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विशिष्ट बालक (special Child)
Jan 17, 2025   Ritu Suhag

Special child

विशिष्ट बालक की परिभाषा (Definition of Exceptional Child)

 

प्रत्येक विद्यालय में कुछ ऐसे विद्यार्थी होते हैं जो किसी न किसी रूप में अन्य विद्यार्थियों से भिन्न या विशिष्ट होते हैं। यह विशिष्टता, शारीरिक व मानसिक किसी भी प्रकार की हो सकती है। कुछ बालक सामान्य बालकों से आगे बढ़े हुए भी हो सकते हैं तथा कुछ पिछड़े हुए भी हो सकते हैं। इस प्रकार कुछ बालक मेधावी होते हैं तथा कुछ बालक सामान्य से कम बुद्धि वाले होते हैं। यह दोनों प्रकार के बालक विशिष्ट बालक हैं। इस प्रकार जो बालक सामान्य बालकों से अलग कोई न कोई विशेषताएं रखते हैं, उन्हें विशिष्ट बालक (Exceptional Children) कहा जाता है।

 

विशिष्ट बालक से सम्बन्धित कुछ मुख्य परिभाषायें इस प्रकार हैं-

 

" विशिष्ट प्रकार या विशिष्ट शब्द किसी एक ऐसे लक्षण या उस लक्षण को रखने वाले व्यक्ति पर लागू किया जाता है जबकि लक्षण की सामान्य रूप में प्रत्यय की सीमा इतनी अधिक होती है कि उसके कारण व्यक्ति अपने साथियों का विशिष्ट ध्यान प्राप्त करता है और इससे उसके व्यवहार की अनुक्रियाएँ और क्रियाएँ प्रभावित होती हैं।'- क्रो एण्ड क्रो (1948)

 

("The term a typical or exceptional is applied to a trait or to a person possessing the trait if the extent of deviation from normal possession of the trait is so great that because of it the individual warrants or receives special attention from his fellows and his behaviour responses and activities are thereby affected.")-Crow & Crow

 

" विशिष्ट बालक वह बालक है जो सामान्य बालकों से शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक व संवेगात्मक विशेषताओं से भिन्न होते हैं और उनके गुणों को अधिकतम सीमा तक विकसित करने के लिये विशेष कक्षा का प्रबन्ध करना पड़ता है।'- सैमुयल-ए. किर्क (1972)

 

"An exceptional child is he who deviates from the normal or average child in mental, physical and social characteristics to such an extent that he requires a modification of school practices or special educational services in order to develop his maximum capacity, or supplementary instruction.")-Samuel A Kirk

 

"जब हम किसी को 'विशिष्ट' कह कर वर्णित करते हैं, हम व्यक्ति को 'औसत' या 'सामान्य' लोगों जिन्हें हम एक या इससे अधिक लक्षणों के सम्बन्ध में जानते हैं, से अलग रखते हैं।"- सचवार्टज

 

("When we describe someone as 'exceptional' we see that person apart from the 'average' or 'normal' people we know with respect to one or more characteristics.")-Schwartz

 

"एक विशिष्ट बालक वह है जो शारीरिक, बुद्धिमानी और समाज के आधार पर सामान्य बालक की अपेक्षा गुणों में अधिक विकसित हो तथा सामान्य शिक्षा कक्ष में शिक्षण के कार्यक्रम के मध्य उसे विशिष्ट प्रकार के व्यवहार की आवश्यकता हो ।'- डब्ल्यू. एस. क्रूचशेन्क (1974)

 

("An exceptional child is he who deviates, physically, intellectually and socially so marked by from normal growth and development that he can not be benefited from regular classroom programme and needs special treatment in school.")-W.M. Cruichshank

 

" विशिष्ट ऐसा व्यक्ति होता है जिसकी शारीरिक, मानसिक, बुद्धि, इन्द्रियां, मांसपेशियों की क्षमताएं अनोखी हों अर्थात् सामान्यतः ऐसे गुण दुर्लभ हों। ऐसी अनोखी दुर्लभ क्षमताएं उसकी प्रवृत्ति तथा कार्यों के स्तर में भी हो सकती हैं। इस प्रकार के बालक 'प्रतिशाली बालक' के रूप में परिभाषित होते हैं। ऐसे बालक बड़ी आसानी से अन्य बालकों के बीच में पहचाने जा सकते हैं।'- हेबेट तथा फोरनेस (1984)

 

("An exceptional learner is an individual who, because of uniqueness in sensory, physical eneurological, temperamental or intellectual capacity and/or in the nature and range of previous order to maximize this or here functioning level.")-Hewelt and Forness

 

"विशिष्ट बालक शब्दावली का प्रयोग उन बालकों के लिये करते हैं जो सामान्य बालकों से शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक या सामाजिक विशेषताओं में इतने अधिक भिन्न होते हैं कि उन्हें अपनी क्षमता के अधिकतम विकास हेतु विशेष सामाजिक और शैक्षिक सेवाओं की आवश्यकता पड़ती है।'- टेलफर्ड और सौरे

 

("The term exceptional children refers to those children who deviate from the normal in physical, mental, emotional or social characteristics of such a degee that they require special social educational services to develop their maximum capacity.")-Telfard and Sauerey.

 

सामान्य बालकों की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

 

1.ये शारीरिक रूप से स्वस्थ तथा सुडौल होते हैं।

 

2.मानसिक बीमारियों से दूर होते हैं।

 

3.इनकी बुद्धिलब्धि 90-110 के बीच होती है।

 

4.इनकी सोचने समझने की शक्ति उत्तम होती है।

 

5.शैक्षिक उपलब्धि अच्छी होती है।

 

क्रोध, हिंसा तथा ईर्ष्या आदि की भावना कम होती है।

 

6.इनमें अपने आप को घर, विद्यालय तथा समाज में समायोजित करने की क्षमता होती है।

 

7.इनका दृष्टिकोण जीवन के प्रति साकारात्मक होता है।

 

8.ये आशावादी होते हैं तथा जीवन को आनन्द से जीने में विश्वास रखते हैं।

 

9.ये ज्यादा महत्वाकांक्षी नहीं होते बल्कि मध्यम सोच रखते हैं।

 

10.सादा जीवन जीने वाले व सन्तोषी स्वभाव के होते हैं।

 

11.ये व्यावहारिक होते हैं।

 

विशिष्ट बालक की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं:-

 

1. ये शारीरिक रूप से बीमार, पतले, अधिक लम्बे या अधिक मोटे होते हैं।

 

2. मानसिक बीमारियों से घिरे रहते हैं।

 

3. बुद्धि लब्धि 0-140 तक होती है या इससे भी अधिक होती है।

 

4. सोचने समझने की शक्ति या तो काफी कम या अधिक होती है।

 

5. समायोजित करने की क्षमता कम होती है।

 

6. बताई गई बातों को या तो तीव्र या फिर बार-बार समझाने पर भी नहीं समझ पाते।

 

7. जीवन के प्रति दृष्टिकोण या तो नाकारात्मक या ज्यादा साकारात्मक होता है।

 

8. ये निराशावादी या फिर अधिक आशावादी होते हैं।

 

9. ये या तो महत्वाकांक्षी बिल्कुल नहीं होते या फिर बहुत अधिक होते हैं।

 

10. ये प्रायः असन्तोषी व उच्च जीवन जीने की भावना रखते हैं।

 

11. ये व्यावहारिक कम होते हैं।

 

विशिष्ट बाल्कों के प्रकार (Types of Exceptional Children)

 

1.]बौद्धिक दृष्टि से

 

सृजनशील

 

प्रतिभाशाली

 

अधिगम असमर्थ

 

मन्द - बुद्धि

 

2.] शारीरिक दृष्टि से

 

पूर्ण अधे व कम देखने वाले

 

श्रवण दोष

 

वाणी दोष

 

शारीरिक - दोष

 

3.]सामाजिक दृष्टि से

 

बाल अपराधी

 

समस्यात्मक

 

1.)बौद्धिक दृष्टि से विशिष्ट बालक (Intellectually Exceptional Children)

 

इस प्रकार के बालकों की पहचान बुद्धि परीक्षणों के आधार पर की जाती है। 90 से 110 आई. क्यू. (I.Q.) वाले बालकों को सामान्य मानकर अन्य बालकों को बौद्धिक रूप से भिन्न अर्थात् विशिष्ट माना जाता है। 110 से अधिक आई. क्यू. वाले बालक प्रतिभावान तथा

 

90 से कम आई. क्यू वाले बालक पिछड़े समझे जाते हैं। (देखें चित्र 2) बौद्धिक दृष्टि से इन बालकों को चार श्रेणियों में बांटा गया है।

 

1. सृजनशील (Creative)

 

Create का अर्थ है-सृजन करना, बनाना, पैदा करना आदि। सृजनात्मकता (Creativity) का अर्थ है-विचारों में नये सम्बन्ध देखना। यह अद्भुत योग्यता है जो जटिल समस्याओं का समाधान ढूंढने तथा जीवन को सुखमय बनाने में व्यक्ति की सहायता करती है। मनोवैज्ञानिकों का विश्वास है कि कम या अधिक सभी में सृजनात्मकता होती है। सृजनशील व्यक्ति सभी काल तथा सभी देशों में होते हैं। प्रायः लोग समझते हैं कि केवल कवि, लेखक, चित्रकार, संगीतकार या वैज्ञानिक ही सृजनशील व्यक्ति होते हैं। मनोवैज्ञानिकों का ऐसा मत है कि डॉक्टर, अध्यापक, माता-पिता, श्रमिक तथा गृहिणी आदि सभी अपने- अपने क्षेत्रों में सृजनशील हो सकते हैं। यदि कोई श्रमिक कम समय में कम परिश्रम करके अधिक कार्य करने के उपाय ढूंढ लेता है तो वह श्रमिक सृजनशील है। अन्त में हम कह सकते हैं कि सृजनात्मकता नये सम्बन्धों को देखने की योज्यता है। इसे सृजनात्मकता चिन्तन भी कहा जाता है। इससे नये विचारों की प्राप्ति होती है।

 

2. प्रतिभाशाली (Gifted)

 

संसार के सभी देशों में कुछ बालक ऐसे होते हैं जिनमें बौद्धिक व सामाजिक योग्यताएं होती हैं। जिन बालकों में ये विशिष्ट योग्यताएं होती हैं, उन्हें प्रतिभाशाली (Gifted) बालक कहते हैं। किसी भी राष्ट्र का विकास उन पर निर्भर करता है। वे देश के लिए रीढ़ की हड्डी के समान होते हैं। ऐसे बालक प्रायः राष्ट्र के नेता, समाज-सुधारक, वैज्ञानिक, इंजीनियर, साहित्यकार, शिक्षक आदि होते हैं। अपनी विशिष्ट योग्यताओं के आधार पर वे देश को नई दिशा प्रदान करके उन्नति की दिशा में अग्रसर करते हैं। ये बालक सामान्य बालकों से बुद्धि की दृष्टि से श्रेष्ठ होते हैं। मनोवैज्ञानिकों का यह मानना है कि विशिष्ट बालक बुद्धि के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में भी यह सामान्य बालकों से आगे होते हैं। ऐसे बालक शारीरिक गठन, सामाजिक समायोजन, व्यक्तित्व गुणों, रुचियों, उपलब्धियों में भी सामान्य बालकों से श्रेष्ठ होते हैं।

 

3. अधिगम असमर्थ (Learning Disabled)

 

पिछले कुछ वर्षों में विद्यालयों में अधिगम असमर्थ बालकों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। शिक्षा शास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों, प्रशासकों का ध्यान इनकी तरफ आकृष्ट हुआ है। हालांकि इनको विशिष्ट बालकों की श्रेणी में नहीं रखा गया तथापि इनकी तरफ उचित ध्यान देने की अति आश्यकता है।अधिगम असमर्थ बालकों की पहचान करना माता-पिता, अध्यापक तथा दूसरे लोग जो शिक्षा से सम्बन्धित हैं, का कर्त्तव्य है। वे इनकी पहचान करके उनकी शिक्षा आदि में सुधार के उपाय खोजें। ये साधारण बालकों की अपेक्षा धीमी गति से कार्य करते हैं। इनकी बुद्धि- लब्धि 85-90 तक होती है।

 

4. मन्द बुद्धि (Mentally Retarded)

 

जो बालक बुद्धि की दृष्टि से सामान्य बालकों से कम होते हैं ऐसे बालकों को मानसिक रूप से पिछड़ा बालक कहते हैं। इन्हें मन्द बुद्धि बालक, मानसिक विकलांग तथा मानसिक मन्दन भी कहा जाता है। इन बालकों की बुद्धि लब्धि 75 या इससे कम होती है। ये बौद्धिक प्रवीणता, संवेगात्मक स्थिरता व सामाजिक परिपक्वता अर्जित करने में मन्दन प्रदर्शित करते हैं। शारीरिक रूप से बालिग हो जाने पर भी इनका व्यवहार अपनी उम्र से कम उम्र के बच्चों जैसे होता है। वे अपने पूर्व अनुभव से लाभ नहीं उठा सकते क्योंकि उनमें सीखने, सोचने- समझने, व्यक्त करने की योग्यता न के बराबर होती है।

 

1. मूर्ख-बुद्धि (Morons)-जिन बालकों की बुद्धि-लब्धि 51-75 होती है वे मूर्ख- बुद्धि कहलाते हैं। वे केवल 4-5 कक्षा तक ही पढ़ सकते हैं। वह साधारण कार्य जैसे झाडू लगाना, बर्तन धोना, कपड़े धोना, घास काटना, पशुओं की देखभाल करना आदि कार्य कर सकते हैं। समाज में यह साधारण बालकों की तरह स्वतन्त्रतापूर्वक जीवनयापन करने में असमर्थ होते हैं। शारीरिक रूप से यह साधारण बालकों की तरह ही होते हैं लेकिन उनकी उपलब्धियां सीमित होती हैं। ऐसे बालक प्रायः असामाजिक कार्यों में लिप्त हो जाते हैं।

 

2. मूढ़-बुद्धि (Imbeciles)-इस श्रेणी के बालकों की बुद्धि-लब्धि 26-50 तक होती है। इनमें मानसिक योग्यताओं का अभाव होता है। शारीरिक तौर पर इनके सिर, हाथ, पैर तथा शरीर में असमानता होती है। ऐसे बालकों को उचित प्रशिक्षण के द्वारा देखभाल के लिये प्रेरित किया जा सकता है। वे सरल संकेतों को समझ सकते हैं। वे छोटे-छोटे कार्य जैसे स्नान करना, शौचालय जाना, कपड़े पहनना, खाना खाना आदि स्वयं कर सकते हैं लेकिन दूसरों की देखभाल की इनको आवश्यकता पड़ती है। उचित निर्देशन व प्रशिक्षण के द्वारा इनको थोड़ा बहुत पढ़ना-लिखना भी सिखाया जा सकता है।

 

3. जड़-बुद्धि (Idiots)-जिन बालकों की बुद्धि-लब्धि 25 से कम होती है, उन्हें जड़- बुद्धि कहा जाता है। ऐसे बालक स्वयं कुछ भी नहीं कर सकते। शिशुओं की भांति उन्हें नहलाया-धुलाया तथा भोजन कराया जाता है। इनका शारीरिक विकास भी ठीक प्रकार से नहीं होता। वे साधारण से साधारण कार्य भी नहीं कर सकते। इनका स्वास्थ्य दुर्बल होता है तथा इनकी देखभाल के लिये एक व्यक्ति की आवश्यकता होती है।

 

2. शारीरिक दृष्टि से विशिष्ट बालक (Physically Exceptional Children)

 

शारीरिक दृष्टि से विशिष्ट बालकों को भी चार प्रमुख श्रेणियों में बांटा गया है। इस प्रकार के बालक शारीरिक दोषों से युक्त होते हैं।

 

1. पूर्ण अन्धे व कम देखने वाले (Blind and Partially Blind)-शारीरिक दोषों में अन्धापन को अभिशाप माना गया है क्योंकि मानव देखकर ही काफी हद तक ज्ञान अर्जित करता है। कुछ बालक जन्म से अन्धे होते हैं तथा कुछ जन्म के पश्चात् दुर्घटना, चोट, गलत दवाई के प्रयोग आदि से बिल्कुल अन्धे हो जाते हैं। संसार इनके लिये अन्धकारमय होता है। ये परमात्मा द्वारा बनाए संसार को नहीं देख सकते। इनको वास्तविक जीवन में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। जिन बालकों की दृष्टि-एक्विटी 20/200 से 70/200 तक होती है वे दृष्टि-दोष बालक कहलाते हैं। सामान्य बालक एक वस्तु को 200 फुट दूरी से देख सकता है लेकिन दोष-दृष्टि वाला बालक उसको 20 फुट की दूरी से ही देख सकता है। चश्मे के द्वारा इसके दृष्टि-दोष को दूर किया जा सकता है। पूर्ण रूप से अन्धे बालक को सामान्य बालकों के साथ भी पढ़ाया जा सकता है लेकिन उनको काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है। उनको ब्रेल लिपि तथा बोलने वाली किताबों के द्वारा पढ़ाना आसान होता है। कम देखने वाले बालकों को मोटे प्रिन्ट की किताबों के द्वारा आसानी से पढ़ाया जा सकता है।

 

2. श्रवण दोष (Hearing Impaired)-हमारे स्कूलों में या स्कूल न जाने वालों की उम्र के काफी बच्चों को सुनने की समस्या है। कुछ बालक बिल्कुल ही बहरे होते हैं। यह बहरापन जन्म-जात या जन्म के पश्चात् बीमारी, चोट, दुर्घटना आदि के कारण हो सकता है। साधारण जीवन में उनको काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। कुछ बालकों को कम सुनाई या ऊंचा सुनाई देता है। जो बिल्कुल बहरे होते हैं उनको विशेष शिक्षा की आवश्यकता होती है तथा जिनको ऊंचा सुनाई देता है उनको सामान्य बालकों के साथ पढ़ाया जा सकता है। कक्षा में अध्यापक बालक के व्यवहार को देखकर यह पता लगा सकता है कि बालक को ऊंचा सुनाई देता है या नहीं। पहले यह समझा जाता था कि बहरा बालक बुद्धिमान नहीं हो सकता लेकिन खोजों ने यह सिद्ध कर दिया है कि बहरा बालक भी बुद्धिमान हो सकता है।

 

3. वाणी-दोष (Speech Impaired)- मानव एक सामाजिक प्राणी है। दूसरों के सामने वह अपने विचारों को मौखिक रूप से व्यक्त करने की क्षमता रखता है। यदि वह अपने विचारों को उचित व साफ रूप से सुनने वालों को व्यक्त नहीं कर पाता तो उसके बोलने के ढंग में कुछ कमी है। स्कूलों में इस प्रकार के बच्चों की संख्या काफी होती है। हम लिखने से अधिक बोलते हैं अतः हमारी आवाज़ साफ होनी चाहिये। मुख्यतया वाणी दोष निम्न हैं-

 

1. उच्चारण दोष (Pronunciation Defects)

 

2. हकलाना (Stammering)

 

3. आवाज़ की समस्या (Voice Problem)

 

4. अंगीय वाणी दोष (Organic Speech Defects)

 

5. सुनने की समस्या (Hearing Impairment)

 

6. वाणी का विकास (Development of Speech)

 

अधिकतर बालकों में उच्चारण का दोष पाया जाता है। प्रायः 100 में से 3 बालक इस समस्या से ग्रस्त होते हैं।

 

4. शारीरिक दोष (Physically Handicapped)-विद्यालयों में ऐसे बालकों की संख्या भी काफी होती है जो शारीरिक रूप से स्वयं विद्यालय जाने में असमर्थ होते हैं। विद्यालय जाने के लिये उनको किसी बाहरी सहायता की आवश्यकता होती है। शारीरिक दोषों को हम दो भागों में बांट सकते हैं-

 

1. अपंगता

 

यह अपंगता दो प्रकार की होती है- 

 

क) कम पंगु (Mildly Crippled)-जो बालक कम पंगु होते हैं तथा उनकी साधारण दिनचर्या में व्यवधान नहीं पड़ता तथा उनका इलाज हो सकता है।(ख) गंभीर पंगु (Severly Crippled)- यह अपंगता शारीरिक रूप से अधिक गंभीर होती है तथा बालक को बाहरी सहारे की आवश्यकता पड़ती है। उनकी इस अपंगता से उनकी दिनचर्या में व्यवधान पड़ता है।

 

2. विशेष स्वास्थ्य अपंगता (Special Health Impairment)

 

इस अपंगता को भी हम निम्न भागों में बांट सकते हैं-

 

(क) दिमागी अपंगता (Neurological Impairment)

 

(ख) मांसपेशियां ढांचा समस्या (Muscular Skelton Problem)

 

(ग) दिमागी व दुर्घटना के कारण कुरूपता (Deformity Due to Disease and Accident)

 

(घ) मस्तिष्क लकवा (Cerebral Palsy)

 

(ङ) अंग भंग (Limb Malformation)

 

(च) जुड़े पैर (Club Foot)

 

(छ) बीमारी (Illness)

 

3. सामाजिक दृष्टि से विशिष्ट बालक (Socially Impaired Children)

 

इस श्रेणी में मुख्यतया दो प्रकार के बालक आते हैं। ये दोनों प्रकार के बालक घर, विद्यालय तथा समाज के लिये सिरदर्द होते हैं।

 

1. बाल अपराधी (Juvenile Delinquent)

 

सामाजिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिये कुछ कानून होते हैं। इनका पालन करना सबके लिये अनिवार्य होता है। यदि कोई इन कानूनों का उल्लंघन करता है और समाज विरोधी कार्य करता है तो उसके इस कार्य को अपराध कहा जाता है। यदि इसी प्रकार का कार्य अगर कोई बालक करता है तो उसे बाल अपराधी (Delinquent Child) कहा जाता है। कानून की दृष्टि से भारत में बाल अपराधी 8 से 18 वर्ष तक की आयु वाला बालक है। अगर वह कानून को भंग करता है, उसके व्यवहार से यदि दूसरे का जीवन खतरे में पड़ जाता है तो वह अपराधी कहलाता है। इस प्रकार जो बालक असामाजिक तथा असामान्य व्यवहार करता है, समाज के नियमों का पालन नहीं करता तथा शान्ति भंग करता है, वह बाल अपराधी बालक कहलाता है।"हम उस बालक को अपराधी कहेंगे जिसकी समाज विरोधी प्रवृत्तियां इतनी बढ़ जाती हैं कि प्रशासन को उसके विरुद्ध कोई न कोई कार्यवाही करनी पड़ती है।" - बर्ट

 

इससे स्पष्ट है कि बाल अपराधी बालक वह है जो समाज विरोधी कार्य करता है अर्थात् चोरी करता है, लड़ाई-झगड़ा करता है, सरकारी इमारत को नुकसान पहुंचाता है। इन कार्यों को करने के फलस्वरूप, प्रशासन उस बालक के विरुद्ध कार्यवाही करता है व उसे सजा देता है ताकि उसे सुधार कर सही दिशा में लाया जा सके।

 

2. समस्यात्मक बालक (Problematic Child)

 

जो बालक समाज द्वारा निर्धारित मान्यताओं व नियमों को अस्वीकार कर देते हैं, वे समस्यात्मक बालक कहलाते हैं। समस्या पैदा करने वाले बालक प्रायः हर विद्यालय व कक्षा में पाये जाते हैं। इन बालकों का मुख्य कार्य अध्यापकों व दूसरे छात्रों को परेशान करना है। इन बालकों की कोई अलग श्रेणी नहीं होती। ये सामान्य बालक भी हो सकते हैं तथा सृजनात्मक, प्रतिभावान, मन्द बुद्धि व पिछड़े बालकों में से भी हो सकते हैं। अतः यह आवश्यक नहीं कि समस्यात्मक बालक प्रतिभावान व सृजनात्मक अथवा पिछड़ा या मन्द- बुद्धि है। समस्या का सम्बन्ध इनकी शिक्षा से कम बल्कि इनके व्यवहार से अधिक होता है। व्यवहार की जटिलता का सम्बन्ध परिस्थितियों से है। एक परिस्थिति एक बालक के लिए अनुकूल है तो दूसरे के लिये वही परिस्थिति प्रतिकूल है।

 

समस्यात्मक बालक व बाल अपराधी बालक में अन्तर होता है। बाल अपराधी असामाजिक कार्य करता है लेकिन समस्यात्मक बालक असामाजिक कार्य नहीं करता। समस्यात्मक बालक अपने व्यवहार के कारण दूसरों को दुखी करता है तथा स्वयं भी दुखी रहता है अतः वह असामाजिक नहीं है। बाल अपराधी समस्यात्मक हो सकता है लेकिन समस्यात्मक बालक बाल अपराधी नहीं हो सकता। इन बालकों को जटिल बालक भी कहा जाता है।

 

"जटिल बालक वह बालक है जिसके व्यवहार या व्यक्तित्व में किसी प्रकार की अधिक असामान्यता पाई जाती है।"- वैलन्टीन (Valentine)

 

इससे स्पष्ट है कि जिन बालकों के व्यवहार में असामान्यता पाई जाती है वे बालक जटिल या समस्यात्मक बालक कहलाते हैं। वैसे तो प्रत्येक बालक असामान्य व्यवहार करता है परन्तु यदि वह शीघ्र ही अपने में सुधार कर लेता है तो उसे समस्यात्मक बालक नहीं कहते।

 

उपरोक्त तीन प्रकार की श्रेणियों में विभिन्न प्रकार के बालकों का वर्णन किया गया है। इन बालकों की आवश्यकताओं व उनके मनोविज्ञान को भली-भान्ति समझकर उनके लिये विशिष्ट शिक्षा का प्रबन्ध करना चाहिये। अभी तक इन बालकों को सामान्य बालक समझ कर शिक्षा दी जाती थी। यदि हमें विशिष्ट बालकों का पूर्ण विकास करना है तो उनकी मनोवैज्ञानिक, आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक व संवेगात्मक पृष्ठभूमि का अध्ययन किया जाना चाहिये तथा उनकी आवश्यकताओं, क्षमताओं, योग्यताओं, रुचियों व अभिरुचियों के अनुसार उनको शिक्षा के अवसर प्रदान करने चाहिए।

 

 


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