विशिष्ट शिक्षा (Special Education)
प्रत्येक विद्यालय में कुछ ऐसे विद्यार्थी होते हैं जो सामान्य बालकों से भिन्न होते हैं। ऐसे विद्यार्थियों को विशेष शिक्षा की आवश्यकता होती है क्योंकि ऐसे बालक सामान्य बालकों के साथ समायोजित नहीं कर सकते। इनमें कुछ शारीरिक रूप से अक्षम, अन्धे, बहरे, गूंगे, शारीरिक विकलांग आदि होते हैं। कुछ बालक मानसिक रूप से या तो प्रतिभावान होते हैं या फिर पिछड़े होते हैं। इनमें कुछ बालक असामान्य व्यक्तित्व वाले तथा अपराधी मनोवृत्ति वाले होते हैं। ये सभी 'विशिष्ट बालक' कहलाते हैं। अतः 'विशिष्ट बालक' वे होते हैं जो सामान्य बालकों से शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक रूप से या सामाजिक गुणों से हट कर होते हैं। उनके गुणों, क्षमताओं, योग्यताओं, रुचियों तथा अभिरुचियों के अनुरूप उनको विशेष शिक्षा की आवश्यकता होती है। शैक्षिक अध्ययन राष्ट्रीय समिति ने विशिष्ट बालकों को इस प्रकार परिभाषित किया है, "विशिष्ट बालक वे होते हैं जोकि औसत बालकों से शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक अथवा सामाजिक लक्षणों में इतनी मात्रा में भिन्न होते हैं कि अपनी अधिकतम क्षमताओं के विकास के लिये उन्हें विशेष शैक्षिक सेवाओं की आवश्यकता होती है।"
"विशिष्ट शब्द ऐसे गुणों या व्यक्ति जिनमें वह गुण है के लिये प्रयोग किया जाता है जो साधारण व्यक्ति द्वारा प्रदर्शित उन्हीं गुणों से इस सीमा तक विभिन्नता लिए होते हैं, जिसके व्यक्ति विशेष की ओर उसके साथियों को ध्यान देना पड़ता है या दिया जाता है और उसके कारण उसकी व्यवहारिक प्रतिक्रियाएं तथा कार्य प्रभावित हो जाते हैं।' -क्रो व क्रो
("The term a typical or exceptional is applied to a trait or to a person possessing the trait if the extent of deviation from normal possession of the trait is so great than because of it the individual warrants or receives special attention from his fellows and his behaviour responses and activities are thereyby affected.")-Crow and Crow
सामान्य बालकों को दी जाने वाली शिक्षा से 'विशिष्ट बालकों' को अपेक्षित लाभ नहीं मिल सकता अतः यह आवश्यक हो जाता है कि उनकी आवश्यकतानुसार उनके लिए विशिष्ट शिक्षा का प्रबन्ध किया जाए। सामान्य विद्यार्थियों में न तो उचित साधन होते हैं तथा न ही योग्य व प्रशिक्षित अध्यापक होते हैं। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि विशिष्ट बालक को अपनी क्षमताओं के विकास का पूर्ण अवसर मिलना चाहिए।
विशिष्ट शिक्षा की आवश्यकता और महत्व (NEED AND IMPORTANCE OF SPECIAL EDUCATION)
विशिष्ट शिक्षा 'विशिष्ट बालकों' की भलाई के लिये काफी महत्त्वपूर्ण है। विशिष्ट बालकों में प्रतिभावान, सृजनात्मक, शारीरिक रूप से तथा मानसिक रूप से मन्द बालक शामिल हैं। विशिष्ट शिक्षा का महत्व नीचे दिया गया है-
1. भारत एक प्रजातान्त्रिक देश है। प्रत्येक नागरिक को शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार है। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि विशिष्ट बालकों के लिए विशिष्ट शिक्षा का प्रबन्ध किया जाये।
2. मानव को देश का मानव संसाधन कहा गया है। अगर यह मानव संसाधन बेकार जाता है तो यह देश का नुकसान होगा। कई अपंग तथा प्रतिभावान बालक आश्चर्यजनक कार्य कर सकते हैं अतः उनके लिए विशिष्ट शिक्षा का प्रबन्ध किया जाये।
3. विशिष्ट बालक सामान्य विद्यालयों से पूर्ण लाभ नहीं उठा सकते इसलिए इनके लिए विशिष्ट शिक्षा की आवश्यकता है।
4. शारीरिक तथा मानसिक रूप से अपंग बालकों को सामान्य विद्यालयों में समायोजन का सामना करना पड़ता है। उनको विशेष विद्यालयों में शिक्षण/प्रशिक्षण दिया जाना अति आवश्यक है।
5. विशिष्ट शिक्षा विशिष्ट बालकों को आत्मनिर्भर बनाने में सहायता करती है।
6. चूंकि विशिष्ट शिक्षा विशिष्ट बालकों की समस्याओं से सम्बन्धित है, अतः माता-पिता, अध्यापक व प्रशासकों के लिये शिक्षण सैशन लगाये जा सकते हैं।
7. विशिष्ट शिक्षा लोगों का विशिष्ट बालकों के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव लाती है।
8. विशिष्ट शिक्षा का उद्देश्य बालक का सर्वांगीण विकास करना है।
9. प्रत्येक नागरिक को सामान्य शिक्षा लेने का अधिकार है अतः विशिष्ट बालकों को भी विशिष्ट शिक्षा लेने का अधिकार है।
10. प्रायः प्रत्येक बालक एक दूसरे से भिन्न होता है। इस भिन्नता के कारण विशिष्ट शिक्षा का अपना महत्व है। यदि हम एक प्रतिभावान बालक को सामान्य विद्यालय में पढ़ाते हैं तो वह वहां पर अपने आपको असहज महसूस करेगा। इसी प्रकार अगर मानसिक रूप से पिछड़े बालक को सामान्य विद्यालय में पढ़ाएंगे तो वह और पिछड़ जायेगा क्योंकि वह उस वातावरण में समायोजित नहीं कर पायेगा। अगर हम इनको विशिष्ट विद्यालयों में पढ़ाएंगे तो इनको अधिक फायदा होगा।
11. विशिष्ट बालकों की विशेष आवश्यकतायें होती हैं। उनके लिये पढ़ाने की अलग विधि, अलग पाठ्यक्रम तथा विशेष प्रशिक्षण प्राप्त अध्यापक की आवश्यकता होती है। अगर उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप उनको शिक्षण दिया जाये तो वे जीवन की मुख्य धारा में आ सकते हैं।
12. विशिष्ट शिक्षा बालकों के लिये वरदान है क्योंकि बालक अपनी योज्यताओं, क्षमताओं, रुचियों व अभिरुचियों के अनुसार विशिष्ट शिक्षा ग्रहण करते हैं। ये बालक किसी क्षेत्र में निपुण होकर अपना स्वतन्त्र जीवन जी सकते हैं।
विशिष्ट शिक्षा शिक्षण (TEACHING OF SPECIAL EDUCATION)
विशिष्ट शिक्षा सामान्य शिक्षा की भान्ति ही है लेकिन इस शिक्षा को प्रदान करने का अपना एक ढंग है-
विशिष्ट शिक्षा प्रदान करने से पहले यह अति आवश्यक है कि विशिष्ट बालकों की पहचान अच्छी तरह से कर ली जाए। इसके लिए हम कई प्रकार के मानकीकरण टैस्टों का सहारा ले सकते हैं। बच्चों की आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर शैक्षिक कार्यक्रम तैयार किए जाते हैं तथा फिर इनको लागू किया जाता है। 3, 4 व 5 स्तरों को समय व आवश्यकता के अनुसार बदला जा सकता है। माता-पिता व अध्यापकों या प्रशिक्षकों का आपसी तालमेल बच्चे के हित के लिए आवश्यक व लाभदायक है।
विशिष्ट शिक्षा की प्रकृति कौन, क्या, कहां तथा कैसे के सन्दर्भ में (Special Education in terms of Who, What, Where and How)
विशिष्ट शिक्षा वैसे तो सामान्य शिक्षा की भान्ति है। यह साधारण शिक्षा का ही एक रूप है। लेकिन यह सामान्य शिक्षा से थोड़ी सी भिन्न है। विशिष्ट शिक्षा का उद्देश्य विशिष्ट बालकों को वह शिक्षा प्रदान करना जो वे साधारण कक्षा में प्राप्त नहीं कर सकते। विशिष्ट शिक्षा की प्रकृति को कौन, क्या, कहां तथा कैसे के सन्दर्भ में देखने से पता चलता है कि वास्तव में यह विशिष्ट शिक्षा है-
1. किसे पढ़ाएं ? (Whom to Teach?)
2. क्या पढ़ाएं ? (What to Teach ?)
3. कहां पढ़ाएं ? (Where to Teach?)
4. कैसे पढ़ाएं ? (How to Teach ?)
1. किसे पढ़ाएं ? (Whom to Teach?)- जो बच्चे बुद्धि-लब्धि में सामान्य बच्चों से अलग होते हैं वे विशिष्ट बच्चों की श्रेणी में आते हैं तथा इस प्रकार के बच्चों को विशिष्ट शिक्षा की आवश्यकता होती है। जिस बच्चे को विशेष सहायता की आवश्यकता होती है, उसमें विशेष योग्यताएं या अयोग्यताएं होती हैं। जो बच्चा सामान्य बच्चे से मानसिक, शारीरिक या सामाजिक रूप से अलग होता है, वह विशिष्ट बालक कहलाता है। इस प्रकार के बालक के लिए विशिष्ट शिक्षा की आवश्यकता होती है।
विशिष्ट बालकों की श्रेणियां इस प्रकार हैं-
1. दृष्टि दोष बालक
2. वाणी-दोष बालक
3. श्रवण-दोष बालक
4. शारीरिक दोष बालक
5. बाल अपराधी
6. समस्यात्मक बालक
7. सृजनशील बालक
8. प्रतिभाशाली बालक
9. अधिगम असमर्थ
10. मन्द बुद्धि
2. क्या पढ़ाएं ? (What to Teach ?) पाठ्यक्रम के आधार पर विशिष्ट शिक्षा सामान्य शिक्षा से अलग है। विशिष्ट बालकों का पाठ्यक्रम उनकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर तैयार किया जाता है। उदाहरण के तौर पर अन्धे बालकों को पढ़ाने के लिए ब्रेल लिपि का प्रयोग किया जाता है या फिर वे सुन कर ही पढ़ सकते हैं। इसी प्रकार से जो बच्चे सुनने की समस्या से ग्रस्त हैं, उनके लिए विशेष प्रकार का प्रबन्ध करना पड़ता है। प्रत्येक विशिष्ट बालक को विशिष्ट प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है ताकि उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके।
("In regular education the school system dictates the curriculum, but in special education the individual needs of the child dictates the curriculum.")-Liberman
3. कहाँ पढ़ाएँ ? (Where to Teach?)-विशिष्ट बालकों को पढ़ाने के लिए एक
ऐसे वातावरण की आवश्यकता होती है जहां पर उनकी योग्यताओं का विकास किया जा सके। उनकी असमर्थताओं को ध्यान में रखकर उनके लिए शिक्षा का प्रबन्ध करना पड़ता है। उनकी शिक्षा सामान्य स्कूल से लेकर आवासीय स्कूलों तक हो सकती है। इसका मतलब यह है कि अगर बच्चे की आवश्यकता एक साधारण कक्षा कक्ष में पूर्ण हो सकती है तो उसे वहीं पर पढ़ाना चाहिए। उसकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर प्रशिक्षक, अध्यापक आदि का प्रबन्ध करना चाहिए। एक ही प्रकार की शिक्षा सभी बच्चों पर लागू नहीं की जा सकती। प्रत्येक बच्चे की योग्यता, क्षमता, रुचि तथा अभिरुचि अलग-अलग होती है। इसी को ध्यान में रखकर उसकी शिक्षा का प्रबन्ध करना चाहिए।
4.कैसे पढ़ाएं ? (How to Teach?)- सामान्य शिक्षा की अपेक्षा विशिष्ट शिक्षा में कई प्रकार की शिक्षा पद्धतियों का प्रयोग किया जाता है। विशिष्ट शिक्षा में एक ही प्रकार से शिक्षा प्रदान नहीं की जा सकती क्योंकि विशिष्ट बालकों की अपनी विशिष्टताएं तथा आवश्यकताएं होती हैं। एक बच्चा अगर अन्धा है तो दूसरे बच्चे को श्रवण दोष है तो दोनों को एक ही प्रकार की शिक्षा द्वारा शिक्षित नहीं किया जा सकता। दोनों प्रकार के बच्चों को पढ़ाने के लिए अलग-अलग विधियों का प्रयोग किया जाता है।
विशिष्ट शिक्षा की विशेषताएँ(CHARACTERISTICS OF SPECIAL EDUCATION)
विशिष्ट शिक्षा ने देश की राष्ट्रीय शिक्षा में महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण कर लिया है। नई शिक्षा नीति, 1986 ने अपंग बालकों की शिक्षा पर ध्यान दिया है। यद्यपि यह सामान्य शिक्षा की भांति ही है लेकिन इसकी अपनी कुछ विशेषताएं हैं-
विशिष्ट शिक्षा से चरित्र को बढ़ावा मिलता है। विद्यालय में प्रवेश के साथ ही यह शुरू हो जाती है। इसमें छोटे तथा बड़े उद्देश्य नियत किए जाते हैं तथा उनको धीरे-धीरे प्राप्त किया जाता है।
विशिष्ट शिक्षा साधारण शिक्षा का एक रूपांतर है।
विशिष्ट शिक्षा अपंग बालकों के लिये शिक्षण विधियों पर जोर देती है।
विशिष्ट शिक्षा बालकों की कमियों, रुचियों, योग्यताओं को ध्यान में रख कर दी जाती है। उनकी कमियों को ध्यान में रखकर शिक्षा निर्धारित की जाती है।
मानसिक रूप से पिछड़े, अपंग, सृजनात्मक, प्रतिभावान व बीमार बालकों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर विशिष्ट शिक्षा दी जाती है।
सामान्य बालक को यह शिक्षा नहीं दी जाती।
विशिष्ट शिक्षा योजनाबद्ध व व्यवस्थित ढंग से प्रदान की जाती है।
विशिष्ट शिक्षा प्रदान करने के लिये विशेष सामग्री, विशेष प्रशिक्षण प्राप्त अध्यापकों व विशेष पाठ्यक्रम की आवश्यकता होती है।
मानसिक रूप से पिछड़े बालकों को विशिष्ट शिक्षा से अत्यन्त लाभ होता है।
विशिष्ट शिक्षा द्वारा विशिष्ट बालकों को व्यवसायिक प्रशिक्षण देकर उन्हें आत्म- निर्भर बनाया जा सकता है।
प्रत्येक बालक की व्यक्तिगत आवश्यकता को ध्यान में रखकर विशिष्ट शिक्षा दी जाती है।
विशिष्ट शिक्षा के उद्देश्य (Objectives of the Special Education)
विशिष्ट शिक्षा के उद्देश्य, साधारण शिक्षा के उद्देश्यों से भिन्न नहीं हैं लेकिन फिर भी विशिष्ट शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
1. प्रत्येक विशिष्ट बालक की योग्यताओं का पूर्ण वित्पास करना।
2. असमर्थ बालक को विशेष सहायता प्रदान करना। विशेष सहायता इस प्रकार से प्रदान की जाए ताकि उसकी रुचियों का विकास हो सके।
3. बालकों की शैक्षिक, सामाजिक व शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सहायता प्रदान करना।
4. विशेष बालकों की इस प्रकार से सहायता करना ताकि वे स्कूल, घर तथा समाज में अपने आपको समायोजित कर सकें।
5. विशेष बालकों को विशेष सहायता प्रदान करना ताकि वे सामान्य जीवन में स्वतन्त्र व आत्मनिर्भर जीवन जीने के योग्य हो जाएं।
6. असमर्थ बालकों को प्रेरणा देना ताकि वे विद्यालय में अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सकें।
7. असमर्थ बालक में सब्र की भावना का विकास करना।
8. विद्यालयी विषयों में उच्च शिखर को प्राप्त करना।
9. प्रभावी ज़िन्दगी जीने के लिये सहगामी क्रियाओं को सीखना।
10. विद्यालयी बालक के शारीरिक तथा मानसिक स्तर को समझना।
11. असमर्थ बालकों में यह इच्छा पैदा करना कि वे भी सामान्य बालकों के समान गतिविधियों में भाग ले सकें।
विशिष्ट शिक्षा प्रदान करना (To Provide Special Education)
विशिष्ट शिक्षा एक प्रकार से व्यक्तिगत शिक्षा है जो विशिष्ट बालकों को उनकी आवश्यकताओं के अनुसार प्रदान की जाती है। उनकी असमर्थता और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर यह शिक्षा साधारण कक्षा-कक्ष से लेकर विशेष कक्षा-कक्ष या घर या अस्पताल में भी प्रदान की जा सकती है। दिए गए डायाग्राम के अनुसार इसे आसानी से समझा जा सकता है-
भारत को दूसरे देशों की भांति एक योजनानुसार विशिष्ट शिक्षा पर ध्यान देना चाहिये ताकि मानव की बुद्धिमत्ता, शक्ति को व्यर्थ होने से बचाया जा सके। इस दिशा में काफी कार्य किये जा चुके हैं तथा होने जा रहे हैं ताकि इन विशिष्ट बालकों का योगदान देश की उन्नति के लिये किया जा सके। सबसे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि असमर्थ बालक की व्यक्तिगत असमर्थता को किस प्रकार से इस्तेमाल किया जाये।
1. नियमित कक्षा (Regular Class)
सामान्य कक्षा में उन विशिष्ट बालकों को शिक्षा प्रदान की जा सकती है जिनकी असमर्थता की श्रेणी बहुत ही कम है। सबसे पहले उनकी असमर्थता की जांच करके, उनको आवश्यक उपकरण प्रदान कर दिए जाते हैं ताकि उनको बार-बार जांच के लिए प्रशिक्षक अध्यापक या डाक्टर के पास न जाना पड़े। उदाहरण के तौर पर अगर किसी बच्चे की सुनने की समस्या है तो उसे श्रवण सम्बन्धी उपकरण लगा कर सामान्य कक्षा में पढ़ने के लिए स्कूल में भेजा जा सकता है। इसी प्रकार यदि किसी बच्चे को शारीरिक असमर्थता है तो उसे भी वैशाखी या दूसरे उपकरण लगा कर सामान्य स्कूल में शिक्षा के लिए भेजा जा सकता है।
2. नियमित कक्षा के साथ प्रशिक्षक (Regular Class with Trainer)
इस स्तर पर बच्चे को कोई विशेष सहायता प्रदान नहीं की जाती। स्कूल में एक प्रशिक्षक होता है जो कि दूसरे अध्यापकों को निर्देश देता है कि बच्चों की समस्याओं को किस प्रकार से समझना है तथा उनकी समस्याओं का समाधान किस प्रकार से करना है। यह प्रशिक्षक प्रत्येक अध्यापक को उपलब्ध होता है ताकि अध्यापक बच्चे की समस्या उसको साधन उपलब्ध करवाने, दिशा-निर्देश तथा पाठन सामग्री आदि के बारे में विचार-विमर्श कर सकें।
3. ट्रैवलिंग टीचर/प्रशिक्षक (Travelling Teacher/Trainer)
इस स्तर पर एक ट्रैवलिंग टीचर या प्रशिक्षक बच्चों तथा अध्यापकों को अपनी सेवाएं प्रदान करता है। जब स्कूल में असमर्थ बालकों की संख्या कम होती है तो इस प्रकार के अध्यापक या प्रशिक्षक की अति आवश्यकता होती है। ये अध्यापक या प्रशिक्षक आवश्यकतानुसार कई स्कूलों में जाते हैं जिस स्कूल में इनकी जितनी आवश्यकता होती है, ये उतना ही समय उनको प्रदान करते हैं। असमर्थ बच्चे सामान्य कक्षा में ही शिक्षा ग्रहण करते हैं तथा आवश्यकता पड़ने पर इनको अध्यापक या प्रशिक्षक के पास उनको लाया जाता है ताकि उनकी समस्याओं का समाधान हो सके।
4. रिसॉर्स रूप (Resource Room)
इस स्तर पर बच्चा सामान्य बच्चों के साथ ही शिक्षा ग्रहण करता है। जहां तक संभव हो वह सामान्य बच्चों के साथ ही शिक्षा ग्रहण करता है। असमर्थता की अलग-अलग श्रेणी या वर्ग के लिए एक अलग से कमरा बना दिया जाता है। इस कमरे में असमर्थता से सम्बन्धित सभी प्रकार के उपकरण लगा या रख दिये जाते हैं। कुछ समय के लिये बच्चे को इस कमरे में लाया जाता है। वहां पर बच्चे को उसकी असमर्थता से सम्बन्धित प्रशिक्षण दिया जाता है। यह प्रशिक्षण अध्यापक की देखरेख में दिया जाता है। प्रशिक्षण पर लगने वाला समय बच्चे की असमर्थता पर निर्भर करता है। रिसॉस रूम का प्रयोग इस प्रकार से किया जा सकता है-
(i) सामान्य कक्षा के साथ-साथ रोजाना कुछ समय के लिए बच्चों को सहायता प्रदान करना।
(ii) सामान्य कक्षा के साथ-साथ रोज़ाना अधिक समय के लिए बच्चों को सहायता प्रदान करना।
(iii) सामान्य कक्षा के साथ-साथ रोज़ाना अधिक समय के लिए रिसॉर्स रूम का प्रयोग करना।
उपर्युक्त सहायता बच्चे की असमर्थता की श्रेणी पर निर्भर करती है। वैसे तो बच्चा सामान्य कक्षा में शिक्षा ग्रहण करता है तथा आवश्यकतानुसार वह रिसॉर्स रूम में जाकर विशेष निर्देश प्राप्त करता है। रिसॉर्स रूम स्टाफ तथा यन्त्रों आदि से सुसज्जित होता है। इस प्रकार का प्रबन्ध उन असमर्थ बच्चों के लिए अधिक लाभकारी है जो बच्चे सामान्य कक्षा में आसानी से पढ़ सकते हैं। शारीरिक विकास के साथ-साथ इससे बच्चे का शैक्षिक तथा सामाजिक विकास भी होता है।
5. विशेष कक्षा (Special Class)
असमर्थ बच्चों के लिए विशेष कक्षा पूर्ण या अंश कालिक हो सकती है। इन कक्षाओं का प्रबन्ध सामान्य स्कूल में ही किया जाता है। अंश कालिक कक्षा में बच्चा आधा समय साधारण कक्षा में सामान्य बच्चों के साथ शिक्षा ग्रहण करता है तथा आधा समय वह अंश कालिक विशेष कक्षा में शिक्षा ग्रहण करता है। जिन बच्चों की शारीरिक या मानसिक असमर्थता मध्य दर्जे की होती है, उनको इस प्रकार के प्रबन्ध से काफी लाभ होता है। प्रशिक्षक उनकी आवश्यकता के अनुरूप उनकी शिक्षा का प्रबन्ध करता है। उदाहरण के तौर पर यदि एक अन्धा बालक सामान्य बालकों के साथ शिक्षा ग्रहण कर रहा है तथा वह विशेष कक्षा के दौरान ब्रेल भाषा का प्रयोग तथा दूसरे श्रवण उपकरणों का प्रयोग विशेष प्रशिक्षित अध्यापक की देख-रेख में करेगा। इसके अतिरिक्त उसे यदि किसी विषय विशेष में कोई समस्या है तो वह अपनी समस्या को प्रशिक्षित अध्यापक से निर्देशन लेकर हल कर लेगा। इसी प्रकार से श्रवण बाधित बालक विशेष कक्षा के दौरान आडियोमीटर (Audiometer) तथा दूसरे सुनने वाले यन्त्रों का प्रयोग करना सीखेगा। शारीरिक रूप से दोषयुक्त बालक विशेष कक्षा में इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त करेगा कि समय के अनुसार अपने आप को कैसे ढालेगा। यह विशेष प्रशिक्षण केवल प्रशिक्षित अध्यापक, वाणी-सुधारक, फिजियोथैरेपिस्ट आदि से ही नहीं बल्कि अन्य विशेषज्ञों की सेवायें भी लेनी चाहिये ताकि प्रत्येक बच्चे पर ध्यान दिया जा सके। इस प्रकार के प्रबन्ध का मुख्य उद्देश्य असमर्थ बच्चों को सामान्य बच्चों के बराबर लाना है ताकि वे भी मुख्य धारा में शामिल होकर देश की उन्नति में अपना योगदान प्रदान कर सकें।
6. अस्पताल/घर में निर्देश (Hospital/Home bound Instructions)
कई बार बच्चे को लम्बी बीमारी, शारीरिक या मनोवैज्ञानिक बीमारी के कारण काफी समय तक घर या अस्पताल में रहना पड़ता है। इस प्रकार के बच्चों के घर प्रशिक्षित अध्यापक जाता है और उनको शिक्षा प्रदान करता है। बीमारी के दौरान बच्चे का सम्पर्क सामान्य कक्षा कक्ष से कटा रहता है। घर या अस्पताल में ही उसको शिक्षा से सम्बन्धित दिशा-निर्देश प्राप्त होते हैं ताकि उसकी शिक्षा में व्यवधान न पड़े।
7. विशेष विद्यालय (Special Schools)
विशेष विद्यालय में बालक को उसकी योग्यता तथा असमर्थता की मात्रा को ध्यान में रखकर प्रवेश दिया जाता है। स्कूल में शिक्षा विशेष तथा प्रशिक्षण प्राप्त शिक्षकों द्वारा दी जाती है। आवासीय स्कूलों में यह बड़ा ही आसान होता है। बड़े-बड़े शहरों में कुछ विशेष विद्यालय इस बात की जिम्मेदारी लेते हैं कि किस प्रकार से असमर्थ बालकों को समाज के लिये लाभदायक बनाया जा सकता है। 'नवोदय विद्यालयों' ने प्रयोग के तौर पर ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्र के प्रतिभावान बच्चों को अपने विद्यालय में दाखिल करना शुरू किया है। इसके साथ-साथ जो बच्चे अन्धे, बहरे, शारीरिक रूप से अपंग तथा मानसिक रूप से पिछड़े हुए हैं वे भी तकनीकी सहायता तथा दूसरे उपकरणों की सहायता से शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार के बालकों को जो शिक्षा दी जाती है वह सामान्य तथा व्यावहारिक रूप से दी जाती है ताकि उनको समाज का महत्वपूर्ण अंग बनाया जा सके।
8. आवासीय संस्थाएं (Residential Institutions)
जिन बच्चों की शारीरिक या मानसिक असमर्थता की श्रेणी बहुत अधिक होती है तथा वे इधर-उधर जाने में असमर्थ होते हैं या उनको इधर-उधर ले जाना काफी जोखिम भरा कार्य होता है। उन बच्चों के लिए आवासीय संस्थाओं में ही शिक्षा प्रदान करना लाभकारी होता है। इतिहास से हमें पता चलता है कि इस प्रकार की संस्थाओं का प्रबन्ध पहले सरकारों द्वारा किया जाता था लेकिन अब शिक्षा के क्षेत्र में काफी स्वयं सेवी संस्थाएं कार्य कर रही हैं। कई बच्चों की असमर्थता इतनी अधिक होती है कि उनको 24 घण्टे प्रशिक्षक या अध्यापक की देखरेख की आवश्यकता होती है। आवासीय संस्थाएं ऐसे बच्चों के लिए वरदान हैं जिनकी शारीरिक या मानसिक असमर्थता बहुत अधिक है।
9. हाबी क्लब (Hobby Clubs)
आजकल बड़े-बड़े शहरों में हाबी क्लब (Hobby Clubs) की स्थापना हो रही है ताकि वहां पर बच्चों का पूर्ण विकास हो सके। असमर्थ बच्चे यहां योग्यता व रुचि के अनुसार हाबी कक्षाएं चुन सकते हैं। इस प्रकार के क्लब में बच्चे को उसकी सुविधा व रुचि के अनुसार हाबी चुनने की छूट दी जाती है। माता-पिता तथा अध्यापकों को चाहिये कि बच्चों को इस प्रकार के हाबी कोर्स में दाखिला लेने के लिये प्रेरित करें। बच्चों को वहां पर साईस क्लब, शैक्षिक क्लब तथा दूसरी गतिविधियों में भाग लेना चाहिए। इस प्रकार की हाबी कक्षाओं में भाग लेने से बच्चे में आत्म निर्भरता आती है तथा स्वयं का विकास होता है।
10. विशेष ढंग (Special Methods)
असमर्थ बच्चों की शिक्षा को प्रभावी बनाने के लिये अध्यापक को चाहिये कि वह पढ़ाने की नई-नई विधियां अपनाए ताकि बच्चे उनको अच्छी प्रकार से समझ सकें। पारम्परिक अध्यापकों का मुख्य उद्देश्य पाठ्यक्रम को समाप्त करने का होता है। वे असमर्थ बालकों में छुपी हुई प्रतिभाओं को निखारने का कोई प्रयत्न नहीं करते। निपुण तथा ज्ञानी अध्यापकों को चाहिये कि वे अपने आप को शिक्षण अधिगम में अधिक से अधिक शामिल करें ताकि छात्र व अध्यापक अधिक प्रभावी ढंग से कार्य कर सकें। एक बुद्धिमान, निपुण तथा प्रशिक्षण प्राप्त अध्यापक ही पढ़ाने के विभिन्न ढंग प्रयोग कर सकता है तथा वह मानसिक तथा शारीरिक रूप से अक्षम बालकों की विभिन्न समस्याओं का समाधान कर सकता है।
11. विभिन्न प्रोजैक्ट (Different Projects)
अध्यापक को चाहिये कि वह विभिन्न प्रकार से अक्षम बालकों का पूर्ण अध्ययन करे। वह रिकार्ड-कार्ड से उनकी अपंगता, योग्यताएं, निपुणताएं, शौक तथा प्राप्तियों की पूर्ण जानकारी प्राप्त करें। अध्यापक को चाहिये कि वह बालक की योग्यतानुसार किताबें तथा अधिगम सम्बन्धी पाठ्यक्रम का चुनाव करे। इस प्रकार के कार्य करने चाहिये ताकि बालकों की सृजनात्मक योग्यता को उभारा जा सके। बालकों को इस बात के लिये प्रेरित करना
चाहिये कि वे हाबी क्लब आदि में भाग लें व अधिगम के नए-नए ढंग सीख कर अपने आप को आत्म-निर्भर बना सकें।
12. अनौपचारिक संस्थाएं (Informal Agencies)
विभिन्न प्रकार की अनौपचारिक संस्थाएं जैसे लायब्रेरी, ऐतिहासिक दर्शनीय स्थल, शिक्षा भ्रमण, फिल्मस, रेडियो तथा टी. वी. कार्यक्रमों के द्वारा भी विशिष्ट शिक्षा प्रदान की जा सकती है। जो बालक अन्धे नहीं वह लायब्रेरी की सुविधाओं का आनन्द उठा सकते हैं। कम देखने वाले बालक रेडियो तथा टी. वी. द्वारा फायदा उठा सकते हैं। इसके अतिरिक्त उनको शिक्षण कक्ष आदि से भी काफी फायदा हो सकता है ताकि कक्षा-कक्ष की कमी को पूरा किया जा सके।
13. विशेष शिक्षण (Special Teaching)
आधुनिक समाज वैज्ञानिक तथा टैक्नोलोजिकल की दिशा में आगे बढ़ रहा है। असमर्थ बालक अपनी दिनचर्या की समस्याओं व अपने आप को समायोजित करने के लिए आधुनिक सुविधाओं का प्रयोग कर सकते हैं। विशेष शिक्षण देकर इन बालकों को इस योग्य बनाया जा सकता है ताकि वे भी विभिन्न प्रकार के इम्तिहानों में हिस्सा ले सकें। इन बालकों को जागरूक करने के लिये शैक्षिक व गैर-शैक्षिक गतिविधियों में भाग लेने के लिये विशेष शिक्षा देने का प्रबन्ध करना चाहिए ताकि उनके अन्दर छुपी प्रतिभा को जागृत किया जा सके।
भारत में विशिष्ट शिक्षा (Special Education in India)
रामायण तथा महाभारत कालों के समय के दौरान इस बात का पता चलता है कि उस समय आश्रमों में ऋषियों के सानिध्य में व्यवस्थित शिक्षा देने का प्रबन्ध था लेकिन इस बात का उल्लेख नहीं मिलता कि शारीरिक या मानसिक रूप से अपंग छात्रों के लिये भी शिक्षा का प्रबन्ध था या नहीं। केवल एक उदाहरण जो प्रायः दिया जाता है कि अष्टवक्र नाम का एक आदमी था जिसका शरीर आठ जगह से टेढ़ा था। वह वेदों का अच्छा ज्ञाता था। यह आश्रम प्रायः समृद्ध लोगों के बच्चों की शिक्षा के लिये होते थे। बुद्ध तथा जैन धर्म के समय के दौरान शिक्षा मठों में दी जाती थी। दो विश्वविद्यालयों नालन्दा तथा तक्षशिला का भी वर्णन मिलता है जहां पर विदेशों से जो लोग शिक्षा ग्रहण करने के लिये आते थे। नालन्दा में एक द्वारपंडित का उल्लेख मिलता है जो शिक्षा ग्रहण करने वालों को दाखिला देने से पूर्व उनकी उपयुक्तता की जांच करता था। लेकिन इस बात का कोई संकेत नहीं मिलता कि शारीरिक या मानसिक दोष वाले बालकों की शिक्षा का प्रबन्ध भी था।
आज़ादी से पूर्व अंग्रेज़ों ने शारीरिक व मानसिक दोष वाले बालकों की शिक्षा में कोई रुचि नहीं दिखाई थी। शारीरिक रूप से अपंग बालकों की शिक्षा की शुरुआत उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में हुई जब 1885 ई. में बम्बई में बहरों की शिक्षा के लिये एक स्कूल की स्थापना की गई। 1887 ई. में अमृतसर में अन्धे बच्चों की शिक्षा के लिये एक स्कूल की स्थापना की गई। भारत की आज़ादी तक इस दिशा में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई थी।
भारत में मन्द बुद्धि बालकों के बारे में कोई विश्वसनीय आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। सन् 1968 में 'विश्व स्वास्थ्य संगठन' (W.H.O.) ने कुछ भारतीय महानगरों का सर्वेक्षण किया तथा स्पष्ट किया कि यहां 3 प्रतिशत बालक मानसिक रूप से विकलांग हैं। मन्द-बुद्धि बालकों के विकास के लिए 1965 में चण्डीगढ़ में 'अखिल भारतीय मानसिक विकास समिति' का गठन किया गया। ऐसे बालकों की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए भारतीय डाक विभाग ने 8 दिसम्बर, 1974 को एक डाक टिकट भी जारी किया। तभी से इस दिन को प्रत्येक वर्ष "मानसिक विकलांग दिवस" के रूप में मनाया जाता है।
विकलागों की शिक्षा के लिये श्री "सी" माडल का विकास मानसिक मन्दन के केन्द्रीय संस्थान तथा सूचना केन्द्र, त्रिवेंद्रम द्वारा किया गया है। केरल में इस माडल का उपयोग सन् 1980 से विकलांगों की शिक्षा से सम्बन्धित केन्द्रों में किया जा रहा है। इस माडल की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
आकृतियों (आयात-वृत्त, त्रिकोण आदि) के अनुभव द्वारा शिक्षा देना।
अक्षर ज्ञान से पूर्व आकृतियों की पहचान को समझना (क्योंकि बच्चा पहले अपनी मां का स्पर्श करता है और उसे मां के शारीरिक अंगों में ललाट में आयत, आंखों से वृत्त तथा नासिका से त्रिभुज आकृति का ज्ञान होता है।
बच्चों में आकृतियों के ज़रिये मनो-सामाजिक भाषा एवं पहचान सम्बन्धी ज्ञान का विकास किया जाता है। (इस उद्देश्य के लिये आकृतियां बनाने की शिक्षा दी जाती है। उदाहरणार्थ एक वर्गाकार वस्तु के ऊपर त्रिभुज रखने से एक घर का बोध कराया जाता है।)
आकृतियों को बनाने में कैंची, कागज़ तथा स्पैनर जैसे उपष्करों/सामग्री का प्रयोग कराया जाता है (इससे बच्चे में वस्तुओं को समन्वित करने की योग्यता का विकास होता है)।
देखने, छूने तथा सूंघने से ज्ञान का विकास।
इस विधि के माध्यम से विकलांगों के सम्पूर्ण शिक्षा तंत्र से व्यापकता, सक्षमता तथा रचनात्मकता का विकास होता है इसलिये इसका नाम "श्री सी" मॉडल रखा गया है।