After reading this article you will be able to know about
*the historic background of Buddhism.
*Important facts related to Buddhism
*Life sketch of Mahatma Buddha
*What are basic principles of Buddhism?
*What are the merits and demerits of Buddhist education system?
*What role students and teachers play in Buddhist philosophy?
Buddhism/Buddha Philosophy /Buddha Religion(बौद्धवाद/बौद्ध दर्शन/बौद्ध धर्म)
महात्मा बुद्ध का जीवनवृत्त(Life Sketch of Mahatma Buddha)
-बुद्ध के बचपन का नाम-सिद्धार्थ
-जन्म का वर्ष-563 ई.पू.
-जन्म स्थान-लुम्बिनीवन में,कपिलवस्तु से 14 मील दूर(शाक्यों के राज्य कपिलवस्तु के शासक)
-पिता का नाम-शुद्धोदन
-माता का नाम-महामाया(देवदह की राजकुमारी)
-बुद्ध की पत्नी का नाम-यशोधरा
-बुद्ध के पुत्र का नाम-राहुल
-गृह त्याग-29 वर्ष की अवस्था में
-मृत्यु स्थान-कुशीनगर,देवरिया जिला पूर्वी उत्तर प्रदेश
-बुद्ध की मृत्यु का वर्ष-483 ई.पू.
बौद्ध धर्म/दर्शन से संबंधित कुछ तथ्य(Some Facts Related to Buddhism)
1.बौद्ध धर्म के संस्थापक महात्मा बुद्ध थे।
2.महात्मा बुद्ध द्वारा गृह त्याग किए जाने को बौद्ध मतावलम्बी महाभिनिष्क्रमण कहते हैं।
3.महात्मा बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति उबला(बांधगया)में पीपल के वृक्ष के नीचे हुई थी।
4.पीपल के वृक्ष को महावृक्ष के नाम से जाना जाता है।
5.बुद्ध ने अपना पहला उपदेश 'सारनाथ'(वाराणसी) में दिया था।
6.बौद्ध परम्परा में बुद्ध के प्रथम उपदेश को धर्म चक्र प्रर्वतन के नाम से जाना जाता है।
7.बौद्ध धर्म के प्रमुख अनुयायी बिम्बसार,उदयन एवं प्रसेनजीत थे।
8.बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य(Four noble truths)अथवा सिद्धांत थे
(i)दुःख,
(ii)दु:ख सम्प्रदाय
(iii)दु:ख निरोध
(iv)दु:ख निरोध मार्ग।
9.बौद्ध साहित्य मुख्य रुप से त्रिपिटकों में समाहित है।ये त्रिपिटक हैं
(i)विनय पिटक
(ii)सुत्तपिटक
(iii)अधिगम्य पिटक
10.विनय पिटक में बौद्ध संघ के नियमों का वर्णन है।
11.सुत्तपिटक में बुद्ध के धार्मिक उपदेशों का संग्रह है।
12.अधिगम्य पिटक में बौद्ध दर्शन की चर्चा है।
13.बौद्ध धर्म के तीन प्रमुख अंग थे-बौद्ध संघ,घम्मा
(i)बौद्ध का अर्थ है-बुद्ध अर्थात् बौद्ध धर्म के संस्थापक
(ii)संघ शब्द का तात्पर्य है-बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणियों का संगठन
(iii)घम्म शब्द का अर्थ है-उनके उपदेश ।
14.बौद्ध धर्म के अष्टांगिक मार्ग (पंथ)(Ashtangika Marg/Eight fold path) हैं
(i)सम्यक् दृष्टि
(ii)सम्यक् वाक्
(iii)सम्यक् संकल्प
(iv)सभ्यक् कर्मान्त
(v)सम्यक् आजीव
(vi)सम्यक् व्यायाम
(vii)सम्यक् स्मृति
(viii)सम्यक् समाधि
15.बुद्ध,आत्मा और ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते थे।
16.बौद्ध धर्म के तीन सम्प्रदाय थे हीनयान, महायान तथा वज्रयान
17. कुषाण काल में बौद्ध धर्म दो सम्प्रदायों में विभाजित हो गया-(i) हीनयान और(ii)महायान।हीनयान सम्प्रदाय के लोग पाली भाषा प्रयोग करते थे;जबकि महायान सम्प्रदाय के लोग संस्कृत भाषा का ।
18.बौद्ध ग्रन्थों में बुद्ध की मृत्यु को 'महापरिनिर्वाण' के नाम से जाना जाता है।
19.बुद्ध के निर्वाण के दो सौ वर्षों के पश्चात् मौर्य शासक अशोक ने अपने 'धर्ममहामात्रों' के द्वारा बौद्ध धर्म को पश्चिमी एशिया,मध्य एशिया और श्रीलंका में फैलाया तथा इसे एक विश्वधर्म के रुप में स्थापित किया।
20.महात्मा बुद्ध के जीवन का उल्लेख 'ललित विस्तार' में मिलता है जो कि महायान सम्प्रदाय का ग्रंथ है।
21.बुद्ध के संबंध में नैतिक शिक्षा प्रदान कराने वाली जातक कथाएँ हैं,जो बुद्ध के पूर्व जन्म तथा बुद्धकालीन सामाजिक,आर्थिक एवं धार्मिक जीवन पर आधारित हैं।
22.जातक कथाएँ पाली भाषा में लिखी गई हैं।
23.महात्मा बुद्ध के प्रमुख शिष्य सारिपुत्र, आनन, योग्गालन एवं उपालि थे।
24.बौद्ध धर्म के अनुसार जीवन का चरम लक्ष्य निर्वाण है।
25.धम्मपद को बौद्ध धर्म की गीता कहा जाता है।
26.भगवान बुद्ध शाक्य वंश से थे।
27.धार्मिक ग्रंथों के संकलन, संघ में एकता बनाए रखना एवं धार्मिक विवादों के निदान के लिए चार बौद्ध समीतियाँ बनाई गई थीं।
28.बुद्ध की सौतेली माँ गौमती प्रजापति बौद्ध संघ में प्रवेश करने वाली प्रथम महिला थी।
29.बौद्ध धर्म के पूजा स्थल को चैत्यमण्डप के नाम से जाना जाता है।
30.सारनाथ स्थित सिंह स्तम्भ में हाथी,चार सिंह,साँड तथा घोड़ा पशु स्थित है।
31.महात्मा बुद्ध का सर्वप्रिय शिष्य आनन्द था।
बौद्ध दर्शन:ऐतिहासिक पृष्ठभूमि(Buddha Philosophy:Historical Background)
बौद्ध दर्शन वास्तव में नैतिक जीवन का दर्शन है।बौद्ध धर्म के प्रवर्त्तक गौतम बुद्ध थे।उनका बचपन का नाम सिद्धार्थ था एवं छठी शताब्दी ई.पू. में कपिलवस्तु नामक स्थान पर बुद्ध का जन्म हुआ था।बुढ़ापे एवं मृत्यु जैसे दृश्यों को देखने के उपरान्त् इनके मन में यह विश्वास बैठ गया कि संसार में केवल दुःख ही दुःख है और दुःख से मुक्ति पाने के लिए इन्होंने युवावस्था में ही घर-परिवार छोड़ संन्यास दुःख हैं धारण कर लिया और संन्यासी बनकर दुःखों के मूल कारणों को जानने का अथक प्रयास किया और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इसका प्रमुख कारण तृष्णा है।और तृष्णा पर काबू पाया जा सकता है इसके लिए उन्होंने अष्टांग मार्ग(Ashtangika Marg/Eight fold path) का मूल मंत्र दिया। बुद्ध का जीवन दर्शन मुख्य रुप से उनके अनेक प्रवचनों में संकलित है।प्राचीन काल के अन्य धर्म-उपदेशकों की तरह की महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म का प्रचार मौखिक रुप से किया।यद्यपि उन्होंने कोई पुस्तक नहीं लिखी लेकिन उनके उपदेश उनके शिष्यों को याद रहे और उनके निर्वाण के पश्चात् उनकों लिपिबद्ध करने का प्रयास किया।महात्मा बुद्ध के व्यक्तिगत अथवा निजी उपदेशों का संकलन उनके निकटतम शिष्यों के द्वारा त्रिपिटकों(Tripitakas) में हुआ है। त्रिपटकों के अन्तर्गत तीन प्रकार के पिटक आते हैं
1.विनय पिटक संघ के नियमों का संग्रह।
2.सुत्त पिटक बुद्ध के वार्तालाप एवं उपदेशों का संग्रह।
3.अधिगम्य पिटक दार्शनिक विचारों का संग्रह
बौद्ध दर्शन के अनुसार संसार दुःखों का घर है और इन दुःखों से मुक्ति अथवा छुटकारा पाने में शिक्षा सहायता करती है।बुद्ध की शिक्षाओं का मुख्य ध्येय भी प्राणी की दुःखों से मुक्ति है।बौद्ध दर्शन चार आर्य सत्यों(Four noble truths) के आधार पर विकसित होता है।ये चार आर्य सत्य हैं
1.जीवन दुःखों से भरा है।(This life is full of sorrows.)
2.इच्छाएँ दुःखों का कारण हैं।(Desires are the causes of sorrows.)
3.दुःखों का अंत संभव है(The end of sorrows is possible.)
4.दुःखों के अंत का उपाय है।(The solution to every sorrow is possible)बौद्ध दर्शन के अनुसार जब तक यह शरीर है,यह संसार है और इसके साथ मनुष्य का संबंध है तब तक किसी न किसी प्रकार का दुःख इस शरीर के साथ लगा ही रहता है और ये दुःख तब ही समाप्त हो सकते हैं जब व्यक्ति को जन्म, जरा (बुढ़ापा),मृत्यु आदि से छुटकारा प्राप्त हो।बौद्ध दर्शन के अनुसार दुःखों का मूल कारण अज्ञानता है और यदि अज्ञानता को दूर कर दिया जाए तो निश्चित तौर पर दुःखों का अंत हो सकता है और अज्ञानता का अंत केवल शिक्षा ही कर सकती है।
बौद्ध दर्शन के मूल सिद्धांत(Basic Principles of Buddhism)
बौद्ध दर्शन पूरी तरह से यथार्थ में जीने की शिक्षा देता है।इस दर्शन के तीन सिद्धांत हैं
1.अनीश्वरवाद- बुद्ध ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं रखते क्योंकि समूची दुनिया प्रतीत्यसमुत्पाद के नियम पर चलती है।प्रतीत्यसमुत्पाद का अर्थ होता है;कारण कार्य की श्रृंखला।इस श्रृंखला के कई चक्र हैं जिन्हें 12 अंगों में बाँटा गया है;अतः इस ब्रह्मांड को न तो कोई चलाने वाला है और न ही कोई उत्पत्तिकर्ता अर्थात् न तो कोई इसका प्रारम्भ है और न कोई अंत।
2.अनात्मवाद-अनात्मवाद का यह अर्थ नहीं है कि सच में 'आत्मा' नहीं है।वास्तव में जिसे लोग आत्मा समझते हैं वो तो चेतना का अविच्छिन्न प्रवाह है।यह प्रवाह कभी भी अंधकार में लीन हो सकता है।स्वयं के होने को जाने बिना आत्मवाद नहीं हुआ जा सकता एवं निर्वाण की अवस्था में ही स्वयं को जाना जा सकता है।निधन(मरने) के बाद आत्मा महासुसुप्ति में खो जाती है तथा वह अनन्तकाल तक अंधेरे में पड़ी रह सकती है या फिर तुरंत ही दूसरा जन्म लेकर संसार चक्र में शामिल हो सकती है।अतः आत्मा तब तक आत्मा नहीं जब तक बुद्धत्व घटित न हो।
3.क्षणिकवाद-क्षणिकवाद का सिद्धांत इस बात में विश्वास रखता है कि इस ब्रह्मांड में सब कुछ क्षणिक एवं नश्वर है।कुछ भी स्थायी नहीं है अर्थात् सब कुछ परिवर्तनशील है।यह शरीर और ब्रह्मांड उसी तरह है जिस तरह से घोड़े,पहिए एवं पालकी के संगठित रुप को रथ कहते हैं और इन्हें अलग करने पर रथ का अस्तित्व नहीं माना जा सकता।
बौद्ध दर्शन एवं शिक्षा के उद्देश्य(Buddha Philosophy and Aims of Education)
बौद्ध शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं
1.सम्यक् दृष्टि (ठीक देखना)/सम्मादिष्टी
2.सम्यक संकल्प (सच्चा संकल्प)/सम्मासंकल्प
3.सम्यक् वाक् (सच्चा वचन)/ सम्मावाचा 4.सम्यक् कर्मान्ति (ठीक/उचित काम करना)/सम्माकम्पन्त
5.सम्यक् आजीविका(ठीक/उचित प्रकार से आजीविका कमाना)/सम्माआजीव
6.सम्यक् व्यायाम(ठीक/उचित प्रकार से व्यायाम करना)/सम्मावायाम
7.सम्यक् स्मृति(ठीक/उचित विचार रखना)/सम्मासति
8.सम्यक् समाधि(ठीक/उचित प्रकार से मन को समन्वित करना)/सम्मासमाधि।
1.सम्यक् दृष्टि (Right Observation)
सम्यक् दृष्टि वह दृष्टि है जो मिथ्या दृष्टि को छोड़कर वस्तुओं के यथार्थ स्वरुप पर ध्यान रखती है।अविद्या के कारण ही व्यक्ति के अन्दर संसार तथा आत्मा के संबंध में मिथ्या दृष्टि पैदा होती है।बोद्ध शिक्षा के अनुसार शिक्षक का प्रथम कार्य शिष्य को सम्यक् दृष्टि प्रदान करना है जिससे कि वह मिथ्या दृष्टि से मुक्त हो सके एवं वस्तुओं के यथार्थ स्वरुप को पहचान सके।
2.सम्यक् संकल्प(Right Determination)
सम्यक् संकल्प का संबंध त्याग,परोपकार,करुणा एवं अहिसा से है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि सम्यक् संकल्प के अन्तर्गत मनुष्य को दूसरों के प्रति द्वेष भाव नहीं रखना चाहिए,हिंसा का त्याग,बुरी भावनाओं का त्याग,इन्द्रिय सुखों का त्याग एवं विभिन्न सांसारिक विषयों से विरक्ति करने का निश्चय करना चाहिए।इसके अतिरिक्त सम्यक् दृष्टि सम्यक् संकल्पों के रूप में परिवर्तित होनी चाहिए।
3.सम्यक् वाक्(Right Speech)
बौद्ध दर्शन के अनुसार सम्यक् वाक् का अर्थ है कि व्यक्ति अपने वचन से शुद्ध रहें,दूसरों की निन्दा न करें,मिथ्या एवं अप्रिय वचनों का निषेध करें। वाक् के संदर्भ में शुभ एवं अशुभ पर विशेष ध्यान दें अथवा उस पर नियन्त्रण रखें।वास्तव में सम्यक् वाक् सम्यक् संकल्प का बाहरी रुप है एवं सम्यक् वाक् उसी की अभिव्यक्ति है।सम्यक् वाक् का उद्देश्य इस बात पर विशेष बल देता है कि मनुष्य अप्रिय एवं मिथ्यावाणी का प्रयोग न करे एवं निंदा से दूर रहे।
4.सम्यक् कर्म(Right Action/Work)
सम्यक् कर्म का संबंध शुभ एवं संयमित कार्यों से है।दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि झूठ,चोरी,नशा,कामुकता,प्रसाधनों का प्रयोग एवं हिंसा आदि से संबंधित व्यवहारों से बचना एवं उनसे दूर रहना ही सम्यक् कर्म है।अहिंसा,समाज-सेवा, आज्ञापालन, प्रेमपूर्ण व्यवहार एवं सामाजिक नियमों का पालन करना ही सम्यक् कर्म है। सम्यक् संकल्प एवं सम्यक् वाणी सम्यक् कर्म के मार्ग को प्रशस्त करते हैं।
5.सम्यक् आजीविका(Right Livelihood)
सम्यक् आजीविका का अर्थ है-शुद्ध उपायों के माध्यम से जीविकोपार्जन करना।दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जीवन के निर्वाह के लिए अनुचित उपायों का त्याग एवं उचित मार्ग का पालन करना ही सम्यक् आजीविका है।सम्यक् आजीविका के अभाव में सम्यक् कर्म के उद्देश्यों को पूरा नहीं किया जा सकता।मनुष्य को रिश्वत,अत्याचार,धोखा,डकैती,लूट एवं बचाव आदि बुरे उपायों के माध्यम से जीविकोपार्जन नहीं करना चाहिए।
6.सम्यक् व्यायाम(Right Exercise)
बौद्ध दर्शन में अशुभ विचारों एवं कुसंस्कारों को रोकने से संबंधित प्रयास को सम्यक् व्यायाम कहा गया है।बौद्ध दर्शन शिक्षा के उद्देश्यों के संदर्भ में मनुष्य के नैतिक एवं बौद्धिक विकास पर विशेष बल देता है।सम्यक् व्यायाम की अवधारणा आत्म-संयम,मन को स्थिर रखने,शुभ विचारों को जागृत करने एवं इन्द्रिय नियंत्रण पर बल देती है।सम्यक् व्यायाम के संदर्भ में बुरे विचारों को रोकने से संबंधित पाँच विधियाँ बताई गई हैं
(i)किसी शुभ विचार का चिंतन करना।
(ii)यदि बुरा विचार कर्म में परिवर्तित हो जाता है तो उसके परिणाम पर चिंतन करना।
(iii)उसके कारणों का विश्लेषण करना। (iv)उसके परिणामस्वरुप होने वाले परिणामों को रोकना।
(v)शारीरिक चेष्टा एवं इन्द्रियों की सहायता से मन पर नियन्त्रण रखना।
मनुष्य को सम्यक् व्यायाम के संदर्भ में हमेशा मन में शुभ विचारों को धारण करने/रखने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।
7.सम्यक् स्मृति(Right Thinking)
सम्यक् स्मृति का है-चार आर्य सत्यों एवं बीती हुई बातों का हमेशा स्मरण करते रहना।इस दृष्टिकोण के अनुसार मनुष्य शरीर,चित्त एवं वेदना का उसके यथार्थ रूप में स्मरण रखते हैं। सम्यक् स्मृति मनुष्य को पुनः अज्ञान के अंधेरे में भटकने से रोकती है तथा उसे नवीन ज्ञान व्यवहार एवं कार्यों विशेष की ओर उन्मुख करती है।
8.सम्यक् समाधि(Right Meditation)
सम्यक् समाधि का अर्थ है-निर्वाण प्राप्त करने की प्रथम अवस्था। बौद्ध दर्शन के अनुसार यदि मनुष्य उपरोक्त सभी आचरणों का पवित्रता से पालन कर लेता है तो वह मनुष्य सम्यक् समाधि में प्रवेश करने की योग्यता को प्राप्त कर लेता है।बौद्ध दर्शन के अनुसार यह स्थिति आनन्द की स्थिति है।
बौद्ध दर्शन एवं समाधि की अवस्थाऐं(Buddha Philosophy and Stages of Samadhi)
बौद्ध दर्शन में समाधि से संबंधित चार अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है।इन चारों अवस्थाओं का संक्षेप में वर्णन निम्नलिखित है
1.प्रथम अवस्था(First Stage)-समाधि की प्रथम अवस्था के दौरान चार आर्य सत्यों पर विचार किया जाता है।इस अवस्था में मनन होता है तथा विरक्ति एवं शुद्ध विचारों द्वारा आनन्द की उत्पत्ति होती है।
2.दूसरी अवस्था(Second Stage)- समाधि की दूसरी अवस्था में विचार का स्थान सहज ज्ञान ले लेता है।तर्क-वितर्क अनावश्यक हो जाते हैं, संदेह दूर हो जाते हैं एंव चार आर्य सत्यों के प्रति श्रद्धा बढ़ जाती है। इसके अतिरिक्त इस अवस्था में चित्त में शान्ति एवं स्थिरता भी उत्पन्न होती है।
3.तीसरी अवस्था(Third Stage)- समाधि से संबंधित तीसरी अवस्था तटस्था की अवस्था है।इस अवस्था में चित्त की साम्यवस्था रहती है लेकिन समाधि के आनन्द के प्रति उदासीनता आ जाती है।
4.चौथी अवस्था(Fourth Stage)- समाधि की चौथी अवस्था वह अवस्था है जिसमें चित्त की सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है एवं सभी सुख-दु:ख नष्ट हो जाते हैं।वास्तव में समाधि की यह अवस्था वह अवस्था है जहाँ किसी भी चीज का ध्यान नहीं रहता अर्थात् यह पूर्ण रुप से विराग की अवस्था है।इस अवस्था को पूर्ण प्रज्ञा की अवस्था भी कहते हैं।
बौद्ध दर्शन से संबंधित शैक्षिक मूल्य(Educational Values Related to Buddha Philosophy)
1.हमारा संकल्प ही हमें नैतिक बनाता है।
2.ध्यान,चिंतन एवं मनन पर विशेष बल
3.सांसारिक सुखों से संबंधित तृष्णा को छोड़ने पर बल
4.सामाजिक नियमों के पालन एवं अनुशासन पर बल।
5.समूची सृष्टि हमारे संकल्प का परिणाम है।
6.उचित साधनों द्वारा व्यक्ति को अपनी आजीविका कमाने के लिए शिक्षा।
7.बौद्ध धर्म एवं व्यावहारिक जीवन की शिक्षा एक साथ देने पर बल।
8.छोटे-छोटे समूहों में शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था पर बल
9.बौद्ध शिक्षा शारीरिक स्वास्थ्य शिक्षा पर बल देती है अर्थात् बौद्ध शिक्षा के अनुसार "स्वच्छ शरीर में ही स्वस्थ्य मन निवास करता है।"
बौद्ध दर्शन/धर्म के दस आदर्श/सिद्धांत (दस सिक्खा पदानि )Ten Ideals/Principles of Buddha Philosophy(Dus Sikkha Padani)
बौद्ध धर्म के दस आदर्शों को दस सिक्खा पदानि कहते हैं तथा इस दर्शन पर आधारित शिक्षा व्यवस्था में 8 वर्ष की आयु के पश्चात् 'पब्बजा' संस्कार के बाद शिष्य(सामनेर/ श्रमण) से इन दस आदशों के अनुपालन की अपेक्षा की जाती है।
इन दस आदर्शों में शामिल हैं
1.जीव हिंसा न करना।
2.अशुद्ध आचरण से दूर रहना ।
3.असत्य भाषण (बात) न करना।
4.कुसमय आहार न करना।
5.मादक वस्तुओं का निषेध करना।
6.किसी की निंदा न करना।
7.शृंगारिक वस्तुओं का उपयोग न करना।
8.नृत्य एवं तमाशों आदि के निकट न जाना।
9.बिना दिए किसी वस्तु आदि को ग्रहण न करना।
10.सोना,चाँदी एवं बहुमूल्य पदार्थों आदि का दान न लेना।
बौद्ध शिक्षा प्रणाली के प्रमुख गुण(Main Merits of Buddhist Education System)
बौद्ध शिक्षा प्रणाली से संबंधित कुछ प्रमुख गुणों की विवेचना निम्न प्रकार की जा सकती है
1.शिक्षा संघों(Sanghas) के केन्द्रीय नियंत्रण में थी।
2.शिक्षा के स्वरुप एवं प्रशासन में एकरुपता थी।
3.प्राथमिक शिक्षा की निःशुल्क उपलब्धता थी।
4.उच्च शिक्षा में योग्यता के आधार पर प्रवेश एवं इस स्तर पर छात्रों से शुल्क लेने का प्रावधान था।
5.सभी प्रकार की शिक्षा एवं उसके उचित प्रबंधन के लिए मठों एवं विहारों की स्थापना की गई थी।
6.सभी वर्णों के बच्चों के लिए योग्यता के आधार पर शिक्षा प्रदान करने का अधिकार था।
7.शिक्षा से संबंधित व्यापक उद्देश्यों को निर्धारित किया गया था।
8.गुरु एवं शिष्य का अनुशासित जीवन एवं दोनों के लिए नियमों का कठोरता से पालन करना अनिवार्य था।
9.शिक्षण की विभिन्न विधियों के साथ स्वाध्याय विधि का विकास।
10.शिक्षा के उचित विकास के लिए सुसंगठित शिक्षा केन्द्रों की स्थापना एवं उस समय की लोकभाषा पाली को शिक्षा का माध्यम बनाना
11.शिक्षा से संबंधित संस्कार प्रधान पद्धति की व्यवस्था एवं विकास
12.कला-कौशल एवं व्यवसाय से संबंधित शिक्षा की उचित व्यवस्था
13.मानवतावादी शिक्षा/दर्शन के विकास के लिए धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा पर बल।
14.गुरु एवं शिष्यों के बीच आत्मीय संबंध एवं कर्त्तव्यों के पालन में पूर्ण निष्ठा का होना।
बौद्ध शिक्षा से संबंधित विशेषताएँ एवं तथ्य(Characteristics and Facts Related to Buddhist Education) बौद्ध शिक्षा से संबंधित कुछ विशेषताओं एवं तथ्यों को निम्न प्रकार सूचीबद्ध किया जा सकता है
1.बौद्ध धर्म के नियमों पर बल देना।
2.बौद्ध धर्म का प्रचार करना।
3.चरित्र निर्माण करना।
4.व्यक्तित्व का विकास करना
5.मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान का विकास करना।
6.शिक्षा से संबंधित संस्कारों को सम्पादित करना।
7.व्यावसासिक शिक्षा की व्यवस्था करना।
8.शिक्षा के माध्यम के रूप में पाली एवं लोकभाषा प्रयोग करना।
9.मठों एवं विहारों के माध्यम से शिक्षा प्रदान करना।
10.शिक्षा की समाप्ति पर उपसम्पदा संस्कार को सम्पादित करना।
बुद्ध शिक्षा के कार्य(Functions of Buddhist Education)
बौद्ध शिक्षा के कार्यों की विवेचना निम्न प्रकार से की जा सकती है
1.निर्वाण की प्राप्ति के लिए सच्चे ज्ञान का विकास करना।
2.चरित्र निर्माण एवं विनयपूर्ण व्यवहार में प्रशिक्षित करना ।
3.कला-कौशल एवं व्यवसाय से संबंधित शिक्षा प्रदान करना।
4.मानव संस्कृति का संरक्षण एवं उसका विकास करना।
5.व्यक्ति को बुरे कार्यों से दूर रखना।
6.मानवमात्र का कल्याण करना तथा दया एवं करुणा पर बल देना।
7.सामाजिक आचरण की शिक्षा प्रदान करना।
बौद्ध शिक्षा प्रणालीःसंरचना एवं संगठन (Buddhist Education System: Structure and Organisation)
बौद्ध शिक्षा प्रणाली से संबंधित संरचना एवं संगठन का वर्णन निम्नलिखित है
1.प्राथमिक शिक्षा(Primary Education)-बौद्ध शिक्षा प्रणाली का पहला स्तर प्राथमिक शिक्षा थी।इस शिक्षा की व्यवस्था बौद्ध मठों एवं विहारों में की जाती थी।यह शिक्षा 6 वर्ष की आयु से प्रारम्भ होती थी और 12 वर्ष की आयु तक चलती थी।
2.उच्च शिक्षा(Higher Education)- उच्च शिक्षा का प्रारम्भ प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के पश्चात् होता था।उच्च शिक्षा में प्रवेश के लिए छात्रों को प्रवेश परीक्षा देनी होती थी एवं उसमें उत्तीर्ण हुए अर्थात् योग्य छात्रों को ही उच्च शिक्षा में प्रवेश दिया जाता था।उच्च शिक्षा सामान्यतः 12 वर्ष की आयु से प्रारम्भ होती थी और 20-25 वर्ष तक की आयु तक चलती रहती थी।बौद्ध शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक शिक्षा के बाद उच्च शिक्षा का प्रावधान था।
3.भिक्षु शिक्षा(Bhikshu/Monk Education)-भिक्षु शिक्षा उन छात्रों के लिए थी जो उच्च शिक्षा प्राप्त (ग्रहण) करने के पश्चात् बौद्ध धर्म के प्रचार एवं प्रसार से संबंधित कार्य में लगना चाहते थे। भिक्षु शिक्षा की सामान्यतः अवधि 8 वर्ष की थी।भिक्षु शिक्षा में छात्रों को प्रवेश उपसम्पदा संस्कार के बाद दिया जाता था।इस शिक्षा को पूरी करने के पश्चात् छात्र भिक्षु कहलाते थे और वे धर्म प्रचार तथा शिक्षण से संबंधित कार्यों को सम्पादित करते थे।इसके अलावा यदि कोई भिक्षु दर्शन में विशिष्ट ज्ञान अर्थात् विशेषज्ञता प्राप्त करना चाहता था तो उसके (उनके) लिए यह प्रावधान था कि वह भिक्षु शिक्षा पूरी करने के उपरान्त् अपनी शिक्षा को और अधिक वर्षों तक जारी रख सकता था।
बौद्ध शिक्षा के प्रमुख केन्द्र(Main Centers of Buddhist Education)
बौद्ध शिक्षा से संबंधित प्रमुख शिक्षा केन्द्रों की संक्षिप्त विवेचना निम्नलिखित है
1.नालन्दा (बिहार प्रांत के पटना नगर से 75 कि.मी. की दूरी पर स्थित)
2.तक्षशिला(उस समय गंधार की राजधानी।वर्तमान में पाकिस्तान के रावलपिंडी शहर से 31 कि.मी. दूरी पर स्थित)
3.विक्रमशिला(बिहार में मगध के गंगातट पर एक पहाड़ी के ऊपर स्थित)
4.बल्लभी(वर्तमान गुजरात प्रान्त के काठियावाड़ के निकट स्थित)
5.मिथिला(ब्राह्मण शिक्षा का केन्द्र,मध्य भारत में)
6.जगद्दल विहार(बंगाल-रामवती नगर )
7.औदन्तपुरी(पाल राजाओं द्वारा विकास,मध्य भारत में )
8.नदिया/नवद्वीप(नदिया 11वीं सदीं में बंगाल के सेन सम्राटों द्वारा भागीरथी एवं जलांगी के संगम पर बसाया गया था।यह न्याय एवं तर्क का प्रमुख केन्द्र था।)
9.घटिका(यह छोटे स्तर के ज्ञान एवं धर्म का केन्द्र(ब्राह्मण शिक्षकों की बस्तियाँ)था,स्थान मैसूर)
10.अग्रहार(विद्वानों का गाँव था,स्थान मैसूर)
11.ब्रह्मपुरी(यह ज्ञान तथा धर्म की शिक्षा से संबंधित बड़ा केन्द्र था,स्थान मैसूर)
12.सारनाथ(वाराणसी के निकट)
13.काँची-दक्षिण भारत में स्थित।
बौद्ध शिक्षा एवं संस्कार(Buddhist Education and Rituals)
बौद्ध काल में शिक्षा से संबंधित संस्कार निम्नलिखित हैं
1.पब्वजा( प्रव्रज्या )संस्कार छात्रों के प्रवेश से संबंधित (Pababja Ritual/Sanskar-Related to Admission)-बौद्ध मठों एवं विहारों में सभी जातियों के बच्चों के लिए शिक्षा का प्रावधान था। प्राथमिक शिक्षा में प्रवेश के समय छात्र की आयु 6 वर्ष निर्धारित थी। बालक(छात्र)को प्रवेश के समय अर्थात् प्रवेश से पूर्व कुछ प्रथाओं को निभाना पड़ता था।पब्बजा(प्रव्रज्या) बौद्ध संघों की एक मान्य प्रथा थी और प्रवेश के समय इस प्रथा का निर्वाह अर्थात् छात्र का पब्वजा संस्कार होता था।पब्बजा संस्कार एवं इसकी विधि के संदर्भ में बौद्ध ग्रंथ महावग्ग में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है।पब्बजा का अर्थ है-बाहर जाना अर्थात् बर्हिगमन।जब बच्चे शिक्षा ग्रहण करने हेतु परिवार को छोड़कर मठ एवं विहार में जाते थे।तो शिक्षा के लिए मठ एवं विहार में प्रवेश के समय होने वाले संस्कार को पब्वजा संस्कार कहा जाता था।इस संस्कार की प्रक्रिया में सबसे पहले छात्र का सिर मुंडवाया जाता था एवं उसके पश्चात् उसके द्वारा पहने हुए घर के वस्त्रों को उतारकर उसे पीत (पीले) वस्त्र पहनाए जाते थे।पीले वस्त्र पहनने के पश्चात् उसे पठ के सर्वोच्च भिक्षु के समक्ष साक्षात्कार हेतु उपस्थित होना पड़ता था।वह अपने मस्तक से सर्वोच्च भिक्षु के चरण स्पर्श करता था एवं उसके बाद वह उसके सम्मुख जमीन पर पालथी मारकर बैठ जाता था।तत्पश्चात् बालक भिक्षु के समक्ष संघ में प्रवेश देने के लिए निवेदन करता था।बालक के निवेदन के उपरान्त मठ का सर्वोच्च भिक्षु बालक को उचित विधि-विधान के साथ पीताम्बर वस्त्र पहनकर उससे तीन प्रणों को स्पष्ट रूप से ऊँचे स्वर में उच्चारित करवाता था।इन तीन प्रणों को सरणत्रय(शरणत्रयी) कहा जाता था। ये तीन प्रण थे
# बुद्धं शरणम् गच्छामि(I take refuge in the Buddha),
# धर्म शरणम् गच्छामि(I take refuge in the Dharma),
# संघ शरणम् गच्छामि(I take refuge in the Sangha).
इन तीनों प्रणों का स्पष्ट रूप से उच्चारण करवाने के पश्चात् उसे संघ में प्रवेश की अनुमति प्रदान कर दी जाती थी।संघ में प्रवेश के पश्चात् बालक 'सामनेर' अथवा 'श्रमण' कहलाता था।इसके बाद भिक्षु (गुरु) सामनेर अथवा श्रमण (शिष्य) को दस उपदेश देता था।इन दस उपदेशों को 'दस सिक्खा पदानि' कहा जाता था।सामनेर इन दस उपदेशों के पालन का प्रण लेता था।इस व्यवस्था के अनुसार संघ में प्रवेश करने वाले प्रत्येक छात्र को अपने समस्त पारिवारिक एवं सांसारिक बंधनों का परित्याग करना अनिवार्य होता था।संघ में प्रवेश बालक के माता-पिता की स्पष्ट अनुमति के आधार पर ही होता था तथा ऐसे बालकों का संघ में प्रवेश वर्जित था जो कि विकलांग,क्षय,कोढ़,चर्मरोग एवं अन्य संक्रामक रोगों से ग्रस्त होते थे। सामनेर के लिए यह नितांत आवश्यक था कि वह अनिवार्य रूप से 'दस सिक्खा पदानि' अर्थात् दस उपदेशों का निष्ठापूर्वक पालन करे।
2.उपसम्पदा संस्कार -भिक्षु शिक्षा में प्रवेश से संबंधित(Upsampada Ritual-Related to the Education of Monks(Bhikshu)-बौद्ध काल में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् छात्रों के पास दो विकल्प उपलब्ध थे।पहला विकल्प तो यह था कि वे अपनी उच्च शिक्षा प्राप्त करके अपने गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर सकते थे और दूसरा विकल्प यह था कि वे भिक्षु शिक्षा ग्रहण करें। भिक्षु शिक्षा उन छात्रों के लिए उपलब्ध थी जो बौद्ध धर्म से संबंधित प्रचार एवं प्रसार के कार्य में लगना चाहते थे और इसकी सामान्यतः अवधि 8 वर्ष की थी।किंतु भिक्षु शिक्षा में प्रवेश से पहले छात्रों की पुनः प्रवेश परीक्षा होती थी।परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् छात्र को 8 प्रतिज्ञाएँ लेनी होती थी।इस प्रक्रिया को उपसम्पदा संस्कार कहा जाता था और इस संस्कार के सम्पादित होने पर ही छात्र को भिक्षु शिक्षा में प्रवेश मिलता था।
उपसम्पदा संस्कार की प्रक्रिया(Process of Upsampada Ritual)
उपसम्पदा संस्कार दस भिक्षुओं (उपाध्यायों) की उपस्थिति में सम्पन्न होता था।इस प्रक्रिया में सबसे पहले छात्र (श्रमण)भिक्षु का वेश धारण करता था और फिर उसके पश्चात् वह इन दस भिक्षुओं के समक्ष उपस्थित होता था,उन्हें प्रणाम करता था एवं आज्ञा मिलने पर हाथ जोड़ कर बैठ जाता था।उन उपस्थित भिक्षुओं में से एक भिक्षु छात्र (श्रमण)का परिचय कराता था तथा अन्य भिक्षु उससे (छात्र से) प्रश्न पूछते थे। प्रश्नों के उत्तर देने पर अर्थात् परीक्षा में सफल होने पर छात्र (श्रमण)आठ प्रतिज्ञाएँ करता था।इन प्रतिज्ञाओं को करने के पश्चात् छात्र (श्रमण) को भिक्षु शिक्षा में प्रवेश मिल जाता था।इसकी (भिक्षु शिक्षा की) समयावधि 8 वर्ष की थी।भिक्षु शिक्षा में छात्र अपने गुरु का चयन स्वयं करता था।भिक्षु शिक्षा प्राप्त करने के बाद छात्र पूर्ण भिक्षु कहलाता था एवं उसे अध्यापन एवं धर्म शिक्षा के योग्य मान लिया जाता था।लेकिन इन कार्यों के सम्पादन के संदर्भ में उसे आजीवन अविवाहित रहना होता था और संघ से संबंधित विभिन्न नियमों का कठोरता से पालन करना होता था।यदि कोई भिक्षु इस संदर्भ में अपनी असमर्थता प्रकट करता तो उसे यह अधिकार था कि वह भिक्षु संघ से अलग हो सकता था।छात्र (श्रमण) द्वारा की जाने वाली आठ प्रण / प्रतिज्ञाएँ(Eight Pledges Related to Student/Shraman)
1.वृक्ष (पेड़) के नीचे निवास करना।
2.भिक्षा मांग कर भिक्षापात्र में ही भोजन करना।
3.भिक्षा के माध्यम से प्राप्त साधारण वस्त्र ही पहनना।
4.औषधि के रूप में केवल गौमूत्र का सेवन करना ।
5.चोरी न करना।
6.हत्या न करना।
7.मैथुन न करना एवं
8.अलौकिक शक्तियों का दावा न करना।
बौद्ध दर्शन तथा छात्र(Buddhist Philosophy and Student)
बौद्ध दर्शन इस अवधारणा में विश्वास रखता है कि सभी छात्र बराबर नहीं होते।प्रत्येक छात्र की अध्ययन संबंधी क्षमताएँ एक सी नहीं होती।इसलिए अध्यापक द्वारा ऐसी क्रियाओं का संयोजन किया जाना चाहिए जिससे कि प्रत्येक छात्र को उसके स्तर के अनुरुप शिक्षा दी जा सके।बौद्ध दर्शन यह मानकर चलता है कि प्रत्येक छात्र अपने आप में विशिष्ट है और छात्र के भावी विकास से संबंधित क्षमताएँ उसके वर्तमान में ही निहित हैं अर्थात् भावी कार्यों एवं उन्नति से संबंधित बीज वर्तमान में विद्यमान होते हैं।बौद्ध दर्शन जातिगत भेदों का विरोध करता है तथा सभी व्यक्तियों(मनुष्यों) को शिक्षा सुलभ कराना चाहता है।बिना ज्ञान के दुःखों से छुटकारा नहीं पाया जा सकता है और इस संदर्भ में शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य का अधिकार है।बौद्ध दर्शन की यह मान्यता है कि प्रत्येक छात्र का वर्तमान अस्तित्व उसके पूर्व जन्म के कर्मों तथा परिवार एवं समाज से प्राप्त संस्कारों पर निर्भर करता है तथा उसका भविष्य उसके वर्तमान पर निर्भर होता है।बौद्ध काल में छात्रों को श्रमण अथवा सामनेर कहा जाता था।इनका मठों एवं विहारों में रहना अनिवार्य था तथा इन्हें मूल रूप से दस आदर्शों अर्थात् दस सिक्खा पदानि का पालन करना होता था।
बौद्ध दर्शन और शिक्षक(Buddhist Philosophy and Teacher)
बौद्ध दर्शन में शिक्षक का स्थान विशेष एवं महत्त्वपूर्ण है।शिक्षक चरित्र की दृष्टि से उच्च स्तर के होने चाहिए तथा वह व्यक्ति ही शिक्षक बन सकता है जिसने चार आर्य सत्यों को समझ लिया अर्थात् आत्मसात् कर लिया है तथा जो स्वयं अपने जीवन को अष्टांग मार्ग के अनुरुप व्यतीत करता है।बौद्ध दर्शन में शिक्षक को आचार्य एवं उपाध्याय के नाम से जाना जाता था। आचार्य का कार्य छात्रानुशासन रखना अर्थात् छात्रों के चरित्र एवं व्यवहार को निर्देशित करना था।आचार्य को कर्माचार्य भी कहा जाता था;जबकि उपाध्याय का कार्य अध्ययन-अध्यापन से संबंधित होता था अर्थात् छात्रों को पवित्र पुस्तकों एवं सिद्धांतों से संबंधित ज्ञान देना होता था। बुद्धघोषाल के अनुसार आचार्य के स्तर की अपेक्षा उपाध्याय का स्तर उच्च होता था। उपाध्याय के लिए विद्वान एवं योग्य होना भी नितांत आवश्यक था;अतः यह कहा जा सकता है कि बौद्ध शिक्षा पद्धति में प्रत्येक छात्र को दो विशेष प्रकार के शिक्षकों के नियंत्रण में रहना पड़ता था जो उसके शारीरिक,मानसिक,नैतिक एवं सामाजिक विकास के लिए उत्तरदायी होते थे।इसमें शिक्षक से भी यह उपेक्षा की जाती थी कि वह छात्रों द्वारा उठाई गई किसी भी प्रकार की शंका का समाधान अथवा निवारण करने में सक्षम हो।बौद्ध दर्शन में अध्यापक से संबंधित कुछ विशेष गुणों का उल्लेख किया गया है,जिनमें प्रमुख हैं
1.सहायता करने वाला अर्थात् सहायता करने की योग्यता
2.कुशाग्र बुद्धि वाला।
3.शिक्षित एवं मेधावी ।
4.नैतिक क्रियाओं से संबंधित प्रवीणता।
5.ज्ञानी एवं आत्मचिंतक ।
6.तीव्र स्मृति वाला।
7.समस्याओं एवं शंकाओं का निराकरण करने वाला।
8.सरल,सभ्य एवं पाप से डरने वाला।
9.व्यवहारकुशल एवं विनयशील।
10.धर्म के मार्ग पर चलने वाला।
11.शिक्षा प्रदान करने एवं छात्रों को प्रशिक्षण प्रदान करने में सक्षम होना।
12.बौद्धिक एवं आध्यात्मिक निर्देशन प्रदान करने वाला।
13.शिक्षक से संबंधित सभी दायित्वों एवं कर्त्तव्यों का निर्वाह करने वाला
शिक्षक स्वयं पाठ करता था एवं उसके पश्चात् छात्र शिक्षक का अनुसरण करके स्वयं अध्ययन करते पढ़ते थे।इसके अतिरिक्त शिक्षा के उचित विकास के लिए मठों में विशेषज्ञों को भी आमन्त्रित किया जाता था।
बौद्ध दर्शन और पाठ्यक्रम(Buddhist Philosophy and Curriculum)
बौद्ध दर्शन से संबंधित पाठ्यक्रम को निम्न प्रकार से वर्णित किया जा सकता है
1.लौकिक पाठ्यक्रम(Mundane/Earthy Curriculum)-लौकिक पाठ्यक्रम सामान्य पाठ्यक्रम था जो साधारण नागरिकों के लिए था।इस पाठ्यक्रम का मुख्य उद्देश्य लोगों को अच्छा नागरिक बनाना तथा उन्हें अपनी आजीविका कमाने के लिए योग्य बनाना था।लौकिक पाठ्यक्रम में निम्न विषयों का समावेश था
• सामान्य विषयों में गणित,शास्त्रार्थ एवं लेखन।कला एवं कौशलों में विभिन्न प्रकार की शिल्प कलाएँ,जैसे- छपाई,वस्तुकला, कातना,बुनना,मूर्तिकला,संगीत एवं चित्रकला आदि।शारीरिक शिक्षा के संदर्भ में विभिन्न प्रकार के खेल एवं व्यायाम आदि।व्यावसायिक शिक्षा एवं विषयों के संदर्भ में-पशुपालन,कृषि अथवा खेती तथा चिकित्सा आदि से संबंधित विषय ।
2.धार्मिक पाठ्यक्रम(Religious Curriculum)-यह पाठ्यक्रम भिक्षुओं एवं भिक्षुणियों से संबंधित था।वास्तव में इस धार्मिक पाठ्यक्रम का उद्देश्य भिक्षुओं एवं भिक्षुणियों के अन्दर निर्वाण प्राप्त करने से संबंधित योग्यताओं का विकास करना होता था।इसके अतिरिक्त धार्मिक पाठ्यक्रम का अध्ययन इस संदर्भ एवं तथ्य को ध्यान में रखकर कराया जाता था जिससे कि धर्म से संबंधित योग्य प्रचारकों को तैयार किया जा सके।धार्मिक पाठ्यक्रम में निम्न विषयों का अध्ययन अपेक्षित था
1.बौद्ध मठों एवं विहारों के निर्माण से संबंधित व्यावहारिक ज्ञान
2.चार आर्य सत्यों का सम्पूर्ण ज्ञान ।
3.बौद्ध साहित्य का अध्ययन।
4.बुद्ध एवं अन्य संतों के जीवन एवं चरित्र से संबंधित अध्ययन।
5.बौद्ध साहित्य से संबंधित त्रिपिटकों का ज्ञान एवं अध्ययन।
6.तुलनात्मक ज्ञान के लिए साहित्य विशेष का अध्ययन आदि।
3.बौद्ध दर्शन की विभिन्न विधायें (Various Forms of Buddhist Philosophy)-बौद्ध दर्शन के अन्तर्गत बौद्ध मठों एवं बौद्ध विहारों में निम्न पाँच प्रकार की विधाओं का अध्ययन कराया (किया) जाता था शब्द विधा के अन्तर्गत शब्द निर्माण, शब्द व्युत्पत्ति एवं व्याकरण से संबंधित ज्ञान प्रदान किया जाता था।
1.शिल्प विधा
2.शब्द विधा
इस विधा के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार की शिल्प कलाएँ एवं उद्योग से संबंधित कलाओं का समावेश होता था।
3.चिकित्सा विधा-चिकित्सा विधा के अन्तर्गत औषधि विज्ञान एंव शरीर विज्ञान से संबंधित ज्ञान प्रदान किया जाता था।
4.हेतु विधा-हेतु विधा के अन्तर्गत तर्कशास्त्र से संबंधित अध्ययन का समावेश होता था।
5.आध्यात्मिक विधा-आध्यात्मिक विधा के अन्तर्गत बौद्ध दर्शन तथा अन्य दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता था।
बौद्ध दर्शन एवं विद्यालय(Buddhist Philosophy and School)
बौद्ध दर्शन में विद्यालय के रुप में बौद्ध विहारों अथवा बौद्ध मठों का प्रचलन था।शिक्षा प्रदान करने का कार्य बौद्ध विहारों एवं बौद्ध मठों के माध्यम ही संचालित किया जाता था।
बौद्ध दर्शन एवं अनुशासन(Buddhist Philosophy and Discipline)
बौद्ध दर्शन नैतिक अनुशासन पर विशेष बल देता है। नैतिक एवं आध्यात्मिक अनुशासन के संदर्भ में चार आर्य सत्यों एवं अष्टांग पथ को विशेष महत्त्व दिया गया है। प्रत्येक छात्र के लिए अनुशासन के दृष्टिकोण से इन सभी का पालन एवं व्यावहारिक उपयोग करना जरुरी था ।
बौद्ध दर्शन एवं पाठ्य सहगामी क्रियाएँ(Buddhist Philosophy and Co-curricular Activities)
बौद्ध दर्शन विभिन्न विषयों के अतिरिक्त कुछ पाठ्य सहगामी क्रियाओं को भी पाठ्यक्रम में विशेष स्थान देता था।इन पाठ्य सहगामी क्रियाओं में शामिल हैं
1.पैमानों का अनुमान लगाना।
2.मोहरों से खेल।
3.धनुष-बाण प्रतियोगिताएँ आयोजित करवाना।
4.तुरही बजाना।
5.गेंद से खेलना।
6.रेखाचित्र बनाना।
7.भूमि पर आकृतियाँ बनाना।
8.चौपड़ खेलना।
9.रथों की दौड़ का आयोजन करना ।
10.नकली पवन चक्कियों का निर्माण करना आदि।
बौद्ध शिक्षा प्रणाली के प्रमुख दोष/अवगुण(Demerits/Disadvantages of Buddhist Education System)
बौद्ध शिक्षा प्रणाली से संबंधित दोषों/अवगुणों को निम्न प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है
1.कठोर नियम एवं अनुशासन ।
2.शिक्षा केन्द्रों की कठोर जीवन शैली एवं पद्धति ।
3.धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा के रुप में बौद्ध धर्म की शिक्षा देना।
4.शिक्षा में समानता का अधिकार लेकिन स्त्रियों की शिक्षा के लिए विशेष प्रबंध का अभाव।
5.शिक्षा से संबंधित उद्देश्यों में संतुलन का अभाव
6.शिक्षा का अमनौवैज्ञानिक गठन अर्थात् शिक्षा को केवल प्राथमिक एवं उच्च स्तर में विभाजित किया गया था।
7.छात्र केन्द्रित शिक्षण विधियों का अभाव।
8.हस्तकार्य के प्रति घृणा करना
9.कट्टर विचारों पर बल ।
10.लौकिक जीवन की अवहेलना ।
11.शिक्षा में बौद्ध धर्म के नियमों पर अधिक बल
Reference -Dr Naresh Kumar Yadav