प्राथमिक शिक्षा शिक्षा की नींव है। राष्ट्रीय प्रगति की आधारशिला है और व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास का मार्ग भी खोलती है। जे.पी. नायक के शब्दों में, "प्राथमिक शिक्षा की प्रगति समूचे देश की सामान्य, सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक प्रगति की सूचक है।"
यही कारण है कि भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व भी इसे अनिवार्य बनाने के लिये प्रयास किए जाते रहे। 1893 में सीया जी राय गायकवाड़ ने अपने क्षेत्र के 52 गांवों में अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के लिए प्रयास किए। 1906 में एक अधिनियम के द्वारा 7 से 12 वर्ष तक की आयु के लड़कों तथा 7 से 10 वर्ष तक की आयु की लड़कियों के लिए प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य बना दी गई। गोपाल कृष्ण गोखले ने 1910-11 में एक विधेयक पास करवाकर भारत में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाए जाने का प्रयास किया पर सफलता नहीं मिली। 1918 में पटेल ने बम्बई राज्य की व्यवस्थापिका में ऐसा ही एक विधेयक रखा जो अधिनियम तो बना ही, उसके प्रभाव के कारण प्राथमिक शिक्षा सारे देश में अनिवार्य घोषित कर दी गई। 1930 तक अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का विकास धीरे-धीरे होता रहा पर हर्यांग समिति के आने के बाद इस दिशा में कार्य कुछ रुक सा गया क्योंकि इसने प्राथमिक शिक्षा के संख्यात्मक पक्ष की अपेक्षा गुणात्मक पक्ष पर अधिक बल दिया।
1937 में प्रान्तीय स्वशासन का कार्य-भार कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों ने सँभाल लिया और उनके कार्यभार संभालते ही इस ओर पुनः ध्यान दिया जाने लगा। ये मन्त्रिमण्डल कम से कम समय में सर्वव्यापी, निःशुल्क व अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का विस्तार करने के लिए कृतसंकल्प थे। गांधी जी ने अपनी बेसिक शिक्षा योजना प्रस्तुत करके इन मन्त्रिमण्डलों को अपने इस संकल्प को पूरा करने का सही मार्ग दर्शन प्रदान किया।
बेसिक शिक्षा महात्मा गांधी की देन है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अंग्रेजों ने हमें शिक्षा के प्रति जागरूक किया। परन्तु जिस शिक्षा का विधान उन्होंने हमारे लिए किया वह उनकी दृष्टि से तो उपयुक्त थी लेकिन हम भारतीयों की दृष्टि से बड़ी दोषयुक्त थी। इन दोषों को दूर करने के लिए बेसिक शिक्षा का निर्माण हुआ।
तत्कालीन शिक्षा पद्धति के दोष (Defects of Prevalent System of Education Scheme)
15 अगस्त, 1947 को हमारा देश स्वतन्त्र हुआ। इससे पहले देश में अंग्रेजों का राज्य था। अंग्रेजों ने जिस शिक्षा का विधान किया उसके दो उद्देश्य थे-पहला उद्देश्य था शासन कार्य चलाने के लिए अंग्रेजी पढ़े-लिखे बाबू तैयार करना और दूसरा उद्देश्य था भारतीयों को अंग्रेजी संस्कृति में रंगने का। इसके लिए उन्होंने अंग्रेजी भाषा के अध्ययन पर सबसे अधिक बल दिया। शिक्षा के माध्यम को भी अंग्रेजी बनाया गया। परिणामतः अधिकतर भारतीय शिक्षा से वंचित रह गए। जिन्होंने यह शिक्षा प्राप्त की वे अंग्रेजी संस्कृति में रंग गए और ऐसे रंगे कि उससे उन्हें आज भी छुटकारा नहीं मिल रहा है। इस प्रकार तत्कालीन शिक्षा-प्रणाली में निम्नलिखित दोष थे :
(1) यह शिक्षा पुस्तकीय, सैद्धान्तिक, संकुचित एवं परीक्षा प्रधान थी। इससे उनके ज्ञान में वृद्धि तो होती थी परन्तु इसका व्यावहारिक मूल्य बहुत कम था।
(2) यह शिक्षा हमें वास्तविक जीवन के लिए तैयार करने में असमर्थ थी।
(3) न तो इससे हमारा शारीरिक विकास होता था न मानसिक, न चारित्रिक, न सामाजिक तथा न ही आध्यात्मिक ।
(4) यह शिक्षा हमें किसी उत्पादन, उद्योग अथवा व्यवसाय सम्बन्धी योग्यता प्रदान करने में भी असफल रही है।
(5) इस शिक्षा में बच्चे की रुचि, रुझान, योग्यता एवं आवश्यकताओं का कोई ध्यान नहीं रखा जाता था। सभी बच्चों को समान विषयों का अध्ययन करना आवश्यक होता है और उनमें अंग्रेजी का सबसे बड़ा महत्त्व था।
(6) यह शिक्षा व्यवसाय भी थी। इसके द्वार कुछ धनी वर्ग के लोगों के लिए ही खुले थे। जनसाधारण से यह दूर थी।
(7) यह शिक्षा हमें भारतीय संस्कृति से दूर करके अंग्रेजी संस्कृति में रंगती थी।
(8) इस शिक्षा को प्राप्त करने के पश्चात् लोग शारीरिक श्रम से घृणा करने लगते थे। आज भी यह बात देखने में आती है। थोड़ी अंग्रेजी पढ़ी कि अपने हाथ से कार्य करने में शर्म आने लगी। परिणामतः लोग श्रम से दूर हुए।
(9) इस शिक्षा के कारण ही गांवों के उद्योग-धंधे नष्ट होने लगे।
ऐसी स्थिति में देश की संस्कृति तथा गौरव को बचाने के लिए एक ऐसी शिक्षा खोजने की आवश्यकता थी जो स्वावलम्बी, कर्तव्यपरायण, एक कर्मनिष्ठ नागरिकों का निर्माण करे। युग सृष्टा महात्मा गांधी का ध्यान इस क्षेत्र में भी गया तथा परिणामस्वरूप बुनियादी शिक्षा का श्री गणेश हुआ।
बेसिक शिक्षा योजना का विकास (Development of Basic Education Scheme)
इस शिक्षा के सूत्रधार महात्मा गांधी थे और यह योजना उनके अनुभवी मस्तिष्क की उपज थी। गांधी जी केवल एक महान राजनीतिज्ञ ही नहीं थे, एक महान दार्शनिक एवं शिक्षा शास्त्री भी थे। वे जानते थे कि राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के कार्य में शिक्षा महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। अतः जैसे ही 1937 में अनेक राज्यों में कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने प्रान्तीय शासन संभाला, उन्होंनें 'हरिजन' नामक पत्रिका में अपने शिक्षा संबंधी लेख प्रकाशित करने आरम्भ कर दिये। इन लेखों का उद्देश्य भारतवासियों का ध्यान जन शिक्षा की ओर आकर्षित करना था। गांधी जी के यही लेख बेसिक शिक्षा योजना का आधार बने। उनके शिक्षा सम्बन्धी विचार सर्वथा भौलिक थे। उनका कहना था कि "साक्षरता न तो शिक्षा का आरम्भ है और न ही अन्त। यह तो उन साधनों में से एक है जिसके द्वारा पुरुषों व स्त्रियों को शिक्षित किया जा सकता है।" (Literacy is neither the end of education nor even the beginning. It is one of the means whereby men and women may be educated.)
यही नहीं, गांधी जी यह भी चाहते थे कि शिक्षा बच्चों को आरम्भ से ही स्वावलम्बी बनाए। वह उसे केवल साक्षर ही नहीं बनाए, जीवन में उसके लिए उपयोगी भी सिद्ध हो। इसके लिए वह बच्चे को कोई न कोई हस्तशिल्प सिखाए जाने के पक्षधर थे। उनके इस प्रकार के शिक्षा सम्बन्धी विचारों ने देशभर में हलचल मचा दी। कुछ इसका समर्थन कर रहे थे तो कुछ विरोध। इन दोनों पक्षों को लेकर असाधारण वाद-विवाद आरम्भ हो गया। अतः गांधी जी ने यह निश्चय किया कि वह अपनी शिक्षा योजना की जांच शिक्षा विशेषज्ञों से कराएंगे। अतः 'अखिल भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा' सम्मेलन बुलाया गया।
यह सम्मेलन 'वर्धा शिक्षा सम्मेलन' के नाम से भी जाना जाता है। इस सम्मेलन में देश के विभिन्न भागों से आए शिक्षा विशेषज्ञों, समाज सुधारकों व राष्ट्रीय नेताओं ने भाग लिया। सम्मेलन की अध्यक्षता गांधी जी ने की। उन्होंने सम्मेलन में भाग ले रहे महानुभावों को अपने शिक्षा सम्बन्धी विचारों से अवगत कराया और उनके समक्ष विचार हेतु अपनी बेसिक शिक्षा योजना रखी। उनकी इस योजना पर गम्भीर विचार-विमर्श किया गया और निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किए गए :
1. राष्ट्र के प्रत्येक बच्चे को 7-14 वर्ष तक निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान की जाए।
2. शिक्षा मातृ-भाषा के माध्यम से दी जाए।
3. इस सम्पूर्ण अवधि में शिक्षा किसी हस्तशिल्प एवं उत्पादक कार्य के माध्यम से दी जाए। अन्य विषयों को उसी शिल्प के माध्यम से पढ़ाया जाए। बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा उसके वातावरण के साथ सम्बन्धित हो।
4. सम्मेलन को आशा है कि इस प्रकार की शिक्षा से धीरे-धीरे अध्यापकों का वेतन निकलने लगेगा।
पाठ्यक्रम तैयार करने के लिए जाकिर हुसैन कमेटी का गठन (Formation of Zakir Hussain Committee to prepare the Curriculum)
अखिल भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन में उपर्युक्त प्रस्ताव तो पारित किए ही गए, एक और समिति का गठन भी किया गया। इस समिति के अध्यक्ष डॉ. जाकिर हुसैन थे। उनके नाम से यह समिति जाकिर हुसैन समिति के नाम से भी जानी जाती है। इस समिति का उद्देश्य एक पाठ्यक्रम तैयार करना था जो कि वर्धा शिक्षा सम्मेलन में पारित प्रस्तावों के अनुरूप हो। समिति ने अपनी प्रथम रिपोर्ट दिसम्बर 1937 में प्रस्तुत की। इसमें बेसिक शिक्षा योजना के आधारभूत सिद्धांतों, उद्देश्यों, पाठ्यक्रम, अध्यापक एवं उनका प्रशिक्षण तथा विद्यालयों के प्रशासन एवं निरीक्षण आदि विषयों की चर्चा की गई। दूसरी रिपोर्ट अप्रैल 1938 में प्रस्तुत की गई। इसमें उन उपायों की विवेचना की गई जिनसे पाठ्यक्रम को हस्तशिल्प या किसी उत्पादक कार्य के साथ जोड़ा जाए।
समिति की प्रथम रिपोर्ट को फरवरी 1938 में कांग्रेस के अधिवेशन में विचार विमर्श के बाद कांग्रेसी योजना के रूप में स्वीकृति दे दी गई। एक अखिल भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् का भी गठन किया गया। यह परिषद हिन्दुस्तानी तालीम संघ के नाम से भी जानी जाती है। इस संघ या परिषद का उद्देश्य बेसिक शिक्षा योजना को क्रियान्वित करना था। बेसिक शिक्षा योजना की मुख्य बातें (Main Points of Basic Education)
(i) निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा (Free and Compulsory Education): बेसिक शिक्षा 7 से 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करती है। इस प्रकार इस शिक्षा की अवधि 7 वर्ष है। गांधी जी ने न्यूनतम सार्वभौमिक शिक्षा पर बल दिया।
(ii) शिक्षा का माध्यम-मातृभाषा (Medium of Instruction should be Mother Tongue) : यदि बच्चा ठीक से पढ़-लिख सकता है और प्रभावशाली ढंग से बोल सकता है तभी उसके व्यक्तित्व का सही विकास हो सकता है। ऐसा तभी संभव है जब उसे अपनी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा दी जाए। बेसिक शिक्षा की दूसरी मुख्य बात यह है कि यह बच्चे को उसी की मातृभाषा में ज्ञान देने पर बल देती है।
(iii) शिक्षा किसी शिल्प के माध्यम से (Education through any Craft): बेसिक शिक्षा इस बात पर बल देती है कि बच्चे को जो भी सिखाया जाए किसी शिल्प के माध्यम से सिखाया जाए। कताई-बुनाई, कृषि तथा लकड़ी का काम जैसे हस्तशिल्पों पर इसमें विशेष जोर दिया गया है। यह शिल्प सिखाते-सिखाते उसे भूगोल, विज्ञान तथा गणित आदि विषय भी पढ़ाये जायेंगे। उदाहरण के लिए कताई-बुनाई में बच्चे को साथ-साथ यह बताया जा सकता है कि कपास का उत्पादन कहां-कहां होता है, उसके लिए कैसी जलवायु की आवश्यकता है। कपड़े की रंगाई आदि के संदर्भ में विज्ञान के तथ्यों का स्पष्टीकरण किया जा सकता है और तैयार माल को बेचने पर जो मिला और कच्चे माल को खरीदने में जो पैसा लगा था उसमें कितना अंतर रहा, कितना लाभ या हानि हुई, इस संदर्भ में बच्चा गणित का ज्ञान भी स्वयं ही प्राप्त करता चला जाता है। इस प्रकार बेसिक शिक्षा शिल्प को आधार बनाकर बच्चे को सब विषयों का ज्ञान कराने पर बल देती है।
(iv) सीखने व कमाने पर बल (Stress on Learning and Earning) : यह शिक्षा "Learn while you earn and earn while you learn" के सिद्धांत पर आधारित है। गांधी जी का मत था कि शिक्षा बच्चे को स्वावलम्बी बनाए, आत्मनिर्भर बनना सिखाए। इसलिए बेसिक शिक्षा इस बात पर बल देती है कि बच्चे को जो भी शिल्प सिखाए जाएं इतनी अच्छी प्रकार से सिखाए जाएं कि बच्चों द्वारा तैयार माल को बेचकर उससे विद्यालय का कुछ खर्चा निकाला जा सके।
बेसिक शिक्षा की रूप रेखा के आधारभूत सिद्धांत (Fundamental Principles of the Outline of Basic Education)
बेसिक शिक्षा गांधी जी के जीवन दर्शन पर आधारित है। गांधी जी आदर्शवादी व्यक्ति थे। वे ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते थे तथा इसीलिए उसके अंश मनुष्य-मनुष्य में अन्तर नहीं करते थे। उनकी दृष्टि में सभी व्यक्ति परमात्मा के अंश हैं और इसीलिए समान हैं। गांधी जी ने सत्य को ईश्वर का रूप माना और उसकी प्राप्ति के लिए प्रेम और अहिंसा को साधन। इस प्रकार सत्य, प्रेम और अहिंसा उनके जीवन दर्शन के आधार हैं परन्तु गांधी जी केवल ईश्वरवादी ही नहीं थे, वे भौतिक जगत में भी विश्वास करते थे। उनकी दृष्टि में वह शिक्षा अपूर्ण है जो बच्चों का शारीरिक, मानसिक तथा चारित्रिक विकास न करे। उनके विचार के अनुसार शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो बच्चों को अपनी आजीविका कमाने की क्षमता प्रदान करे। यही कारण है कि गांधी जी केवल साक्षरता (Literacy) को शिक्षा नहीं कहते थे।
गांधी जी शिक्षा को प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे तथा किसी भी प्रकार की भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति के लिए उसे उतना ही आवश्यक समझते थे जितना बच्चे के शारीरिक विकास के लिए माँ का दूध। यही कारण है कि उन्होंने निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा पर बल दिया। गांधी जी बच्चों की मातृ भाषा के महत्त्व को समझते थे और यह भी समझते थे कि मातृभाषा के अध्ययन द्वारा ही हम अपनी संस्कृति को बचा सकते हैं। इसलिए उन्होंने मानसिक दासता प्रदान करने वाली अंग्रेजी के स्थान पर विचार-विनिमय की सबसे सरल एवं उपयुक्त साधन मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया। गांधी जी स्वावलम्बी व्यक्ति थे इसलिए उन्होंनें करके सीखने तथा शिक्षा को स्वावलम्बी बनाने पर बल दिया। ये हस्तशिल्प वह बच्चों के जीवन से चुनने के पक्ष में थे। ऐसी कोई शिक्षा जो बच्चों के वास्तविक जीवन से सम्बन्धित न हो, गांधी जी के ये आधारभूत विचार ही बेसिक शिक्षा के आधारभूत सिद्धांत हैं।
गांधी जी की बेसिक शिक्षा के मूलभूत सिद्धांतों की सूक्ष्म व्याख्या (Brief Explanation of the Fundamental Principles of Gandhi's Basic Education)
1) जैसे कि बेसिक शिक्षा की रूपरेखा में बताया गया है कि 6-14 वर्ष की आयु तक के बच्चों के लिए शिक्षा अनिवार्य, सार्वभौमिक तथा निःशुल्क होनी चाहिए। इस का कारण यह है कि मनुष्य अन्य प्राणियों से इस दृष्टि से भिन्न होता है कि शिक्षा द्वारा उसकी मूल-प्रवृत्तियां (Basic Instincts) का उदात्तीकरण (Sublimation) हो जाता है और वह पशुवत् व्यवहार छोड़ कर ऐसा व्यवहार करने लगता है जिससे उसके तथा उसके साथियों का जीवन सरल तथा सुखमय हो जाता है। शिक्षा के अभाव में मनुष्य पशु से अधिक और कुछ नहीं बन सकता। इस प्रकार मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए शिक्षा एक अनिवार्य आवश्यकता है। लोकतंत्र की सफलता तो निर्भर ही शिक्षा पर करती है। एक पश्चिमी विद्वान् के इस कथन में कितनी सत्यता है ।
2) शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होना चाहिए इस कथन में भी बहुत दम है। किसी भी बच्चे के जीवन में उसकी मातृभाषा का महत्त्व होता है। मातृ भाषा को बच्चा जन्म के कुछ दिन बाद ही सीखने लगता है तथा सहज में ही उसका इस पर अधिकार हो जाता है। इसलिए प्रत्येक बच्चा जितनी सरलता से अपनी मातृ भाषा में विचार-विनिमय करता है, उतनी सरलता से अन्य भाषा के माध्यम से नहीं कर पाता। इस कारण से मातृभाषा को ही शिक्षा का माध्यम बनाना चाहिए और बेसिक शिक्षा में इसको बनाया गया है इतना ही नहीं अपितु मातृभाषा बच्चे के मानसिक एवं बौद्धिक विकास का साधन होती है। गांधी जी ने मानसिक विकास के लिए मातृभाषा को उतना ही महत्त्वपूर्ण साधन माना है जितना शारीरिक विकास के लिए माँ का दूध ।
3) शिक्षा किसी हस्तकार्य अववा उद्योग पर केन्द्रित होनी चाहिए बेसिक शिक्षा का तीसरा सिद्धांत है-सम्पूर्ण शिक्षा को किसी हस्तकार्य अथवा उद्योग पर केन्द्रित करना। अंग्रेजी शिक्षा ने हमें शारीरिक श्रम से विमुख कर दिया था। इसलिए गांधी जी ने हस्तकार्य अथवा उद्योग को अनिवार्य विषय बताया और शिक्षा की समस्त क्रियाओं को उस पर केन्द्रित कर दिया। प्रारम्भ से ही श्रम करने वाले बच्चे श्रम से घृणा करने के स्थान पर उसके महत्त्व को समझने लगते हैं। इससे समाज में श्रमिकों और धनी वर्ग के बीच खाई पटती है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी यह एक उपयुक्त सिद्धांत है। क्रिया द्वारा सीखना एक स्थायी सिद्धांत होता है। बच्चों में रचनात्मक प्रवृत्ति होती है। वे हर समय कुछ न कुछ करते रहना चाहते हैं। उनकी रचनात्मक प्रवृत्ति को क्रियाशील रखने एवं उसे विकसित करने के लिए शिक्षा को हस्तकार्य एवं उद्योग पर केन्द्रित करना चाहिए। इस प्रकार सीखने से बच्चे की इन्द्रियां क्रियाशील रहती हैं। इस प्रकार से सीखा हुआ ज्ञान स्थायी होता है।
4) शिक्षा स्वावलम्बी होनी चाहिए गांधी जी के विचार से भारत वर्ष जैसे निर्धन देश में प्रत्येक बच्चे को शिक्षा देना तब तक सम्भव नहीं हो सकता जब तक कोई ऐसा रास्ता नहीं मिलता कि बच्चे अपनी पढ़ाई का खर्च स्वयं निकाल सकें। इसीलिए गांधी जी ने अपनी बेसिक शिक्षा में अनिवार्य हस्तकला अथवा उद्योग कार्य की सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक उपयोगिता के साथ-साथ गौण रूप में उसकी आर्थिक उपयोगिता पर भी विचार किया और यह आशा व्यक्त की कि बच्चों द्वारा निर्मित वस्तुओं के विक्रय से होने वाले लाभ से कम से कम अध्यापकों का वेतन तो निकल आए। इस स्थिति में ही शिक्षा सबके लिए सुलभ हो सकती है। यह सिद्धांत इस बात पर भी बल देता है कि शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् बच्चे देश के स्वावलम्बी नागरिक बनें और देश के आर्थिक उत्थान में योगदान दें। स्वावलम्बियों के देश से ही शोषण अथवा हिंसा समाप्त हो सकती है।
(5) शिक्षा बालक के जीवन से सम्बन्धित होनी चाहिए शिक्षा को पुस्तकीय, सैद्धांतिक एवं अव्यावहारिक होने के बजाए वास्तविक जीवन से सम्बन्धित होनी चाहिए। शिक्षा में उन्हीं विषयों एवं कियाओं का समावेश होना चाहिए जिनका बच्चों के जीवन में उपयोग होता हो और जो उसे समायोजन करने में सहायक होती हों। बेसिक शिक्षा बच्चों की मूल प्रवृत्तियों के अनुसार उसे 'करके सीखने' में सहायक होती है क्योंकि यह उसके लिए अवसर प्रदान करती है। हस्तकार्य अथवा उद्योग का चयन करने में भी बच्चों की रुचि, रुझान, योग्यता एवं आवश्यकता का ध्यान रखा जाता है।
(6) शिक्षा बच्चे को आदर्श नागरिक बनाने में सहायक होनी चाहिए गांधी जी मनुष्य-मनुष्य में भेद नहीं करते थे। उनका विश्वास था कि किसी प्रकार का भौतिक अथवा आध्यात्मिक सुख प्राप्त करने के लिए मनुष्य को प्रेम, सहानुभूति और सहयोगपूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहिए। इसके लिए उसका स्वास्थ्य अच्छा होना चाहिए, मन और मस्तिष्क अच्छा होना चाहिए और उसके पास चरित्र बल भी होना चाहिए। बेसिक शिक्षा योजना बच्चों को कर्मनिष्ठ एवं कर्तव्यपरायण बनाने पर बल देती हैं, यह शारीरिक तथा श्रम के भेद-भाव को भी समाप्त करना चाहती है। यह तो वर्गविहीन समाज के निर्माण का उद्देश्य सामने रख कर आगे चलती है। यह एक ऐसे समाज की रचना करना चाहती है जिसमें प्रत्येक सदस्य अपनी शक्तियों का विकास कर अपनी सामर्थ्यानुसार अपने अपने और समाज के कल्याण में हाथ बंटा सके। ऐसे नागरिकों के निर्माण से ही वर्गहीन एवं शोषण से मुक्त समाज के निर्माण की आशा की जा सकती है।
गांधी जी के विचार से शोषण की प्रवृत्ति हिंसा की प्रवृत्ति है। हमें इस हिंसा का त्याग करना चाहिए। हमें दूसरे के अस्तित्व को खतरे में डालने का कोई अधिकार नहीं है। यदि हम ऐसा करते हैं तो दूसरे भी हमारे लिए ऐसा ही करेंगे। परिणामस्वरूप सभी का जीवन कष्टमय हो जाएगा। अतः आवश्यकता इस बात की है कि हम प्रेम, सहानुभूति और सहयोग का रास्ता अपनाएं तभी हम शोषणमुक्त समाज की कल्पना कर सकते हैं। यही सत्त्य है और यही अहिंसा। इसलिए कुछ व्यक्ति बेसिक शिक्षा को अहिंसात्मक शिक्षा पुकारते हैं।
(7) ज्ञान एक इकाई के रूप में दिया जाना चाहिए गांधी जी 'अनेकता में एकता' (Unity in diversity) के सिद्धांत को मानते हैं। उनके विचार से समस्त ज्ञान का एक ही लक्ष्य है और वह सत्य है, अर्थात् ईश्वर की प्राप्ति है और उसके लिए उन्होंने अहिंसा को साधन माना था और इसीलिए उनकी बेसिक शिक्षा में अहिंसा की प्राप्ति का यत्न है। गांधी जी और उनके साथियों ने पाठ्यचर्या के समस्त विषयों को समन्वित रूप से पढ़ाने पर बल दिया। शिक्षा को किसी हस्तकौशल अथवा उद्योग से सम्बन्धित करके एक इकाई के रूप में दिया जा सके। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी ज्ञान पूर्ण इकाई होता है। उसे बच्चों के सामने संगठित रूप में ही प्रस्तुत करना चाहिए।
बेसिक शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Basic Education)
(i) नागरिकता के गुणों का विकास (Development of the Qualities of Citizenship):
बेसिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य उनमें अच्छी नागरिकता के गुणों का विकास करना है। उसमें अपने अधिकारों व कर्त्तव्यों के प्रति जागरूकता पैदा करना है ताकि वे अच्छे नागरिक के रूप में तैयार हो सकें।
जाकिर हुसैन समिति के अनुसार, "नई पीढ़ी को कम से कम इस बात का अवसर अवश्य मिलना चाहिए कि वह अपनी समस्याओं, अधिकारों व कर्तव्यों को समझे।"
(ii) नैतिक विनास (Moral Development): जैसे-जैसे व्यक्ति में भौतिकता की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है वैसे-वैसे नैतिक मूल्यों में गिरावट आने लगती है। गांधी जी तो चरित्र को बहुत ऊंचा स्थान देते थे। उनके शब्दों में, "मैंने सबसे ऊँचा स्थान हृदय की संस्कृति या चरित्र निर्माण को दिया है और मुझे अनुभव हुआ है कि सबको समान रूप से नैतिक शिक्षा दी जा सकती है।" इसीलिए उनकी बेसिक शिक्षा का एक उद्देश्य बच्चों का नैतिक विकास करना भी है। जब बच्चा स्वयं किसी उत्पादक कार्य में भाग लेते हुए सीखता है तो उसके चरित्र की स्वयमेव उन्नति होने लगती है। इससे उसमें अच्छे नैतिक मूल्यों का विकास होने लगता है।
(iii) आर्थिक उद्देश्य (Economic Aim): यह भी इस शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है। इस उद्देश्य के दो पहलू हैं :
(a) बच्चा अपने शिक्षा काल में जिन वस्तुओं का उत्पादन करता है उनको बेचकर कम से कम अध्यापकों के वेतन का खर्च तो निकल सके।
(b) शिक्षा की समाप्ति के बाद भी बच्चा इन कार्यों को जारी रख सकता है और इसके माध्यम से कुछ धन कमाकर अपना खर्चा निकाल सकता है।
(iv) सर्वोदय समाज की स्थापना (To Establish Sarvodya Samaj) : सर्वोदय समाज गांधी जी का सपना था। वे एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे जिसमें सबका उदय अर्थात् सबकी उन्नति हो। कोई किसी का शोषण न करे और सबको आगे बढ़ने के समान अवसर प्राप्त हों। बेसिक शिक्षा का उद्देश्य ऐरो ही सर्वोदय समाज की स्थापना करना था, क्योंकि इसमें सभी बच्चे, चाहे वे किसी भी स्तर के परिवार से आये हों, किसी न किसी शिल्प को सीखेंगे, किसी न किसी उत्पादन कार्य में अवश्य भाग लेंगे। इससे उनमें आरम्म से ही श्रम के प्रति निष्ठा पैदा होगी। वे हाथ से काम करने वाले को छोटा नहीं समझेंगे बल्कि उन्हें पूर्ण सम्मान देंगे। दूसरे परिश्रमी व्यक्ति जीवन में कभी असफलता प्राप्त नहीं करता। अतः बेसिक शिक्षा का उद्देश्य सर्वोदय समाज की स्थापना करना कहा जा सकता है।
(v) सांस्कृतिक विकास (Cultural Development): गांधी जी भारतीय संस्कृति की महानता में विश्वास करते थे, इसलिए वे अपनी बेसिक शिक्षा के द्वारा बच्चों में भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को प्रतिष्ठित करना चाहते थे। उनके अनुसार- "यदि किसी स्थिति पर जाकर एक पीढ़ी अपने पूर्वजों के प्रयत्नों के प्रति अनजान हो जाती है या किसी रूप में अपनी संस्कृति पर लज्जा का अनुभव करने लगती है तो वह संस्कृति नष्ट हो जाती है।" इसीलिए गांधी जी ने शिक्षा का माध्यम मातृभाषा को बनाने तथा कताई-बुनाई जैसे भारतीय शिल्पों की शिक्षा पर बल दिया। इस प्रकार बेसिक शिक्षा का एक उद्देश्य सांस्कृतिक विकास करना कहा जा सकता है।
पाठ्यक्रम (Curriculum)- बेसिक शिक्षा में पांचवी कक्षा तक लड़के व लड़कियों के लिए समान पाठ्यक्रम की व्यवस्था की गई है। जहां प्रादेशिक भाषा हिन्दी है वहां हिन्दी के माध्यम से और जहां अन्य कोई भाषा है वहां उसी भाषा के माध्यम से शिक्षा दी जाएगी। इसके पाठ्यक्रम में निम्नलिखित विषयों को सम्मिलित किया गया है-
(1) आधारभूत शिल्प :
कृषि
कताई-बुनाई
लकड़ी का काम
मिट्टी का काम
चमड़े का काम
मछली पालन
फल व सब्जी उगाना ।
लड़कियों के लिए शिल्प : गृह विज्ञान ।
2) मातृ-भाषा (3) गणित (4) सामाजिक अध्ययन : इसके अन्तर्गत इतिहास, भूगोल व नागरिक शास्त्र जैसे विषय पढ़ाए जाने की व्यवस्था है। (5) सामान्य विज्ञान : इसके अन्तर्गत निम्न विषयों का शिक्षण किया जा सकता है-प्रकृति अध्ययन, वनस्पति विज्ञान, जीव विज्ञान, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, नक्षत्र विज्ञान, महान् वैज्ञानिकों व अन्वेषकों की कहानियां । (6) कला : संगीत तथा रेखा चित्रण आदि। (7) जहां हिन्दी मातृ-भाषा नहीं है वहां हिन्दी भी पढ़ाई जानी चाहिए। (8) शारीरिक शिक्षा । गांधी जी की बेसिक शिक्षा में धार्मिक शिक्षा को कोई स्थान नहीं दिया गया। कक्षा 6 व 7 में जाकर लड़कियों को आधारभूत शिल्प का चुनाव करने की आवश्यकता नहीं है। वे गृहविज्ञान में ही उच्च पाठ्य विषय ले सकती हैं। इस प्रकार बेसिक शिक्षा का पाठ्यक्रम बहुत विस्तृत है। बेसिक शिक्षा के पाठ्यक्रम पर आलोचनात्मक विश्लेषण (Critical Analysis of Basic Education Curriculum) बेसिक शिक्षा का पाठ्यक्रम भारतीयों की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति तथा एक वर्गहीन समाज के निर्माण के लिए तैयार किया गया है। बेसिक शिक्षा 6-14 आयुवर्ग के बच्चों के लिए है। इसलिए इसका पाठ्यक्रम इसी आयुवर्ग के बच्चों की रुचि, रुझान तथा योग्यता आदि को ध्यान में रखकर बनाया गया है। बेसिक शिक्षा में किसी हस्तकार्य अथवा उद्योग को केन्द्र बनाया जाता है। इसलिए पाठ्यक्रम में सबसे मुख्य स्थान हस्तकला अथवा उद्योग को ही दिया जाता है। इसी प्रकार मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया गया है। दूसरे स्थान पर इसको रखा जाता है जो बिल्कुल उचित है। बेसिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में उपयोग में आने वाले विषयों का समावेश है। परन्तु कुछ शिक्षा विशेषज्ञों को इसमें अंग्रेजी का अभाव खटकता है। इसका कारण यह है कि जो व्यक्ति भाषा की दृष्टि से आज भी अंग्रेजों का गुलाम है और जिसको यह मिथ्या-भ्रम है कि बिना अंग्रेजी के समस्त ज्ञान-विज्ञान का ज्ञान नहीं हो सकता। परन्तु वास्तविकता यह है कि संसार के अनेक भागों में अंग्रेजी के बिना ही समस्त ज्ञान-विज्ञान सुरक्षित है। हमें भी अपनी मातृभाषा को समृद्ध करना चाहिए। परन्तु यहां एक समस्या आती है और वह यह है कि भारतीयों की तो मातृभाषाएं भी अनेक हैं। इसलिए आज मातृभाषा के स्थान पर राष्ट्रभाषा का प्रयोग किया जाने लगा है। राष्ट्रभाषा होने का गौरव हिन्दी को प्राप्त है। इसलिए आज के युग में हिन्दी की शिक्षा पर बल दिया जाना चाहिए। बेसिक शिक्षा की एक और अच्छी विशेषता यह है कि इसके पाठ्यक्रम में केवल विषयों को ही नहीं अपितु क्रियाओं को भी स्थान दिया गया है। हस्तकला तथा उद्योग से सम्बन्धित क्रियाओं के अतिरिक्त इसमें प्राकृतिक निरीक्षण, राष्ट्रीय और सामाजिक महत्त्व के उत्सवों को मनाना आदि शामिल हैं। शारीरिक विकास के लिए खेल-कूद एवं व्यायाम की क्रियाओं का भी विशेष महत्त्व है। बेसिक शिक्षा में कक्षा 5 तक लड़के तथा लड़कियों सभी के लिए समान पाठ्यक्रम होता है लेकिन कक्षा 6 से लड़कियां आधारभूत 'शिल्प के स्थान पर गृह-विज्ञान ले सकती हैं। यह एक उचित निर्णय है। सातवीं और आठवीं कक्षा में संस्कृत, वाणिज्य एवं आधुनिक भारतीय भाषाओं आदि की शिक्षा की भी व्यवस्था है। शिक्षण विधियां (Teaching Methods) बेसिक शिक्षा में जिन शिक्षण विधियों का समर्थन किया गया है वे पूरी तरह मनोवैज्ञानिक हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार खेल द्वारा सीखना, क्रिया एवं अनुभव द्वारा सीखना, सीखने की सर्वोत्तम विधियां हैं। बेसिक शिक्षा में पाठ्यक्रम के अन्तर्गत जिन विषयों को सम्मिलित किया गया है वे विषय अलग-अलग नहीं पढ़ाए जाएंगे वरन् आधारभूत शिल्प के साथ जोड़कर उसी के माध्यम से उन सब की जानकारी दी जाएगी। उदाहरण के लिए फल व सब्जी उगाने का आधारभूत शिल्प यदि बच्चे के पास है तो उसे यह कार्य करते-करते बताया जाएगा कि देश के किन भागों में किन फलों व सब्जियों का उत्पादन अधिक होता है। उनके लिए किस प्रकार की जलवायु की आवश्यकता है किन फलों का निर्यात होता है, फलों की रासायनिक प्रक्रिया भी उन्हें बताई जा सकती है, पर्यावरण को शुद्ध बनाए रखने में पेड़-पौधों का क्या महत्त्व है यह ज्ञान भी दिया जा सकता है। स्वास्थ्य वितान की शिक्षा भी इसी के साथ दी जा सकती है। जैसे बच्चों को बताया जा सकता है कि व्यक्ति को स्वस्थ बनाए रखने में फलों व सब्जियों की क्या भूमिका है। इसी प्रकार वनस्पति विज्ञान, जीव विज्ञान तथा प्रकृति अध्ययन की शिक्षा भी आसानी से दी जा सकती है। तथा ऐसे ही अन्य शिल्पों के साथ भी विभिन्न विषयों को जोड़कर पढ़ाया जा सकता है। यदि ऐसा लगे कि किसी विषय को किसी शिल्प के साथ जोड़कर पढ़ाना सम्भव नहीं है तो उसे अलग से पढ़ाया जा सकता है। इस प्रकार बेसिक शिक्षा में बच्चा रुचि के साथ कार्य करते हुए विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है। भाषा ज्ञान के विषय में इस शिक्षा में निम्न पद्धति अपनाने पर बल दिया गया है: (i) सर्वप्रथम भाषा का मौखिक ज्ञान कराया जाए। (ii) उसके बाद पढ़ना सिखाया जाए। (iii) सबसे बाद में लिखने का ज्ञान दिया जाए। बस, ध्यान रहे कि आधारभूत शिल्प की शिक्षा साथ-साथ चलेगी अध्यापक (Teacher) बेसिक शिक्षा अध्यापकों को महत्त्वपूर्ण स्थान देती है। यह इस बात पर बल देती है कि जिस क्षेत्र के विद्यालय के लिए अध्यापक का चुनाव करना है उसी क्षेत्र से ही अध्यापकों का भी चुनाव किया जाए। इस पद्धति में महिलाओं की अध्यापक के रूप में नियुक्ति को प्राथमिकता दी जाती है। बेसिक शिक्षा संस्थाओं में केवल उन्हीं अध्यापकों की नियुक्ति सम्भव है जो प्रशिक्षित हों। प्रशिक्षण विद्यालयों में प्रवेश पाने के लिए या तो व्यक्ति मैट्रिक पास होना चाहिए और या वर्नाक्यूलर परीक्षा पास करने के बाद उसे दो वर्ष का किसी विद्यालय में अध्यापन का अनुभव होना चाहिए। यह प्रशिक्षण भी दो प्रकार का होगा : (i) दीर्घकालीन प्रशिक्षण (ii) अल्पकालीन प्रशिक्षण । दीर्घकालीन प्रशिक्षण की अवधि तीन वर्ष एवं अल्पकालीन की एक वर्ष होगी। इस प्रशिक्षण के दौरान छात्राध्यापकों को उन सभी विषयों को पढ़ाने का प्रशिक्षण दिया जाएगा जो बेसिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैं। बेसिक शिक्षा तथा अन्य शैक्षिक प्रणालियां (Basic Education and other Educational Systems) बेसिक शिक्षा गांधी जी के जीवन दर्शन पर आधारित है और उसकी जो रूपरेखा बनाई गई है उसका सबसे बड़ा उद्देश्य सत्य और अहिंसा के सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। संसार की सच्चाई एक ही बिन्दु पर केन्द्रित होती है, इसलिए बेसिक शिक्षा प्रणाली का व्यावहारिक रूप संसार में निर्मित शिक्षण की अन्य प्रणालियों से बड़ा मेल खाता है। कुछ व्यक्ति तो यहां तक कहते हैं कि बेसिक शिक्षा में कोई नवीनता नहीं है। जिन सिद्धान्तों पर बेसिक शिक्षा आधारित है उन सब सिद्धान्तों की उपयोगिता अन्य शिक्षा प्रणालियों में स्वीकार की गई है। यहां हम इसके प्रमाण में निम्नलिखित उदाहरण प्रस्तुत करते हैं : (1) बेसिक शिक्षा में पुस्तकीय एवं सैद्धान्तिक शिक्षा के स्थान पर 'बच्चों को स्वयं के अनुभव' (Learning by Self Experiencing) तथा 'करके सीखना' (learning by doing) पर बल दिया जाता है। शिक्षा जगत में यह नारा आज से लगभग 200 वर्ष पूर्व रूसो (Rousseau) ने भी दिया था। (2) बेसिक शिक्षा में बच्चों की रुचि, रुझान, योग्यता एवं आवश्यकताओं को विशेष ध्यान दिया गया है। शिक्षा के क्षेत्र में यह नारा जर्मन शिक्षा शास्त्री पैस्टालोजी (Pestalozzi) ने भी लगाया था। 3) शिक्षा को किसी हस्तकार्य अथवा उद्योग पर आधारित करने का विचार भी पुराना विचार है। फ्रोबल (Froebel) ने अपनी किण्डर गार्टन प्रणाली में खेल-विधि को सबसे अधिक महत्त्व दिया और अपनी शिक्षण पद्धति में सृजनात्मक तथा उत्पादन कार्यों एवं उद्योग को प्रधानता दी थी। हां, यह बात अवश्य है कि बेसिक शिक्षा में इसे और अधिक महत्व दिया गया है। (4) बेसिक शिक्षा में हस्तकार्य अथवा उद्योग का चुनाव बच्चों के पर्यावरण के अनुसार किया जाता है इसलिए बालक इसमें स्वाभाविक रुचि लेते हैं और इसे सीखने तथा इससे सम्बन्धित विषयों एवं क्रियाओं का ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं। माण्टेसरी (Montessori) ने भी इस सत्य को स्वीकार किया था। वह बालकों को स्वाभाविक पर्यावरण प्रदान करके उनकी मानसिक शक्तियों के विकास पर बल देती थी। माण्टेसरी प्रणाली में बच्चे दिए हुए उपकरणों से खेलते हैं और खेल ही खेल में ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। हां, बेसिक प्रणाली उस दशा में माण्टेसरी प्रणाली से आगे हो जाती है जब वह बच्चों की शिक्षा में उसके सामाजिक पर्यावरण को महत्त्व देती है। (5) सामाजिक पर्यावरण को महत्त्व देना भी कोई नयी बात नहीं है। इस विचार को जान डी.वी. प्रस्तुत कर चुके थे। बेसिक शिक्षा में बच्चे को अपनी रुचि, रुझान एवं योग्यतानुसार विकास करने का विचार भी डी.वी. महोदय व्यक्त कर चुके थे। (6) डी.वी. के शिष्य किलपैट्रिक (Kilpatrick) की प्रोजेक्ट प्रणाली और गांधी जी की बेसिक शिक्षा प्रणाली में भी बड़ा साम्य है। दोनों ही विधियों में ज्ञान को एक इकाई के रूप में विकसित किया जाता है और उसका सम्बन्ध बच्चों के वास्तविक जीवन से जोड़कर आगे बढ़ता है। प्रोजेक्ट प्रणाली में बच्चों के जीवन से सम्बन्धित कोई प्रोजेक्ट लिया जाता है और इसके इर्द-गिर्द समस्त विषयों और क्रियाओं का ज्ञान कराया जाता है। बेसिक शिक्षा में बच्चों के पर्यावरण से किसी उपयोगी हस्तकार्य अथवा उद्योग को चुना जाता है या उसके प्राकृतिक या सामाजिक पर्यावरण को चुना जाता है और इसके इर्द-गिर्द समस्त विषयों एवं क्रियाओं का ज्ञान कराया जाता है। बेसिक शिक्षा के विपक्ष में दलीलें (Arguments against Basic Education) अनेक विचारकों ने बेसिक शिक्षा की आलोचना भी की है। आलोचना के मुख्य आधार निम्नलिखित हैं : (1) आर्थिक दृष्टि से कमजोर (Weak From the Economic Point of View): बेसिक शिक्षा के आलोचकों ने इस शिक्षण पद्धति के स्वावलम्बी पक्ष की कटु आलोचना की है। उनका मन है कि बेसिक शिक्षा के इस सिद्धान्त को कार्यरूप में परिणित करने से सभी स्कूल ऐसे कारखाने बन जाएंगे जहां पर बालकों का श्रमिक के रूप में शोषण किया जाएगा। साथ ही उनके द्वारा तैयार की हुई वस्तुएं कुशल कारीगरों द्वारा तैयार की हुई वस्तुओं का सामना नहीं कर सकेंगी। अतः बेसिक शिक्षा द्वारा न तो बालक ही स्वावलम्बी बन सकेंगे और न ही बेसिक शिक्षा स्वतः स्वावलम्बी बन सकेगी। (2) अमनोवैज्ञानिक (Unpsychological): बेसिक शिक्षा में बालकों को स्थानीय हस्तकला के माध्यम से शिक्षा दी जाती है। इसलिए इसे बाल केन्द्रित शिक्षण पद्धति की संज्ञा दी जाती है। वास्तविकता यह है कि इस पद्धति में बालकों के ऊपर उनकी रुचियों की अवहेलना करते हुए बलपूर्वक थोपा जाता है। छोटे-छोटे बालकों की रुचियां विशिष्टता तथा निश्चितता प्राप्त नहीं कर पातीं। अतः यह सम्भव है कि वे जिस हस्तकला अथवा उद्योग का चयन करें उसमें आगे चलकर उनकी रुचि न रहे। इस दृष्टि से बेसिक शिक्षा बाल केन्द्रित नहीं हस्तकार्य केन्द्रित पद्धति है। इस प्रकार यह पद्धति अमनोवैज्ञानिक है। (3) एकांगी विकास (One Sided Development): बेसिक शिक्षा में आरम्भ से ही बालकों के सामने जीवकोपार्जन का उद्देश्य रख दिया जाता है। इससे वे आरम्भ से ही हस्तकला अथवा उद्योग द्वारा धन कमाने के चक्कर में पड़ जाते हैं। स्पष्ट है बेसिक शिक्षा बालकों का सर्वांगीण विकास न करके केवल व्यावसायिक विकास करती है, जो एकांगी है। (4) सभी विषयों के समन्वय में कठिनाई (Difficulty in co-relating all the Subjects): बेसिक शिक्षा में हस्तकला के माध्यम से पाठ्यक्रम के सभी विषयों में समन्वय स्थापित करने पर बल दिया जाता है। वास्तविकता यह है कि इस पद्धति में विभिन्न विषयों को हस्तकला से खींच-तान कर समन्वित करने का प्रयास किया जाता है। फिर भी पाठ्यक्रम में बहुत से विषय छूट जाते हैं। इससे शिक्षण प्रभावहीन तथा अस्वाभाविक हो जाता है। संक्षेप में, बेसिक शिक्षा द्वारा पाठ्यक्रम के सभी विषयों में समन्वय स्थापित करना कठिन है। (5) दोषपूर्ण समय सारणी (Defective Time Table): बेसिक स्कूल की समय-सारणी में साढ़े पाँच घंटों में से साढ़े तीन घंटे केवल उत्पादक कार्य के लिए निश्चित किए गए हैं। इससे दूसरे विषयों के अध्ययन के लिए पर्याप्त समय नहीं बचता। परिणामस्वरूप बालकों का बौद्धिक विकास इतना नहीं होता जितना माध्यमिक कक्षाओं में प्रवेश लेते समय होना चाहिए। (6) धार्मिक शिक्षा का अभाव (Absence of Religious Education): बेसिक शिक्षा में धार्मिक शिक्षा का अभाव है। अतः इस शिक्षा के बालकों के चारित्रिक तथा आध्यात्मिक विकास की कोई आशा नहीं की जा सकती। गांधी जी ने अपनी योजना में धार्मिक अभाव का उत्तर यह दिया कि बेसिक शिक्षा योजना अहिंसा के सिद्धान्त पर आधारित है और अहिंसा ही सच्चा धर्म है। परन्तु यह उचित नहीं है। सम्भवतः गांधी जी ने बेसिक शिक्षा में धार्मिक पुट इसलिए नहीं दिया कि कहीं धर्म के नाम पर विभिन्न धर्मों के लोगों में परस्पर द्वेषभाव न बढ़ जाए। (7) अपूर्णता (Not Comprehensive) : बेसिक शिक्षा 6-14 वर्ष के बालकों की रूपरेखा प्रस्तुत करती है। इसके अन्तर्गत 6 वर्ष से पहले और 14 वर्ष की आयु के पश्चात् की शिक्षा का कोई प्रयत्न नहीं है। चूंकि बेसिक शिक्षा शिक्षा की पूर्ण रूपरेखा प्रस्तुत करने में असमर्थ है, इसलिए इसे पूर्ण शिक्षण-पद्धति नहीं कहा जा सकता। (8) कुशल शिक्षकों का अभाव (Lack of Skilled Teachers) : बेसिक शिक्षा को सफल बनाने के लिए इतने कुशल एवं योग्य अध्यापकों की आवश्यकता है जो बालकों को हस्तकला अथवा उद्योग के माध्यम से पाठ्यक्रम के सभी विषयों का ज्ञान सरलतापूर्वक दे सकें। बेसिक शिक्षा के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है कि बालकों द्वारा बनाई गई वस्तुओं के बिकने पर जो धन प्राप्त हो, वह शिक्षकों को वेतन के रूप में मिले। यह धन बहुत कम होता है। अतः कम धन होने के कारण इस योजना को सफल बनाने के लिए योग्य तथा कुशल अध्यापक नहीं मिलते। (9) पाठ्य-पुस्तकों का कोई महत्त्व नहीं (No Importance given to the Text Books): बेसिक शिक्षा में पाठ्य-पुस्तकों का कोई महत्त्व नहीं हैं। इस पद्धति में बालकों के ज्ञान का क्षेत्र केवल शिक्षकों के उपदेश तक ही सीमित है। इससे वे पुस्तकों से होने वाले लाभों से वंचित रह जाते हैं। परिणामस्वरूप उनका दृष्टिकोण अत्यन्त सीमित तथा संकुचित हो जाता है। (10) औद्योगिक प्रगति में बाधा (Hindrance in the Industrial Progress) : बेसिक शिक्षा में बालकों को केवल हस्तकला अथवा उद्योग के माध्यम से शिक्षा दी जाती है। आज के वैज्ञानिक युग में हस्तकला की शिक्षा देना पाँच सौ वर्ष पुरानी बात है। यदि हमें देश की औद्योगिक प्रगति करनी है तो हमें वैज्ञानिक घोड़ों पर सवार होना चाहिए। (11) सरकार द्वारा अपर्याप्त तैयारी (Insufficient Preparation on the Part of the Government): (i) बेसिक शिक्षा के असफल होने का सबसे बड़ा कारण सरकार द्वारा अपर्याप्त तैयारी है। सरकार ने बिना प्रयोग की कसौटी पर ऐसे ही इस शिक्षा प्रणाली को सारे देश के लिए स्वीकार कर लिया और अब असफलता का मुँह देख रही है। (ii) इस क्षेत्र में उसका दूसरा दोष यह भी है कि उसने बेसिक शिक्षा के लिए आवश्यक साधन और प्रसाधन नहीं जुटाए और न ही योग्य और प्रशिक्षित अध्यापक तैयार किए। (iii) बेसिक शिक्षा के नाम पर तैयार की गई विस्तृत पाठ्यचर्या भी दोषयुक्त है। (iv) शिक्षा अधिकारियों एवं शिक्षकों के दोषों की तो कोई सीमा ही नहीं है। शिक्षा अधिकारी बिना किसी प्रयोग के आधार पर केवल सैद्धान्तिक रूप से ही इसके गुण-दोषों का विवेचन करते हैं और अध्यापक बेसिक शिक्षा दर्शन समझे बिना अध्यापक बन बैठते हैं। उनकी अनैतिकता ने तो सारा गुड़-गोबर कर दिया है। विद्यालयों में हस्तकला तथा उद्योग से सम्बन्धित सामग्री एवं कच्चा माल या तो भेजा ही नहीं जाता और यदि भेजा जाता है तो एकदम कण्डम माल। तकली ऐसी भेजी जाती है कि जिससे न सूत काता जा सके और कपास ऐसी भेजी जाती है कि जिसका सूत ही न तैयार किया जा सके। इसी प्रकार अन्य सब सामान की दशा होती है और यदि कहीं यह सामान उपलब्ध कराया जाता है तो आज के ये चरित्रहीन अध्यापक उसका प्रयोग नहीं करते। ऐसा देखने में आया है कि स्कूल कार्य के लिए भेजी गई रुई से अध्यापकों ने अपनी रजाई भर ली। (12) शहरी क्षेत्रों के लिए अनुपयुक्त (Inappropriate for Urban Areas) : हस्तकला एवं उद्योगों के प्रकार को देखते हुए यह कहना भी अनुचित होगा कि यह शिक्षा योजना ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों के लिए उपयोगी है, शहरों के बच्चों के लिए नहीं। (13) माल की बरबादी (Waste of Raw Material) : इस प्रणाली में कच्चे माल की बड़ी बरबादी होती है। छोट-छोटे बच्चों से उत्पादन की आशा कोरी कल्पना है। (14) बच्चों की जन्मजात रुचियों के प्रतिकूल (Contrary to the Inborn Tendencies of the Children) : बाल्यावस्था खेलकूद तथा मौजमस्ती के लिए होती है न कि जीवन की सच्चाई को परखने की। परन्तु बेसिक शिक्षा-योजना बच्चों को गुलाम बना कर रख देती है। (15) बेसिक शिक्षा में बौद्धिक एवं व्यावसायिक शिक्षा के सन्तुलन का अभाव भी देखने को मिलता है। (16) अंग्रेजी भाषा की उपेक्षा (Ignores the Importance of English Language): बेसिक शिक्षा में अंग्रेजी भाषा को कोई स्थान नहीं दिया गया है। परन्तु आलोचकों का मत है कि अंग्रेजी भाषा एक ऐसा साधन है जिसके पर्याप्त ज्ञान के बिना आज के युग में समाज में सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती। निष्कर्ष (Conclusion)-बेसिक शिक्षा के कुछ उपर्युक्त दोषों के होते हुए भी शिक्षा सिद्धान्तों की दृष्टि से ऐसे अनेक गुण हैं जिनके कारण हमें इस पद्धति की उपयुक्तता को स्वीकार करना ही पड़ेगा। ध्यान देने की बात है कि महान दार्शनिक रूसो (Rousseau) ने पुस्तकीय शिक्षा का विरोध करके बाल केन्द्रित शिक्षा पर बल दिया था। बेसिक शिक्षा भी पुस्तकीय शिक्षा का विरोध करके कार्य करने पर बल देते हुए शिक्षा में बालकों को मुख्य स्थान देती है। पैस्टालोजी महोदय (Pestalozzi) ने बालक के स्वाभाविक तथा सर्वांगीण विकास पर बल दिया था। बेसिक शिक्षा भी हस्तकला के माध्यम से बालकों का स्वाभाविक तथा सर्वांगीण विकास करके घर, समुदाय एवं स्कूल से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करती है। फ्रोबल (Froebel) ने सृजनात्मक शिक्षा के महत्त्व को स्वीकार किया था। बेसिक शिक्षा भी सृजनात्मक तथा उत्पाद कार्यों को महत्त्व देती है। डॉ. मेरिया माण्टेसरी (Maria Montessori) ने वातावरण के महत्त्व पर बल दिया था। बेसिक शिक्षा भी इस बात पर बल देती है कि हस्तकला का चुनाव प्राकृतिक एवं सामाजिक वातावरण के अनुसार होना चाहिए। ऐसे ही जान डी.वी. महोदय (John Dewey) ने बालकों के व्यक्तित्व को सामाजिक वातावरण में विकसित करने पर बल दिया। बेसिक शिक्षा भी वैयक्तिक तथा सामाजिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए अग्रसर होती है। संक्षेप में, बेसिक शिक्षा के अन्तर्गत उन सभी सिद्धान्तों का समावेश है जिन्हें संसार के सभी शिक्षा शास्त्रियों ने अपनी-अपनी शिक्षण पद्धतियों में मुख्य स्थान दिया है। उपर्युक्त सिद्धान्तों के अतिरिक्त बेसिक शिक्षा पद्धति राष्ट्रीय भाषा द्वारा बालकों का स्वाभाविक जीवन से सम्बन्ध स्थापित करते हुए हमारे देश की सामाजिक तथा आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करके बालकों को रटने की अपेक्षा व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है। सच तो यह है कि बेसिक शिक्षा के दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक आधार हैं। इन आधारों के कारण यह स्वावलम्बी है तथा श्रम के महत्त्व को स्वीकार करती है, व्यक्तित्व का विकास करती है। घर, स्कूल तथा समुदाय में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करती है, क्रियाशीलता पर बल देती है तथा बालकों की सौन्दर्यानुभूति का विकास करती है। अतः हमें स्थान तथा परिस्थितियों के अनुसार बेसिक शिक्षा के दोषों को दूर करके इस पद्धति में आवश्यक परिवर्तन कर लेने चाहिए जिससे यह व्यावहारिक, उपयोगी तथा सर्वप्रिय बन जाए।