुकाल (The Stage of Infancy and Early Childhood)

 

विकास की गति तथा व्यवहार प्रदर्शन को ध्यान में रखते हुए इस अवस्था में हमें निम्न प्रमुख विशेषताओं के दर्शन होते हैं

1. वृद्धि और विकास की तीव्र गति (Rapid growth and development) — इस काल में वृद्धि विकास की गति बहुत तीव्र होती है। शिशु के सभी आंतरिक और बाह्य अवयव तेज़ी से विकसित होते हैं। इसका अनुमान शिशु की ऊंचाई, भार और आकार की तीव्र वृद्धि से सहज ही हो सकता है। संवेगात्मक रूप से भी शिशु दिन प्रतिदिन विकास को प्राप्त होता रहता है। सभी प्रकार के संवेगों को वह भली भान्ति ग्रहण कर लेता है और उनकी अभिव्यक्ति में उसमें पर्याप्त निखार आने लगता है। इस काल के बच्चे में बहुत अधिक क्रियाशीलता और एक अजीब सी बेचैनी भी पाई जाती है जो उसके शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक आदि सभी दिशाओं में तेजी से विकास होने के फलस्वरूप ही पैदा होती है।

2. दूसरों पर निर्भर रहना (Dependent on others) — अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शिशु अपने माता-पिता और अन्य परिजनों के ऊपर निर्भर रहता है. यहां तक कि संवेगात्मक सन्तुष्टि (Emotional satisfaction) के लिए भी दूसरे का मुंह ताकना पड़ता है। वह चाहता है कि सभी उसे प्यार करें, वह सभी के स्नेह और प्यार करने का केन्द्र बिन्दु बना रहे। वह स्वयं भी प्यार करना चाहता है परन्तु प्यार करने अथवा पाने दोनों ही अवस्थाओं में पूरी तरह से दूसरों पर निर्भर रहता है। इस तरह से शैशव अवस्था के प्रारम्भ में बालक पूर्ण रूप से दूसरों पर आश्रित रहता है। परन्तु जैसे जैसे वह बड़ा होता जाता है वैसे-वैसे वह धीरे-धीरे आत्मनिर्भर बनता चला जाता है।

3. आत्म गौरव (Self Assertion ) - यद्यपि शिशु असहाय और पराश्रित होता है फिर भी उसमें आत्मगौरव की भावना बहुत अधिक मात्रा में पाई जाती है। वह अपने से बड़े भाई-बहन, माता-पिता तथा अन्य व्यक्तियों पर पूरी तरह हावी रहता है। अपनी हठी प्रकृति के कारण वह अपने आपको हर समय ठीक समझता है और दूसरों को ग़लत। इसी आधार पर वह अपनी सभी इच्छाओं की पूर्ति चाहता है तथा सभी से यह आशा करता है कि वे वहीं करेंगे जो वह चाहता है। इस तरह से वह बेताज का बादशाह बन कर सब पर शासन करने की आकांक्षा रखता है।

4. दिवा स्वप्न और कल्पना शीलता का समय (Period of Make-Believe and Fantasy ) — शिशु को इस लोक की अपेक्षा अपने कल्पना लोक में विचरण करना अधिक अच्छा लगता है। वह राजकुमार और परियों की कहानी सुनने में रुचि दिखाता है। इन कहानियों के नायक और नायिकाओं में वह अपने आपको देखता है तथा बड़ों की तरह व्यवहार करने के सपने संजोता है। कभी उसे छड़ी हाथ में ले कर और ऐनक लगा कर बच्चों के मास्टर जी कहलाने में आनन्द आता है तो कभी अपने डैडी की तरह बोलने और काम करने का शौक वह पूरा करता है। इस तरह से शैशवावस्था में बालक अपनी कल्पना लोक की रंगीनियों में खो जाना चाहता है।

5. स्वार्थी एवं असामाजिक (Selfish and Unsocial) — शैशवावस्था में बच्चा बहुत ही अधिक स्वार्थी और अहंकारी होता है। वह चाहता है कि सब कुछ उसके लिए हो। अपने किसी भी खिलौने को वह दूसरे बच्चों द्वारा हाथ लगाना भी पसन्द नहीं करता, यहां तक कि वह किसी अन्य बालक को अपने माता-पिता, भाई-बहन तथा अन्य परिजनों से प्यार पाते हुए भी नहीं देख सकता। सामाजिकता की दृष्टि से इस तरह वह शून्य ही होता है। वह समाज के नियमों की कोई परवाह नहीं करता। उसके लिए अपना स्वार्थ और अपनी अच्छा की तृप्ति ही सब कुछ होता है।

6. संवेगात्मक अस्थिरता (Emotionally Unstable ) — शिशुओं का संवेगात्मक व्यवहार एक अपूर्व विशेषता रखता है। उनके संवेग प्रबल होते हुए भी क्षणिक और अस्थिर होते हैं। परन्तु उनमें अत्यधिक स्वाभाविकता पाई जाती है। वे अपने मनोभावों को छुपाने का प्रयत्न नहीं करते। अपने संवेगों पर ठीक प्रकार से नियन्त्रण रखना भी उन्हें नहीं आता तथा प्रायः वे अपने संवेगों को गत्यात्मक क्रियाओं (Motor activities) के माध्यम से ही अभिव्यक्त करते हैं।

7. मानसिक विकास सम्बन्धी विशेषताएं (Characteristics of Mental Development )

(i) जिज्ञासा की प्रवृत्ति (Instinct of curiosity)- शिशुओं में जिज्ञासा की प्रवृत्ति प्रचुर मात्रा में पाई जाती है। वे अपने आसपास की सभी वस्तुओं के बारे में पूरी जानकारी रखने के लिए लालायित रहते हैं। अपने चारों ओर उन्हें सब कुछ विचित्र सा लगता है। यह क्या है, क्यों होता है, कौन करता है, इस प्रकार के एक के बाद एक प्रश्नों की बौछार करते हुए वे प्रायः देखे जाते हैं। वे उत्तर प्राप्त करने में उतनी अधिक दिलचस्पी नहीं लेते जितनी कि उत्सुकता उन्हें प्रश्न पूछने की होती है।

(ii) मानसिक रूप से अविकसित (Intellectually not developed )- इस अवस्था में बालक मानसिक रूप से अपरिपक्व (Immature) होता है। उसके सोचने, निरीक्षण करने, याद रखने, शीघ्र निष्कर्ष पर पहुंचने आदि शक्तियों का विकास नहीं हो पाता। शिशु जो चीज सामने हो उसके बारे में ठीक प्रकार सोच सकते हैं, अमूर्त चिन्तन (Abstract Reasoning) का उनमें अभाव होता है। इसके अतिरिक्त एकाग्रता, संवेदन और प्रत्यक्षीकरण (Perception) से सम्बन्धित शक्तियां भी उसमें ठीक प्रकार से विकसित नहीं हो पातीं।

(iii) रटने पर आधारित स्मरण शक्ति (Rote-Memory ) — शिशुओं में बिना सोचे समझे रटकर याद करने की प्रवृत्ति पाई जाती है। वे तोते की तरह रट्टा लगा कर किसी भी बात को ज्यों की त्यों दोबारा प्रस्तुत कर सकते हैं।

(iv) रचनात्मकता (Creativity ) — शिशुओं में रचनात्मक प्रवृत्ति भी प्रचुर मात्रा में पाई जाती है। उन्हें किसी न किसी प्रकार के तोड़-फोड़ और बनाने बिगाड़ने में लगा हुआ देखा जा सकता है। वे बड़ों का अनुकरण करना चाहते हैं और इसलिए जो बड़े करते हैं उन कार्यों को करने और वस्तुओं को बनाने में वे अत्यधिक रुचि दिखाते हैं।

(v) समय की धारणा अविकसित (Time concept not developed ) — इस अवस्था के बालक में समय की धारणा का उचित विकास नहीं हो पाता। अतः, उसके लिए समय की इकाइयां जैसे कल, आज दिन, तिथि, माह और वर्ष आदि अनुपयोगी और सारहीन होती हैं।

8. यौन सम्बन्धी विकास (Sexual Development ) — इस अवस्था में यौन अंगों का यद्यपि कोई उल्लेखनीय विकास नहीं होता परन्तु फिर भी यौन प्रवृत्तियों के विकास का क्रम निरन्तर चालू रहता है। फ्रायड (Freud) जैसे कुछ मनोविश्लेषण कर्ताओं के अनुसार एक शिशु का यौन सम्बन्धी विकास निम्न तीन चरणों में से होकर गुजरता है

(i) आत्मप्रेम की अवस्था (Stage of self love)- इस अवस्था में शिशु अपने ही अंगों को स्पर्श कर जैसे अंगूठा चूस कर या अपने यौनांगो को हाथ लगाकर असीम सुख का अनुभव करता है।

(ii) समलैंगिक प्रवृत्ति (Homosexual Tendency) — आत्म प्रेम की अवस्था के पश्चात् शिशु अपनी काम-संतुष्टि के लिए दूसरों को अपना माध्यम बनाने का प्रयत्न करता है और इस दृष्टिकोण से लड़का अपने पिता और लड़की अपनी माता के प्रति आसक्ति का अनुभव करने लगती है।

(iii) विषमलैंगिक प्रवृत्ति (Hetero sexual Tendency) — यौन विकास की अन्तिम अवस्था में शिशु में विषम लैंगिक प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं। इस दृष्टिकोण से लड़के अपनी माता और लड़की अपने पिता को आसक्ति और अनुराग केन्द्र बना लेती है। 

बाल्यावस्था या बाल्य काल (The Stage of Childhood )

इस अवस्था की वृद्धि और विकास से सम्बन्धित प्रमुख विशेषताएं निम्न हैं

1. धीमी तथा लगातार वृद्धि (Slow and steady growth)

जहां शैशवावस्था द्रुत गति से होने वाली अत्यधित वृद्धि का काल माना जाता है वहां बाल्य काल को धीमी परन्तु लगातार एक सी वृद्धि का समय कहा जाता है।

2. आत्मनिर्भरता (Independence ) — शिशु को प्रायः सभी परिस्थितियों में दूसरे के आश्रित रहना अच्छा लगता है परन्तु बाल्यावस्था में पर्दापण करते ही उसमें स्वावलम्बन की भावना आने लगती है। अब वह अपने कार्य स्वयं करने का इच्छुक होता है। उसे स्वतन्त्र रूप से कार्य करना अच्छा लगता है, यहां तक कि वह अपने माता-पिता और परिजनों का भी अपने खेल कूद और अन्य कार्यक्रमों में हस्तक्षेप (Interference) पसन्द नहीं करता। घर और माता-पिता को वह कपड़ा तथा खाना जुटाने और विश्राम करने के साधन मात्र मानता है।

3. संवेगात्मक स्थिरता और नियंत्रण (Emotional stability and Control ) - बाल्य काल संवेगात्मक स्थिरता और नियन्त्रण का समय है। शैशवकाल की तरह अब संवेगों में उतना भीषण वेग नहीं होता और न ही उसकी अभिव्यक्ति ही गत्यात्मक क्रियाओं (Motor activities) के माध्यम से होती है। इस काल में बालक अपने मनोभावों को छुपाने और अपने संवेगात्मक व्यवहार पर नियन्त्रण करना सीखना प्रारम्भ कर देते हैं और धीरे-धीरे वे अपने संवेगों को उचित सामाजिक ढंग से अभिव्यक्त करने लगते हैं।

4. सामाजिक प्रवृत्ति का विकास (Developing Social Tendency) शैशवावस्था की तुलना में बाल्यवस्था में बच्चा अधिक सामाजिक होता है। उसमें स्वार्थपरता और अहं की भावना कम होने लगती है और पारस्परिक सहयोग, सामूहिक भावना, समूहभक्ति (Group loyalty) आदि सामाजिक गुण पनपने लगते हैं। जब वह समूह में खेलना पसन्द करता है और अपने खेल के सामान से दूसरों को भी खेलने देता है। बाल्यकाल को बहुधा जत्था या टोली बनाने की उम्र (Gang-Age) भी कह कर पुकारा जाता है क्योंकि इस उम्र के बच्चे प्रायः किसी न किसी समूह या टोली के सदस्य होते हैं और उसके प्रति असीम आस्था पाई जाती है। टोली जो पसन्द करती है वे वही करना चाहते हैं, चाहे इससे उनके माता-पिता, अध्यापक या अन्य बड़े लोग कितने भी नाराज क्यों न हों।

5. यथार्थवादी दृष्टिकोण (Realistic Attitude)- शैशवकाल की तरह बच्चा इस उम्र में अपने कल्पना लोक में ही नहीं खोया रहता। वह व्यर्थ में हवाई किले न बना कर यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाना आरम्भ कर देता है। अब वह जीवन की वास्तविकता को समझना चाहता है और अपने आपको अपने वातावरण के अनुसार ढालने लगता है।

6. स्थायी भावों और भावना ग्रन्थियों का बनना (Formation of Sentiments and Complexes) – शिशु अबोध और भोले होते हैं। न तो वे अपनी भावनाओं को छुपाने में सिद्धहस्त होते हैं और न उनका अपने संवेगों पर ही नियन्त्रण होता है। इसलिए शैशवावस्था में किसी प्रकार की भावना ग्रन्थियां नहीं पनप पातीं। परन्तु बाल्यावस्था में प्रवेश करते ही भावनाओं को छुपाने और दबाने के फलस्वरूप कई प्रकार की ग्रन्थियां (Complexes) उनमें घर करने लगती हैं।

7. यौन सम्बन्धी विकास (Sexual Development)— यौन सम्बन्धी विकास के दृष्टिकोण से बाल्यावस्था प्रसुप्तावस्था ( Latency Period) मानी जाती है। इस समय बच्चों में काम की न्यूनता पाई जाती है। कामेच्छाएं सुप्त रहती हैं जो किशोरावस्था के प्रारम्भ होने तक धीरे-धीरे जागृत हो कर चैतन्य हो जाती हैं। इस आयु के लड़के और लड़कियों में विपरीत लिंग के लिए आकर्षण के स्थान पर विकर्षण (Repulsion) पाया जाता है। वे या तो एक-दूसरे को उपेक्षा करते हैं अथवा एक-दूसरे को नीचा दिखाने या चिढ़ाने की चेष्टा करते हुए पाए जाते हैं। वे ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहते जिनसे उन्हें किसी भी तरह से लड़कियों जैसा कहा जाए। बालिकाएं अपनी आयु के बालकों से अधिक परिपक्व पाई जाती हैं तथा अपने स्वभाववश वे लड़कों को चिढ़ाने और तंग करने की अपेक्षा उनसे दूर रहना अथवा उनकी उपेक्षा करना अधिक ठीक समझती हैं।

8. मानसिक विकास (Intellectual Development ) — बाल्यकाल मानसिक रूप से आगे बढ़ने का समय है। इस उम्र में होने वाले मानसिक विकास की गति की तुलना शैशवावस्था के शारीरिक विकास से की जा सकती है। बालक तेजी से नए-नए अनुभवों को ग्रहण करता है तथा अपनी समस्याओं को सुलझाने में भी योग्य कहा जाता है और इस तरह से अपने वातावरण से समायोजन करने में अधिक से अधिक सक्षम बनता चला जाता है। उसकी सभी मानसिक शक्तियां और योग्यताएं भी धीरे-धीरे पूर्ण विकास को प्राप्त होने लगती हैं। अब उसमें अमूर्त और अरूप चिन्तन तथा मनन करने के लिए पर्याप्त शक्ति आ जाती है। उसमें विभिन्न संप्रत्ययों और धारणाओं का भी पर्याप्त विकास हो जाता है तथा वह विभिन्न प्रकार से अपने भावों का प्रकाशन करना सीख जाती है।

9. विभिन्न रुचियों और अभिरुचियों का विकास (Development of interests and aptitudes)—– शैशवावस्था की अपेक्षा बाल्यावस्था में बालक की रुचियों का क्षेत्र भी काफ़ी विस्तृत हो जाता है। अब वह स्पष्ट रूप से अपनी रुचि, अरुचि, पसन्द नापसन्द को व्यक्त करना प्रारम्भ कर देता है। इस काल में उसमें विभिन्न अभिरुचियाँ और रुझान भी जन्म लेते हैं। इसके अतिरिक्त इस अवस्था के बच्चे शैशव अवस्था की अपेक्षा अधिक बहिर्मुखी (Extravert) होते हैं। उन्हें घूमने फिरने तथा सामाजिक कार्यों में भाग लेने में आनन्द आता है। मनोरंजन के साधन-सिनेमा, टेलीविजन, रेडियो, अभिनय, तथा संगीत एवं नृत्य आदि के प्रति उनमें विशेष लगाव पाया जाता है। कुछ अधिक बड़ा होने पर वे उन सभी वस्तुओं के प्रति, जिनमें रहस्य और रोमांच हो, बहुत आकर्षण का अनुभव करते हैं। इस अवस्था के लड़के लड़कियों की रुचियों और अभिरुचियों में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। लड़के साहस, निर्भयता और वीरोचित कार्यों में पर्याप्त रुचि लेते हुए पाए जाते हैं जबकि लड़कियों का झुकाव कोमलता, मृदुता और अन्य नारी सुलभ कार्यों की ओर होता है।

किशोरावस्था (Adolescent Stage)

किशोर किसे कहा जाए ? (Who is to be called an adolescent ?) - किशोरों के बारे में कोई चर्चा करने से पहले प्रश्न यह उठता है कि हम किशोर किसे कहें ? किशोरावस्था का आरम्भ और अन्त कब-कब माना जाए, इसमें काफ़ी मतभेद है। तकनीकी दृष्टिकोण से अगर सोचा जाए तो जब किसी बालक या बालिका में यौन सम्बन्धी परिपक्वता (Sexual maturity) के दृष्टिकोण से सन्तान उत्पन्न करने की क्षमता आ जाए उसे किशोर कहना प्रारम्भ कर देना चाहिए। दूसरी ओर जब वह शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा संवेगात्मक रूप से पर्याप्त परिपक्वता अर्जित करके अपने समाज तथा समुदाय में एक प्रौढ़ व्यक्ति की तरह व्यवहार करने लग जाए तो उस समय से उसे किशोर के स्थान पर प्रौढ़ व्यक्ति समझना शुरू कर देना चाहिए। उपरोक्त तकनीकी दृष्टिकोण को सामने रखते हुए यह कहना कि लड़के अथवा लड़कियों की किशोरावस्था ठीक इस उम्र में प्रारम्भ अथवा समाप्त हो जाती है, कठिन हो है। कारण स्पष्ट ही है कि न तो संतानोत्पत्ति करने की क्षमता विकसित होने के लिए ही कोई सार्वभौमिक (Universal) आयु निश्चित की जा सकती है और न ऐसा कहा जा सकता है कि अमुक आयु में सभी लड़के और लड़कियां पूरी तरह से परिपक्व हो कर प्रौढ़ जैसा व्यवहार करना शुरू कर देते हैं। यौन सम्बन्धी विकास और सम्पूर्ण परिपक्वता आने, इन दोनों ही प्रक्रियाओं में बहुत अधिक व्यक्तिगत अन्तर देखने को मिलते हैं। गर्म और ठंडी जलवायु के अतिरिक्त सांस्कृतिक और सामाजिक परिस्थितियों जैसे जल्दी अथवा देर से विवाह होना, यौन के प्रति दृष्टिकोण, विभिन्न आयु स्तर पर बालकों का समाज द्वारा अपेक्षित व्यवहार इत्यादि ऐसी अनेक बाते हैं जिनका किशोरावस्था के शुरू होने तथा समाप्त होने दोनों पर ही यथेष्ट प्रभाव पड़ता है। अपने देश में यूरोपीय और अमेरिकन देशों की अपेक्षा किशोरावस्था का काल जल्दी ही शुरू और समाप्त हो जाता है। " इन देशों में जबकि किशोरावस्था का समय लड़कियों में लगभग 13 वर्ष से लेकर 21 और लड़कों में 15 से लेकर 21 वर्ष तक माना जाता है वहां अपने देश में इसकी सीमा लड़कों में 13 से लेकर 19 तक और लड़कियों में 11 से 17 वर्ष तक मानी जाती है।" (Harriman, P.L., 1946, p. 3)

किशोरावस्था में वृद्धि और विकास का रूप (Pattern of Growth and Development in Adolescence)

किशोरावस्था को एक प्रकार शैशवकाल की ही पुनरावृत्ति माना जा सकता है क्योंकि इस अवस्था में भी शैशवावस्था की तरह बच्चे के व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का अत्यधिक गति से वृद्धि और विकास होता है और किशोर भी शिशु की तरह अत्यधिक चंचल, अशांत, उत्तेजित, संवेदनशील और भावुक होता है। इस अवस्था में वृद्धि और विकास की सभी दिशाओं में बच्चा तेकी से आगे बढ़ता है। जिसके परिणामस्वरूप उसमें कई नवीन परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। संक्षेप में किशोरावस्था में होने वाली वृद्धि, विकास तथा प्रमुख परिवर्तनों को निम्न रूप में रखा जा सकता है

A. शारीरिक विकास तथा परिवर्तन (Physical Development and Changes )

इस अवस्था में शरीर के सभी आंतरिक और बाह्य अवयव अत्यधिक तेजी से वृद्धि और विकास को प्राप्त होते हैं और लगभग सभी ग्रन्थियां (Glands) पूरी तरह से अपना कार्य करना शुरू कर देती हैं। परिणामस्वरूप इस अवस्था की समाप्ति तक प्रायः सभी व्यक्ति अपनी शारीरिक वृद्धि और विकास की सीमा पर पहुंच जाते हैं तथा अपना एक विशेष आकार, डील-डौल तथा रंग-रूप अपना लेते हैं। उनकी हड्डियां और मांस-पेशियां भी काफ़ी सशक्त और समक्ष बन जाती हैं जिससे किशोर की गत्यात्मक क्रियाओं की मात्रा में वृद्धि हो जाती है और वे अधिक कार्यकुशल बन जाती हैं। शारीरिक वृद्धि और विकास के परिणामस्वरूप किशोर में कई नवीन आंतरिक तथा बाह्य परिवर्तन दिखाई देते हैं। उनके बगल (Underarms) और गुप्तांगों में घने बाल उग जाते हैं। लड़के और लड़कियां दोनों ही अपने अपने लिंगगत विशेषताओं के दृष्टिकोण से शारीरिक वृद्धि और विकास के अलग-अलग मानदंडों को छूते हैं। लड़कियों के कूल्हों के मांस में वृद्धि हो जाती है तथा उनकी छाती में पर्याप्त उभार आ कर उरोज विकसित हो जाते हैं जबकि लड़कों के चेहरे दाढ़ी मूंछ से शोभित होन लगते हैं। दोनों की आवाज में भी पर्याप्त अन्तर दिखाई देता है। लड़कियों की आवाज जहां अधिक पतली, तीक्ष्ण और मधुर बन जाती है वहां लड़कों की आवाज में पर्याप्त गम्भीरता, रुखाई और भारीपन आ जाता है। लड़कियों में मासिक धर्म (Menstruation) शुरू हो जाता है और लड़के स्वप्न दोष क शिकार होने लगते हैं। इस प्रकार से इस अवस्था की समाप्ति तक प्रायः सभी लड़के पुरुषोचित और लड़कियां स्त्रियोचित शारीरिक विशेषताओं को ग्रहण कर लेते हैं।

B. संवेगात्मक विकास और परिवर्तन (Emotional Development and Changes)

संवेगात्मक रूप से किशोर पर्याप्त विकसित हो जाता है। उसमें चिन्ता, भय, प्रेम, ईर्ष्या और क्रोध आर्थि सभी संवेग अपने विकास के शिखर पर पहुंच जाते हैं। संवेगात्मक विकास के तीव्र दौर में किशोर एक बार फिर शिशु की तरह ही संवेगात्मक अस्थिरता और तीव्रता को अनुभव करता है। इस आयु में शारीरिक वृद्धि और विकास के अपने चरम सीमा पर पहुंच जाने के कारण किशोर का अपना शरीर उसे गत्यात्मक कार्यों को करने के लिए पर्याप्त शक्ति देने में समर्थ बन जाता है। अतः किशोरों में संवेगों की अभिव्यक्ति प्राय: प्रखर और सक्रिय ढंग से होती है। किसी और अवस्था में बच्चा उतना अधिक बेचैन, उग्र, भावुक, संवेदनशील नहीं होता जितना कि किशोरावस्था में होता है। रॉस (Ross) के शब्दों में "किशोर का जीवन बहुत अधिक संवेगात्मक होता है जिसमें हमें एक बार फिर उसके अत्यधिक उम्र और निराशा की गहराइयों के बीच झूलते हुए व्यवहार के माध्यम से मानव व्यवहार के अनुकूल और प्रतिकूल दोनों पक्षों का मिला-जुला रूप देखने को मिलता है।" (1951, P, 147) इसलिए किशोरावस्था को प्रायः तनाव (Strain) और दबाव (Stress) की अवस्था का नाम दिया जाता है। इस प्रकार जैसा कि रौस ने संकेत दिया है किशोरों की संवेगात्मक अभिव्यक्ति में स्थायित्व नहीं होता। उनके संवेग बहुत अधिक अस्थायी और परिवर्तनशील होते हैं परन्तु उनकी गति बहुत प्रबल होती है। इसलिए एक किशोर को अपने संवेगों को पूरी तरह नियन्त्रण रखना बहुत कठिन होता है। वास्तव में किशोरावस्था तक पहुंचते पहुंचते बालक में संवेग, स्थायी भावों (Sentiments) के रूप में अपनी गहरी जड़ जमा लेते हैं। उसकी आत्म चेतना (Self-Consciousness), आत्म सम्मान और स्वाभिमान में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है। समूह भक्ति और प्रेम के स्थायी भाव अधिक विकसित हो कर उसे बहुत अधिक भावुक बना देते हैं। वह जो भी अनुभव करता है, उसे बहुत गहराई से अनुभव करता है और फिर अपनी प्रतिक्रिया भी बहुत उग्र ढंग से व्यक्त करता है।

C. सामाजिक विकास और परिवर्तन (Social Development and Changes )

किशोरावस्था सामाजिक सम्बन्धों के अधिक विकसित होने और मेलजोल बढ़ाने का समय है। छोटी आयु में बच्चा समाज के नियमों, हितों और सम्बन्धों की कोई परवाह नहीं करता। उसमें अहं और व्यक्तिगत स्वार्थ अधिक होता है। किशोरावस्था में वही बच्चा अपने सामाजिक विकास के फलस्वरूप सामाजिक उत्तरदायित्वों को समझने लग जाता है और नियमों के अनुकूल ढलने का प्रयास करता है। किशोर का सामाजिक दायरा भी बालक की अपेक्षा अधिक विस्तृत होता है। अब वह विपरीत लैंगिक आकर्षण भी अनुभव करता है। उसकी मित्रता अब बाल्यावस्था की तरह क्षणिक और भावनाशून्य नहीं होती। वह मित्रों से सम्बन्ध को प्रगाढ़ बनाने और अपने आपको अपने वय-समूह (Peer Group) या मित्र-मंडली से अच्छी तरह जोड़ने का प्रयत्न करता है। अपने वय-समूह या मित्र-मंडली के आदर्श उसके अपने आदर्श बन जाते हैं और जैसा वय-समूह सोचता है और करता है, वह भी वही करने का प्रयत्न करता है। अपने वय-समूह द्वारा स्वीकार किए जाने और उसमें अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाने की उसमें अत्यधिक लालसा पाई जाती है। मित्र मंडली या वय-समूह द्वारा अपनी उपेक्षा या तिरस्कार उसके लिए सबसे अधिक असहनीय और हानिकारक सिद्ध होता है। इससे किशोरों में कुसमायोजन सम्बन्धी अनेक समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। किशोरावस्था के बच्चे में सामाजिक पहलू से दूसरा महत्त्वपूर्ण परिवर्तन माता-पिता और परिजनों के साथ उसके अपने सम्बन्धों को लेकर दिखलाई पड़ता है। इस उम्र में उसे अब स्वतन्त्र होने की धुन सवार होती है। वह चाहता है कि अब उसके माता-पिता और परिवार के सदस्य उसे मात्र बालक समझ कर उसकी उपेक्षा न करें। अब वह उनके द्वारा अपनी हिफ़ाजत कराना अपना अपमान समझता है तथा अपने विचारों तथा भावों में पूरी तरह स्वतन्त्रता चाहता है। अब वह अपने मां-बाप की कही हुई बातों और सुझाए गए मार्ग पर नहीं चलना चाहता। अपने वय-समूह या मित्र-मंडली का मार्ग और परामर्श उसे अधिक प्रिय और हितकर लगता है। ऐसी अवस्था में मां-बाप अथवा अभिभावकों के अनावश्यक अंकुश तथा विरोध के फलस्वरूप कभी-कभी किशोर खुला विद्रोह भी कर बैठते हैं।

D. बौद्धिक विकास और परिवर्तन (Intellectual Development and Changes)

जहां तक मानसिक शक्तियों के क्रियान्वित होने का प्रश्न है वहां किशोरावस्था सबसे अधिक वृद्धि और विकास का समय है। इस उम्र में बुद्धि अपनी चरम सीमा तक पहुंचने का प्रयत्न करती है तथा तार्किक चिन्तन, सूक्ष्म और गहन विचार शक्ति, एकाग्रता आदि सभी मानसिक शक्तियां पर्याप्त विकसित हो जाती हैं। अब यह कार्य और कारण सम्बन्धों (Cause and Effect relationships) की ठीक प्रकार खोज करना आरम्भ कर देता है। उसमें पर्याप्त मौलिकता आने लगती है तथा वह प्रत्येक वस्तु को एक आलोचक की दृष्टि से देखने लगता है। किशोरावस्था में भावना, कल्पना, मौलिकता और उत्साह का सम्मिलित अनुकूल प्रवाह अनेक लेखक, कवि, चित्रकार, मूर्तिकार, संगीतज्ञ, दर्शन- शास्त्री तथा अन्वेषकों को जन्म देता है। दूसरी ओर कल्पना की निष्क्रिय और लक्ष्यहीनता किशोर को दिवास्वप्न देखने वाला और अकर्मण्य व्यक्ति बना सकती है। अतः इस अवस्था में किशोरों की कल्पना शक्ति को अनुकूल दिशा में प्रवाहित करने के लिए गम्भीर प्रयत्न किए जाने चाहिएं। नायक पूजा (Hero worship) भी इस उम्र में काफ़ी प्रचलित पाई जाती है और उसकी रुचियों का क्षेत्र भी बहुत विस्तृत हो जाता है। विशेष रूप से वे साहसिक कार्यों, घूमने-फिरने तथा रहस्य एवं रोमांच से परिपूर्ण कहानियों एवं घटनाओं में अधिक रुचि दिखाते हैं। किशोरावस्था कर्मण्यता की आयु (Age of action) है। जो कुछ भी किशोर सोचते और कहते हैं उसे क्रिया रूप में परिणित करने के लिए वे काफी उग्र होते हैं। उसमें नापसन्द, रुचि और अरुचि स्थायी रूप से विकसित हो जाती है।

E. नैतिक और धार्मिक विकास (Moral and Religious Development )— नैतिक मूल्यों और मान्यताओं का विकास भी किशोरावस्था की देन है। सामाजिक विकास की दिशा में अपने कदम ठीक प्रकार बढ़ाने के फलस्वरूप किशोर सामाजिक मूल्यों और मान्यताओं से परिचित हो जाते हैं तथा सामाजिक उत्तरदायित्वों और नैतिक मूल्यों को मान्यता देने लगते हैं। समूह भावना का उचित विकास भी उन्हें नैतिकता की ओर खींचता है। स्थायी भावों और विशेषकर आत्म सम्मान का भाव उत्पन्न होने के कारण चारित्रिक अथवा नैतिक विकास में बहुत सहायता मिलती है। चरित्र, जिसके माध्यम से एक -व्यक्ति को अच्छा या बुरा विभूषित किया जाता है, विशेषकर इसी अवस्था की देन है। धर्म और धार्मिक संस्कारों एवं विश्वासों का प्रभाव भी जीवन में पहले-पहल उसी उम्र में अच्छी तरह अनुभव किया है। परिणामस्वरूप किशोरों को प्रायः ईश्वर, धर्म, आस्तिकता और नास्तिकता के बारे में बातें करता हुआ तथा बाह्य आत्मा, जीवन-मरण, पाप पुण्य की दार्शनिक गुत्थियों को सुलझाता हुआ देखा जा सकता है। 

F. यौन सम्बन्धी विकास एवं परिवर्तन (Sexual Development and Changes )

किशोरावस्था की अपनी एक प्रमुख विशेषता यौन सम्बन्धी विकास को लेकर है यौन सम्बन्धी विकास और वास्तविक रूप में किशोरावस्था के साथ-साथ ही शुरू होता है और उसके समाप्तिकाल तक अपने सर्वोच्च शिखर पर पहुंच जाता है। वास्तव में किशोरों का सम्पूर्ण व्यक्तित्व और व्यवहार ही, अगर अतिशयोक्ति न समझा जाए तो लैंगिक और यौन आकर्षण से प्रभावित रहता है। इस उम्र में भी शैशवावस्था की तरह यौन सम्बन्धी विकास तीन अवस्थाओं से होकर गुजरता है।

(i) आत्म प्रेम की अवस्था (Stage of auto-eroticism or Self Love) प्रारम्भिक स्तर पर किशोर लड़के और लड़कियां स्वयं अपने-आप से प्रेम करते हैं। वे तरह-तरह से अपने श्रृंगार कर तथा अपने अंग प्रत्यंगों को दर्पण में निहार कर असीम प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। हस्त मैथुन अथवा अपने आप योनिघर्षण द्वारा आन्नद उठाना भी इस अवस्था में बहुधा देखने को मिलता है।

(ii) समलैंगिक सम्बन्धों की अवस्था (Stage of Homo Sexuality)- इस दूसरे स्तर पर. किशोर लड़के और लड़कियां समलैंगिक सम्बन्धों में रुचि दिखाते हैं। वे प्राय: एक दूसरे के शरीर और गुप्तांगों का उपयोग करते हुए आन्नद प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं।

(iii) विपरीत लैंगिक सम्बन्धों की अवस्था (Hetero Sexual Stage)- यौन सम्बन्धी विकास. के इस अन्तिम स्तर पर किशोर लड़के और लड़कियां परस्पर एक-दूसरे के प्रति सम्मोहित होते हुए देखे जा सकते हैं। लड़के लड़कियों से तथा लड़कियां लड़कों से मित्रता बढ़ाने और यहां तक कि यौन सम्बन्ध स्थापित करने के इच्छुक और प्रयत्नशील दिखलाई पड़ते हैं।

किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताएं (Special Characteristics of Adolescence) (किशोरों की अपनी आवश्यकताओं और समस्याओं के संदर्भ में)

किशोरों की वृद्धि और विकास के विभिन्न पहलुओं से परिचित होने के पश्चात् किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताओं पर भली-भान्ति विचार किया जा सकता है। इस अवस्था में कई प्रकार की अनावश्यक तनावपूर्ण परिस्थितियां और असमायोजन सम्बन्धी समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं जिनका अध्ययन और निकारण अत्यन्त आवश्यक है। इस प्रकार की सभी समस्याओं और किशोरों की अपनी आवश्यकताओं की चर्चा हम आगे करना चाहेंगे।

1. शारीरिक परिवर्तन सम्बन्धी उलझनें (Problems on account of Somatic Variations ) — किशोरावस्था में लड़के और लड़कियां दोनों में शारीरिक रूप से कुछ आन्तरिक और बाह्य परिवर्तन आते हैं जो उन्हें अजीब-सी उलझनों और समस्याओं में फंसा देते हैं। इन में से कुछ का वर्णन नीचे किया जा सकता है

(a) किशोरावस्था के प्रारम्भ में ही मासिक धर्म (Menstruation) के दौरान रक्त का प्रवाह लड़कियों को अनावश्यक रूप से चिन्तित बना देता है। इस स्वाभाविक कार्य से बिल्कुल अपरिचित होने की दशा में तो कई बार ऐसी लड़कियों को बहुत सी कुंठाओं और दिमागी परेशानी से घिरा हुआ पाया जाता है। इसी प्रकार से लड़के भी स्वप्नदोष (Wet Dreams) के परिणामस्वरूप अपनी अमूल्य निधि को व्यर्थ नष्ट होने की चिन्ता में घुले रहते हैं। इस प्रकार लड़के और लड़कियां दोनों ही अज्ञानवश चिंताग्रस्त रहते हैं तथा बहुधा अन्तर्मुखी (Introvert) प्रवृत्ति और अपराधी भावना (Sense of guilt) के शिकार हो जाते हैं। 

(b) मानव मात्र में व्यक्तिगत अन्तरों का पाया जाना एक सहज स्वाभाविक बात है। इस दृष्टिकोण से किशोरों में भी शारीरिक गठन, रंग-रूप, आकार तथा अन्य शारीरिक विशेषताओं में पर्याप्त अन्तर देखने को मिल सकते हैं। इस प्रकार के व्यक्तिगत भेद किशोरों के लिए समस्याएं खड़ी कर सकती हैं। वे अपने साथियों के साथ अपनी ऊंचाई, भार, पतलापन तथा मोटापे, चेहरे की कान्ति, शारीरिक गठन और रंग-रूप आदि की तुलना करते रहते हैं तथा दूसरों की अपेक्षा अपने में कुछ कमी होने से हीन भावनाओं के शिकार होने लगते हैं। लड़कियां जहां अपनी छाती के कम उभार, स्तनों की गोलाई कम होने तथा कूल्हों के पतलेपन के कारण चिन्तित रहती हैं वहां लड़के अपने सीने की चौड़ाई, भुजाओं की लम्बाई तथा लिंग के छोटे बड़े होने की दुविधा में पड़ जाते हैं। इस तरह से लड़के और लड़कियों के लिए अपने शरीर के विभिन्न अवयवों का दूसरे साथियों की तुलना में पर्याप्त रूप में विकसित न होता एक चिन्ता का विषय बन जाता है। लड़कियाँ, लड़कों की दृष्टि में अधिक से अधिक आकर्षक बनना चाहती हैं। लड़के भी लड़कियों की दृष्टि में अधिक से अधिक हृदय-पुष्ट, मांसल तथा आदर्श पुरुष बनना चाहते हैं। इस प्रकार से अपने स्वयं के शारीरिक ढांचे और अंग विन्यास से सन्तुष्ट होना किशोर और किशोरियों के लिए बहुत ही महत्त्व का विषय है तथा अपने शारीरिक परिवर्तनों को एक स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में स्वीकृत करना भी उनके लिए बहुत आवश्यक है।

2. आत्मचेतना बलवती होना (Intensification of Self-Consciousness)- किशोरावस्था में आत्म-चेतना (Self-Consciousness) बहुत बढ़ जाती है। एक किशोर की यह तीव्र इच्छा होती है कि दूसरे यह जानें कि अब वह कोरा बालक नहीं रहा। वह अपने शारीरिक विकास और वृद्धि के परिणामस्वरूप होने वाले परिवर्तनों को अपने सभी साथी किशोर-किशोरियों तथा अन्य बड़े व्यक्तियों को दिखाने के लिए लालायित रहता है। इसलिए किशोरावस्था को प्राय: बनाव शृंगार का समय कहा जाता है। लड़के और लड़कियां दोनों ही अपने वस्त्रों, केश सज्जा, रंग रूप निखारने, खाने-पीने, चलने-फिरने, बातें करने आदि सभी दिशाओं में बहुत अधिक सावधानी बरतते हुए देखे जा सकते हैं। वास्तव में किशोरों में अपने वय-समूह में अपना स्थान बनाने और प्रतिष्ठा प्राप्त करने की एक भूख सी होती है। प्रत्येक किशोर यह चाहता है कि वह विपरीत लिंग के सदस्यों के लिए एक आकर्षण का विषय बन जाए और उसके व्यक्तित्व की छाप उसकी मित्र मण्डली या वय-समूह पर अंकित हो जाए। इसके अतिरिक्त किशोर बहुत अधिक भावुक, संवेदनशील और अनायास ही उत्तेजित हो उठने वाले होते हैं। वे हर प्रकार से अपनी प्रतिष्ठा को बढ़ाने और स्वाभिमान को बचाए रखने का प्रयत्न करते हैं। आत्मप्रतिष्ठा और स्वाभिमान पर किसी भी तरह की चोट उनमें कुसमायोजन सम्बन्धी विभिन्न समस्याओं को उत्पन्न कर सकती है और इससे या तो वे विद्रोही हो उठते हैं अथवा सभी ओर से आंख मूंद कर पूर्णतया और निष्क्रिय हो जाते हैं।

3. काम-चेतना में वृद्धि (Intensification of Sex-consciousness)- किशोरावस्था में काम प्रवृत्ति अत्यधिक सक्रिय रूप में व्याप्त रहती है। किशोरावस्था की अधिकांश समस्यायें यौन अंगों के परिपक्व होने, तथा चौन ग्रन्थियों के अधिक सक्रिय हो उठने और काम भावनाओं के उमड़ने के फलस्वरूप ही पैदा होती हैं। पहले तो मासिक-धर्म और स्वप्नावस्था में वीर्यपात ही किशोर-किशोरियों के लिए चिन्ता और कुण्ठा के विषय बने होते हैं, ऊपर से अपने यौनांगों में एक विचित्र अनुभूति होने के कारण जब वे अपनी चन्तुष्टि हस्तमैथुन, योनिघर्षण, समलैंगिक तथा विषमलैंगिक सम्बन्धों के द्वारा करने का प्रयास करते हैं तो वे कुण्ठाओं और दुविधाओं के जाल में और भी अधिक घिर जाते हैं। वे स्वयं को अपराधी, गिरा हुआ तथा पाप समझने लगते हैं। कई मामलों में तो वे यहां तक धारणा बना लेते हैं कि हस्तमैथुन और लैंगिक सम्बन्धों के फलस्वरूप अब वे वैवाहिक जीवन के योग्य नहीं रहे और अब उनका जीवन निरर्थक और उद्देश्यहीन हो गया है।

4. आत्मनिर्भरता बनाम निर्भरता (Independence V/s Dependence)- किशोरावस्था, बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था का संगम है। किशोर का एक ओर तो बचपन पीछा नहीं छोड़ता तो दूसरी और वह प्रौढ़ बनने की भूमिका जल्दी से जल्दी निभाना चाहता है। इसलिए एक किशोर को जहां बच्चे की तरह सुरक्षा, निर्देशन और प्यार की आवश्यकता होती है वहां वह एक प्रौढ़ व्यक्ति की तरह विचार एवं कार्यों में पर्याप्त स्वतन्त्रता एवं आत्मनिर्भरता की मांग करता है। वह यद्यपि सभी दिशाओं में पर्याप्त रूप से वृद्धि एवं विकास को प्राप्त होता रहता है, परन्तु फिर भी वह पूरी तरह से आत्मनिर्भर नहीं हो ..सकता। उसको अपनी शारीरिक, संवेगात्मक और सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए माता पिता तथा अन्य बड़े व्यक्तियों के ऊपर निर्भर रहना पड़ता है। किशोरावस्था में होने वाले आकस्मिक शारीरिक परिवर्तनों और विकास के परिणामस्वरूप उसमें जो चिन्ता, बेचैनी, भय तथा असुरक्षा की भावना पैदा हो जाती है, उसका निराकरण मां-बाप तथा अन्य परिजनों के स्नेह द्वारा ही सम्भव हो पाता है। इसके अतिरिक्त अनियन्त्रित संवेगों की बाढ़ लिए हुए जब वह साहस एवं नवीनता से ओत-प्रोत कार्यों को करने के लिए आगे बढ़ता है तो उसे पथ-प्रदर्शन और परामर्श की आवश्यकता होती है। दूसरी ओर उसका सामाजिक क्षेत्र विस्तृत होता चला आता है और अब वह अपने माता-पिता तथा बड़ों को अपनी देखभाल करते रहने में अपमानित अनुभव करता है। वह अपने आपको पूरी तरह से परिपक्व, अनुभवी और समझदार व्यक्ति मानता है। वह दिखाना चाहता है कि अब वह बालक नहीं रहा। परिवार के गम्भीर मामलों में अब उसकी राय ली जानी चाहिए तथा अपनी रुचि और इच्छा के अनुकूल चलने के लिए पर्याप्त स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए। इस प्रकार प्रौढ़ व्यक्ति की तरह स्वतन्त्रता का उपयोग करने की चाह और बालकों की तरह आश्रित रहने की मजबूरी, इस दोहरे व्यवहार के कारण वह काफ़ी उलझन में रहता है। साथ ही माता-पिता भी यह तय नहीं कर पाते कि अब उसके बालक जैसा व्यवहार करें अथवा उसे परिपक्व अवस्था का मान कर चलें। कभी तो वे उसे यह कह कर डांट पिलाते हैं कि अब तुम बच्चे नहीं रहे और कभी वे यह कहते हैं कि तुम अभी बच्चे हो, तुम्हें ये सब कुछ कहने, करने अथवा समझने की आवश्यकता नहीं। इस प्रकार से किशोरावस्था का बच्चा बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था के दोहरे दायित्वों के बीच पिस कर रह जाता है। वह निर्भर रहे अथवा स्वावलम्बी बने, इसी मानसिक उथल-पुथल का शिकार रहता है जिससे आगे जा कर उसमें व्यक्तित्व के समायोजन सम्बन्धी अनेक समस्यायें उत्पन्न हो सकती हैं।

5. वय - समूह अथवा मित्र मण्डली के साथ सम्बन्ध (Peer-group relationships)— अपने सम वयस्क मित्रों की मण्डली के साथ किशोर जो सम्बन्ध बनाते हैं उस का भी उनके अपने विकास और समायोजन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। किशोर धीरे-धीरे अपने माता-पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों से दूर चला जाता है और अपना अधिकांश समय अपने वय-समूह या मित्र- मण्डली में बिताने की चेष्टा करता है। वह अपने वय-समूह के आदर्शों और मान्यताओं को बहुत सम्मान देता है और उसके प्रति एक प्रकार उसके हृदय में भक्ति भाव सा पैदा हो जाता है। अपने स्थान और सम्मान को अपने वय-समूह (Peer-group) में बनाए रखने के लिए वह वही करना चाहता है जो उसके वय समूह या मित्र मण्डली को प्रिय हो। पीढ़ियों की मान्यताओं और आदर्शों में अन्तर होना, स्वाभाविक ही है। अतः माता पिता तथा अन्य गुरुजनों के आदर्शों और किशोरावस्था के बच्चों की मण्डली या वय समूह की इच्छाओं में प्राय: संघर्ष छिड़ता रहता है। अब किशोर एक अजीब दुविधा में पड़ जाता है। एक तरफ तो उसे अपने माता-पिता तथा बड़ों की नाराजगी मोल लेने का भय सताता है तो दूसरी ओर अपय-समूह या मित्र मण्डली द्वारा कायर, भीरू या निरा बच्चा कहलाने की यह कल्पना उसे बेचैन कर देती है। इस तरह से वह यह करना चाहिए या वह इस प्रकार की परेशानी का शिकार बनता चला जाता है।

6. आदर्शवाद बनाम यथार्थवाद (Idealism V/s Realism) — एक किशोर स्वभाव से आदर्शवादी होता है। वह आदर्श समाज की स्थापना करना चाहता है। वर्तमान परिस्थितियों और घटनाओं से वह सन्तुष्ट नहीं होता और प्रायः सब कुछ बदल डालने के बारे में सोचता रहता है। वह ऐसे प्रश्नों में उलझा रहता है कि संसार कहां जा रहा है ? जीवन का प्रयोजन क्या है ? मानवता क्या है ? देश में इतनी अधिक गरीबी, बेकारी, चोर बाज़ारी क्यों है ? अमीर अमीर क्यों है और ग़रीब को ग़रीब कौन बनाता है ? इस प्रकार वह सभी के दुःख दर्द के बारे में सोचता है तथा आदर्श समाज के निर्माण के सपने संजोता है। परन्तु उसके ये सपने सपने ही बने रहते हैं क्योंकि आदर्शों की खोज में वह यथार्थ से आंख मूंद लेता है। वास्तव में अनुभव की कमी और अपरिपक्वता (Immaturity) उसका सम्बन्ध यथार्थ से काट कर उसे काल्पनिक उड़ानें भरने के लिए छोड़ देती हैं। वह असम्भव को सम्भव बनाना चाहता है और जब वह यह नहीं कर पाता तो बहुत अधिक परेशान और बेचैन हो उठता है। इसके परिणामस्वरूप वह संवेगात्मक और मानसिक सन्तुलन खो बैठता है। अब या तो वह तोड़ फोड़ और विध्वंशात्मक कार्यों द्वारा अपना रोष प्रकट करता है अथवा अपने ही स्वप्न संसार में मस्त रह कर निष्क्रिय और अकर्मण्य बन जाता है।

7. व्यावसायिक चुनाव सम्बन्धी समस्या (Problem with regard to vocational choice)— प्रायः किशोरावस्था के दौरान ही प्रत्येक किशोर के सामने व्यावसायिक चुनाव की समस्या आती है। उसे अपने पाठ्यक्रम में ऐसे विषयों का चुनाव करना होता है जो आगे जा कर उसके भविष्य के व्यवसाय में सहायता कर सकें। कई किशोर तो हाई स्कूल अथवा हायर सैकन्डरी के पश्चात्, निश्चित रूप से मैडीकल, इंजीनियरिंग अथवा किसी अन्य व्यवसाय, खेती बाड़ी, दुकान या अन्य धन्धों में लग जाते हैं। उचित व्यवसायिक पाठ्यक्रमों या व्यवसाय के चुनाव में उन्हें काफ़ी परेशानी का अनुभव करना पड़ता है। उनकी संवेगात्मक अस्थिरता, अनुभवनहीनता तथा अपरिपक्वता उचित चुनाव करने में आड़े आ जाती है। इसके अतिरिक्त अभी उनकी रुचियों, अभिरुचियों और योग्यताओं का अपने सम्पूर्ण रूप में विकास नहीं हो पाता। अतः क्या चुनें और क्या न चुनें, इस प्रकार की असमंजस पूर्ण स्थिति उन्हें काफ़ी परेशान कर देती है। अतः इस अवस्था में एक किशोर के लिए अपनी रुचियों, अभिरुचियों तथा आवश्यकताओं के अनुकूल व्यवसाय चुनने में पर्याप्त निर्देशन और परामर्श की आवश्यकता होती है। अगर हम उपरोक्त स्थिति का विश्लेषण करें तो हम यह पाते हैं कि किशोर एक चौराहे पर खड़ा होता है जहां से वह समान रूप से सही अथवा ग़लत दोनों ही रास्तों पर मुड़ सकता है। फलस्वरूप उसकी आश्यकताओं तथा समस्याओं को समझ कर पर्याप्त निर्देशन और परामर्श दिए जाने की। आवश्यकता होती है।

प्रमुख आवश्यकताओं का संक्षिप्त विवरण (Brief description of Chief Needs)

किशोरावस्था में अनुभव की जाने वाली प्रमुख आवश्यकताओं को अगर हम संक्षिप्त रूप में देखें तो उन्हें तीन प्रमुख भागों-भौतिक, सामाजिक और संवेगात्मक आवश्यकताओं में बांटा जा सकता है। भौतिक या शारीरिक आवश्यकताओं के क्षेत्र में किशोर को स्वयं अपने शारीरिक परिवर्तनों से समझौता करना होता है तथा अपने इन परिवर्तनों को दूसरों को अच्छी तरह दिखलाने की आकांक्षा भी उसके अन्दर होती है। सामाजिक आवश्यकता को लेकर वह अधिक से अधिक सामाजिक बनना चाहता है। तथा अपनी मित्र मण्डली या वय-समूह में अपना स्थान बनाना और उसमें अपने-आप को आत्मसात करना चाहता है। संवेगात्मक पहलू से वह अपने वय-समूह या मित्र मण्डली में यथेष्ट सम्मान और प्रशंसा प्राप्त करने को लालायित रहता है। वह अपने माता-पिता, गुरुजन तथा बड़ों से प्यार, सुरक्षा तथा सम्मान भी चाहता है। अपने मां-बाप तथा बड़ों के अंकुश से स्वतन्त्र होने तथा अपनी बढ़ती हुई कामेच्छाओं की सन्तुष्टि भी वह किसी न किसी माध्यम से करना चाहता है। इस प्रकार की सभी आवश्यकताओं की उचित पूर्ति तथा सन्तुष्टि के लिए उसे पर्याप्त निर्देशन तथा परामर्श दिए जाने की आश्यकता होती है। अतः, मां बाप की देखभाल, अध्यापकों के प्रयत्न, वातावरण सम्बन्धी परिस्थितियों और औपचारिक एवं अनौपचारिक शिक्षा प्रक्रिया को इस प्रकार व्यवस्थित करने की आवश्यकता होती है कि जिससे किशोर अपनी समस्याओं से निपटते हुए अपने व्यक्तित्व के उन्नत मार्ग पर पूरी तरह अग्रसर हो सके ।

हम अपने किशोरों के लिए क्या कर सकते हैं ? (What can we do for our Adolescents ? ) 

किशोरावस्था में बच्चों के व्यक्तित्व का समुचित विकास करने के लिए यह आवश्यक है कि उनकी आवश्यकताओं और समस्याओं से परिचित हो कर उनकी सन्तुष्टि और निराकारण के लिए यथा सम्भव प्रयत्न किया जाएं। काम इतना आसान नहीं जितना ऊपर से दिखलाई पड़ता है। इसके लिए सभी ओर से विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता है। क्या किया जाए, इसके लिए कुछ निम्न सुझाव उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं

1. किशोर मनोविज्ञान का समुचित ज्ञान (Proper Knowledge of Adolescent Psychology)- किशोर मन बालक तथा प्रौढ़ मन से बहुत कुछ भिन्न होता है। अतः किशोरों में व्यवहार को ठीक प्रकार से समझने के लिए किशोर मनोविज्ञान का ज्ञान होना एक अध्यापक के लिए बहुत आवश्यक है। उसे उसकी आवश्यकताओं, वृद्धि और विकास के विभिन्न पहलुओं तथा उनके द्वारा अनुभव की जाने वाली कठिनाइयों एवं समस्याओं का ज्ञान होना भी आवश्यक है। तभी वह उनके उचित विकास और समायोजन में पूरी-पूरी सहायता कर सकने में सक्षम हो सकता हैं। किशोर क्या चाहते हैं, उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए तथा किस प्रकार उन्हें भ्रांतियों, मानसिक तनावों, कुठाओं, चिन्ताओं और विकारों का शिकार होने से बचाया जा सकता है, यह सभी बातें किशोर मनोविज्ञान के समुचित अध्ययन द्वारा ही मालूम हो सकती हैं। केवल अध्यापक ही नहीं, माता-पिता तथा समाज के अन्य उत्तरदायी व्यक्ति भी किशोर मनोविज्ञान का अध्ययन कर किशोरों की पूरी-पूरी सहायता कर सकते हैं।

2. समुचित वृद्धि एवं विकास के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान करना (Providing suitable environment for proper growth and development )- किशोरावस्था वृद्धि के दृष्टिकोण से सब से महत्त्वपूर्ण अवस्था है। इस अवस्था के अन्त तक परिपक्वता के आने के साथ-साथ मानसिक और शारीरिक रूप से जो कुछ भी वृद्धि होनी होती है, हो लेती है। समुचित रूप से अधिक से अधिक वृद्धि हो सके, इसके लिए माता-पिता और अध्यापकों द्वारा घर और स्कूल, दोनों में ही किशोर को पर्याप्त सुविधाएं और अवसर देना अत्यन्त आवश्यक है। किशोरों को सन्तुलित आहार मिलना चाहिए। उनमें खान-पान की अच्छी आदतें विकसित होनी चाहिएं। स्वस्थ कैसे रहें, बीमारियों, से कैसे बचें आदि महत्त्वपूर्ण तथ्यों से भी उन्हें परिचित कराया जाना चाहिए। उन्हें व्यायाम तथा खेल कूद के भी पर्याप्त अवसर प्रदान किए जाने चाहिएं। किशोरों को मानसिक रूप से अधिक स्वस्थ रखने के लिए भी सभी आवश्यक सावधानी बरती जानी चाहिए तथा उनको अपनी मानसिक शक्तियों के समुचित विकास के लिए भी पर्याप्त सुविधाएं और अवसर दिए जाने चाहिएं।

3. उचित यौन शिक्षा प्रदान करना (Rendering Proper Sex Education)— किशोरावस्था में यौन भावनाओं का उत्थान बहुत तीव्र होता है। उनकी सारी चेष्टाओं और यौन प्रयत्नों में यौन आकर्षण अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस अवस्था में मासिक धर्म, स्वप्नदोष, समलैंगिक और विषमलैंगिक सम्बन्धों के रूप में किशोर प्रायः कई तरह की समस्याओं, मानसिक तनावों, संघर्षों और ग्रन्थियों में उलझ जाते हैं। अतः किशोरों की किसी न किसी रूप में समुचित यौन शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए।

4. किशोरों के साथ उचित व्यवहार करना (Proper dealing with the Adolescents)—– किशोर बहुत भावुक और संवेदनशील होता है। हमारे द्वारा अनजाने में भी किया गया मामूली सा गलत व्यवहार उसके लिए बहुत घातक सिद्ध हो सकता है। हमें उनकी आवश्यकताओं, रुचियों तथा आदर्शों के बारे में ठण्डे दिमाग से सोचना चाहिए। नयी पीढ़ी क्या चाहती है और समय की मांग क्या है, इस आधार पर ही हमें परामर्श और ताड़ना इत्यादि देनी चाहिए। अपनी इच्छाओं, मान्यताओं और आदर्शों को उनके ऊपर नहीं थोपना चाहिए। व्यर्थ में ही हर समय उनकी आलोचना करते रहने से हम किशोरों की सहानुभूति खो बैठते हैं तथा वे हमें अपना शुभचिन्तक न समझ कर अपने मार्ग में रोड़ा मानने लगते हैं। अतः माता पिता तथा अध्यापकों को अपने और उनके बीच जो पीढ़ियों का अन्तर है उसे समझने की चेष्टा करनी चाहिए। किशोरों को आलोचकों की आवश्यकता नहीं, बल्कि ऐसे आदर्श व्यक्तियों की आवश्यकता है जिनके व्यवहार का वे अनुकरण कर सकें। उन्हें ऐसे माता-पिता और अध्यापकों की आवश्यकता है जो उनकी आवश्यकताओं और समस्याओं पर ध्यान दे सकें तथा उनके आत्म-सम्मान तथा स्वतन्त्र दृष्टिकोण की यथासम्भव रक्षा करते हुए उन्हें पूरा-पूरा स्नेह दे सकें और पथ-प्रदर्शन कर सकें।

5. संवेगों का प्रशिक्षण और संवेगात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति (Training of Emotions and Satisfaction of Emotional Needs)— किशोरों में संवेगों का वेग बहुत अधिक प्रबल होता है। इनके संवेगात्मक व्यवहार में अस्थिरता एवं अपरिपक्वता भी देखने को मिलती है। उनके संवेगों को भड़का कर जल्दी ही उन्हें तोड़-फोड़ और विध्वंसात्मक कार्यों में लगाया जा सकता है। फलस्वरूप विभिन्न राजनैतिक दल अपने निहित स्वार्थी की पूर्ति के लिए उन्हें आसानी से काम में लाते देखे जा सकते हैं। इस दृष्टिकोण से किशोरों की संवेगात्मक शक्तियों को रचनात्मक मोड़ दिया जाना अति आवश्यक हो जाता है। इसके अतिरिक्त किशोरों की संवेगात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति करना भी आवश्यक होता है। अतः माता-पिता और गुरुजनों द्वारा किशोरों को अपने वय समूह या मित्र- मण्डली में भली- भान्ति आत्मसात् होने में पूरी-पूरी सहायता करनी चाहिए। उन्हें बड़ों तथा अपनी उम्र के साथियों से उचित प्रशंसा और प्रतिष्ठा प्राप्त होने के लिए अनुकूल अवसर प्रदान किए जाने चाहिएं तथा अपनी आवश्यकतानुसार उचित स्वतन्त्रता सुरक्षा, प्रोत्साहन और स्नेह मिलते रहना चाहिए।

6. किशोरों की विभिन्न रुचियों की पूर्ति करना (To take care of the Special Interests of the Adolescents)—- किशोरों की रुचियों और अभिरुचियों में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। अतः उनके उचित । विकास के लिए उनकी क्या-क्या रुचियां और अभिरुचियां हैं, इसका समुचित ज्ञान होना अति आवश्यक है। इसी ज्ञान के आधार पर उन्हें विभिन्न रुचिकर क्रियाओं (Hobbies) तथा पाठान्तर क्रियाओं में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। पाठ्यक्रम में किशोरों की भिन्न-भिन्न रुचियों और अभिरुचियों की पूर्ति के लिए भिन्न-भिन्न विषयों और क्रियाओं की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि वे अपनी प्रवृत्ति और योग्यताओं के अनुकूल उपयोगी कार्यों में भाग ले सकें। उनकी जिज्ञासा, घुमक्कड़ और साहसिक प्रवृत्ति की सन्तुष्टि के लिए भ्रमण (Excursions), एन० सी० सी०, पवर्तारोहण तथा वैज्ञानिक अनुसन्धान आदि कार्यों की सहायता ली जा सकती है। उनके आदर्शों और मानवतावादी दृष्टिकोण को समाज सेवा और राष्ट्रीय कार्यों में अच्छी तरह उपयोग में लाया जा सकता है। इस तरह से उनकी अपनी रुचि और अभिरुचि के अनुकूल कार्य करने के अवसर दे कर उन्हें भली-भान्ति विकास के पथ पर अग्रसर किया जा सकता है।

7. धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा प्रदान करना (Providing Religious and Moral Education)- किशोरों में बढ़ती हुई अनुशासनहीनता, चरित्रहीनता, बेचैनी और विध्वंसकारी प्रवृत्ति के मूल में एक बड़ा कारण यह भी है कि उन्हें किसी प्रकार की धार्मिक और नैतिक शिक्षा प्रदान नहीं की जाती। धर्म निरपेक्षता को सामने रखते हुए धार्मिक शिक्षा देने में अनेक शंकाएं प्रकट की जाती हैं। परन्तु विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा प्रदान की जा सकती है क्योंकि सभी धर्मों की आधारभूत बातें लगभग एक सी हैं। अगर सभी धर्मों में से उनके विशिष्ट संस्कार और रीति-रिवाजों को निकाल कर देखा जाए तो सभी धर्म चरित्र उत्थान, सद्भाव, मानवता और सामाजिक उत्तरदायित्व सम्बन्धी कर्तव्यों को लेकर आगे बढ़ते हुए दिखाई देते हैं। अतः धार्मिक शिक्षा के रूप में किशोरों को अपना चरित्र ऊंचा उठाने की. शिक्षा अवश्य प्रदान की जानी चाहिए। उन्हें धार्मिक संस्कारों और रीति-रिवाजों के भंवर जाल से मुक्त कर आदर्शों को ग्रहण करने तथा चरित्र सम्बन्धी अच्छाइयों से मुक्त होने में भरपूर सहायता मिलनी चाहिए। संत और महापुरुषों के आदर्श आचरण उनके सामने रखकर उन्हें बताए गए मार्ग पर चलने के लिए भली- भान्ति प्रेरित किया जा सकता है। परन्तु यह सब लाभ तभी उठाया जा सकता है जबकि माता-पिता तथा गुरुजन आदि अपने स्वयं के आचरण और व्यवहार द्वारा नैतिकता तथा चरित्र सम्पन्नता के उपयुक्त उदाहरण प्रस्तुत करें। अतएव माता-पिता, अध्यापकों तथा समाज के अन्य उत्तरदायित्वपूर्ण व्यक्तियों को इस दिशा में समुचित प्रयत्न करना चाहिए।

8. व्यवसायिक शिक्षा प्रदान करना (Provision for Vocational Education)- किशोर पूरी तरह से स्वतन्त्र होना चाहते हैं परन्तु इस मार्ग में खाने पीने और अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए आवश्यक धन सम्बन्धी कठिनाई आड़े आ जाती है। अतः प्रत्येक किशोर आर्थिक रूप से स्वावलम्बी बनने की कामना लिए होता है। उनका भविष्य में क्या व्यवसाय होगा, वे किस तरह अपनी रोजी रोटी कमा सकेंगे, इस तरह के प्रश्न उनके मस्तिष्क में मंडराते रहते हैं। ऐसी अवस्था में उन्हें पर्याप्त व्यावसायिक निर्देशन और उचित व्यावसायिक शिक्षा की आवश्यकता होती है। आज युवकों में जो निराशा और उद्देश्यहीनता की लहर व्याप्त है उसके मूल में व्यावसायिक शिक्षा और निर्देशन की कमी स्पष्ट दिखाई देती है। शिक्षा प्राप्त करने में ऐड़ी-चोटी का पसीना बहाने के बाद भी वे अपने आपको अपनी आजीविका कमाने में असमर्थ पाते हैं। अतः शिक्षा को प्रत्येक अवस्था और व्यवस्था में उद्योग धंधों से जोड़ने का प्रयत्न किया जाना चाहिए।

9. निर्देशन सेवाओं की व्यवस्था (Arranging Guidance Service ) — किशोरों को पर्याप्त निर्देशन और परामर्श की आवश्यकता है। इसके अभाव में वे व्यग्रता तथा उद्देश्यहीनता के शिकार हो जाते हैं। किशोरों की स्वयं अपनी बहुत समस्याएं होती हैं जिन्हें सुलझाने के लिए उन्हें समुचित सहायता की आवश्यकता होती है। अतः विद्यालयों में पर्याप्त निर्देशन और परामर्श सेवाओं की व्यवस्था की जानी चाहिए। समाज सेवा संस्थाओं द्वारा भी इसके लिए पर्याप्त प्रयत्न किया जा सकता है। किशोरों की समस्या को सुलझाने और उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ऊपर जो सुझाव दिए गए हैं, वे किसी भी तरह अपने आप में पूर्ण नहीं कहे जा सकते। कार्य बहुत पेचीदा है, इसलिए सभी दिशाओं से पूरा-पूरा प्रयत्न करने की आवश्यकता है। सभी किशोरों की अपनी-अपनी प्रकृति विशेष और परिस्थितियों के अनुसार अलग-अलग समस्याएं होती हैं; अत: उनकी आवश्यकताओं और समस्याओं से निपटने के लिए कोई सामान्य नियम और सिद्धान्त नहीं बनाए जा सकते। ऐसी अवस्था में व्यक्तिगत रूप से ध्यान दे कर उपयुक्त परामर्श एवं निर्देशन दिया जाना ही एकमात्र ऐसा उपाय है जिससे हम किशोरों को उनकी समस्याओं को सुलझाने में ठीक प्रकार से सहायता कर सकते हैं। अत: किशोर लड़के और लड़कियों को अच्छी तरह समझ कर तथा उनका विश्वास प्राप्त कर उचित मार्ग निर्देशन के लिए पूरे-पूरे प्रयत्न किये जाते रहने चाहियें।

Reference -Uma Mangal and SK Mangal 


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